सोमवार, 22 दिसंबर 2025

संघ के अवलोपीकरण की भागवत की उलटबांसी !


−अरुण माहेश्वरी 


दो दिन पहले कोलकाता में आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने संघ क्या है और क्या नहीं है, इस पर रोशनी डालते हुए अनायास ही अपने संगठन की उस सचाई पर से पर्दा उठा दिया कि आरएसएस माफिया गिरोहों की तर्ज पर एक गोपनीय ढंग से काम करने वाला ऐसा संगठन है जिसका अपना वास्तव में कोई संविधान नहीं है; वह सभी कानूनी- गैर-कानूनी उपायों से समाज पर हिंदू वर्चस्व को कायम करने के लिए अनेक स्तरों पर काम करता है । 

उन्होंने कहा कि संघ क्या है इसे कभी कोई नहीं जान सकता, उसे तो सिर्फ अनुभूत किया जा सकता है । वह अनंत स्तरों पर असंख्य संगठनों के जरिये काम करता है । उसे सिर्फ बीजेपी के कामों के जरिये नहीं पहचाना जा सकता है । 

दरअसल, आरएसएस की अपनी सचाई का बयान करने वाला यह खुद के बारे में उनका कोई नया कथन नहीं है । आरएसएस का शुरू से ही कोई लिखित संविधान नहीं था । उनसे जब संगठन के उद्देश्यों और काम के तौर-तरीकों को स्पष्ट करने के लिए उनके संविधान के बारे में पूछा जाता था, तो उनका एक ही जवाब होता था – ‘भला हिंदू संयुक्त परिवार का भी कोई संविधान होता है ?’ वह तो एक अलिखित, सदियों की परंपराओं से स्वतः निर्मित एक आत्म-शील है, जिसमें बस परिवार के कर्ता की इच्छा ही शिरोधार्य, सर्वोपरि होती है । कर्ता के विवेक को कभी कोई चुनौती नहीं दी जा सकती है । 

इस प्रकार, ‘संयुक्त हिंदू परिवार’ के नाम पर वे हमेशा से एक पूरी तरह से तानाशाह, माफियागिरी के उसूलों पर चलने वाले गोपनीय संगठन की बात ही करते रहे हैं । हास्यास्पद ढंग से इनके लोग संघ को लगभग एक ईश्वरीय सत्ता के रूप में रखते हुए गीता का यह श्लोक भी उद्धृत करते रहे हैं – 

‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः ।

अभ्युत्थानं धर्मस्यः तदात्मानं सृजभ्याहम ।।’

गौर करने की बात है कि आरएसएस का पहला लिखित, एक तथाकथित संविधान (जिसका वास्तव में कोई मूल्य नहीं है) तब बना जब गांधीजी की हत्या के बाद हिरासत में लिये गये इसके प्रमुख सिद्धांतकार गुरु गोलवलकर को तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने मजबूर किया कि वे संघ का एक संविधान तैयार करके अपने उद्देश्यों और काम के तौर-तरीकों की जानकारी सार्वजनिक करें । जेल में रख कर ही उन्होंने गोलवलकर से संघ का संविधान तैयार करवाया । उस संविधान में अस्वाभाविक रूप में यह भी लिखवाया गया कि संघ भारत के राष्ट्रीय झंडे का सम्मान करता है, जो स्वयं में आरएसएस की राष्ट्रीय निष्ठा के बारे में भी बहुत कुछ कहता है !

कहना न होगा, आरएसएस तब भी अपनी किसी स्पष्ट सार्वजनिक पहचान से परहेज करता था ताकि उसके गोपनीय षड़यंत्रकारी कामों के लिए कोई उसे जिम्मेदार न करार सके, और आज भी अपने को हर लौकिक सांगठनिक क्रियाकलाप से, खास तौर पर तमाम प्रकार के भ्रष्टाचार और गैर-कानूनी कामों में लिप्त अभी की बीजेपी सरकार की करतूतों से अलग कर रहा है ताकि इस सरकार के विरुद्ध जमा हो रहे तीव्र जन-असंतोष के रोष के प्रभाव से वह अपने को सुरक्षित रख सके ।

भागवत ने अपने कोलकाता उद्बोधन से संघ को ऐसी आदिम सत्ता में बदलने की कोशिश की जो अपने प्रकट अनंत रूपों से लगभग एक जादू के बल पर अदृश्य शक्ति का रूप ले लेती है । विज्ञान के अनुसार तो संख्यात्मक या परिमाणात्मक परिवर्तन वस्तु में गुणात्मक परिवर्तन का कारण बनता है । पर यहां वे संख्यात्मकता से संघ को बिल्कुल निर्गुण बना देने, अर्थात् उसके गुणात्मक अवलोप की बाजीगरी करना चाहते है, ताकि संघ को उसके कथित विस्तार के हवाले से ही इतना अमूर्त बना दिया जाए कि उसे उसकी गतिविधियों से समाज में पैदा हो रही गलाजतों के अपराध से बिल्कुल मुक्त रखा जा सके । 

हमारे शास्त्रों के अनुसार भी, शक्ति के योग से ही शिव की कोई पहचान होती है, अन्यथा शिव तो शव होता है । जब तक सत्ता का बल से संपर्क नहीं होता, उस पर कोई विमर्श संभव नहीं होता है । प्रमाता के तौर पर वह अवलुप्त होता हैं । संघ को तमाम सचेत विमर्शों से बाहर रखने के लिए ही भागवत सचेत रूप से उसे महज एक अदृश्य, शुद्ध गुण में बदल कर उसके प्रमातृत्व को छिपाना चाहते हैं । यह शुद्ध धार्मिक अद्वैतवादी तर्क का चमत्कार है जो परमशिव को जगत के बाहर अधिष्ठित करके जगत को उसके उल्लास के अनंत रूपों का समुच्चय मानता है ! 

कहना न होगा, जो विमर्श में नहीं आता, वही सबसे अधिक हिंसक होता है।

भागवत कभी नहीं बताते कि असल में आरएसएस क्या है । सिर्फ इस पर बल देते हैं कि वह अन्य जैसा नहीं है; उसे देखा नहीं, सिर्फ महसूस किया जा सकता है ! लेकिन हम भारत के लोग, हर दिन अपने अनुभवों से संघ को सांप्रदायिक जहर फैलाने वाले बहुमुखी नाग के ठोस रूप में देखते हैं । सांप्रदायिक संगठनों के एक समुच्चय, एक संजाल, आज की भाषा में नेटवर्क के रूप में आरएसएस की ठोस पहचान को भागवत अपने थोथे दार्शनिक अंदाज से झुठला नहीं सकते हैं । हम जानते हैं कि जो स्वयं को सब जगह फैलाता है, वही सबसे अधिक ठोस सत्ता होता है।


4 टिप्‍पणियां:

  1. अपनी नीतियों और नफरत की कार्यसूची को अपरिभाषित रखना सोची-समझी फासीवादी रणनीति है।

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  2. संघ विलायती बबूल (Prosopis juliflora) है. जो हरियाली फैलाने के वायदे के साथ आता है. यह बहुत आक्रामक है। यह जमीन से अत्यधिक पानी सोखता है, अपनी जड़ों से ऐसे रसायन (allelopathic chemicals) छोड़ता है जो दूसरे पौधों को नहीं उगने देते, और मिट्टी को बंजर बना देता है।

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