रविवार, 16 दिसंबर 2018

बौहास : 'क्रियात्मकता ही रूप को तय करती है'

—अरुण माहेश्वरी


पिछले साल ही अपनी बर्लिन यात्रा के समय हम वहां के प्रसिद्ध बौहास आर्ट एंड डिजाइन स्कूल को देखने गये थे । इस संस्थान के बारे में हमारी उसी समय से भारी उत्सुकता थी जब हमने हिटलर के काल में जर्मनी के कलाकारों, लेखकों की स्थिति पर खास तौर पर अध्ययन किया था । हमारे यहां मोदी के सत्ता में आने के बाद सबसे पहले तीन जाने-माने बुद्धिवादी लेखकों  दाभोलकर, पानसारे और कलबुर्गी की हत्या से उनके शासन की यात्रा शुरू हुई थी । इसी क्रम में अंतिम शिकार बनी गौरी लंकेश । जब साहित्य अकादमी पुरस्कार-प्राप्त कलबुर्गी की हत्या (1915) हुई उसके बाद ही देश भर से लेखकों ने अपने साहित्य अकादमी के पुरस्कारों को लौटाने का प्रतिवाद आंदोलन शुरू किया था, जिसकी देश-विदेश में भारी अनुगूंज सुनाई दी थी । बुद्धिजीवियों के दमन का वह सिलसिला आज तक जारी है जब हम देखते हैं कि किस प्रकार चंद दिनों पहले ही अर्बन नक्सल के नाम पर कुछ श्रेष्ठ बुद्धिजीवियों को जेल में बंद करके रखा गया है ।

कलबुर्गी की हत्या के समय हमारा ध्यान विशेष तौर पर हिटलर के शासन में लेखकों-कलाकारों की स्थिति पर गया था । उस समय जर्मनी में जगह-जगह यह कहते हुए पुस्तकों की होली जलाई गई थी कि ज्ञान के होम की इस आग की लपटों से जर्मनी में एक नया युग प्रकाशित हो रहा है !

बहरहाल, तभी इस बौहास कला और डिजाईन स्कूल के अभिनव संस्थान के बारे में हमें बहुत कुछ जानने का मौका मिला था जिसका एक प्रमुख नारा था - ‘क्रियात्मकता रूप को तय करती है' (Form follows function) ।
कला की विभिन्न विधाओं में क्रियात्मकता की महत्ता को रेखांकित करने वाले इस नारे ने तब हमारे मन में एक अनोखा रोमांच पैदा किया था, खास तौर पर तब जब हमने जाना कि सिर्फ चौदह साल तक कायम रहे इस संस्थान के कलाकारों और वास्तुशास्त्रियों ने सारी दुनिया में शहरों और इमारतों के विन्यास में क्रांतिकारी परिवर्तन का सूत्रपात किया था । आदमी के आवास और कार्य के स्थानों की क्रियाशीलता से उनके स्वरूप प्रभावित होते हैं, इस समझ ने आधुनिक जीवन के स्वरूप में भारी परिवर्तन का सूत्रपात किया था ।

हिटलर के लोगों ने जर्मनी में वाइमर रिपब्लिक के काल में ही शीर्ष पर पहुंच चुके इस संस्थान को अपने झूठे आडंबरपूर्ण सांस्कृतिक वर्चस्व के रास्ते की बाधा समझ कर इस संस्थान पर और इसके प्रमुख कलाकारों पर नाना प्रकार से हमले करवाने शुरू कर दिये थे । इसके परिणामस्वरूप इसके अधिकांश लोगों को देश छोड़ कर भाग जाना पड़ा था । इसके तमाम कलाकारों को अमेरिका तथा अन्य स्थानों पर फौरन अपना लिया गया और यह भी एक इतिहास का सच है कि इन सभी कलाकारों ने विभिन्न देशों में वास्तुकला के क्षेत्र में अमूल्य योगदान किया था ।

यही वजह थी कि बर्लिन में पहुंचने के बाद ही हमारी उत्सुकता इस संस्थान को देखने की थी और हम किसी प्रकार खोजते हुए इसकी इमारत तक पहुंच भी गये थे । लेकिन वहां जा कर हमें पता चला कि अभी यह संस्थान बंद रखा गया है क्योंकि इसके संग्रहालय को नये रूप में सजाया-संवारा जा रहा है । तभी हमें बताया गया कि आगामी वर्ष बौहास के सौ साल पूरे होंगे और जर्मनी की सरकार उस अवसर को एक बड़े उत्सव के रूप में मनाने की तैयारी कर रही है ।

उल्लेखनीय है कि अभी इस संस्था की शताब्दी को जर्मनी के अलावा चीन, जापान और ब्राजिल में भी धूमधाम से मनाया जा रहा है । जर्मनी के तीन शहरों में, जहां इस संस्था के कामों का विस्तार हुआ था , तीन नये संग्रहालय बनाये जा रहे हैं । इन आयोजनों का यही उद्देश्य है कि यह बताया जा सके कि इस स्कूल के अभिनव कार्य आज की दुनिया में भी कितने प्रासंगिक हैं ।



जर्मनी के एक दूरदर्शी वास्तुकार वाल्टर ग्रोपियस ने इस संस्थान की नींव रखी थी । ग्रोपियस ने अपने समय के वास्तुकारों, मूर्तिकारों और कलाकारों से ‘कारीगरी के प्रारंभिक दिनों में लौटने’ (return to craftsmanship) और इन प्रत्येक विधा के लोगों से ‘भविष्य के नये भवन की रचना’ (create the new building of the future) का आह्वान किया था । ग्रोपियस के बाद इस संस्था के प्रमुख के तौर पर जाने-माने वास्तुकार हेन्स मेर और लुडविग मीस वैन डेरोहा ने भी काम किया ।

बौहास का अर्थ है ‘भवन गृह’ ( house of building) । इसके घोषणापत्र में ग्रोपियस ने कहा था कि “प्रत्येक कला का अंतिम लक्ष्य भवन है ।” लेकिन इस संस्था के थोड़े से दिनों में ही इसने सिर्फ वास्तुकारों को नहीं, बल्कि चित्रकला से लेकर फर्नीचर से रंगमंच तक के नामी-गिरामी कलाकारों और रूपाकारों को अपने दायरे में ले लिया था ।

इन सब कलाकारों में सिर्फ एक ही समानता थी कि ये दुनिया को एक नये रूप में देखते हुए कुछ नया, अभिनव करने के लिये प्रतिज्ञाबद्ध थे । इन्होंने वास्तुकला और रूपाकारों को एकदम न्यूनतम जरूरत के स्तर पर उतारते हुए विवेक और क्रियाशीलता पर बल दिया, थोथे अलंकरण की उपेक्षा की । कारीगरी को उत्कृष्ट, टिकाऊ और सब के लिये उपलब्धता के पैमाने के साथ जोड़ा । टिकाऊपन पर बल देने की वजह से बौहास के लोग अपने समय से आगे के लोग थे । इसके मातहत तब कला, कारीगरी और तकनीक एकमेक हो गई थी ।

जर्मनी के वाइमर शहर में 1919 से शुरू हुए इस स्कूल की शाखा 1932 में ही बर्लिन में खुली थी और 1933 में नाजियों ने इसे बंद करा दिया । लगभग सिर्फ 14 साल तक रहे इस स्कूल के छात्रों की संख्या कुल मिला कर सिर्फ 150 रही । लेकिन इन सबने बाद के दिनों में अमेरिका सहित अन्य कई देशों में वास्तु-दर्शन पर गहरा असर डाला । बौहास की डिजाइनें भले ही लोगों के लिये आरामदेह न रही हो, लेकिन उनसे दुनिया को दूसरे, और बदले हुए रूप में देखने की उनकी मंशा साफ जाहिर होती थी । यही वजह है कि आज भी यह वास्तुजगत के लोगों के लिये प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है ।

हम भी यहां फिर दोहरायेंगे — क्रियाशीलता ही रूप को अपनाती है ।




मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

अब समय ‘महागठबंधन’ की दिशा में बढ़ने का है


-अरुण माहेश्वरी

पांच राज्यों के चुनाव में मोदी पार्टी की पराजय के बाद शायद यह कहने की जरूरत नहीं रह गई है कि भारत में मोदी शासन की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है  

साल भर पहले तक मोदी और उनकी छाया अमित शाह आगामी पचास सालों तक सत्ता पर बने रहने की हुंकारे भर रहे थे, अमित शाह भाजपाइयों को जीत की आदत डालने का कुसंदेश सुनाया करते थे और मोदी अपने को छप्पन इंच की छाती वाले दानवी रूप में पेश करके हिटलरी अहंकार का परिचय दे रहे थे - देखते-देखते अासमान में उड़ रहे इन स्वेच्छाचारियों के परों को भारत के लोगों ने कतरना शुरू कर दिया है  

अब वह दिन दूर नहीं होगा, जब ये निष्ठुर अत्याचारी किसी काल कोठरी के अंधेरे कोने में दुबके हुए पड़े दिखाई देंगे  

हमारे प्रिय लेखक यू आर अनंतमूर्ति ने इनके चरित्र को भांपते हुए 2013 में ही कहा था कि मोदी के सत्ता पर आने पर वे भारत छोड़ कर चला जाना पसंद करेंगे अनंतमूर्ति इनके शासन में आने के बाद ज्यादा दिन जिंदा नहीं रहे थे लेकिन मोदी कंपनी से जुड़े आतंकवादियों ने मोदी के आने के पहले से ही नरेंद्र दाभोलकर की हत्या (2013) से जो अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले का जो सिलसिला शुरू किया था, पानसारे और  कलबुर्गी की हत्याओं (2015) और गौरी लंकेश की हत्या (2016) से अनंतमूर्ति के उस कथन की सचाई को प्रमाणित कर दिया कि मोदी शासन भारत को स्वतंत्रता-प्रेमी लेखकों और बुद्धिजीवियों के रहने के लिये उपयुक्त जगह नहीं रहने देगा हाल मेंअर्बन नक्सलके झूठे और घृणित अभियोगों पर मोदी-शाह ने खुद केंद्रीय स्तर से पहल करके हमारे देश के कुछ बहुत सभ्य और उच्च स्तर के बुद्धिजीवियों को जेल में बंद कर दिया है  

हम भारत में 19 महीने के आंतरिक आपातकाल के साक्षी रहे हैं लेकिन उस काल में भी किसी लेखक-बुद्धिजीवी की हत्या नहीं हुई थी और उस पूरे काल में शुरू के दो महीनों तक जिस प्रकार की सेंशरशिप का आतंक था, वह भी आगे नहीं रहा था लेकिन मोदी शासन के अब तक के ये पूरे साढ़े चार साल हर लेखक, पत्रकार और मीडियाकर्मी के लिये शायद जीवन का सबसे आतंककारी समय रहा है सिर्फ शासन का डर, बल्कि मोदी-शाह की निजी ट्रौल सेना के आतंक ने तो अकल्पनीय स्थिति पैदा कर रखी है। 

और जो सिलसिला शुरू में बुद्धिजीवियों-लेखकों पर हमलों से शुरू हुआ था , उसने सीधे जनता पर अत्याचारों का रूप लेने में ज्यादा समय नहीं लगाया नोटबंदी की तरह का तुगलकीपन और जीएसटी की कुव्यवस्था इसी सनकी मानसिकता की उपज रही है। अंत तक आते-आते तो इस सनकीपन ने राष्ट्र की बाकी सभी जनतांत्रिक और संवैधानिक संस्थाओं को अंदर से तोड़ना शुरू कर दिया है सुप्रीम कोर्ट, सीबीआई और आरबीआई के अंदर मचा हुआ कुहराम तो अब सारी दुनिया जानती है आयकर विभाग, ईडी, नीति आयोग आदि की तरह की संस्थाओं के दुरुपयोग ने तो सारे रेकर्ड तोड़ दिये हैं  

जनतंत्र का एक गहरा तात्विक अर्थ है कानून का शासन जनता के बहुमत के साथ समाज के निर्माण में स्वतंत्रता और समानता की चेतना के अवबोध से निर्मित सामाजिक चित्त का शासन जनता अपने शासक को चुनती है और उसे कानून के शील का पालन करते हुए शासन चलाने का आदेश देती है वह शील जो नागरिकों और शासकों, दोनों पर समान रूप से लागू होता है, मनुष्यता की मुक्ति के लक्ष्य के परिप्रेक्ष्य में निर्मित होता है, और मनुष्य के अंतर और बाह्य के व्यवस्थित समुच्चय का एक परम रूप है इस परम के प्रति जनता भले ही हमेशा सचेत रहे, लेकिन शासक का मूल दायित्व इसका पालन करना और इसकी पालना को अधिकतम सुनिश्चित करना होता है  

यही वजह है कि जनतंत्र में शासक का दायित्व हमेशा एक चुनौती भरा कठिन दायित्व होता है इसमें किसी व्यक्ति या समूह के निजी हित नहीं, एक सामूहिक सामाजिक चेतना के द्वारा समाज के लिये निर्धारित हितों को साधना होता है इसके लिये सभी जरूरी कानूनी, शासकीय और न्यायिक कार्रवाइयों के लिये प्रयत्नशील रहना ही शासन का प्रमुख दायित्व होता है  

जनतंत्र में शासन में आकर कोई भी शासक दल जब अपने इन मूलभूत दायित्वों से भटक कर निजी या समूह विशेष के हितों को साधने लगता हैं, वह जनतंत्र के मानदंडों पर भ्रष्टाचार कहलाता है ऊपर से जो शासक निर्धारित तौर-तरीकों का नग्न उलंघन करते हुए अपने लोगों के स्वार्थों को साधता है, वह तो कानून में अपराधी कहलाता है, जनहितों की उपेक्षा करके चलने वाला जन-विरोधी मात्र नहीं  

मोदी शासन जनतंत्र की इन सभी कसौटियों पर पूरी तरह से विफल एक हत्यारे और अत्याचारी शासन के रूप में सामने आया है इसीलिये हम इसे फासिस्ट अपराधी शासन कहते हैं  


कल के इन पांच राज्यों के चुनावों ने इस फासीवादी शासन को पराजित करने का एक मजबूत आधार और नीतिगत संदेश और दिशा-संकेत प्रदान किया है सभी जनतंत्र-प्रिय और धर्म-निरपेक्ष ताकतों के महागठबंधन के निर्माण से इन फासिस्टों को धूलिसात किये बिना भारतीय जनतंत्र की संभावनाओं के रास्ते कभी नहीं खुलेंगे