मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

अब समय ‘महागठबंधन’ की दिशा में बढ़ने का है


-अरुण माहेश्वरी

पांच राज्यों के चुनाव में मोदी पार्टी की पराजय के बाद शायद यह कहने की जरूरत नहीं रह गई है कि भारत में मोदी शासन की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है  

साल भर पहले तक मोदी और उनकी छाया अमित शाह आगामी पचास सालों तक सत्ता पर बने रहने की हुंकारे भर रहे थे, अमित शाह भाजपाइयों को जीत की आदत डालने का कुसंदेश सुनाया करते थे और मोदी अपने को छप्पन इंच की छाती वाले दानवी रूप में पेश करके हिटलरी अहंकार का परिचय दे रहे थे - देखते-देखते अासमान में उड़ रहे इन स्वेच्छाचारियों के परों को भारत के लोगों ने कतरना शुरू कर दिया है  

अब वह दिन दूर नहीं होगा, जब ये निष्ठुर अत्याचारी किसी काल कोठरी के अंधेरे कोने में दुबके हुए पड़े दिखाई देंगे  

हमारे प्रिय लेखक यू आर अनंतमूर्ति ने इनके चरित्र को भांपते हुए 2013 में ही कहा था कि मोदी के सत्ता पर आने पर वे भारत छोड़ कर चला जाना पसंद करेंगे अनंतमूर्ति इनके शासन में आने के बाद ज्यादा दिन जिंदा नहीं रहे थे लेकिन मोदी कंपनी से जुड़े आतंकवादियों ने मोदी के आने के पहले से ही नरेंद्र दाभोलकर की हत्या (2013) से जो अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले का जो सिलसिला शुरू किया था, पानसारे और  कलबुर्गी की हत्याओं (2015) और गौरी लंकेश की हत्या (2016) से अनंतमूर्ति के उस कथन की सचाई को प्रमाणित कर दिया कि मोदी शासन भारत को स्वतंत्रता-प्रेमी लेखकों और बुद्धिजीवियों के रहने के लिये उपयुक्त जगह नहीं रहने देगा हाल मेंअर्बन नक्सलके झूठे और घृणित अभियोगों पर मोदी-शाह ने खुद केंद्रीय स्तर से पहल करके हमारे देश के कुछ बहुत सभ्य और उच्च स्तर के बुद्धिजीवियों को जेल में बंद कर दिया है  

हम भारत में 19 महीने के आंतरिक आपातकाल के साक्षी रहे हैं लेकिन उस काल में भी किसी लेखक-बुद्धिजीवी की हत्या नहीं हुई थी और उस पूरे काल में शुरू के दो महीनों तक जिस प्रकार की सेंशरशिप का आतंक था, वह भी आगे नहीं रहा था लेकिन मोदी शासन के अब तक के ये पूरे साढ़े चार साल हर लेखक, पत्रकार और मीडियाकर्मी के लिये शायद जीवन का सबसे आतंककारी समय रहा है सिर्फ शासन का डर, बल्कि मोदी-शाह की निजी ट्रौल सेना के आतंक ने तो अकल्पनीय स्थिति पैदा कर रखी है। 

और जो सिलसिला शुरू में बुद्धिजीवियों-लेखकों पर हमलों से शुरू हुआ था , उसने सीधे जनता पर अत्याचारों का रूप लेने में ज्यादा समय नहीं लगाया नोटबंदी की तरह का तुगलकीपन और जीएसटी की कुव्यवस्था इसी सनकी मानसिकता की उपज रही है। अंत तक आते-आते तो इस सनकीपन ने राष्ट्र की बाकी सभी जनतांत्रिक और संवैधानिक संस्थाओं को अंदर से तोड़ना शुरू कर दिया है सुप्रीम कोर्ट, सीबीआई और आरबीआई के अंदर मचा हुआ कुहराम तो अब सारी दुनिया जानती है आयकर विभाग, ईडी, नीति आयोग आदि की तरह की संस्थाओं के दुरुपयोग ने तो सारे रेकर्ड तोड़ दिये हैं  

जनतंत्र का एक गहरा तात्विक अर्थ है कानून का शासन जनता के बहुमत के साथ समाज के निर्माण में स्वतंत्रता और समानता की चेतना के अवबोध से निर्मित सामाजिक चित्त का शासन जनता अपने शासक को चुनती है और उसे कानून के शील का पालन करते हुए शासन चलाने का आदेश देती है वह शील जो नागरिकों और शासकों, दोनों पर समान रूप से लागू होता है, मनुष्यता की मुक्ति के लक्ष्य के परिप्रेक्ष्य में निर्मित होता है, और मनुष्य के अंतर और बाह्य के व्यवस्थित समुच्चय का एक परम रूप है इस परम के प्रति जनता भले ही हमेशा सचेत रहे, लेकिन शासक का मूल दायित्व इसका पालन करना और इसकी पालना को अधिकतम सुनिश्चित करना होता है  

यही वजह है कि जनतंत्र में शासक का दायित्व हमेशा एक चुनौती भरा कठिन दायित्व होता है इसमें किसी व्यक्ति या समूह के निजी हित नहीं, एक सामूहिक सामाजिक चेतना के द्वारा समाज के लिये निर्धारित हितों को साधना होता है इसके लिये सभी जरूरी कानूनी, शासकीय और न्यायिक कार्रवाइयों के लिये प्रयत्नशील रहना ही शासन का प्रमुख दायित्व होता है  

जनतंत्र में शासन में आकर कोई भी शासक दल जब अपने इन मूलभूत दायित्वों से भटक कर निजी या समूह विशेष के हितों को साधने लगता हैं, वह जनतंत्र के मानदंडों पर भ्रष्टाचार कहलाता है ऊपर से जो शासक निर्धारित तौर-तरीकों का नग्न उलंघन करते हुए अपने लोगों के स्वार्थों को साधता है, वह तो कानून में अपराधी कहलाता है, जनहितों की उपेक्षा करके चलने वाला जन-विरोधी मात्र नहीं  

मोदी शासन जनतंत्र की इन सभी कसौटियों पर पूरी तरह से विफल एक हत्यारे और अत्याचारी शासन के रूप में सामने आया है इसीलिये हम इसे फासिस्ट अपराधी शासन कहते हैं  


कल के इन पांच राज्यों के चुनावों ने इस फासीवादी शासन को पराजित करने का एक मजबूत आधार और नीतिगत संदेश और दिशा-संकेत प्रदान किया है सभी जनतंत्र-प्रिय और धर्म-निरपेक्ष ताकतों के महागठबंधन के निर्माण से इन फासिस्टों को धूलिसात किये बिना भारतीय जनतंत्र की संभावनाओं के रास्ते कभी नहीं खुलेंगे  

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