रविवार, 22 सितंबर 2019

बाबरी मस्जिद-राममंदिर मामला भारत में चल रहे कानून के वास्तविक चरित्र को परिभाषित करेगा

—अरुण माहेश्वरी


सुप्रीम कोर्ट में बाबरी मस्जिद विवाद पर अभी लगातार सुनवाई चल रही है । इस देश में एनआरसी की जंग को छेड़ने वाले अभी के मुख्य न्यायाधीश की अगुवाई की पांच सदस्यों की संविधान पीठ इसमें लगी हुई है ।

मुख्य न्यायाधीश नवंबर महीने में सेवा-निवृत्त होने वाले हैं । वे इसके पहले ही इस मामले को निपटा देना चाहते हैं । इस मामले की सुनवाई में जिस प्रकार रात-दिन एक किया जा रहा है, उससे लगता है जैसे अब मामला न्याय से कहीं ज्यादा मुख्य न्यायाधीश की सेवा-निवृत्ति की तारीख से होड़ का हो गया है । वे चाहते हैं कि अक्तूबर तक सुनवाई पूरी हो जाए ताकि सुप्रीम कोर्ट छोड़ने और केंद्र सरकार की दी हुई कोई दूसरी चाकरी में लगने के पहले वे इस अभागे भारत पर अपनी कीर्ति की कोई महान छाप छोड़ जाए !

यह मामला जिस प्रकार अभी चलता दिखाई दे रहा है, और भाजपा के नेता सुप्रीम कोर्ट को लेकर जिस प्रकार के अश्लील से उत्साह से भरे हुए हैं, उनके एक सांसद ने तो साफ शब्दों में कहा भी है कि अभी सुप्रीम मोदी सरकार की मुट्ठी में है, इसे देखते हुए हमें अनायास ही रोमन साम्राज्य के कानून की बातें याद आती हैं ।

कार्ल मार्क्स के कानून के इतिहास के गुरू कार्ल वॉन सेविनी ने रोमन कानून में 'अधिकार/कब्जे के कानून' (लॉ आफ पोसेसन) पर एक महत्वपूर्ण किताब लिखी थी । इसमें रोमन कानून के इस पहलू के बारे में कहते हैं कि रोमन कानून किसी संपत्ति पर अधिकार को उस पर कब्जे का सिर्फ परिणाम नहीं मानता, बल्कि कब्जे को ही किसी अधिकार की आधारशिला मानता है । इस प्रकार, वे कानून की सारी नैतिकतावादी और आदर्शवादी अवधारणा को खारिज कर देते हैं । वे साफ बताते हैं कि कानून, खास तौर पर निजी संपत्ति की पूरी धारणा तर्क से पैदा नहीं होते हैं । यह इतिहास में खास विशेषाधिकार-प्राप्त लोगों के आचार और दस्तावेजों/भाषाओं अर्थात् विचारों में निहित 'कब्जे के भाव' से पैदा होती है ।
“सभी कानून जीवन की बदलती हुई जरूरतों और इन लोगों (विशेषाधिकार-प्राप्त लोगों) के बदलते हुए अभिमतों (मिजाज) पर निर्भर होते हैं, जिनके आदेशों को ही कानून मान कर लोग उनका पालन किया करते हैं ।”

इस प्रकार, सिद्धांत रूप में सेविनी कह रहे थे कि कानून बनाये नहीं जाते, कानून पाए जाते हैं । विवेक का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता है, जब तक वह भाषा और व्यवहार से नहीं जुड़ा होता है । देशकाल से स्वतंत्र विवेक का कोई अस्तित्व नहीं है । विवेक का इतिहास भाषा और संस्कृति से जुड़ा होता है और भाषा और संस्कृति समय के साथ अलग-अलग स्थान पर बदलते रहते हैं । इसीलिये न्याय के किसी भी औपचारिक मानदंड में विवेक को शामिल नहीं किया जा सकता है । (देखें, अरुण माहेश्वरी, बनना कार्ल मार्क्स का, पृष्ठ 63-64)

हमने अपनी उपरोक्त किताब में कार्ल मार्क्स के कानून का दर्शन संबंधी विचारों की पृष्ठभूमि को प्रकाशित करने के लिये इस विषय को थोड़ा विस्तार से रखा है । रोमन कानून एक साम्राज्य का कानून था, राजा और विशेषाधिकार-प्राप्त लोगों की इच्छा और स्वार्थों पर चलने वाले साम्राज्य का कानून । इसके विपरीत, जनतंत्र को जनता के कानून का शासन कहा जाता है, अर्थात् इसमें किसी तबके विशेष की इच्छा नहीं, कानून के अपने घोषित विवेक की भूमिका को प्रमुख माना जाता है । जिसकी लाठी उसकी भैंस जनतांत्रिक कानून की धारणा का एक प्रत्यक्ष निषेध है ।

तथापि, अभी हमारे यहां जनतंत्र पर ही राजशाही किस्म के शासन की जिस प्रणाली को लादने की कोशिशें चल रही है और एक के बाद एक सभी जनतांत्रिक और स्वायत्त संस्थाओं को इससे दूषित किया जा चुका है, उसे देखते हुए यह बाबरी मस्जिद से जुड़ा विवाद भारत के सुप्रीम कोर्ट के लिये किसी अम्ल परीक्षा से कम महत्वपूर्ण नहीं है । इससे पता चलेगा कि हमारे देश पर साम्राज्य के दिनों का कानून पूरी तरह से लौट चुका है, या 'वी द पिपुल' के द्वारा अंगीकृत समाजवादी, जनतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और संघीय राज्य का कानून ।     

शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

चाकर रहसूं, बाग लगासूं नित उठ दर्शन पासूं । श्याम ! मने चाकर राखो जी !


कॉरपोरेट भक्त सरकार की आर्त विनती
—अरुण माहेश्वरी

आज, यानी 19 सितंबर 2019 के दिन को भारतीय पूंजीवाद के इतिहास के ऐसे स्वर्णिम दिन के रूप में याद किया जायेगा जब भारत के कॉरपोरेट जगत ने अपनी ताकत का भरपूर परिचय दिया और 2014 और 2019 में महाबली मोदी के फूल कर कुप्पा हुए व्यक्तित्व में पिन चुभा कर उसे बौना बना के उसे उसकी सही जगह, कॉरपोरेट जगत के चौकीदार वाली जगह पर बैठा दिया, जिस काम के लिये सचमुच बुद्धि की कोई जरूरत नहीं होती है । मोदी कॉरपोरेट के चरणों में पड़े दिखाई दिये । चंद रोज पहले उन्होंने रिजर्व बैंक के हाथ मरोड़ कर उससे जो 1.76 लाख करोड़ झटके थे, लगभग उस पूरी राशि को कॉरपोरेट के चरणों में सौंप कर आज वे धन्य-धन्य हो गये !

दो महीने पहले, जब मोदी की अपनी शान शिखर पर थी, इन्हीं वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट में कारपोरेट को किसी भी प्रकार की अतिरिक्त छूट न देने का बहादुरी का स्वांग रचा था । लेकिन उसके चंद दिनों बाद ही कॉरपोरेट के दबाव की पैंतरेबाजियां शुरू हो गई । ईश्वर ने भक्त को उसकी औकात में लाने का जाल रचना शुरू कर दिया । अर्थ-व्यवस्था का मूल संकट अपने कारणों से, नोटबंदी और जीएसटी की वजह से आम जनता की बढ़ती हुई कंगाली और मांग की भारी कमी से पैदा होने वाली मंदी के कारण था, लेकिन माहौल ऐसा बनाया जाने लगा जैसे कॉरपोरेट ने इस सरकार के खिलाफ हड़ताल की घोषणा कर दी हो और जो हो रहा है, उनके कोपभवन में जाने की वजह से ही हो रहा है । छोटे-बड़े, सारे औद्योगिक घराने खुले आम निवेश के मामले में फूंक फूंक कर कदम उठाने, बल्कि उससे विरत रहने के संकेत देने लगे । कॉरपोरेट की यह मामूली बेकरारी ही सेवक मोदी को नाकारा साबित करने के लिये काफी थी । चारो ओर से उनके निकम्मेपन की गूंज-अनुगूंज सुनाई भी देने लगी । कुल मिला कर, अंत में मोदी ने भगवान के सामने समर्पण कर ही दिया, अर्थात् अर्थ-व्यवस्था के सभी क्षेत्रों के संकट का कॉरपोरेट ने अपने हित में भरपूर लाभ उठाया और मोदी को दो महीने पहले के अपने तेवर को त्याग कर कॉरपोरेट के सामने साष्टांग लेट जाने के लिये मजबूर कर दिया ।

कॉरपोरेट के नग्न सेवक का यह सेवा भाव बैंकों और ऐनबीएफसी के मामलों के वक्त से ही टपकने लगा था और बैंकों को कहा गया था कि उन्हें महाप्रभु कॉरपोरेट को संकट से निकालने के लिये दिन-रात एक कर देने हैं । और अब आज, पिछले बजट के सारे तेवर को त्याग कर दास ने अपने को प्रभु के हाथ में पूरी तरह से सौंप देने का अंतिम कदम उठाया है । इसके बाद से भारत का कॉरपोरेट जगत किस प्रकार के अश्लील उल्लास से फट पड़ा है, इसे एक दिन में शेयर बाजार में 2000 प्वायंट के उछाल से अच्छी तरह से समझा जा सकता है । इसे कहते हैं पूंजीवाद में कारपोरेट की अंतिम हंसी !

निर्मला सीतारमण ने आज जो घोषणाएं की, उन्हें बिन्दुवार इस प्रकार समेटा जा सकता है —
1. कॉरपोरेट टैक्स में भारी कटौती ; कंपनियों पर कर की प्रभावी दर 25.17% होगी जो पहले 34.94 प्रतिशत थी ; दूसरी कोई छूट न लेने पर यह दर सिर्फ 22% होगी ; इस पर भी अतिरिक्त और सबसे बड़ी बात यह रही कि कंपनियों पर अब मैट जमा करने की कोई मजबूरी नहीं रही रहेगी ।
2. मैनुफैक्चरिंग में निवेश करने वाली नई कंपनी पर कॉरपोरेट टैक्स सिर्फ 17.01% होगा ।
3. MAT की दर को कम करके 15% कर दिया ।
4. जो कंपनियाँ बाजार से अपने शेयरों को वापस ख़रीदने में निवेश करना चाहती है, अभी तक के नियमों के अनुसार उनकी इस ख़रीद से होने वाले मुनाफ़े पर कोई उन्हें कोई कर नहीं देना पड़ेगा।
5. जो मोदी सरकार पिछले छ: सालों से औपनिवेशिक शासकों की तरह सिर्फ राजस्व वसूलने में लगी हुई थी जिसके कारण कृषि क्षेत्र की वास्तविक कंगाली के साथ ही कॉरपोरेट क्षेत्र भी अपने को कंगाल बताने लगा था, उसे तक़रीबन सालाना 1.45 लाख करोड़ की राजस्व की राहत दी दी गई ।

निर्मला सीतारमण की इन घोषणाओं से इस प्रकार के एक नतीजे पर भी पहुंचा जा सकता है कि मोदी ने एक प्रकार से भारत को कॉरपोरेट दुनिया के लिये आयकर-मुक्त देश बना दिया है । जो लोग उनकी MAT (Minimum Alternative Tax) संबंधी घोषणा के प्रभाव को नहीं समझ रहे हैं, वे शायद हमारी इस बात को पूरी तरह से नहीं समझ पायेंगे ।

आयकर कानून में मैट, अर्थात् मिनिमम अल्टरनेट टैक्स 1987 में तब लाया गया था जब कंपनियों में कंपनी लॉ के अनुसार अपने खाते तैयार करके मशीनों पर छीजत का लाभ उठा कर, मुनाफ़े को नये निवेश में दिखा कर टैक्स नहीं देने का रुझान बढ़ गया था । तब एक प्रकार के अग्रिम कर के रूप में ही मैट की व्यवस्था की गई ताकि मुनाफा करने वाली हर कंपनी सरकार के राजस्व में हर साल कुछ न कुछ योगदान करती रहे, भले उसके खातों में पुराना घाटा चल रहा हो अथवा तमाम प्रकार की छूटों का लाभ लेने पर उन्हें आयकर को पूरी तरह से बचाने का मौका मिल जाता हो । सिद्धांततः मैट के रूप में चुकाये गये रुपये का कंपनी आगे के सालों में अपनी आयकर की लागत से समायोजन कर सकती है, लेकिन इसमें समय सीमा आदि की कई बाधाओं के चलते आम तौर पर उसे हासिल करना संभव नहीं होता था । इसीलिये मैट अग्रिम आयकर कहलाने के बावजूद वास्तव में एक प्रकार का अतिरिक्त आयकर का ही हो गया था ।

बहरहाल, 1991 में भी, उदारवादी आर्थिक नीति के प्रारंभ में एक बार मैट की बाध्यता ख़त्म कर दी गई थी, लेकिन 1996 में इसे फिर से शुरू कर दिया गया था । अब फिर से एक बार मैट देने की बाध्यता को ख़त्म करके जाहिरा तौर पर पुरानी ज़ीरो टैक्स कंपनी की प्रथा के पनपने की ही जमीन तैयार कर दी गई है । सीतारमण ने साफ कहा है कि मुनाफे पर 22 प्रतिशत आयकर देने वाली कंपनियों पर मैट देने की बाध्यता ख़त्म हो जायेगी ; अर्थात् वे छीजत आदि का पूरा लाभ उठा कर बाकी के मुनाफे पर आयकर चुका पायेगी । इससे अब एक साथ पुराने जमा घाटे को मुनाफ़े के साथ समायोजित कर ज़ीरो टैक्स कंपनी बनने के नये अवसर पैदा कर दिये गये हैं ।

हम यहां फिर से दोहरायेंगे कि भारत के कॉरपोरेट जगत के सामने मोदी जी की सारी हेकड़ी ढीली हो गई है । पिछले कई दिनों से वित्त मंत्रालय में कॉरपोरेट के लोगों का जो ताँता लगा हुआ था, वह असरदार साबित हुआ है । पिछले बजट तक में कॉरपोरेट को कोई छूट नहीं देने का जो रौब गाँठा गया था, वह अब पानी-पानी हो चुका है । और, यह भी साफ हो गया है कि मोदी जी की हेकड़ी का चाबुक सिर्फ ग़रीब किसानों, मज़दूरों और अनौपचारिक क्षेत्र के कमजोर लोगों पर ही चलता है ।

ये चले थे कॉरपोरेट के आयकर-चोरों को जेल में बंद करने, लेकिन अब कॉरपोरेट पर आयकर को ही लगभग ख़त्म सा कर दिया है । अब आयकर वस्तुत: सिर्फ मध्यमवर्गीय कर्मचारियों और दुकानदारों के लिये रह गया है । कॉरपोरेट से आयकर वसूलने के सारे लक्ष्य त्याग दिये गये हैं । कहना न होगा, बहुत जल्द हमें कॉरपोरेट से वसूले जाने वाले आयकर के रूप में राजस्व की अकिंचनता और निरर्थकता के पाठ पढ़ाये जायेंगे । एक अर्से से ‘रोज़गार और संपदा पैदा करने वाले’ कॉरपोरेट का सम्मान करने की जो हवा बनाई जा रही थी, आज उस अभियान का वास्तविक मक़सद सामने आ गया है । भारत कॉरपोरेट के लिये वास्तव अर्थों में एक प्रकार का आयकर-मुक्त देश हो गया है ।

सीतारमण की आज की घोषणाओं में कॉरपोरेट की सामाजिक सेवा ज़िम्मेदारियों के दायरे को भी जिस तरह सरकारी सेवाओं के क्षेत्र में भी ले जाने की पेशकश की गई है, उससे साफ है कि सरकार ने जन-कल्याण के सारे कामों से अपने को पूरी तरह से अलग कर लेने का निर्णय ले लिया है । यह सरकार आर्थिक मंदी के मूल में कारपोरेट की खस्ता वित्तीय हालत और निवेश के प्रति उसकी कथित बेरुखी को देख रही है, जब कि वास्तव में इसके मूल में जनता की बढ़ती हुई कंगाली और आम आदमी की बाजार-विमुखता है । यही वजह है कि यदि कोई यह कल्पना कर रहा है कि सरकार के इन कदमों से अर्थ-व्यवस्था में जान आएगी तो वह मूर्खों के स्वर्ग में वास कर रहा है । यह कॉरपोरेट जगत को जरूर खुशी देंगे । जब तक बाजार में मांग पैदा नहीं होगी, मैनुफैक्चरिंग और उसी अनुपात में रोजगार में वृद्धि की कोई संभावना नहीं बनेगी । अब यह भी साफ पता चल रहा है कि हमारे देश को इस सरकार ने किस भारी संकट में डाल दिया है, इसका डर अब उसे भी सताने लगा है ।







गुरुवार, 19 सितंबर 2019

भाषा के प्रश्न को कभी भी किसी सत्ता के संरक्षण अथवा बंधन से जोड़ कर देखना सही नहीं है

हिंदी दिवस के अवसर पर अभिनंदन समारोह में अरुण माहेश्वरी का वक्तव्य




आज हिंदी दिवस है । इस दिन को इसलिये हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है क्योंकि 14 सितंबर 1948 के दिन ही हमारे देश की संविधान सभा में भारतीय राज्य में हिंदी की स्थिति और भूमिका के बारे में कई फैसले लिये गये थे । उनमें एक प्रमुख फैसला यह था कि हिंदी को भारत की राजभाषा का, अर्थात् सरकारी काम-काज की भाषा का दर्जा प्रदान किया जायेगा । इसमें एक और प्रतिश्रुति भी शामिल थी कि क्रमशः हिंदी को भारत की राष्ट्र भाषा का रूप भी दिया जायेगा । इस मामले में कितना आगे बढ़ा गया, कितना नहीं, यह हमारी चिंता का विषय ही नहीं है ।

यहां हमारे कहने का तात्पर्य सिर्फ यह है कि हिंदी दिवस का यह आयोजन वस्तुतः हिंदी के सरकारी कामों में प्रयोग को मिली एक संवैधानिक स्वीकृति का आयोजन है । जो हिंदी राजस्थान से लेकर बिहार के मिथलांचल तक फैले एक विशाल भू भाग के लोगों की मातृ-भाषा के रूप में विकसित हो रही है और जिसमें ये लगभग पचास करोड़ से ज्यादा लोग अपनी साहित्य-संस्कृति से जुड़ी सूक्ष्मतर भावनाओं का आदान-प्रदान किया करते हैं, हिंदी दिवस का वास्तव में उस, हम सबकी विशेष पहचान और अस्मिता से जुड़ी भाषा से कोई खास संबंध नहीं है । खींच-तान कर कोई भी कुतर्क के जरिये कह सकता है कि भाषाओं की रक्षा और विकास में सरकारी संरक्षण की काफी भूमिका हुआ करती है । लेकिन हम व्यक्तिगत तौर पर इस मत के सर्वथा विरोधी है । बल्कि मानते हैं कि भाषाओं के क्षेत्र में राजसत्ता का दखल भाषा के साथ जुड़ी आदमी की नैसर्गिक स्वतंत्रता के क्षेत्र में दखलंदाजी की तरह है ।

भाषाएं किसी राजसत्ता, दरबार या सरकार के संरक्षण में न जन्म लेती है और न ही विकसित होती है । भाषा को उसके जन्म साथ ही उसकी विमर्श शक्ति से जोड़ कर देखा जाता है, अन्य के साथ संवाद की जरूरत से जोड़ कर देखा जाता है, और विमर्श हमेशा मुक्तिदायक होता है, वह तत्वत: मनुष्य की स्वतंत्रता का प्रतीक होता है ।
हमारे शास्त्रकारों के शब्दों में — “स्वातंत्र्यं हि विमर्श इत्युच्यते, स चास्य मुख्यः स्वभावः । (स्वातंत्र्य ही विमर्श कहलाता है और वह इसका प्रमुख स्वभाव है )

इसीलिये भाषा के प्रश्न को कभी भी किसी सत्ता के संरक्षण अथवा बंधन से जोड़ कर देखना सही नहीं है । यह पनपती, फलती-फूलती है आदमी के भावों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति के क्षेत्र से, साहित्य से, स्वतंत्र विमर्श अर्थात् चिंतन से । अगर सत्ता ही भाषाओं के स्थायित्व का आधार होती तो न हम आज संस्कृत को, न पाली, प्राकृत और फारसी को, और यूरोप में ग्रीक और लैटिन के स्तर की भाषाओं को ही पोस्टमार्टम की मेज पर अध्ययन मात्र के विषय के तौर पर देख रहे होते और न अपभ्रंशों के नाना रूपों के विकास से उत्पन्न आधुनिक भारतीय भाषाओं के इतने बड़े खजाने से अपने देश की वैविध्यमय समृद्धि का उत्सव मना रहे होते ।

बहरहाल, हिंदी हमारी मातृभाषा, हमारे चित्त के प्रसार और हमारे अहम्, हमारे व्यक्तित्व से जुड़ी हमारी समग्र पहचान की भाषा है, इसीलिये इससे जुड़े किसी भी उत्सव में हम अपनी ही समृद्धि का उत्सव मनाने की तरह के सुख का अनुभव करते हैं ।

आप सबको हिंदी दिवस की आंतरिक बधाई देते हैं ।

आज यह अवसर हमारे लिये और भी खास इसलिये हो गया है क्योंकि हम कोलकाता के इस बहुत पुराने क्षेत्र के एक बेहद पवित्र और गौरवपूर्ण स्थल, माहेश्वरी पुस्तकालय में अपने ही लोगों के द्वारा प्रशंसित किये जाने के कार्यक्रम में उपस्थित हुए हैं । यह हमारे लिये किसी आत्म-प्रशंसा के कार्यक्रम से भिन्न कार्यक्रम नहीं है । खुद की खुद के ही लोगों के द्वारा प्रशंसा वृहत्तर अर्थ में आत्म-प्रशंसा ही कहलायेगी । यह क्षेत्र हमारी जन्मभूमि और कर्मभूमि, दोनों ही रहा है और आज तक भी हमारे सपनों में, अर्थात् हमारे अवचेतन में उभरने वाले दृश्यों की आदिम, मूल भूमि । यहां से हम सिर्फ अपने उस आत्म को ही पा सकते हैं, जिसे फ्रायड की तरह के मनोविश्लेषक व्यक्ति के चित्त और उसकी क्रियात्मकता की अभिव्यक्ति की भाषा का उत्स मानते हैं ।   

बहरहाल, आत्म-प्रशंसा, एक आत्मतोष जिसे मनोविश्लेषण की भाषा में एक प्रकार की आत्ममुग्धता भी कहा जाता है, आदमी की यदि एक प्रकार की कमजोरी है तो यही है जिसके जरिये आदमी अपने अहम् के निर्माण की प्रक्रिया में अपने लिये बहुत कुछ अलग से अर्जित भी किया करता है । फ्रायड कहते हैं कि “बच्चे की मोहकता के पीछे भी काफी हद तक उसकी आत्म-मुग्धता, उसका आत्म-तोष और किसी अन्य को अपने पास न आने देने का रुझान काम करता है । ... यहां तक कि साहित्य में आने वाले बड़े-बड़े अपराधी और विनोदी चरित्र भी, अपनी आत्म-मुग्धता के जरिये ही हमें अपनी ओर खींचते हैं, क्योंकि इसी के बल पर वे उन सब चीजों को अपने से दूर रखने में समर्थ होते हैं जो उनके अहम् पर चोट करती है । उनकी यह मौज, एक ऐसी उनमुक्तता जिसे हम काफी पहले गंवा चुके होते हैं, हमारी ईर्ष्या का और इसीलिये हमारे आकर्षण का भी पात्र बनते हैं ।”

लेकिन मजे की बात यह भी है कि अपनी इसी आत्म-मुग्धता के लिये आदमी को कम कीमत नहीं चुकानी पड़ती है । फ्रायड ही अपने 'Introduction to narcissism’ लेख में बताते हैं कि “अपने रूप के प्रति आत्ममुग्ध सुंदरी की मोहकता की वजह से ही अक्सर उसका प्रेमी उससे असंतुष्ट भी रहता है, क्योंकि उसके मन में उस सुंदरी ने उसे क्यों चुना इसके बारे में हमेशा एक संशय का भाव होता है जो उसे उसके प्रेम के प्रति भी शंकित करता है, उसे वह अपने लिये एक पहेली समझता है ।”

अतिशय आत्ममुग्धता, तमाम सामाजिक मानदंडों पर एक मनोरोग मानी जाती है । इसीलिये एक स्वस्थ और संतुलित जीवन के लिये इससे बचने की जरूरत होती है । सभ्य और भद्र आदमी का अकिंचन-भाव आत्म-मुग्धता का ही प्रति-भाव है । यह भी एक विचित्र कारण है जिसके चलते कला और साहित्य की रचनात्मक दुनिया में भद्रता को भी किसी आत्म-दंड से कम दमनकारी नहीं माना जाता है । इसी से कलाकारों के कुछ-कुछ असामाजिक प्रकार के व्यवहार की समझ मिलती है, जिसे समाज के संरक्षणवादी तत्त्व नापसंद करते है और दंड का अधिकारी मानते हैं । जबकि उन्हीं के कामों के जरिये आदमी का आत्मजगत अपने को किसी भी प्रकार की जड़ता से मुक्त करता हुआ मनुष्य के आत्म-प्रसार का रास्ता खोलता है । दुनिया का इतिहास इस बात का गवाह है कि जिस समाज में भी रूढ़िवाद प्रबल होता है, वह समाज खुद को ऐसी अंतरबाधाओं से जकड़ लेता है, जिसमें उसके विकास की संभावनाओं का क्रमशः अस्त होता जाता है ।

जो भी हो, आज संजय ने और माहेश्वरी पुस्तकालय के सभी कर्ता-धर्ताओं ने, जो इस क्षेत्र के इस सच्चे गौरव की रक्षा का भार उठाये हुए हैं, इस आयोजन के जरिये हमें जो मान दिया है, हमारे जीवन में यह अपने किस्म का पहला आयोजन ही है ।

हमारे कवि मुक्तिबोध रचनाधर्मिता और समारोह-धर्मिता को एक दूसरे का शत्रु मानते थे । आज हिंदी में पुरस्कारों की स्थिति से आप सब परिचित ही होंगे । हमने अपने एक लेख में इस तथ्य को नोट किया था कि 'वागर्थ' जैसी पत्रिका में छपने वाले लगभग प्रत्येक लेखक के सर पर एक नहीं, अनेक पुरस्कारों की कलंगी लगी रहती है, जबकि हिंदी के विशाल पाठक समुदाय में लोग उनके नाम से भी परिचित नहीं होते हैं, रचना तो बहुत दूर की बात । साहित्य समाज में जितना अप्रासंगिक होता जा रहा है, पुरस्कारों की संख्या उसी अनुपात में बढ़ती जा रही है । इसीलिये किसी भी प्रकार के पुरस्कार या सार्वजनिक प्रशंसा का लेखक की अपनी पहचान से कितना संबंध हो सकता है, यह बहुत गहरे संदेह का विषय है । तथापि आप तमाम, अपने ही लोगों के बीच उपस्थित होने का सुख ही हमारे लिये कम मूल्यवान नहीं है ।

आप सभी इस मौके पर हमारे साथ कुछ क्षण बिताने के लिये उपस्थित हुए, इसके लिये मैं आप सबके प्रति तहे दिल से आभार व्यक्त करता हूं । इस खुशी के मौके पर अपनी बहक में क्या-क्या बोल गया हूं, उसके लिये इसलिये क्षमाप्रार्थी हूं क्योंकि ये सारी बातें इस आयोजन की औपचारिकता के लिये अनुपयुक्त भी हो सकती है । लेकिन यह ज्ञान का एक सार्वजनिक केंद्र है । शैवमत के महागुरू हमारे अभिनवगुप्त का यह प्रसिद्ध कथन है —
“स्वतन्त्रात्यरिक्तस्तु तुच्छोऽ तुच्छोऽपि कश्र्चन ।
न मोक्षो नाम तन्नास्य पृथङनामापि गृह्यते ।।
(स्वतंत्र आत्मा के अतिरिक्त मोक्ष नामक कोई तुच्छ या अतुच्छ पदार्थ नहीं है । इसीलिये मोक्ष का अलग से नाम भी नहीं लिया जाता, (लक्षण आदि की चर्चा तो बहुत दूर की बात है )

हमारा धर्म ही हमें भैरवी स्वातंत्र्य के भाव को साधने की शिक्षा देता है । हम मोक्ष और वैराग्य के नैगमिक दर्शनों के मिथ्याचारों और दासता के भाव से अपने को जोड़ने के पक्ष में नहीं हैं । इसीलिये हम औपचारिकताओं के नहीं, अनौपचारिकताओं के समर्थक है ।

अंत में कवितानुमा चंद पंक्तियों के साथ मैं अपनी बात खत्म करूंगा —
साफ कहना

एक अनुभव है साफ कहना
जैसे हो नदी का बहना
ढलान में अलमस्त उतरना
पत्थरों की दरारों से
नया रास्ता बनाना
साफ मन का जैसे खुद को कहना ।

जब गुत्थियाँ सुलझती है
तो अंग-अंग बिखर जाते हैं
नदी के रास्ते में उगे शहर
दरारों में समा जाते हैं
सामने का इंद्रजाल
एक पल में
हवा हो जाता है
ज़र्रा-ज़र्रा बिखरा हुआ
एक कातर दृश्य
बनाता है ।

इसी में अभी मैं
ठिठका खड़ा,
आने वाला समय,
प्रतीक्षा में हूँ कि
व्यतीत को बस
उसका ठाव मिल जाए ।

सचमुच
मैं विगत की
राख में लिपटा दिखूँ
वह समय नहीं हूँ ।

इसीलिये साफ कहूँ
अबाध बहूँ
प्रेम का
खुद ही एक संसार बनूँ
यह वासना ही
मेरा ठोस रूप है ।

आप सबको इस आयोजन के लिये अशेष धन्यवाद ।     

गुरुवार, 12 सितंबर 2019

एनआरसी और न्याय का अघटन


-अरुण माहेश्वरी

नई दिल्ली के इंडियन सोसाइटी आफ़ इंटरनेशनल लॉ में इसी 8 सितंबर को एक ‘जन पंचायत’ बैठी जिसमें असम में नागरिकता के सवाल पर भारत के कई प्रमुख पूर्व न्यायाधीशों और क़ानून जगत के विद्वानों ने हिस्सा लिया । विचार का विषय था नागरिकता को लेकर इस विवाद की संवैधानिक प्रक्रिया और इसकी मानवीय क़ीमत । वहाँ सभी उपस्थित कानूनविदों ने एनआरसी के वर्तमान उपक्रम को न सिर्फ संविधान-विरोधी बल्कि मानव-विरोधी कहने में ज़रा भी हिचक नहीं दिखाई । इस विमर्श में सेवानिवृत्त जस्टिस मदन लोकुर, कूरियन जोसेफ़, ए पी शाह, प्रोफेसर फैजान मुस्तफ़ा, श्रीमती सईदा हमीद, राजदूत देब मुखर्जी, गीता हरिहरन आदि कई प्रमुख व्यक्तित्व शामिल थे ।

दरअसल, किसी भी कारण और क्रिया के बीच नियम की तरह कारक की भूमिका हुआ करती है, जो अदृश्य होने पर भी वास्तव में क्रिया के निरूपण में नियामक होता है । अदालत की इमारत और न्यायाधीश की सूरत मात्र न्याय विचार को कोई ठोस शक्ल नहीं देती है । न्याय की प्रक्रिया में ये सब होकर भी नहीं होते हैं । फिर भी,न्याय को किसी भी अघटन से सुरक्षित करने के लिये ही इस प्रक्रिया को एक सुनिश्चित सांस्थानिक रूप देने की कोशिश जारी रहती है। क़ानून यथार्थ के बहुरंगी स्वरूपों के प्रति संवेदनशील बना रहे, इसीलिये कारण और क्रिया के इस उपक्रम में कारक तत्व में लचीलापन काम्य होता है । पर यही लचीलापन कई बार न्याय की जगह अन्याय का हेतु भी बन जाता है ; प्रगति की जगह प्रतिक्रिया का । असम में एनआरसी के मामले में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका भी कुछ ऐसी ही रही है ।

भारत में हर दस साल पर होने वाली जनगणना स्वयं में एक नागरिक रजिस्टर तैयार करने का ही उपक्रम है । 1951 की जनगणना के तथ्यों से ही असम में नागरिक रजिस्टर का जन्म हुआ था । असम में सन् 1971 के बांग्लादेश के मुक्ति युद्ध के काल में बड़ी संख्या में शरणार्थियों का आगमन हुआ था जो बांग्लादेश के उदय के साथ ही वापस अपने देश चले गये थे, लेकिन अपने पीछे वे असम की राजनीति में काल्पनिक आशंकाओं पर आधारित विवाद का एक स्थायी विषय छोड़ गए । इसने ग़रीबी और पिछड़ेपन से पैदा होने वाली ईर्ष्या और नफरत की तरह की अधमताओं कपर टिकी राजनीति को जन्म दिया । तभी असम में असमिया और बांग्ला भाषी लोगों के बीच भ्रातृघाती दंगों का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ जिसने बांग्ला और असमिया भाषा तक को परस्पर के विरुद्ध खड़ा कर दिया था ।

असम गण परिषद इसी समग्र अधमता का एक प्रतीक रही है ।व्यापक रूप से यह झूठी धारणा बनाई गई कि वहाँ से बड़ी संख्या में शरणार्थी वापस नहीं गये और उन्होंने असम की आबादी के स्वरूप को बदल दिया है ; वे असम के सारे संसाधनों को हड़प ले रहे हैं । आरएसएस इस पूरे विवाद को हिंदू-मुस्लिम रूप देने की कोशिश में अलग से लगा रहा ।

1985 में केंद्र सरकार और असम के आंदोलनकारियों  के बीच एक समझौते के बाद ही असम गण परिषद के प्रफुल्ल कुमार महंता की पहली सरकार (1985-89) बनी । फिर 1991 से 1996 तक उनकी दूसरी सरकार भी बनी । लेकिन असम में विदेशी नागरिकों के बसने के बारे में वास्तव में कोई ठोस तथ्य सामने नहीं आएं । पर आरएसएस वालों ने इस झूठी अवधारणा को जरूर ज़िंदा रखा  । खास तौर पर मुसलमानों की आबादी के बारे में वे शेष भारत की तरह ही यहाँ भी लगातार झूठे तथ्य प्रचारित करते रहे ।

इसी बीच 2013 में, जब देश की राजनीति में सांप्रदायिक ताकतें उठान पर थी, नागरिक रजिस्टर के मसले पर अचानक ही सुप्रीम कोर्ट की एक खास भूमिका सामने आई । वर्तमान मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगई और आर एफ नरीमन की दो जजों की बेंच ने एक मामले में केंद्र और राज्य सरकार को निर्देश जारी करके खुद की देख-रेख में पूरे असम में नागरिक रजिस्टर को अद्यतन बनाने का विशाल उपक्रम शुरू कर दिया । आज इस विषय पर जो भारी उथल-पुथल दिखाई दे रही है, यह सुप्रीम कोर्ट के उसी मनमाने फ़ैसले का परिणाम है ।

सुप्रीम कोर्ट की राय में सबसे बुरी टिप्पणी वह थी जिसमें लोगों के बाहर से आकर बसने की प्रक्रिया को राष्ट्र के खिलाफ आक्रमण तक कह दिया गया था । इससे असम में पहले से चली आ रही नफरत की झूठी राजनीति को भी बल मिला । आज जब एनआरसी की एक अंतिम सूची जारी की गई है, लगभग 19 लाख लोगों को सिर्फ नागरिकता की सिनाख्त की प्रक्रियाओं की त्रुटियों की वजह से राज्य-विहीनता की दुश्चिंता में डाल दिया गया है । इस पूरे प्रकरण में यदि असम की स्थानीय राजनीति और आरएसएस की राजनीति की भूमिका थी तो समान रूप से इसमें सुप्रीम कोर्ट की क़ानूनी भूमिका भी कम ख़राब नहीं रही है।

आज का सच यह है कि एनआरसी के पीछे के कारण कुछ भी क्यों न रहे हो, इस एक कदम ने कश्मीर के मसले से जुड़ कर भारत को दुनिया के सबसे घृणित जातीय संहारकारी राष्ट्रों की क़तार में खड़ा कर दिया है । यह लाखों मासूम लोगों को ज़लील और अपमानित करने का और देश में जातीय घृणा को सुनियोजित ढंग से फैलाने का एक जघन्य उपक्रम साबित हो रहा है । हमारे स्वतंत्रता आंदोलन की उदार विरासत पर इसने कालिख पोत दी है ।

सुप्रीम कोर्ट इस प्रक्रिया को उसके तार्किक अंजाम तक पहुँचाने के चक्कर में परिस्थिति को जटिल से जटिलतर करता जा रहा है । इसमें शामिल बाक़ी सारे तत्व आँख मूँद कर बस अदालत के आदेश के पालन में, अथवा अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए हैं । इन सबकों इसके अंतिम परिणामों का उसी प्रकार ज़रा भी ख़याल नहीं है जैसा हिटलर के आदेशों पर अमल करने वाले नौकरशाहों और सरकारी कर्मचारियों को नहीं था ।

विस्थापन और आप्रवासन की मानवीय त्रासदियों पर संयुक्त राष्ट्र के कई मूल्यवान अध्ययन उपलब्ध हैं । 2009 की मानव विकास रिपोर्ट में इसे मनुष्यों की गतिशीलता के सकारात्मक नज़रिये से देखा गया था। पूरा मानव इतिहास ही मनुष्यों की इसी गतिशीलता का इतिहास रहा है । इसके पीछे प्राकृतिक आपदा कारण हो सकती है और बेहतर अवसरों की तलाश भी । संयुक्त राष्ट्र ने अपनी रिपोर्ट में इस तथ्य को नोट किया था कि यदि इस प्रकार के आवागमन के प्रति अनावश्यक रूप में डर पैदा किया जाता है तो इसके परिणाम अत्यंत त्रासद और दुखजनक होते हैं । अन्यथा आप्रवासियों ने ही अब तक तमाम राष्ट्रों को आबाद और विकसित किया है, और आज भी कर रहे हैं ।

भारत में न्याय का प्रहरी ही न्याय के अघटन का कारण साबित हो रहा है ।

बुधवार, 4 सितंबर 2019

गलत राजनीति ही गलत अर्थनीति के मूल में है

—अरुण माहेश्वरी


मोदी जी समझते हैं कि वे जितना कहते हैं, लोग उतना ही समझते हैं । कहने वाले और सुनने वाले के बीच दूसरे ऐसे अनेक अनुभव काम करते रहते हैं जो कहे गये शब्द अपने अर्थ को प्राप्त करें, उसके पहले ही उनकी राह को भटका देते हैं । वे नहीं जानते कि कैसे राजनीतिक साजिशों, सरकारी तंत्र के बेजा प्रयोग से विरोधियों का दमन, हर मामले में स्वेच्छाचार का सिर्फ राजनीतिक नहीं, गहरा अर्थनीतिक संदर्भ भी बन जाता है । यह समग्र रूप से जिस डर के माहौल को तैयार करता है उसमें नागरिक अवसाद-ग्रस्त और बीमार होता है और उपभोक्ता वैरागी बन बाजार से मुंह मोड़ने लगता है । यह सब भारत के लोगों की आमदनी में गिरावट, अर्थात् उनकी बढ़ती हुई गरीबी के मूलभूत कारणों के अतिरिक्त है ।

कुल मिला कर डरा हुआ बीमार उपभोक्ता जहां आर्थिक मंदी का कारण बनता है, वहीं आर्थिक मंदी भी उपभोक्ता को बाजार से और ज्यादा दूर करती है । यह एक भयानक दुष्चक्र है । मौत के भंवर में खींच लेने वाला दुष्चक्र । जैसे मनोरोगी अवसाद में डूबता हुआ आत्म-हत्या के चरम तक जा सकता है, अर्थ-व्यवस्था का व्यवहार भी इससे ज्यादा भिन्न नहीं होता है । उपभोक्ता का डर उसे बाजार से दूर करता है और इससे उत्पन्न मंदी उसकी आमदनी को प्रभावित करती है ; वह बाजार से और दूर जाता है तथा अर्थ-व्यवस्था और गहरी मंदी में धसती चली जाती है । भारत के घरेलू बाजार से जुड़ी अर्थ-व्यवस्था की आज की यही असली कहानी है ।

आज की हालत यह है कि भारत में सकल संचय की दर में भी तेजी से गिरावट आने लगी है । मोदी जब सत्ता में आए थे, यह दर 35 प्रतिशत थी, जो 2017-18 में 30 प्रतिशत हो चुकी है । यहां तक कि पारिवारिक संचय में वृद्धि की दर 17 प्रतिशत पर उतर गई है जो पहले 23 प्रतिशत थी ।

जहां तक अन्तरराष्ट्रीय बाजार का सवाल है, उसके अपने संकट है । यह ट्रेडवार का एक विशेष जमाना है । इसमें किसी के लिये कोई अलग से रियायत नहीं है । जिसके पास रुपया है, ताकत है, वही राजा है । आज जिस दाम पर माल दुनिया के बाजार में बिक रहे हैं, भारत के पास उस दाम पर उनका उत्पादन करने की सिर्फ इसलिये सामर्थ्य नहीं है क्योंकि यहां मुनाफे के बटवारे के अनेक स्तर है । इसमें एक सबसे बड़ा हिस्सेदार तो खुद सरकार बनी हुई है । बैंकों पर सर्वाधिकार सरकार का है, और वे सरकारी दल के भ्रष्टाचार के मुख्य औजार बनी हुई है । इनके जरिये सरकार के करीब के लोगों के बीच रुपये लुटाये जाते हैं जो घूम कर भाजपा की आर्थिक मदद के कारक बनते हैं । भाजपा इसी लूट के भरोसे चुनावों में खरबों खर्च करती है । और भारत में चुनाव हर साल लगे ही रहते हैं, अर्थात् जनता के संचित धन से निवेश के बजाय एक प्रकार की शुद्ध निकासी का यह सिलसिला लगातार जारी रहता है । इसीलिये लाख जुबानी जमा-खर्च के बावजूद ऋणों पर ब्याज की दरें कम नहीं हो पाती है । रिजर्व बैंक की रेपो रेट में छूटों को भी बैंकें अपने घाटे की भरपाई के काम में लगाने की अभ्यस्त हैं । बैंकों की दुरावस्था के चलते ही उत्पादन के आधुनिकीकरण के सारे काम ठप पड़े हैं, जिनसे उत्पाद पर लागत को नियंत्रित किया जा सकता था ।  इसके कारण पड़ौसी छोटे-छोटे देश भी भारत को प्रतिद्वंद्विता में पछाड़ दे रहे हैं ।

बैंकों के हित के लिये ही सरकार ने एक नया कानून बनाया था इन्सोलवेंसी ऐंड बैंकरप्सी एक्ट । लक्ष्य था, सालों से कंपनियों में डूबे हुए धन का दस-बीस-तीस प्रतिशत जो भी हासिल हो जाए, शीघ्र हासिल करके बैंकों की नगदी की हालत को सुधारा जाए । कंपनियों को भी यह सब्ज बाग दिखाया गया कि इस कानून का लाभ उठा कर वे अपनी कंपनी की बेकार पड़ी छीज चुकी संपत्तियों को सलटा कर बैंकों के ऋण के बोझ से मुक्त हो जायेंगे । लेकिन कहना जितना आसान है, उसे करना उतना आसान नहीं होता है । इसमें शुरू से ही मोदी सरकार ने इस रास्ते पर बढ़ने वाली कंपनियों को बुरी नजर से देखना शुरू कर दिया ; बोली लगाने वालों पर नाना शर्तें लादी जाने लगी ; सरकार की मदद से बैंक अधिकारी भी मनमानी करने लगे । फलतः यह प्रक्रिया भी इसलिये फलवती नहीं हुई, क्योंकि इसकी सफलता का बुनियादी मानदंड था विवाद का जल्द निपटारा, और वही नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों की बदौलत संभव नही था ।

आज सरकार कह रही है कि उसने इस रास्ते से अब तक साठ हजार करोड़ रुपये जुटाये हैं, लेकिन यह नहीं बता रही है कि वे कौन से ऋण हैं जिनका इस रास्ते से निपटारा किया गया है, और कितने का निपटारा नहीं किया जा सका है ! इन सबमें भी भ्रष्टाचार और राजनीतिक दखलंदाजी के सारे दाव-पेंच समान रूप से काम कर रहे हैं ।  सरकार का स्वेच्छचारी चरित्र इसमें भी निश्चित तौर पर अपनी भूमिका निभाता है ; कोई किसी पर विश्वास नहीं कर पाता है ।

सरकार के स्वेच्छाचार का सबसे बड़ा उदाहरण रिजर्व बैंक के आक्समिक कोष, आरक्षित कोष और मुनाफे की पूरी राशि को हड़प लेने के मामले में देखा गया । विमल जालान कमेटी की सिफारिश के नाम पर रिजर्व बैंक से जो 1 लाख 76 हजार करोड़ रुपया लिया गया है उसमें लगभग 53 हजार करोड़ तो किसी भी आपात काम के लिये आरक्षित कोष में से लिया गया है, लेकिन इसके साथ रिजर्व बैंक के मुनाफे का जो 1 लाख 23 हजार करोड़ लिया गया है, वह सबसे अधिक चौंकाने वाला है । रिजर्व बैंक 2009 से 2018 तक अपनी आमदनी से औसत सिर्फ 37290 करोड़ रुपया सरकार को दे पाया था, वह अचानक एक साल में बढ़ कर 1.23 लाख करोड़ रुपये कैसे हो गई, यह किसी के लिये भी रहस्यजनक हो सकता है । लेकिन इसके मूल में भी वही है, आम जीवन में और अर्थ-व्यवस्था में स्थिरता के साथ किया गया सौदा । 

रिजर्व बैंक अपने मुनाफे का एक अंश अपने आरक्षित कोष में रखता था ताकि किसी भी प्रकार की आर्थिक अस्थिरता, यहां तक कि किसी बैंक की डांवाडोल स्थिति में वह सामने आ कर उस स्थिति को संभाल सके । इस मामले में रिजर्व बैंक को 'बैंक आफ लास्ट रिसोर्ट' कहते हैं । जब रुपये की कीमत को स्थिर रखने के लिये, वित्त बाजार को संतुलित रखने के लिये कहीं से कोई मदद नहीं मिलती है, तब रिजर्व बैंक इसका इस्तेमाल करती है । अतीत में कई बार इसका उपयोग किया जा चुका है । रिजर्व बैंक अपने पास सोने-चांदी का भंडार भी इसी के बल पर बनाये रखती है ताकि आपात काल में अन्तरराष्ट्रीय बाजार में उसका इस्तेमाल किया जा सके । जालान कमेटी ने मुनाफे से निकाल कर रखी जाने वाली इस राशि के अनुपात को कम करके सिर्फ 5.5 प्रतिशत से 6.5 प्रतिशत तक रखने की सिफारिश की । मोदी जी के पिट्ठू गवर्नर ने एक कदम आगे बढ़ कर जालान कमेटी की सिफारिश के न्यूनतम 5.5 प्रतिशत को ही इसमें रखने का निर्णय लिया और सरकार को एक साथ 1.23 लाख करोड़ सौंप दिया ।

अर्थशास्त्री अभिरूप सरकार ने बिल्कुल सही कहा है कि हमारे यहां सरकारें तो पांच साल की अवधि के लिये काम करती है, लेकिन रिजर्व बैंक की तरह की संस्थाएं दीर्घकालीन दृष्टि के अनुसार चलती है । स्वेच्छाचारी शासन अपने तात्कालिक गलत कामों लिये राष्ट्र को दीर्घकालीन नुकसान पहुंचाने से बाज नहीं आता ।

इसीलिये, हम बार-बार कहते है कि राजनीति आज के भारत की अर्थ-व्यवस्था की सबसे बड़ी समस्या है । इसके कारण ही हर सरकारी नीति कभी भी अपने सही लक्ष्य तक भी नहीं पहुंच पाती हैं । अनेक काम तो शुद्ध राजनीतिक करामातों के लिये किये जाते हैं और भारी नुकसानदेही साबित होते हैं । मसलन् नोटबंदी और जीएसटी को लिया जा सकता है । यहां तक कि स्वच्छता अभियान आदि भी कोरे दिखावे की चीज बन कर रह गये हैं, क्योंकि यही इस सरकार की राजनीति है । कश्मीर के मसले को ही ले लीजिए । धारा 370 और राज्य के बटवारे को लेकर जो कुछ किया गया है, उन सबका विवेकसंगत कारण आज तक सामने नहीं आया है और इस समस्या से निकलने का इनके पास रास्ता क्या है, उसके भी कोई संकेत नहीं मिल रहे हैं ।

यह सब एक सर्वाधिकारवादी राजनीति के हित में किया जा रहा है और इस राजनीति की जो अर्थनीतिक कीमत है, उसे चुकाने के लिये हमारा देश अभिशप्त है । जब तक इस राजनीति को पराजित नहीं किया जाता है, अर्थनीति के वर्तमान संकट से निकलने का कोई रास्ता बन ही नहीं सकता है । अर्थव्यवस्था के संकेतकों के सही रूप को अगर जानना हो तो उसे अंतिम आकार देने में मध्यस्थता करने वाले राजनीति के संकेतों को आपको जरूर पढ़ना होगा ।                 

शनिवार, 31 अगस्त 2019

प्रोफेसर रोमिला थापर का अपमान ज्ञान के जगत के अपमान से कम नहीं है

-अरुण माहेश्वरी



प्रोफ़ेसर रोमिला थापर से जेएनयू प्रशासन ने उनका सीवी, अर्थात् उनके अकादमिक कामों का लेखा-जोखा माँगा है ताकि वह उनको दिये गये प्रोफ़ेसर एमिरटस के पद पर पुनर्विचार कर सके ।

जाहिर है कि यूनिवर्सिटी की यह माँग उनके द्वारा किसी प्रकार की जाँच या अपने रेकर्ड को अद्यतन करने का प्रस्ताव नहीं है । यह सीधे तौर पर भारत के एक श्रेष्ठ शोधकर्ता, दुनिया में प्रतिष्ठित इतिहासकार और एक प्रखर और निडर बुद्धिजीवी का आज के सत्ताधारियों के द्वारा किया जा रहा खुला अपमान है ।

प्रोफेसर थापर दुनिया के उन चंद इतिहासकारों में एक हैं जिनके भारतीय इतिहास के प्राचीन काल के तमाम शोधों को सभ्यता और आबादी संबंधी आधुनिकतम वैज्ञानिक प्रविधियों तक ने पूरी तरह से पुष्ट किया है । हमें यह कहने में ज़रा भी हिचक नहीं है कि भारतीय इतिहास के प्राचीनकाल के बारे में प्रोफेसर रोमिला थापर के शोध कार्यों के बिना आज तक हम सचमुच अपने राष्ट्र के इतिहास के संबंध में बैठे-ठाले गप्पबाजों की कपोल-कल्पनाओं के अंधेरे में ही भटकते रहते । कोई हमें हज़ारों वर्षों से जंगलों में रहने वाले जीव-जंतुओं की श्रेणी में बताता रहता, तो इसके विपरीत कोई हमें हज़ारों साल पहले ही विज्ञान की अब तक की सभी उपलब्धियों का धारक, ‘विश्वगुरु’ होने के मिथ्या गौरव के हास्यास्पद अहंकार में फँसाये रखता, जैसा कि अभी किया जा रहा है ।

इन सबके विपरीत, यह प्रोफेसर थापर के स्तर के इतिहास के लगनशील शोधकर्ताओं का ही कर्त्तृत्व है कि हम आज दुनिया की एक प्राचीनतम, भारतीय सभ्यता के तमाम श्रेष्ठ पक्षों को ठोस और समग्र रूप में वैश्विक संदर्भों में देख-परख पा रहे हैं ।

प्रोफेसर थापर का व्यक्तित्व और कृतित्व शुरू से ही भारत में आरएसएस की तरह की पोंगापंथी हिन्दुत्ववादी शक्तियों के लिये नफरत का विषय रहा है । उनकी युगांतकारी पुस्तकें, ‘भारत का इतिहास’, ‘Ashoka and the Decline of Mauryas’, ‘The Aryan : Recasting Constructs’ हमारे इतिहास के विकृतिकरण की हर मुहिम के रास्ते की सबसे बड़ी बाधाओं की तरह काम करती रही हैं । भारत में आर्यों के विषय में उन्होंने जिन पुरातात्विक, मानविकी, भाषाशास्त्रीय और जनसांख्यिकीय साक्ष्यों आदि के आधार पर सालों पहले जो तमाम सिद्धांत पेश किये थे, उन्हें आबादियों की गतिशीलता के बारे में अध्ययन के सर्वाधिक नवीन और वैज्ञानिक, जेनेटिक (आनुवंशिक) जाँच के औज़ारों से किये गये अध्ययनों ने भी सौ फ़ीसदी सही साबित किया है ।

इसके विपरीत, कुछ पश्चिमी पौर्वात्यवादियों, संघी प्रचारकों और आत्म-गौरव की उनकी झूठी, काल्पनिक अवधारणाओं से प्रभावित लोग अपने प्रतिक्रियावादी सामाजिक उद्देश्यों के लिये शुद्ध माँसपेशियों और आवेग की शक्ति से  इतिहास का मनमाना पाठ तैयार करने में लगे हुए हैं । इनकी गलत भविष्य दृष्टि ही अतीत के प्रति इनके तमाम गलत पूर्वाग्रहों के मूल में काम कर रही है ।

प्रोफेसर रोमिला थापर का काम न सिर्फ अपने गहन शोध कार्यों से इनके कोरे कल्पना-प्रसूत इतिहास के निष्कर्षों को खारिज करता है, बल्कि इतिहास को देखने-समझने की प्रो. थापर की वैज्ञानिक दृष्टि, जो अतीत के प्रति पूर्वाग्रहपूर्ण नज़रिये की कमियों को बताने वाली इनकी कई पुस्तकें मसलन् ‘The Past as Present’ , ‘History and Beyond’ आदि से जाहिर होती है, इतिहासकारों की तमाम नई पीढ़ियों के लिये प्रकाश स्तंभ का काम कर रही है ।

इसके अलावा प्रो. थापर ने हमेशा प्रकृत अर्थों में एक सार्वजनिक बुद्धिजीवी की भूमिका अदा की है । हाल में प्रकाशित पुस्तक ‘The public intellectual in India’ में भी उनके योगदान को काफी सराहा गया है ।

भारत की एक ऐसी, लगभग किंवदंती का रूप ले चुकी वयोवृद्ध, सत्तासी वर्षीय रोमिला थापर से उनके अकादमिक कामों का लेखा-जोखा माँगना सचमुच एक विश्वविद्यालय के प्रशासन की अज्ञता और उसके दर्पपूर्ण व्यवहार का चरम उदाहरण है । यह ज्ञान के क्षेत्र को नष्ट-विनष्ट कर देने के वर्तमान सता के मद का निकृष्ट उदाहरण है ।

इसकी जितनी निंदा की जाए कम है ।



गुरुवार, 29 अगस्त 2019

यह आर्थिक संकट खास राजनीति से जुड़ा हुआ है

-अरुण माहेश्वरी


काला धन और सफ़ेद धन का फ़र्क़ यही है कि जिस धन में से सरकार के राजस्व का शोधन कर लिया जाता है, वह काले से सफ़ेद हो जाता है । एक कच्चा तेल है और दूसरा परिशोधित ।

चीन के चार आधुनिकीकरण से जुड़े औद्योगीकरण के इतिहास पर यदि ग़ौर करें तो पायेंगे कि उन्होंने विदेशी निवेश पर मुनाफ़े को पूरी तरह से कर मुक्त करके, अर्थात् सौ फ़ीसदी मुनाफ़ा अपने घर ले जाने का अधिकार देकर अपने यहाँ रेकर्ड विदेशी निवेश को आकर्षित किया था । इसके पीछे तर्क यह था कि निवेश से जुड़ी औद्योगिक गतिविधियाँ स्वयं में चीनी गणराज्य और उसकी जनता के लिये भारी मायने रखती हैं । वह खुद में समाज में किसी राजस्व से कम भूमिका अदा नहीं करता है ।

भारत में रिलायंस के औद्योगिक साम्राज्य के विस्तार के इतिहास को देखेंगे तो पायेंगे कि दशकों तक यह कंपनी तत्कालीन आयकर क़ानून का लाभ उठा कर शून्य आयकर देने वाली कंपनी बनी रही थी । तब कंपनी की आय के पुनर्निवेश में आयकर की राशि को पूरी तरह से समायोजित करने का अधिकार मिला हुआ था । इसीलिये मुनाफ़े की राशि पर कर देने के बजाय उसने उसके पुनर्निवेश का रास्ता पकड़ा ।

कहने का तात्पर्य यह है कि सफ़ेद धन हो या काला धन हो, किसी भी तर्क से यदि पूँजी के रूप में उसकी भूमिका को बाधित किया जाता है तभी वह धन मिट्टी में गड़ा हुआ धन हो जाता है । अन्यथा, पूँजी के रूप में उसकी सामाजिक भूमिका में दूसरा कोई फ़र्क़ नहीं होता है ।

कहना न होगा, जिस अर्थ-व्यवस्था में निवेश का संकट पैदा हो गया हो, उसमें हर प्रकार के धन को पूँजी में बदलने का उपक्रम ही इस संकट से निकलने का एक सबसे फ़ौरी और अकेला उपाय होता है ।

अब यह किसी भी सरकार पर निर्भर करता है कि अर्थ-व्यवस्था के बारे में उसका आकलन क्या है और उसकी प्राथमिकता क्या है । वह निवेश के विषय को किस रूप में देखती है ! वह सिर्फ अपनी आमदनी को लेकर चिंतित रहती है या समग्र रूप से आम जनता के जीवन-जीविका के बारे में सोच रही है !

नोटबंदी और जीएसटी से लेकर मोदी सरकार की अब तक की पूरी कहानी तो यही कहती है कि जनता की आमदनी का विषय इस सरकार के सोच में सबसे अंतिम पायदान की चीज है ।

सरकार की आमदनी भी जब पूँजी-निवेश का रूप नहीं लेती है, जैसा कि मोदी सरकार के पूरे कार्यकाल में हो रहा है, और वह तमाम फिजूलखर्चियों और आयुधों की ख़रीद में ख़त्म हो जाती है, तो संकट दुगुना हो जाता है । भारत अभी एक तानाशाही निज़ाम के द्वारा तैयार किये गये इसी दोहरे संकट की चपेट में है ।

‘ईज आफ़ डूइंग बिजनेस’ का मसला सिर्फ लाल फ़ीताशाही की तरह का प्रक्रियागत मसला नहीं है । आदमी का मजबूरी में, जीने मात्र के लिये उद्यम करना एक बात है, जैसा कि सभी लोग करते ही है । लेकिन पूँजीवाद का अर्थ है मुनाफ़े के लिये, अतिरिक्त मुनाफ़े के लिये उद्यम की वासना पैदा करना । इसके साथ ही आदमी की अपनी स्वच्छंदता का भावबोध जुड़ जाता है जो सभ्यता के जनतांत्रिक चरण का व्यक्ति-स्वातंत्र्य का नया मूल्यबोध तैयार करता है ।

सत्ता में राजशाही की तरह का फासीवादी रुझान पूँजी पर आधारित इस पूरे आर्थिक और विचारधारात्मक ढाँचे के अस्तित्व के लिये संकट पैदा करने लगता है । मोदी के भारत में इसके लक्षणों को बहुत साफ देखा जा सकता है ।

‘ईज आफ़ डूईंग बिज़नेस’ के नाम पर उठाये गये इस सरकार के सारे कदम व्यापार के जोखिमों को, खास तौर पर सरकारी दंड-विधान के ख़तरों को काफी बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं । अपनी ताक़त का थोथी प्रदर्शन करने के लिये मोदी कहते थे कि वे लाखों इंस्पेक्टरों का काला धन रखने वालों के खिलाफ शिकारी कुत्तों की तरह प्रयोग करेंगे । यहाँ तक कि मोदी की एकाधिकारवादी राजनीति भी अर्थजगत में ख़ौफ़ को बढ़ाने का कम काम नहीं कर रही है । समग्र रूप से किसी भी प्रकार की आपदा के डर का माहौल तमाम आर्थिक गतिविधियों को स्थगित कर देने के लिये काफी होता है ।

इन सबसे अर्थ-व्यवस्था में जो संकट तैयार होता है, उसे कोई भी, जैसा कि रिजर्व बैंक ने कल ही किया है, एक चक्रक ( साइक्लिक) संकट बता कर शुतरमुर्गी मुद्रा अपना सकता है, लेकिन सच यही है कि भारत का वर्तमान संकट माँग और आपूर्ति में समायोजन से जुड़ा अर्थ-व्यवस्था का चक्रक संकट नहीं है । इसका सीधा संबंध मोदी की राजनीतिक सत्ता से जुड़ा हुआ है, माँसपेशियों के बल पर शासन के उनके राजनीतिक दर्शन से जुड़ा हुआ है । इसमें उनकी कश्मीर नीति को इस दिशा में उनके अंतिम योगदान के रूप में देखा जा सकता है ।

इसीलिये हमारा यह दृढ़ विश्वास है कि इस संकट का समाधान राजनीति में है, न कि महज आर्थिक लेन-देन की पद्धतिगत व्यवस्थाओं या नौकरशाही की गतिविधियों में । इतिहास का सबक है कि तानाशाहियां आर्थिक संकट की परिस्थिति में पैदा होती है और तानाशाहियां आर्थिक संकट को पैदा करती है ।

न्यायपालिका पर मँडराता संकट उसकी अपनी पहचान का संकट है

—अरुण माहेश्वरी


सेवानिवृत्ति के दो दिन पहले अनायास ही, बिना किसी आधार के, पी चिदंबरम को आईएनएक्स मीडिया मामले में घूसख़ोरी और रुपयों की हेरा-फेरी का प्रमुख अपराधी घोषित करने वाले दिल्ली हाईकोर्ट के जज सुनील गौड़ ने कल खुद सरकार से घूस के तौर पर एक अपीलेट ट्राइबुनल के अध्यक्ष का पद लिया है । चिदंबरम मामले में सरकार के रुख को देख कर तो लगता है कि वह उन्हें अंत में ‘राष्ट्र के अस्तित्व के लिये ख़तरनाक’ कह कर भी जेल में बंद रखेगी, जैसा कि देश के कई प्रमुख बुद्धिजीवियों को रखे हुए है । थोथी प्रक्रियाओं की जंजीरों से बंधा न्याय अपने सत्व को गंवा कर कोरे कुतर्क की श्रेणी में पहुंच जाता है । जाहिर है कि ऐसी स्थिति में हमेशा की तरह क़ानून अपनी अंधता का प्रदर्शन करेगा ।


मुंबई हाईकोर्ट के एक जज सारंग कोतवाल ने एलगार परिषद - भीमा कोरेगांव मामले में सामाजिक कार्यकर्ता वेरोन गोनसाल्वे से इस बात की सफ़ाई माँगी है कि उनके घर पर तालस्ताय के विश्व क्लासिक ‘वार एंड पीस’ की प्रति क्यों पड़ी हुई थी !

सुप्रीम कोर्ट के जज अरुण मिश्र ने अभिव्यक्ति की आज़ादी की तरह के नागरिक के मूलभूत संवैधानिक अधिकार को भी शर्त-सापेक्ष बताया है । वे अमित शाह के बेटे जय शाह के द्वारा ‘द वायर’ पर किये गये मुक़दमे के एक प्रसंग में ‘द वायर’ की याचिका को स्वीकारते हुए भी ‘द वायर’ को धमका कर प्रकारांतर से अमित शाह को आश्वस्त रहने का संकेत भेज रहे थे ।

और, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की बेंच ने सीताराम येचुरी को कश्मीर जाने की अनुमति देते हुए भी उनकी नागरिक स्वतंत्रता को अनुलंघनीय मानने से इंकार किया और उस पर भी कुछ शर्तें लाद दी है ।

एक दिन में भारतीय न्यायपालिका के सर्वोच्च स्तरों से पतन के इतने लक्षणों का सामने आना किसी भी न्याय-प्रेमी भारतवासी के कान खड़े कर देने के लिये काफी है । चंद रोज़ पहले कोलकाता की अदालत के एक मजिस्ट्रेट ने शशि थरूर की गिरफ़्तारी का वारंट इसलिये जारी कर दिया क्योंकि उन्होंने खुद उपस्थित हो कर अपनी उस बात पर सफ़ाई नहीं दी कि वे भारत को ‘हिंदू पाकिस्तान’ नहीं देखना चाहते हैं !
बहरहाल, यह एक वाजिब सवाल हो सकता है कि हमारे लोकतंत्र के स्तंभ माने जाने वाले विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका अथवा प्रेस का ही अपना  खुद का सत्य क्या होता है ? क्या हमारे लोकतंत्र की दुनिया की सचाई के बाहर भी इनके जगत का अपना-अपना कोई स्वतंत्र, स्वाधीन सत्य भी होता है ?

जब भी हम किसी चीज की विशिष्टता की चर्चा करते हैं, वह विशिष्टता आखिरकार इस दुनिया के बाहर की कोई चीज नहीं होती । वह इस दुनिया के तत्वों से ही निर्मित होती है । वह अन्य चीजों से कितनी ही अलग या पृथक क्यों न हो, उनमें हमेशा एक प्रकार की सार्वलौकिकता का तत्व हमेशा मौजूद रहता है । उनकी विशिष्टता या पृथकता कभी भी सिर्फ अपने बल पर कायम नहीं रह सकती है । इसीलिये कोई भी अपवाद-स्वरूप विशिष्टता उतनी भी स्वयंभू नहीं है कि उसे बाकी दुनिया से अलग करके देखा-समझा जा सके ।

यही वजह है कि जब कोई समग्र रूप से हमारे लोकतंत्र के सार्वलौकिक सत्य से काट कर उसके किसी भी अंग के अपने जगत के सत्य की पवित्रता पर ज्यादा बल देता है तो कोरी प्रवंचना के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता है । इनकी अपवाद-स्वरूपता में भी हमेशा लोकतंत्र के सत्य की सार्वलौकिकता ही किसी न किसी रूप में व्यक्त होती है । इसीलिये जब एक ओर तो लोकतंत्र मात्र का ही दम घोट देने की राजनीति चल रही हो और दूसरी ओर उसके संघटक तत्वों के अपने जगत की स्वतंत्रता और पवित्रता का जाप किया जाता हो — यह मिथ्याचार नहीं तो और क्या है !

न्यायपालिका हो या इस दुनिया के और क्षेत्रों के अपने जगत का सत्य, वह उसी हद तक सनातन सत्य होता है जिस हद तक वह उसके बाहर के अन्य क्षेत्रों में भी प्रगट होता है । अर्थात जो तथ्य एक जगत को विशिष्ट या अपवाद-स्वरूप बनाता है, उसे बाकी दुनिया के तथ्यों की श्रृंखला में ही पहचाना और समझा जा सकता है। इनमें अदृश्य, परम-ब्रह्मनुमा कुछ भी नहीं होता, सब इस व्यापक जगत के के तत्वों को लिये होता है ।

यह सच है जीवन के हर क्षेत्र के अपने-अपने जगत के सत्य अपनी अलग-अलग भाषा में सामने आते हैं । साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र के अपने भाषाई रूप होते हैं तो कानून के क्षेत्र के अपने, राजनीति के क्षेत्र के अपने । अर्थात, अपने को अन्यों से अलगाने के लिये वे अपनी खास भाषा पर निर्भर करते हैं, जिसका उन जगत में प्रयोग किया जाता है और निरंतर विकास और संवर्द्धन भी किया जाता है । लेकिन जिसे जीवन का सत्य कहते हैं — यथार्थ — वह तो सर्व-भाषिक होता है । वह एक प्रकार का जरिया है जिससे आप प्रत्येक विशिष्ट माने जाने वाले क्षेत्र में प्रवेश करते हैं । वही सबको आपस में जोड़ता है । अन्यथा सच यह है कि किसी भी क्षेत्र की अपनी खुद की खास भौतिक लाक्षणिकताएँ बाकी दुनिया के लिये किसी काम की नहीं होती है । उनसे उस क्षेत्र की अपनी तार्किकता, उनके होने की संगति भी प्रमाणित नहीं होती । इन लाक्षणिकताओं से सिर्फ यह जाना जा सकता है कि बाहर की दुनिया के सत्य ने उस जगत विशेष को किस हद तक प्रभावित किया है । इनसे उस जगत की अपनी क्रियाशीलता या कार्य-पद्धति का अनुमान भर मिल सकता है । इस दुनिया में जिस काम को पूरा करने के लिये उन्हें नियोजित किया गया है, उसे हम इन लक्षणों से देख सकते हैं । लेकिन इनका कुछ भी अपना नैसर्गिक या प्रदत्त नहीं होता । इनका सत्य अपने संघटक तत्वों को एक क्रम में, अपनी क्रियाशीलता की एक श्रृंखला में जाहिर करता है । न्यायपालिका के आचरणों की श्रृंखला दुनिया में उसकी भूमिका को जाहिर करती है । इस प्रकार एक लोकतांत्रिक दुनिया के अखिल सत्य के एक अखंड राग में ये सारी संस्थाएं महज बीच-बीच के खास पड़ावों की तरह है, अपनी एक खास रंगत के बावजूद उसी राग का अखंड हिस्सा ।
इकबाल का शेर है — 'मौज है दरिया में / वरु ने दरिया कुछ भी नहीं ।'

सत्य को असीम और खास प्रजातिगत,  दोनों माना जाता है । उसकी खास क्षेत्र की विशिष्टता उसके अपवाद-स्वरूप पहलू को औचित्य प्रदान करते हैं, और बहुधा उस क्षेत्र के कारोबारियों के विपरीत एक नई समकालीन आस्था और विश्वास की जमीन तैयार करने का काम भी करती है । लेकिन हर हाल में वह इस व्यापक दुनिया के सच को ही प्रतिबिंबित करती है ।

यही वजह है कि मार्क्स अपने दर्शनशास्त्रीय विश्लेषण में समाज में संस्कृति, न्याय, कानून और विचार के तत्वों के ऊपरी ढांचे को उसके आर्थिक आधार से द्वंद्वात्मक रूप में जुड़ा हुआ देखने पर भी अंतिम तौर पर आर्थिक आधार को ही समाज-व्यवस्था का निर्णायक तत्व कहने में जरा सा भी संकोच नहीं करते । इसे दुनिया के इतिहास ने बार-बार प्रमाणित किया है ।

हमारे यहां न्यायपालिका के सच को हमारी राजनीति के सच से काट कर दिखाने की कोशिश को इसीलिये हम मूलतः अपने लोकतंत्र के सत्य को झुठलाने की कोशिश ही कहेंगे । आरएसएस की तरह की एक जन्मजात वर्तमान संविधान-विरोधी शक्ति के शासन में सरकार के द्वारा संविधान की रक्षा की बातें मिथ्याचार के सिवाय और कुछ नहीं हो सकती हैं ! 
 
सचमुच, आज न्यायपालिका के सँभलने का समय आ गया है । उसकी चारदीवारियों में अब हर जगह सांप्रदायिक फ़ासिस्टों की विवेकहीन विक्षिप्तता की गूंज-अनुगूँज सुनाई देने लगी है । यह इसी प्रकार, अबाध रूप से जारी रहा तो कब हमारी न्यायपालिका भी राज्यपाल सत्यपाल मलिक की तरह के बेवक़ूफ़ और बड़बोले, थोड़ी से सत्ता पर फुदकने वाले सत्ता के दलालों का एक बड़ा जमावड़ा बन कर रह जायेगी, पता भी नहीं चलेगा ।

यह समय है जब न्यायपालिका को नये सिरे से संविधान के प्रति अपनी निष्ठा को दोहराते हुए अपने सच्चे कर्त्तव्यों की सुध लेनी चाहिए ।

इन नकारात्मकताओं के साथ ही इसी बीच, सुप्रीम कोर्ट ने कश्मीर में धारा 370, 35ए, कश्मीर के राज्य के दर्जे की समाप्ति, उसका बँटवारा, नागरिक स्वतंत्रताओं के हनन, प्रेस की स्वतंत्रता आदि से जुड़े सभी सवालों को संविधान पीठ को सौंप कर भारतीय संविधान के मूलभूत जनतांत्रिक और संघीय ढांचे की रक्षा की एक नई संभावना पैदा की है । देखना है कि सुप्रीम कोर्ट फासीवादी सत्ता का कोई प्रतिरोध कर पाता है या नहीं !

तंत्रालोक में अभिनवगुप्त लिखते हैं :
स्वात्मन: स्वात्मनि स्वात्मक्षेपो वैसर्गिकी स्थिति :
(स्वयं में स्वयं के द्वारा स्वयं का क्षेप ही विसर्ग है ।)

यह सुप्रीम कोर्ट की अपनी पहचान की रक्षा की परीक्षा का समय है ।

सोमवार, 26 अगस्त 2019

रिजर्व बैंक के रिजर्व कोष पर सरकार का पंजा : सरकार ने खुद को ही नि:स्व किया है


-अरुण माहेश्वरी

रिजर्व बैंक से अंतत: एक लाख छियत्तर हज़ार करोड़ रुपये केंद्र सरकार ने लेकर दिवालिया हो रही निजी कंपनियों के तारणहार की भूमिका अदा करने और चंद दिनों के लिये अपने खुद के वित्त में सुधार करने का जुगाड़ कर लिया है ।

दो दिन पहले ही वित्त मंत्री ने सरकारी बैंकों को सत्तर हज़ार करोड़ रुपये नगद देने और एनबीएफसी को अलग से हाउसिंग क्षेत्र में निवेश के लिये बीस हज़ार करोड़ देने की घोषणा की है । इसके अलावा, इसी साल, महीने भर बाद सितंबर से ही 36 रफाल लड़ाकू विमानों की पहली किश्त की डिलेवरी शुरू होगी जिसमें सरकार को बचे हुए लगभग उनसठ हज़ार करोड़ रुपये का भुगतान करना है । अर्थात् इन तीन मदों में ही सरकार पर लगभग डेढ़ लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त ख़र्च आना है । प्रत्यक्ष राजस्व संग्रह में कमी, जीएसटी से संग्रह में कमी और राज्य सरकारों के प्रति केंद्र की बढ़ती हुई देनदारी के चलते सरकार पर जो अतिरिक्त बोझ आया हुआ है, उन सबके लिये सरकार के पास रिजर्व बैंक की इस राशि से सिर्फ तीस हज़ार करोड़ बचेगा । इस पर भी उद्योग जगत अपनी गिद्ध-दृष्टि गड़ाए हुए हैं ।

अर्थात्, इन एक लाख छियत्तर हज़ार करोड़ में से सरकार को एक पैसा भी कृषि क्षेत्र के लिये या जन-हितकारी अन्य किसी भी काम के लिये अतिरिक्त मिलने वाला नहीं है । प्रतिरक्षा की कुछ खास ख़रीदों के अलावा बाक़ी रुपया बैंकों और उद्योग जगत के घाटों की पूर्ति में हवा हो जाने वाला है ।पिछले बजट में सरकार ने हूबहू यही एक लाख सत्तर हजार करोड़ का घाटा छोड़ा था । 

इस प्रकार, रिजर्व बैंक के आरक्षित कोष को कम करके और उसके मुनाफे को लेकर सरकार ने एक प्रकार से अपनी आपदा-नियंत्रण शक्ति के साथ समझौता किया है, जिसका भारत की अन्तरराष्ट्रीय बाजार में साख पर निश्चित प्रभाव पड़ेगा ।

आगे देखने वाली चीज रहेगी कि अन्तरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियाँ मोदी सरकार के इस बदहवास कदम का किस प्रकार मूल्याँकन करती है । इसका निश्चित असर भारत में विदेशी निवेश के हर रूप पर पड़ेगा । बजट में घोषित सोवरन बांड की स्कीम को तो सरकार पहले ही ठंडे बस्ते में डाल चुकी है । अब रिजर्व बैंक की पतली हालत उसकी संभावना को और भी नष्ट करने के लिये काफी है ।

भारत में विदेशी निवेश पर गहरे असर की आशंकाओं के कारण ही अब तक रिजर्व बैंक के अंदर से ही इसका विरोध किया जा रहा था । लेकिन अंतत: सरकार ने विमल जालान कमेटी से सिफ़ारिश करवा कर और अपने कठपुतले गवर्नर के ज़रिये इस कोष को हस्तगत कर ही लिया ।

विमल जालान कमेटी ने अपनी सिफ़ारिश में इस बात को खास तौर पर नोट किया है कि भारत दुनिया की एक सबसे तेज़ी से बढ़ती हुई अर्थ-व्यवस्था है, इसीलिये सरकार अपने केंद्रीय बैंक से एक प्रकार की तात्कालिक लेने का यह जोखिम उठा सकती है । जालान कमेटी का यह तर्क कितनी बालूई ज़मीन पर टिका है, इसे भारतीय अर्थ-व्यवस्था में विकास की दर में आए भारी गतिरोध को देख कर कोई भी बहुत आसानी से समझ सकता है ।

लेकिन सरकार निरुपाय थी । जिस प्रकार उसके सामने अपने दैनंदिन ख़र्च उठाने की समस्या पैदा हो रही थी, उसमें कश्मीर के महँगे राजनीतिक खेल तक के लिये धन जुटाना उसके लिये समस्या बन सकता था । भारत आज दुनिया का सबसे बड़ा हथियारों का ख़रीदार है । भारत की इसी सचाई पर उसकी सारी कूटनीति भी टिकी हुई है । ऐसे में रिजर्व बैंक का यह रिजर्व कोष ही उसके लिये डूबते को तिनके का सहारा बचा हुआ था । अब इसका प्रयोग करके सरकार ने खुद को और ज्यादा नि:स्व और भारत को बुनियादी रूप से काफी कमजोर किया है ।

नोटबंदी और कश्मीर नीति की तरह ही इसे भी भारत की तबाही के दूरगामी प्रभाव वाले मोदी सरकार के एक और कदम के रूप में ही देखा जाना चाहिए । वैसे बड़ी पूँजी से जुड़े जिन लोगों को इससे कुछ तात्कालिक लाभ होंगे, वे निश्चित तौर पर इसे मंदी-निवारक रामवाण औषधि का प्रयोग बता कर कुछ दिनों तक इसकी प्रशंसा का कीर्तन जरूर करेंगे ।

शनिवार, 24 अगस्त 2019

कश्मीर में कार्रवाई का आख़िर इनका लक्ष्य क्या है ?


-अरुण माहेश्वरी

अभी के समय का उनका यह कथन दुश्मनों के लिये कश्मीर के मुद्दे का नये सिरे से अन्तरराष्ट्रीयकरण करने का एक अच्छा बन सकता है ।

1947 के बाद से ही कश्मीर का विलय भारत में कभी विचार का कोई मुद्दा नहीं रहा है । बाद के दिनों में अलगाववाद और आतंकवाद जरूर मुद्दे रहे हैं । मोदी सरकार की दलील थी कि कश्मीर में अलगाववाद और आतंकवाद धारा 370 की वजह से हैं ।

लेकिन अब, 5 अगस्त की कार्रवाई के एक पखवाड़े के बाद कहा जा रहा है कि धारा 370 को हटा कर कश्मीर के भारत में विलय के काम को पूरा कर लिया गया है । अब न आतंकवाद की चर्चा है और न अलगाववाद की ।

कोई यह नहीं दावा कर रहा है कि 5 अगस्त को धारा 370 के अंत और कश्मीर को सेना के सुपुर्द करके वहाँ से आतंकवाद और अलगाववाद को ख़त्म कर दिया गया है या किया जा रहा है ।

आज इन मुद्दों को गौण करके कश्मीर के भारत में विलय के उस मुद्दे को प्रमुखता दी जा रही है जो पहले कभी था ही नहीं । भारत और पाकिस्तान के बीच शिमला समझौते के बाद तो पाकिस्तान ने भी प्रकारांतर से भारत के अधिकार क्षेत्र में आने वाले कश्मीर को भारत का अंग मान लिया था ।

यह इस सरकार के एक अजीब से असंगत सोच का तीसरा बड़ा उदाहरण है । नोटबंदी के वक़्त मोदी ने कहा था देशसे सारा काला धन ख़त्म हो जायेगा । नक़ली मुद्रा औरआतंकवाद की भी कमर टूट जायेगी । लेकिन चंद रोज़ बाद ही इन मुद्दों को भुला कर दूसरी बातें दोहराई जाने लगी । डिजिटलाइजेशन प्रमुख हो गया। बैंकों की अपार आमदनी का ढिंढोरा पीटा जाने लगा । काला धन के मूल लक्ष्य को एक सिरे से ग़ायब कर दिया गया ।

इसी प्रकार, जीएसटी को आज़ादी के जश्न की तरह मनाया गया । दावा किया गया कि सरकार ने पूरी तैयारी करके इस एक कर के ज़रिये भारत की कर प्रणाली की सारी जटिलताओं को ख़त्म कर दिया है । लेकिन आज हालत यह है कि जीएसटी में जैसे हर रोज़ कोई न कोई परिवर्तन लगा रहता है । दो साल पूरे हो चुके है, चीज़ें सुलझने बजाय उलझती जा रही है । 17 जुलाई 2017 के जश्न का आज कोई भूल कर भी चर्चा नहीं करता है ।

जिस आधार पर कोई कदम उठाया जाता है, चंद दिनों बाद ही जब उस गलत कदम के दुष्परिणाम सामने आने लगते हैं तब उसके मूल कारणों को भुला कर दूसरी बातें रटना इस सरकार का एक मूलभूत चरित्र साबित हो रहा है । यह इसकी विवेक-हीनता से उत्पन्न अहंकार का ही एक नमूना है ।  

दरअसल, मोदी और उनकी संघ मंडली की यह समस्या उनकी मूलभूत राजनीति की समस्या है । यह एक गलत, भटकी हुई और उन्मादपूर्ण राजनीति की समस्या है । वे घोषित रूप से तो भारत को एकजुट और मज़बूत करने की बात करते हैं, लेकिन सारे काम इसे अंदर से तोड़ने और कमजोर करने के करते हैं । जो राजनीति अपने घोषित लक्ष्यों से संगति नहीं रखती है, वह राजनीति कभी सही राजनीति नहीं हो सकती है ।

उनके ऐसे सभी उद्भट क़दमों के पीछे उनकी गलत एकात्मवादी राजनीति के तर्क काम कर रहे हैं । इन पर कोई भी विचार उस राजनीति के दायरे में मुमकिन नहीं है, बल्कि उससे बाहर एक सही, भारत के संघीय ढाँचे और धर्म-निरपेक्षता पर आधारित राजनीति के आधार पर ही किया जा सकता है ।

जैसे किसी पागल आदमी के इलाज के लिये उसे सुधार गृह में रखा जाता है और सामान्य तौर पर बीमार आदमी को अस्पताल में, वैसे ही सांप्रदायिक और एकाधिकारवादी उन्माद की शिकार सरकार का इलाज सामान्य तरीक़े से संभव नहीं है । इनकी राजनीति को पराजित करके ही देश को इनके इन तमाम कृत्यों से बचाया जा सकता है । ये जब तक सत्ता में रहेंगे, उन्माद के ऐसे नित नये उदाहरण पेश करते रहेंगे ।

गुरुवार, 22 अगस्त 2019

मंदी और राजनीति-शून्य आर्थिक सोच की विमूढ़ता


-अरुण माहेश्वरी




अति-उत्पादन पूँजीवाद के साथ जुड़ी एक जन्मजात व्याधि है । इसीलिये उत्पादन की तुलना में माँग हमेशा कम रहती है । यही वजह है कि पूंजीवाद में हर एक चक्र के बाद एक प्रकार की संकटजनक परिस्थिति सामने आती ही है ।

लेकिन पूँजीवाद के इस चक्रिक संकट की चर्चा से भारत में अभी की तरह की मंदी की व्याख्या करना शायद अर्थनीति संबंधी सबसे जड़ बुद्धि का परिचय देना होगा ।

पूँजीवाद के इस संकट के कथन से सन् 1929 की महामंदी की कोई व्याख्या नहीं हो सकती है । वह इसे नहीं बताती है कि क्यों 1929 की तरह की डरावनी परिस्थिति दुनिया में बार-बार पैदा नहीं होती है ?

पूँजीवाद सिर्फ अति-उत्पादन ही नहीं करता है , वह उतनी ही गति से अपने उत्पादों की नई माँग भी पैदा करता है । नित नये उत्पादों से बाजार को पाट कर उपभोक्ताओं में उनकी लालसा पैदा करता है ।

माँग का संबंध अर्थनीति के सिर्फ भौतिक जगत से नहीं, आबादी के चित्त में उसकी क्रियात्मकता, उस जगत के अक्श से होता है । इसे ही पूँजीवादी विकास की प्रक्रिया की द्वंद्वात्मकता कहते हैं ।

माल और उसके प्रति आदमी की लालसा के बीच की दूरी को पाटने के क्रम में ही अर्थ जगत में सक्रियता बनी रहती है ।

जब पूँजीवाद माल के प्रति लालसाओं को पैदा करने में असमर्थ होता है, अर्थजगत मंदी के भँवर में एक प्रकार से अंतहीन स्तर तक धँसता चला जाता है ।

आदमी में लालसाओं का संबंध उसकी आंतरिक ख़ुशियों से, भविष्य के प्रति उसकी निश्चिंतता और अपने रोज़गार के प्रति आश्वस्ति से होता है । सबसे अच्छा उपभोक्ता सबसे उन्मुक्त और उल्लसित मनुष्य ही हो सकता है ।

किसी भी वजह से डरे, दबे हुए और अस्तित्वीय चिंता में डूबे आदमी में कोई लालसा नहीं रहती है ।

1929 की महामंदी के अनुभवों की व्याख्या करते हुए जॉन मेनार्ड केन्स ने आर्थिक मंदी को आबादी के मनोविज्ञान से जोड़ते हुए कहा था कि जब यह मनुष्यो के मनोविज्ञान में पैठ जाती है तो इसे निकालना बहुत सख़्त होता है । इसके लिये वर्षों के आश्वस्तिदायक परिवेश की ज़रूरत होती है ।

कहना न होगा, भारत की अभी की मंदी बिल्कुल वैसी ही है जिसका सीधा संबंध सामाजिक मनोविज्ञान से है । इसके मूल में मोदी शासन, मोदी की तुगलकी नीतियाँ, घर की स्त्रियों के धन तक को खींच कर निकाल लेने का उनका अश्लील उत्साह, दमन और उत्पीड़न के प्रति गहरा आग्रह और सरकारी दमन-तंत्र के मनमाने प्रयोग की स्वेच्छाचारी नीतियाँ हैं ।

अर्थात्, अभी की भारत की मंदी की, जिसमें पार्ले जी के स्तर के सस्ते बिस्कुट का उत्पादन भी बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है, कोई शुद्ध अर्थनीतिक व्याख्या संभव नहीं है । इस मंदी का सत्य अर्थनीति में नहीं, राजनीति में, समाज-नीति में निहित है ।

इसकी कोई भी शुद्ध आर्थिक व्याख्या, जितने भी गंभीर आँकड़ों के आधार पर की जाए, संतोषजनक नहीं हो सकती है । जन चित्त सिर्फ अर्थनीति से नहीं बनता है । इसमें अर्थनीति की निर्णायकता का तर्क भी इसलिये तात्कालिक दृष्टि से बेकार हो जाता है क्योंकि क्षितिज से मूलगामी आर्थिक परिवर्तन का विकल्प एक सिरे से ग़ायब है ।

आज भारत की मंदी से लड़ाई एक बड़े राजनीतिक संघर्ष की माँग कर रही है । जब तक राजनीति में कोई ऐसा मुक़ाम तैयार नहीं होता है, जो लोगों को उनकी दासता की भावना से मुक्त करके उल्लसित कर सके, इस मंदी से मुक्ति लगभग असंभव जान पड़ती है ।

इस मंदी से मुक्ति के लिये कृषि क्षेत्र और आम लोगों को मामूली राहतें देने वाले पैकेज की बातें सचमुच अर्थशास्त्रियों के सोच की सीमाओं को ही दर्शाती है । आज की मंदी पर अर्थशास्त्रियों की मंत्रणाएं विचार नहीं, विचार की कोरी मुद्राएँ लगती हैं । 1929 का अंत विश्वयुद्धों और उसके बाद के विश्व राजनीतिक भूचाल के रूप में सामने आया था, वैसे ही यह मंदी हमारे क्षेत्र में एक बड़े राजनीतिक परिवर्तन का कारक बने तो वह आश्चर्यजनक नहीं होगा । वातावरण में उन काली घटाओं के संकेतों को आसानी से पढ़ा जा सकता है ।

मंगलवार, 20 अगस्त 2019

अर्थ-व्यवस्था के संकट का समाधान अर्थ-नीति के बाहर, राजनीति में खोजना होगा ।

आर्थिक तबाही को सुनिश्चित करने वाला जन-मनोविज्ञान !
-अरुण माहेश्वरी


चुनाव में मोदी की भारी जीत लेकिन जनता में उतनी ही ज्यादा ख़ामोशी ! मोदी जीत गये, भले जनता के ही मत से, लेकिन विडंबना देखिये कि वही जनता उनकी जीत पर स्तब्ध है !

2019 में मोदी की जीत सांप्रदायिक और राष्ट्रवादी उन्माद में होश खो चुके लोगों का एक अपराध था, और इस जीत पर उनकी स्तब्धता इस अवबोध की अभिव्यक्ति कि उन्हें जिता कर लोगों ने जैसे खुद को ही दंडित किया है ।

लोग दुखी, पीड़ित और त्रस्त हैं, लेकिन मोदी को जिता कर अपने ही अंदर के इस दुख, विरोध और प्रतिवाद के भाव से इंकार कर रहे हैं, बल्कि उसका दमन कर रहे हैं, उसकी हत्या, और आज भी 2014 के अपने मूलभूत पाप का तर्क खोज रहे हैं ।

कह सकते हैं कि अभी लोग विपक्ष को अस्वीकार कर वास्तव में अपने सत्य को ही अस्वीकार कर रहे हैं ।

मनोविश्लेषण में आत्म-दंड के ऐसे मामलों की बहुत चर्चा मिलती हैं । जाक लकान का एक प्रसिद्ध मामला था -ऐमी का मामला, जिस पर उनके कई सिद्धांत टिके हुए हैं । ऐमी ने अपने वक़्त की पैरिस की एक प्रसिद्ध नायिका पर छुरे से प्रहार किया था ।

उस नायिका में ऐमी अपनी हसरतों, अपनी कामनाओं को मूर्त रूप में देखती थी और महज इसीलिये वह उससे ईर्ष्या करने लगी थी । वह खुद अपने कारणों से या अपनी परिस्थितियों के कारण उस स्थिति में पहुँचने में असमर्थ थी । उसकी मौजूदगी ऐमी को अपनी कल्पना में खुद के लिये जैसे एक ख़तरा लगने लगी थी। इसीलिये उसने मौक़ा देख कर उस नायिका पर पागल की तरह वार कर दिया ।

बाद में, मनोविश्लेषण में पाया गया कि वह वास्तव में ऐसा करके खुद को ही दंडित कर रही थी । उसने अपने को उस नायिका से पूरी तरह जोड़ लिया था। एक पिछड़ी हुई विचारधारा की चपेट में आए लोगों ने अपने से ज्यादा शिक्षित, प्रगतिशील और विकसित सोच के लोगों को घसीट कर धराशायी कर दिया, यह जंगली उन्माद अब पाँच साल बाद देख रहा है कि उसकी कीर्ति स्वयं को दंडित करने के अलावा कुछ साबित नहीं हुई है। वह स्तब्ध है । वह लगभग पलायनवादी विक्षिप्तता में फँसती जा रही है ।

बेहाल अर्थनीति आज जानकारों की चिंता का विषय है, लेकिन इसके दुष्प्रभावों के भोक्ता आम लोग सांप्रदायिक विद्वेष और ‘राष्ट्रवाद’ का धतूरा पी कर मानों किसी परम मोक्ष को साधने में लगे हैं । वे इस सच को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं । भारतवासी ऐसी खुद की बुलाई हुई विपत्तियों के दुर्योग को आँख मूँद कर अस्वीकारने की कला में माहिर है । वे शर्म में अपना मुँह छिपाये घूम रहे हैं । मुँह छिपाये मोदी और उनके कुनबे के कोरे तांडव को बस देख रहे हैं । श्री राम के वंशजों की कथाएं सुन रहे हैं !

कहना न होगा, यही वैराग्य का जन-मनोविज्ञान हमारी अर्थ-व्यवस्था के चरम पतन को सुनिश्चित करने के लिये काफी है । जान मेनार्ड केन्स ने आर्थिक मंदी को जन-मनोविज्ञान का परिणाम बताया था, हम इसे आज साफ देख रहे हैं । अब तो मोदी सरकार को उखाड़ फेंकने के जश्न से ही जनता में नई लालसाओं का जोश पैदा होगा ; अर्थनीति की दिशा पलटेगी ।

अर्थ-व्यवस्था के इस चरम संकट का समाधान अर्थ-नीति के बाहर, राजनीति में खोजना होगा ।

शनिवार, 17 अगस्त 2019

आंख खोलने वाली फिल्म — द ग्रेट हैक


—अरुण माहेश्वरी


आज नेटफ्लिक्स पर दो घंटे का एक प्रकार का वृत्त चित्र देखा — The Great Hack  । 2016 में ट्रंप के चुनाव और फिर इंगलैंड में ब्रेक्सिट पर हुए जनमत-संग्रह में डाटा विश्लेषण के काम में लगी एक कंपनी कैम्ब्रिज एनालिटिका (सीए) के कामों पर केंद्रित फिल्मनुमा वृत्तचित्र । इन दोनों मामलों में ही कैम्ब्रिज के कामों को यूरोप और अमेरिका की अदालतों में चरम अपराधपूर्ण पाया गया और अब तो उस कंपनी का रहस्यमय ढंग से नामो-निशान ही जैसे मिट गया है । इसके खिलाफ अपराधी मामलों में इसके अंदर के ही तमाम लोग मुखबिर बन गये थे ।

लोगों के व्यवहार का अध्ययन, एक दो नहीं, एक साथ लाखों लोगों के नितांत निजी व्यवहार का अध्ययन । अर्थात् एक देश की बड़ी आबादी के प्रत्येक सदस्य का संपूर्ण मनोवैज्ञानिक अध्ययन । अकेले सीए के पास अमेरिका के कुल आठ करोड़ सत्तर लाख लोगों के सारे डाटा उपलब्ध थे ।

गूगल, फेसबुक, अमेजन, टेस्ला आदि दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों की पूंजी है उनके पास उपलब्ध लोगों के बारे में डाटा का विशाल खजाना । इनके लिये आदमी ही इनका माल है । वे आदमी संबंधी सूचनाओं का नाना रूप में इस्तेमाल करके, यहां तक कि बेच कर भी खरबों डालर का अपना कारोबार चलाते हैं । दुनिया में जितने ऑनलाइन ऐप तैयार किये जाते हैं, वे सभी इन जानकारियों के आधार पर ही होते हैं जिनसे आम लोगों की जरूरतों का पता सिलिकन वैली के ऐप तैयार करने वालों को रहता है ।

बहरहाल, आदमी के व्यवहार से जुड़े जो डाटा अब तक उपभोक्ता मालों की बिक्री आदि के उद्देश्य से प्रयुक्त हो रहे थे, कैम्ब्रिज एनालिटिका में एलेक्सांद्र निक्स, ब्रिटनी काइसर, नाइगल फरागो, क्रिस्टोफर वाइले आदि ने उनका इस्तेमाल ट्रंप के चुनाव में और फिर ब्रेक्सिट में इतने बड़े पैमाने पर किया कि उन्होंने एक झटके में लोगों की राय को विकृत करके पासा पलट दिया । इनका भंडाफोड़ तब हुआ जब पॉल ओलिवर नाम के एक व्यक्ति ने खुद के बारे में कैम्ब्रिज एनालिटिका (सीए) के द्वारा जुटाये गये डाटा के खिलाफ मुकदमा करके यह स्थापित किया कि डाटा का अधिकार किसी भी व्यक्ति का अपना मूलभूत अधिकार है, इसके मनमाने इस्तेमाल की किसी को भी अनुमति नहीं मिल सकती है । उसने सीए को अपने बारे में डाटा के दुरुपयोग का अपराधी साबित कर दिया । बाद में तो अमेरिकी सिनेट और ब्रिटेन की पार्लियामेंट्री कमेटी के सामने फेसबुक के मार्क जुकरबर्ग को भी सीए के साथ उनके संबंधों पर सफाई देने के लिये बुलाया गया था ।

सीए ने अमेरिकी चुनाव के लिये जिस प्रकल्प पर काम किया था उसका नाम था — प्रोजेक्ट एलामो । ब्रिटनी काइसर और उसके साथी अपने को डाटा साइंटिस्ट कहते हैं । ब्रिटनी 2015 के नवंबर महीने में ट्रंप से मिली थी । किसी समय में वह ओबामा के साथ काम कर रही थी । उनके फेसबुक पेज को देखती थी । लेकिन बाद में शुद्ध रूप से पैसों की खातिर ही उसने बिल्कुल विरोधी पक्ष के लिये काम करना शुरू कर दिया । कैम्ब्रिज एनालिटिका की बिजनेस डाइरेक्टर बन गई ।

सीए के इस समूह ने लोगों के बारे में सभी आनलाइन स्रोतों से सूचना एकत्रित करके उसे इतना विकसित कर लिया था जिसमें एक व्यक्ति को परिभाषित करने के लिये उनके पास पांच हजार डाटा प्वायंट, अर्थात् उसके चरित्र से जुड़ी पांच हजार विशेषताओं से लेकर सत्तर हजार डाटा प्वायंट तक इकट्ठे हो जाते हैं । वे उनके आधार पर किसी भी समूह के हर आदमी के व्यक्तित्व को जैसे पूरी तरह से परिभाषित कर सकते थे । इन सूचनाओं के आधार पर ही सीए ने आबादी के निश्चित समूहों में उन लोगों की सिनाख्त कर ली जो अपने मत पर दृढ़ नहीं होते हैं और जिन्हें थोड़े से प्रयासों से अपने पक्ष में लिया जा सकता है । अपनी इन्हीं सूचनाओं के विश्लेषण से वे यह भी समझ जाते हैं कि वे कौन सी बातें है जिन पर उन व्यक्तियों को भ्रमित करके उन्हें अपने पक्ष में किया जा सकता है । और फिर व्हाट्स ऐप आदि के जरिये वे उन लोगों के पास उन्हीं भ्रामक सूचनाओं की बमबारी शुरू करके अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं ।

ट्रंप के चुनाव के वक्त बिल्कुल आखिरी वक्त में उन्होंने 'Defeat Crooked Hillary' का एक जोरदार उन्मादित अभियान चलाया था जिसने ट्रंप को हिलैरी पर बढ़त दिला दी ।

इस फिल्म में अमेरिका के सामरिक ठेकों की कंपनी एससीएल का उल्लेख आता है, जिसके एलेक्सांद्र निक्स नें ब्रिटनी काइसर आदि को साथ में लेकर चुनावों को प्रभावित करने के इस धंधे में, कैम्ब्रिज एनालिटिका में अपने को लगा दिया और देखते-देखते उनकी कंपनी को खरबों डालर की कंपनी कहा जाने लगा ।


सीए पर यूरोपियन पार्लियामेंट की तरफ से यह अभियोग लगाया गया था कि इस कंपनी ने जनतंत्र और राष्ट्रीय सार्वभौमिकता को नष्ट करने की साजिश की है । फेसबुक का जुकरबर्ग दावा कर रहा था कि उनका उद्देश्य लोगों के बीच संपर्क साधना है, उससे कहा गया कि तुम लोगों को जोड़ते नहीं, तोड़ते हो । सीए के साथ फेसबुक के संबंध के लिये उस पर भारी जुर्माना लगाया गया और वह फिर कभी अपने डाटा का सौदा इस प्रकार न करे, इसके लिये चेतावनी भी दी गई ।

इस फिल्म को देख कर हम अपने देश में प्रशांत किशोर की तरह के पेशेवरों की भारत के चुनावों में भूमिका को कुछ हद तक समझ सकते हैं । मोदी ने पिछले दिनों भारत में सरकारी मशीनरी के जरिये भी आम नागरिकों के डाटा इकट्ठा करने की कोशिश की थी । आधार कार्ड को अनिवार्य बनाने के पीछे भी मोदी सरकार का पूरा रवैया यही था । इससे यह भी पता चलता है कि पार्टियों का पारंपरिक, निरंतर चलने वाला बहु-स्तरीय प्रचार अभियान महज चुनावों में जीत की दृष्टि से क्रमशः कितना व्यर्थ बना दिया जा रहा है । पार्टी के परंपरागत कार्यकर्ता का भी इसके चलते भारी अवमूल्यन हुआ है । 

आज जिस प्रकार भारत की तमाम पार्टियों के नेतागण भाजपा में जा रहे हैं, उनके पीछे भी इसी प्रकार की शरारतपूर्ण डाटा एनालिसिस की भूमिका से कोई इंकार नहीं कर सकता है । कौन किस बिंदु पर दब सकता है और बीजेपी में जा सकता है, इसकी सूचना आज बीजेपी के दफ्तर में उसके अध्यक्ष की उंगलियों पर रहता हो तो कोई अचरज की बात नहीं है । 2014 के मोदी के चुनाव में भी सीए की भूमिका की बात कुछ हलकों से उठाई जाती रही है ।

इस फिल्म में ही एक प्रसंग में कहा गया है कि डाटा संग्रह और उनके प्रयोग के क्षेत्र में जिस पैमाने पर और जिस तेजी से अभी काम हो रहा है, उसमें आने वाले समय में हर महत्वपूर्ण मौके पर आम लोगों को भ्रमित करने के लिये कोई न कोई कैम्ब्रिज एनालिटिका निश्चित तौर पर मौजूद रहेगा, भले ही बाद में इस प्रकार के दुष्प्रचार का शिकार बनने के लिये किसी भी राष्ट्र को पछताना पड़े ।         

गुरुवार, 15 अगस्त 2019

क्रिप्टो करेंसी और राज्य


-अरुण माहेश्वरी 

देखते-देखते क्रिप्टो करेंसी, अर्थात् तमाम राष्ट्रीय सरकारों की जद से मुक्त ऐसी सार्वलौकिक करेंसी के चलन पर विचार और क्रिया का सिलसिला शुरू हो गया है जो मुद्रा को क्रय-विक्रय के लेन-देन में मध्यस्थता की अपने मूलभूत भूमिका के अतिरिक्त उस पर लाद दिये गये बाक़ी  सभी राजनीतिक कर्त्तव्यों से आज़ाद कर दे रही है । 

मूल्यवान धातु का मुद्रा के रूप में इस्तेमाल तो आज बाबा आदम के ज़माने की बात लगती है । व्यापारियों के बीच आपसी लेन-देन के लिये हुंडी-पुर्ज़ों के प्रयोग से राष्ट्रों के केंद्रीय बैंक के भुगतान के शपथ पत्र के रूप में काग़ज़ की मुद्रा तक की यात्रा में मुद्रा पर लगभग हमेशा राज्य का एक बोझ लदा रहता है । भुगतान को सुनिश्चित करने वाला राज्य का शपथ पत्र काग़ज़ के नोट को अतिरिक्त शक्ति प्रदान करता था । लेकिन अब स्वयं मुद्राओं के वैश्विक बाजार के कारण मुद्रा पर राज्य का नियंत्रण एक विचार का विषय हो गया है । यह किसी न किसी रूप में खुले बाजार का माल बन चुकी है । 

जब मुद्रा की धातु का कोई मायने नहीं रह गया, तब राज्य की विश्वसनीयता प्रमुख हो गई थी । अब वह क्रमश: बाजार के विषय का रूप लेने लगी । यहीं से मुद्रा के मामले में राज्य की भूमिका के अंत के एक नये दौर का प्रारंभ हुआ । माल के उपयोग मूल्य और विनिमय मूल्य के द्वैत का रहस्य अब विनिमय के साधन के ठोस रूप से क्रमश: सांकेतिक रूप की दिशा में प्रगट होने लगा । काग़ज़ की मुद्रा प्लास्टिक मुद्रा से होते ह्ए अब पूरी तरह से अदृश्य डिजिटल मुद्रा, क्रिप्टो करेंसी का रूप ले रही है । 

बिटकायन को तो इस प्रकार की आभासित मुद्रा (crypto currency) का तत्त्वमूलक जनक कहा जा सकता है । बिटकायन को न किसी राज्य का समर्थन है और न किसी भारी-भरकम बहुराष्ट्रीय निगम का । उसका आधार है ब्लाक चेन की वह तकनीकी प्रणाली जिसमें कोई भी लेन-देन गोपनीय नहीं रहता है । आदान-प्रदान की श्रृंखला जहाँ भी टूटती है, उसे चिन्हित करके उसके लिये ज़िम्मेदार व्यक्ति को दंडित किया जा सकता है और उस टूटी हुई श्रृंखला को बाक़ायदा जोड़ा जा सकता है । इस प्रकार, इस क्रिप्टो करेंसी में लेन-देन को हमेशा सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी किसी राज्य अथवा कंपनी की न होकर उन सभी लोगों की एक सामूहिक ज़िम्मेदारी होगी जो इसके ज़रिये लेन-देन की श्रृंखला में स्वेच्छा से शामिल होंगे । अर्थात्, मुद्रा का स्वरूप कुछ भी क्यों न हो, अंतत: भुगतान के लिये जो उसका प्रयोग करेगा, भुगतान न होने पर वही, उन लोगों का समुदाय उसके लिये ज़िम्मेदार होगा । चूँकि तकनीक ने इस प्रकार के ताने-बाने को असीम बना दिया है, इसीलिये इसका प्रसार किसी भी राज्य की भी सीमा का मोहताज नहीं होगा । राज्य या कंपनियाँ इस लेन-देन के जगत के बीच में अपनी भूमिका के ज़रिये बैंकिंग का जो कारोबार कर रही थी, बिटकायन उस कारोबार के मुनाफ़े को ख़त्म करके इस मुद्रा को उसके बोझ से भी मुक्त कर देता है । 

इस प्रकार की क्रिप्टो करेंसी से जुड़े दो पहलू है । पहला तो इसका वह तकनीकी आधार है, ब्लाक चेन प्रणाली वाला, जो इसके व्यापक वैश्विक चलन को संभव बनाता है और दूसरा इसका एक वैचारिक-दार्शनिक स्वरूप है जो इसे राज्य के हस्तक्षेप से मुक्त करके एक स्वतंत्र आर्थिक समुदाय की संरचना के आधारभूत तत्त्व का रूप प्रदान करता है । 

मज़े की बात यह है कि आज की दुनिया में इस क्रिप्टो करेंसी के तत्त्वों को लेकर न जाने कितने प्रकार के प्रयोग किये जा रहे हैं । खास तौर पर ब्लाक चेन प्रणाली का इसका तकनीकी आधार सारी दुनिया के राष्ट्रीय राज्यों को जहाँ बेहद आकर्षित कर रहा है, वहीं इसके बिटकायन की तरह के राज्यों के जज से पूरी तरह मुक्त सामुदायिक आर्थिक व्यवहार का विचारधारात्मक पहलू राष्ट्रीय राज्यों में उतना ही भारी विकर्षण भी पैदा कर रहा है । 

आज उसकी तकनीक के आकर्षण के चलते भुगतान के न जाने कितने सरकारी, ग़ैर-सरकारी डिजिटल प्लेटफ़ार्म तैयार हो रहे हैं । कहा जाता है कि चीन में तो बाजार में भुगतान के लिये कार्ड प्रणाली लगभग ख़त्म हो गई है । भारत में हर मामले की तरह, इस मामले में भी कोई साफ़ दृष्टि नहीं होने से, जो भी हो रहा है, आधे-अधूरे तरीक़े से ही हो रहा है । सरकार की ओर से भुगतान के देशी-विदेशी और सरकारी डिजिटल प्लेटफ़ार्म का ज़ोर-शोर से प्रचार चल रहा है ; सरकारी भीम ऐप और रुपे के अलावा नोटबंदी के समय का बदनाम पीटीएम, अमेजन वैलेट, गूगल पे आदि चल ही रहे हैं । अब अन्तरराष्ट्रीय पैमाने पर ऐपल और फ़ेसबुक के तरह के संस्थान अपनी अन्तरराष्ट्रीय करेंसी तक चलाने की तैयारी कर चुके हैं । लेकिन इन सबके प्रति, खास तौर पर इनकी तार्किक परिणति क्रिप्टो करेंसी के प्रति, भारत सरकार का रुख़ क्या होगा, यह अभी तक भारी विवाद का विषय बना हुआ है । इसी विवाद के चलते पिछले दिनों अति-उत्साही वित्त सचिव सुभाष गर्ग को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा था । 

बहरहाल, वर्तमान भारत सरकार को इस पूरे प्रसंग में एकमात्र जो चीज सबसे अधिक आकर्षित कर रही है, वह है इससे जुड़ी हुई ब्लाक चेन तकनीक - अर्थात् वह तकनीक जो इसमें शामिल होने वाले देश के प्रत्येक नागरिक के समूचे आर्थिक व्यवहार के बारे में सरकार को सूचित कर सकती है । मोदी सरकार इसे समाज पर अपने पूर्ण प्रभुत्व की स्थापना के एक कारगर हथियार के रूप में देखने की वजह से ही इसके प्रति काफी ज्यादा आकर्षित है । 

मोदी ने जब अपना नोटबंदी का तुगलकी फ़ैसला लिया था कि इससे पूरा काला बाहर निकल आयेगा, तभी उस अभियान के ही एक अनुषंगी के रूप में उन्होंने डिजिटलीइजेशन का नारा दिया; आधार कार्ड की अनिवार्यता पर बेजा बल देना शुरू किया । ब्लाक चेन प्रणाली से एक ओर जहाँ सूचनाओं के केंद्रीकरण और सामाजिक यथार्थ की सठीक जानकारी किसी भी राज्य के नीतियों के लिये ज़रूरी सांख्यिकी की ज़रूरत पूरी हो सकती है, वहीं इतनी सूक्ष्म, व्यक्तिगत स्तर की सूचनाओं के आधार पर राज्य का दमनतंत्र बेहद मारक साबित हो सकता है । 

लेकिन बिटकायन की तरह की राज्य-विहीन क्रिप्टो करेंसी इस मामले में, प्रत्येक नागरिक के आर्थिक व्यवहार पर राज्य के प्रभुत्व को तोड़ता है, इसीलिये 
कोई भी राज्य उसे अपनाने के लिये तैयार नहीं है । यह एक ऐसा ज़रिया है जो सूचनाओं के चरम केंद्रीकरण की तकनीक से ही सत्ता के चरम विकेंद्रीकरण का आधार तैयार करता है । इसीलिये दुनिया का हर राज्य इसके प्रति जितना आकर्षित है उतना ही शंकित भी है । 

ऐसे में, ऐपल, गूगल या फ़ेसबुक की तरह की विशालकाय कंपनियों के द्वारा तैयार किये जा रहे क्रिप्टो करेंसी के नये साम्राज्य आज पूँजीवाद के विकास के एक बिल्कुल नये स्वरूप को हमारे सामने रख रहे हैं ।

यह किसी भी चीज के विकास का वह चरम रूप है, जब उसमें ऐसे स्फोट होते हैं, जो उसके गुणात्मक रूप से भिन्न स्वरूपों को प्रकट करने लगता है । जैसे भ्रूण वैज्ञानिकों का मानना है कि मानव भ्रूण के विकास के एक चरण में आंतरिक दबाव से जब मस्तिष्क की झिल्ली फटती है, तभी उससे होने वाले स्फोट के चलते शरीर के अलग-अलग अंगों के बीच एक प्रकार का तारतम्य क़ायम होता है । 

आज क्रिप्टो करेंसी से जुड़े विषयों पर चर्चा की स्थिति यह है कि इसके जन्म से जुड़े तमाम मूलभूत तकनीकी प्रयोग तो अमेरिका के सिलिकॉन वैली में चल रहे हैं, लेकिन इसके व्यवहारिक प्रयोग के सारे कर्मकांड चीन और भारत की तरह के देशों में किये जा रहे हैं । अमेरिकी आदमी आज भी अपनी जेब में चेकबुक लेकर घूमना पसंद करता है और जापानी नगद मुद्रा ही चाहते हैं । लेकिन चीन और भारत डिजिटल मुद्रा के लिये तो जरूर आकुल-व्याकुल है, पर उसकी एक अनिवार्य तार्किक परिणति, बिटकायन की तरह की सामुदायिक आभासित मुद्रा के विचार से बुरी तरह परेशान है । 

दुनिया के विकसित राज्य अपने नागरिकों के निजी आर्थिक व्यवहार से पहले से जितना अवगत है, उससे अधिक जानकारी की उन्हें अभी ज़रूरत नहीं लग रही है । नागरिकों की स्वतंत्रता का हनन वहाँ के राज्य के मूलभूत जनतांत्रिक विन्यास के विपरीत है । जनतंत्र और नागरिकों की स्वतंत्रता ने ही इन राज्यों की लगातार प्रगति को अब तक सुनिश्चित किया है । 

लेकिन चीन और भारत की प्रयोगशालाओं में इस नई तकनीक के बल पर सत्ता के केंद्रीकरण के जो कारनामें चल रहे हैं, उन पर उनकी बराबर नजर बनी हुई है । उन्होंने भारत को नोटबंदी का प्रयोग करने के लिये प्रेरित किया और इसके आर्थिक दुष्परिणामों को देख कर अपने लिये ज़रूरी शिक्षाएँ प्राप्त कर लीं । इसीप्रकार, वे डिजिटलाइजेशन के अंध-अभियान की परिणतियों को देखना चाहते हैं । 

बहरहाल, भारत की दशा इन मामलों में सबसे विचित्र है । आज भारत की सत्ता पर ऐसे तत्वों का क़ब्ज़ा है, जिन्हें सिर्फ अपने हाथ में अंतहीन सत्ता की कामना है । सत्ता के प्रयोग की उनकी अगर कोई अवधारणा है तो वह हिटलर के नाज़ीवाद की अवधारणा के अलावा कुछ नहीं है । ऐसे में, मुद्रा के स्वरूप के विकास से जुड़े सामाजिक-राजनीतिक-दार्शनिक पहलू उनके विचार के दायरे से कोसों दूर है । ये तभी तक इसके प्रति आग्रहशील हैं, जब तक इसमें इन्हें अपने एकातिमवादी राज्य की दमन की ताक़त में वृद्धि की संभावना दिखाई देती है । अगर इससे अपने वर्चस्व के हित नहीं सधते हैं, तो जाहिरा तौर पर इसके विकास के प्रति इनका कोई आग्रह भी नहीं हो सकता है । यही वजह है कि इस विषय पर इनका रुख़ दुविधाओं से ग्रस्त आधा-अधूरा ही रहेगा, जैसा आज नजर आ रहा है ।

बुधवार, 14 अगस्त 2019

हिटलरशाही के प्रतिरोध की राजनीति साधनी होगी


-अरुण माहेश्वरी 


आज़ादी की 73वीं सालगिरह पर सभी मित्रों को हार्दिक बधाई  । 

आज का दिन अपने देश की एकता और अखंडता के प्रति अपनी निष्ठा को दोहराने का दिन है । आज उन सभी देशवासियों को गले लगाने का दिन है जिनके मन वर्तमान शासन की विभाजनकारी नीतियों और अन्यायपूर्ण दमन के कारण दुखी है । 

आज खास तौर पर अपने कश्मीरी भाइयों के प्रति एकजुटता का संदेश देने का दिन है । उन्हें यह विश्वास दिलाने का दिन है कि शासन के किसी भी अन्याय के विरुद्ध लड़ाई में वे अकेले नहीं हैं । उनके न्यायपूर्ण संघर्ष में भारत के सभी जनतंत्रप्रिय, शांतिप्रिय और देशभक्त लोग उनके साथ खड़े हैं । 

सिर्फ कश्मीर नहीं, पूरे देश में जिस नग्नता के साथ भाजपा पूरे  राजनीति ढाँचे पर ज़बर्दस्ती अपना एकाधिकार क़ायम करने की मुहिम में लगी हुई है, विपक्ष की सभी पार्टियों तक को तहस-नहस कर आत्मसात कर लेने के साम-दाम-दंड-भेद के तमाम उपायों का प्रयोग कर रही है और प्रतिवाद की हर आवाज़ों कुचल देने पर आमादा है, इसके बाद कम से कम इतना तो साफ़ हो जाना चाहिए कि भारत के इस कठिन काल में राजनीति का अब तक चला आ रहा स्वरूप अब कारगर नहीं रह गया है । 

कश्मीर में बेलगाम ढंग से सेना के इस्तेमाल ने इस संकट को उसके बिल्कुल चरम रूप में सामने रखा है । 

कहना न होगा, यह भारत के संघीय ढाँचे को पूरी तरह से रौंद कर वे एकात्मवादी ढाँचे के निर्माण का अभियान है ।एकात्मवादी राज्य, जो आरएसएस का हमेशा का साध्य रहा है, और जिसे भारतवासियों ने हमेशा ठुकराया है, सिर्फ संघीय ढाँचे से जुड़ी सत्ता के विकेंद्रीकरण स्वरूप का अंत नहीं है, यह उस बहुलता का अंत है, जो किसी भी समाज में जनतंत्र से जुड़ी स्वतंत्रता की भावना और उसके रचनात्मक स्फोट का कारक माना जाता है । 

महात्मा गांधी स्वतंत्रता को मनुष्य का प्राण कहते थे । हमारे शास्त्रों में भी स्वातंत्र्य को ही शिव और मोक्ष कभी ककहा गया है । इसका अभाव आदमी को अज्ञान के पाश से बाँधता है, उसे ग़ुलाम और तुच्छ बनाता है ।सत्ता और पूँजी की इजारेदारी से डरा हुआ दमित समाज सिवाय उन्माद, विक्षिप्तता और पागलपन के अपने को व्यक्त करने की शक्ति को ही गँवा देता है । 

यही स्वतंत्रता का हनन ही शक्तिवानों में बलात्कार और ग़रीबों में ढोंगी बाबाओं के चमत्कार की काली फैंटेसी से जुड़ी सामाजिक संस्कृति का मूल है । 

आज की दुनिया में अमेरिका सबसे शक्तिशाली और संपन्न राज्य है तो इसीलिये क्योंकि अमेरिका एक आज़ाद-ख़याल संघीय गणराज्य है । वहाँ जिस हद तक इजारेदारी है, उसी हद तक वह राष्ट्र कमजोर भी है । अन्यथा, वहां इजारेदारी पर अंकुश का मोटे तौर पर एक सर्वमान्य विधान है । 

अमेरिकी जीवन में उन्मुक्तता, जो संसाधनों की भारी फ़िज़ूलख़र्ची के रूप में भी व्यक्त होती है, ही उस देश के लोगों की रचनात्मकता के मूल में भी है । इसीलिये वह दो सौ साल से भी ज़्यादा काल से दुनिया का नेतृत्वकारी राज्य है । 

रूस और चीन उसके कोई विकल्प नहीं हैं । 

स्वातंत्र्य चेतना के मामले में भारत रूस और चीन से कहीं आगे रहा है । हमारी यही आंतरिक शक्ति तमाम प्रतिकूलताओं के बीच भी हमें आगे बढ़ने और न्यायपूर्ण समाज के लक्ष्य को पाने का हौसला देती रही है । 

दुर्भाग्य है कि अब उसे भी योजनाबद्ध ढंग से नष्ट किया जा रहा है, अर्थात् हमारी अपनी तमाम संभावनाओं को ही ख़त्म किया जा रहा है ; हमें अपनी नाना-स्तरीय ग़रीबी से निकलने के रास्तों को और भी सख्ती से बंद कर दिया जा रहा है । 

आज भारतीय अर्थ-व्यवस्था और जीवन जिस प्रकार के मूलभूत संकट में फँसा हुआ दिखाई दे रहा है, अगर कोई इसका समाधान समय की मरहम में देख कर शुतुरमुर्ग की तरह बालू में सिर गड़ाये बैठा हुआ है, जैसा अभी की केंद्रीय सरकार बैठी हुई है, तो वह कोरी आत्म-प्रवंचना का शिकार है । 

आज का दिन भारतीय संघ की रक्षा हाकी प्रतिज्ञा का दिन है । एकात्मवादी हिटलरशाही निज़ाम के प्रतिरोध की राजनीति में ही भावी ख़ुशहाल भारत की संभावनाएँ निहित है । आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है, प्रतिरोध की नई राजनीति को साधने की । 

जय हिंद ।