गुरुवार, 24 अगस्त 2023

ज़िन्दगी तमाशा

 



कल यूट्यूब पर बहुचर्चितकई अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाज़ी जा चुकी पाकिस्तानी फ़िल्म ‘ज़िंदगी तमाशा’ देखी  


खुदा की शान में पूरी तरह से डूब कर क़सीदे पढ़ने वाले शायराना मिज़ाज के एक सम्मानित वयोवृद्ध मज़हबी चरित्र राहतख़्वाजा के जीवन में आए एक भारी तूफ़ान पर बनाई गई फिल्म  


राहत साहब शादी की एक दावत में अपने कुछ ख़ास मित्रों की महफ़िल में एक लोकप्रिय फ़िल्मी गाने ‘ ज़िंदगी तमाशा…’ पर दोस्तों के आग्रह पर एक नाच करते हैं  वहाँ मौजूद विडियोग्राफ़र ने उनके नाच का वीडियो बना कर उसे फ़ेसबुक परअपलोड कर दिया  उम्रदराज़ राहत साहब को इस प्रकार के एक कथित अश्लील गाने पर नाचते देख इंटरनेट की दुनियामें लोगों ने उसका भारी लुत्फ़ लिया  पर इसी नाच ने  सिर्फ़ मज़हब के ठेकेदारों के बीचबल्कि परिवार में बेटी औरआस-पड़ोस के लोगों में भी उनकी अब तक की मज़हबी और सौम्य-शालीन छवि को जैसे एक झटके में नष्ट कर दिया  


ऐसा लगा जैसे एक झटके में ख्वाजा साहब के मस्तमौला शायराना मिज़ाज का पर्दा फट गया  वह पर्दा जो चरित्र केबहुआयामी और बहुरंगी रूप को अपने में समोये रखता हैउसका फट कर इस प्रकार की एक निश्चितठोस पहचान मेंबदल जाना ख़्वाजा साहब के हरदिलअज़ीज़ मिज़ाज की सारी ख़ूबसूरती और ख़ुशबू को सोख लेने के मानिंद था  


वह वीडियो जैसे एक बेहतरीन पतिआदर्श पितानर्मदिल ख़ुदापरस्त इंसान के नाना रूपों की हत्या की साज़िश बन गया 


नाचते हुए ख़्वाजा साहब के वीडियो से उनकी जो एकरंगी अश्लील सी पहचान बनींवह किसी संकेतक के एक चिह्न मेंतब्दील हो कर अपनी मौत की घोषणा की तरह का माजरा था  एक खास चिह्न में बदल कर अब वह संकेतक सिर्फ एकबेजान व्यक्ति का ही पता दे सकता है  उसकी बाक़ी सारी संभावनाओं का वहीं अंत कर दिया जाता है  


ज़ाहिर है कि ख़्वाजा साहब के लिए कुल मिला कर ऐसी परिस्थितियाँ तैयार हो गईजिनमें जैसे शर्म में डूब कर मर जानेके अलावा उनके पास दूसरा कोई रास्ता ही  बचा हो  


ऐसे हालात मेंजब किसी की पहचान को किसी एक खास शर्मनाक स्थिति में कीलित कर दिया जा रहा होअर्थात् वहएक प्रकार से उसकी मौत का विज़िटिंग कार्ड बन जाएतो हमेशा यह ज़रूरी होता है कि पूरी धृष्टता और साहस के साथअपने उस विज़िटिंग कार्ड को फाड़ कर फेंक दिया जाए  


ज़िंदगी तमाशा’ फ़िल्म के ख़्वाजा साहब ने बिल्कुल ऐसा ही किया  उनकी बेटी और अन्य जन उनकी मौत के पहले हीअपनी धारणाओं और पूर्वाग्रहों के चलते उन्हें जिस प्रकार मृत घोषित कर रहे थेख़्वाजा साहब ने उसे ठुकरा कर अपनीस्वतंत्र प्राणी सत्ता की घोषणा की  


इस पूरे कथानक को बहुत ही कम साधनों से निदेशक सरमद खूसत ने जिस पटुता के साथ फिल्मांकित किया गया हैउसकी जितनी तारीफ़ की जाएकम है  ख़्वाजा साहब के रूप में आरिफ़ हसन  का अभिनय अनायास ही हमारी ‘गर्महवा’ फ़िल्म में बलराज साहनी के अभिनय की यादों को ताज़ा कर देता है  


अरुण माहेश्वरी 

शुक्रवार, 11 अगस्त 2023

पुरातात्विक दिशा में बढ़ता वर्तमान भाषा युग

 


आज के ‘टेलिग्राफ’ में जी. एन. देवी का लेख है – मेमोरी चिप के दौर में भाषा का भविष्य : एक भारी उथल-पुथल (The future of languages in the reign of the memory chip : A great churn)

इस लेख की शुरूआत उन्होंने भाषा के साथ जुड़ी हुई मनुष्य की संज्ञानमूलक प्रक्रियाओं से पैदा होने वाले काल और स्थान के बोध के उल्लेख से की है । “लाखों साल से मनुष्य (होमो सेपियन्स) भाषा से घिरा होने के कारण काल और स्थान के बोध को अपने अस्तित्व की निश्चित परिस्थितियों के रूप में देखने का अभ्यस्त हो चुका है । चीजों की छवि को देख पाने की मनुष्य की मानसिक क्षमता के चलते वह अपने इर्द-गिर्द के विशाल स्थान का एक बोध कर पाता है । स्मृति की अपनी जैविक प्राकृतिक क्षमता से वह समय नामक एक व्यापक अमूर्तता का अहसास कर पाता है ।” शुरू में छवियों के जरिए अर्थ को ग्रहण करने की क्षमता ही परवर्ती समय में अपने से बाहर के असंख्य रूपों में ढलती चली गई । वह भी हमारे अस्तित्व का अभिन्न अंग सी बन गई । देवी कहते हैं कि आज हम जिसे ज्ञान कहते हैं वह स्मृति के इन्हीं बाह्य खास रूपों और संस्थाओं के तौर पर तैयार हुआ है । 

मनुष्य अपने सांस्कृतिक विकास के इस रूप के कारण यह भूल गया कि वह दरअसल प्रजातियों के प्राकृतिक विकास की एक मामूली कड़ी भर है । मनुष्यों का काल कोई प्राकृतिक घटनाक्रम नहीं है । यह मनुष्य की कल्पना की सुविधाजनक उपज है । यही बात स्थान के बारे में भी लागू होती है । मनुष्य की आँखें जिस स्थान को देखती है और लाखों-करोड़ों प्रजातियां जिसे देखती है, इस देखने-देखने में जमीन-आसमान का फर्क हो सकता है । देवी कहते हैं कि मनुष्य की कल्पना और उसकी स्मृति एक प्रकार के सपने की तरह है जो हमारी प्राणीसत्ता और चेतना को घेरे हुए हैं । मनुष्यों ने यदि भाषा में भूत काल और भविष्य काल की कल्पना न की होती तो यह कल्पना ही कठिन हो जाती और ऐसे में यदि हमें वैज्ञानिक विवेक हासिल करना पड़ता तो संभव है कि हम 14 बिलियन साल पहले के बिग बैंग के बारे में चर्चा हमारे साथ-साथ जारी एक घटनाचक्र के रूप में कर रहे होते और हम अपने को उसके बीच कहीं स्थित पाते । लगभग 3.7 बिलियन साल पहले पदार्थ में प्राण पैदा हुए और महज दो मिलियन साल पहले उसमें से हमारी तरह के मनुष्य जैसा एक प्राणी पैदा हुआ । इस प्राणी ने सिर्फ सत्तर हजार साल पहले भाषा का गुर हासिल किया । काल और दूरी का माप हासिल किया । ब्रह्मांड के बारे में समझ तो सिर्फ दो-तीन हजार साल पहले विकसित होनी शुरू हुई है । सारी वैज्ञानिक बातें मनुष्यों की भाषा में सामने आती हैं । आदमी का सोच उसकी भाषा की अभिव्यक्ति क्षमता की सीमा से बंधा होता है । आदमी का मस्तिष्क निरंतर विकसित हो रहा है और जटिल यथार्थ से लगातार नई-नई ताकत पा रहा है । उम्मीद की जाती है कि मनुष्यों की भाषा और उनका सोच समय और स्थान की परिधि के बाहर, स्मृति और कल्पना के परे जा पायेगा ताकि भविष्य में वह कहीं ज्यादा जटिल, बहु-स्तरीय यथार्थ को वह समझ सके और व्यक्त कर सकें । 

देवी का यह विमर्श बहुत दिलचस्प विषय है । जर्मन दार्शनिक हाइडेगर ने भाषा को मनुष्य की प्राणी सत्ता का आवास कहा था। पर जॉक लकान ने इसे सुधारते हुए सिर्फ के बजाय यातना-गृह कहा । वह स्थान जहां मनुष्य पर रंदा चला करता है, उसे काटा-छांटा जाता है । जो भाषा मनुष्य के बाहर का स्थान है उस के में मनुष्य को ढाला जाता है । इसीलिए यदि किसी भी स्थिति में भाषा के इस गृह का स्वरूप बदलता है या उसका स्थान कोई और चीज ले लेती है तो जाहिर है कि इसका  मनुष्य के स्वरूप पर मूलगामी असर पड़ेगा । 

देवी ने आज के हालात में मनुष्य के ज्ञान के स्वरूप में बदलाव के सूत्रों को पकड़ कर ही अपनी इस टिप्पणी की रूपरेखा तैयार की है । इसमें वे ज्ञान के विषय को पुनः मनुष्य के संज्ञानात्मक मूलाधार से नए सिरे से जांचने की बात करते हैं । वे भाषा शास्त्रियों की इस चिंता को सामने रखते हैं कि मनुष्य के संचार की प्राकृतिक भाषा का भविष्य डूबता हुआ दिखाई दे रहा है । मनुष्यों ने जो मेमोरी चिप्स तैयार किए हैं उनसे उनकी याददाश्त पर गहरा असर पड़ रहा है । हम सभ्यता के बजाय नेटवर्क की तरह निर्मित सामाजिक संरचनाओं की दिशा में बढ़ रहे हैं । सभी राष्ट्रों, जातियों और सांस्कृतिक समूहों के जीवन के बारे में हमारा नजरिया हमारी कल्पना के परे एक ऐसे क्षितिज में पूरी तरह से सामने न आते हुए भी मनुष्य के मस्तिष्क के अब तक के विकास को स्वाभाविक और स्थायी मानने के विचार की धज्जियां उड़ा रहा है । 

इस पर देवी एक अनोखी स्थापना देते हैं कि मनुष्य तेजी के साथ मानवेत्तर चरण में प्रवेश कर रहा है । मनुष्य और मशीन मिल कर संचार की एक नई चित्रात्मक प्रणाली विकसित कर सकते हैं, एक मानवेत्तर और स्मरण की पूरी तरह से बाह्य प्रणाली जिसमें बहु-स्तरीय अस्तित्व लगातार विलयनशील स्थिति में होगा । इसे यूटोपिया कहें या डिस्टोपिया, यह बेहद परेशानी का सबब है । इसलिए नहीं कि यह अब तक की स्थापित चीजों को मूलभूत रूप में चुनौती देता है, बल्कि अनेक राष्ट्रों, समुदायों को इसकी बेइंतहा कीमत अदा करनी पड़ सकती है । औद्योगिक क्रांति और यूरोप में पूंजीवाद के उदय ने कृषि समाजों को खतरे में डाल दिया, उसी प्रकार मेमोरी चिप से समृद्ध देशों और इससे विहीन देशों के बीच अभूतपूर्व हिंसा देखी जा सकती है । भाषाओं के मरने की गति तेज हो रही है । 98 प्रतिशत भारतीय भाषाएँ डूबने के लिए अभिशप्त हैं । बिना डिजिटल परिचय पत्र वालों को नागरिकों की सूची से बाहर खदेड़ देने की योजनाएं हर जगह नजर आती है । इस प्रकार, उनके अनुसार, शब्दों का संसार आज एक पुरातात्त्विक कहे जाने वाले युग की ओर ढकेल दिये जाने के खतरे में है । 

 https://epaper.telegraphindia.com/imageview/442472/43249394/71.html

       


रविवार, 16 जुलाई 2023

फासीवाद के कैंसर के खिलाफ संघर्ष में विपक्ष की बहुलतापूर्ण एकता और राहुल गांधी

 −अरुण माहेश्वरी 



कल से बंगलुरू में विपक्ष की दो दिनों की बैठक शुरू होगी । इस बैठक की राजनीतिक पृष्ठभूमि और अहमियत की हम दो दिन पहले ही चर्चा कर चुके हैं । (देखे − https://chaturdik.blogspot.com/2023/07/blog-post.html) 2024 का चुनाव भारत में जनतंत्र और फासीवाद, दोनों के लिए ही निर्णायक महत्व का चुनाव साबित हो सकता है । मोदी और भाजपा फासीवाद के दूत हैं तो उनके खिलाफ देश का समूचा विपक्ष जनतंत्र के पक्ष में लड़ रहा है । 

रोमन साम्राज्य के खिलाफ गुलामों के संघर्ष (स्पार्टकस) का इतिहास यह बताता है कि उस साम्राज्य में जितने ज्यादा गुलाम मालिक से विद्रोह करके भाग कर साम्राज्य के दूर-दराज के विभिन्न इलाकों में फैल गए थे, स्पार्टकस के संघर्ष का दायरा उतना ही विस्तृत होता चला गया था और उस विद्रोह में हर क्षेत्र की अपनी-अपनी विशिष्टताएं शामिल हो गई थी । विद्रोही गुलामों की टुकड़ियों का कोई एक चरित्र नहीं था । सिर्फ गुलामी से मुक्ति ही उन सब अलग-अलग टुकड़ियों को एक सूत्र में बांध रही थी । पर रोमन साम्राज्य की एक भारी-भरकम सेना के खिलाफ विद्रोही गुलामों की अपनी ख़ास प्रकार की इन अलग-अलग टुकड़ियों की विविधता ही उस पूरी लड़ाई को दुनिया से गुलामी प्रथा के अंत की एक व्यापक सामाजिक क्रांति का रूप देने में सफल हुई थी । संघर्ष का दायरा जितना विस्तृत और वैविध्यपूर्ण होता गया, रोमन साम्राज्य की केंद्रीभूत शक्ति उतनी कमजोर दिखाई देने लगी और साम्राज्य को अनेक बिंदुओं पर एक साथ चुनौती देने की विद्रोहियों की ताकत उसी अनुपात में बढ़ती चली गई । देखते-देखते निहत्थे गुलामों के सामने रोमन साम्राज्य के तहत सदियों से चली आ रही समाज व्यवस्था का वह विशाल, महाशक्तिशाली किला बालू के महल की तरह ढहता हुआ नजर आया ।

रोमन साम्राज्य में गुलामों के विद्रोह का यह गौरवशाली खास इतिहास इस बात का भी गवाह है कि संघर्ष की परिस्थितियां ही वास्तव में भविष्य की नई ताकतों के उभार की प्रक्रिया और उसके स्वरूप को तय करती है । हर उदीयमान निकाय का संघटन उसके घटनापूर्ण वर्तमान की गति-प्रकृति पर निर्भर करता है । 

कहना न होगा, आज हमारे यहाँ विपक्ष का वास्तविक स्वरूप भी शासक दल की चुनौतियों के वर्तमान रूप से ही तय हो रहा है । यह आज के हमारे समय की सच्चाई है कि बीजेपी को जितने ज़्यादा राज्यों में कड़ी से कड़ी टक्कर दी जा सकेगी, विपक्ष 2024 की लड़ाई में उतना ही अधिक शक्तिशाली और प्रभावी बन कर उभरेगा और दुनिया भर के संसाधनों से संपन्न बीजेपी उतनी ही लुंज-पुंज और उनका ‘विश्व नायक’ नरेन्द्र मोदी उतना ही एक विदूषक जैसा दिखाई देगा । 

जॉक लकान का गढ़ा हुआ एक शब्द है under erasure । हर निकाय समय की थपेड़ों के साथ अपने मौजूद स्वरूप को खोने के लिए मजबूर होता है । वह हमेशा एक रंदे के नीचे होता है । यह बात जहां किसी भी विकसित शरीर पर लागू होती है, तो वहीं गुणसूत्रों (क्रोमोजोम्स) के योग से विकसित हो रहे भ्रूण और नवजात शिशु के गठन पर भी लागू होती है । राजनीति में जहां हर संगठन का स्वरूप उसकी वैचारिकता और संगठन की परिस्थितियों से तय होता है, वहीं संगठन का वर्तमान स्वरूप भी उसकी वैचारिकता और सांगठनिक स्थिति को निर्धारित करता है । 2024 में भाजपा के खिलाफ विपक्ष का अंतिम समग्र स्वरूप भी कुछ इसी प्रक्रिया से निकल कर सामने आयेगा । हर राज्य की अपनी विशेषता, अलग-अलग दलों की वैचारिक और सांगठनिक शक्ति का सम्मिलित योग ही इसे कोई अंतिम रूप देगा । राजनीति का अर्थ ही होता है − बहुलता की संभावनाओं की साधना ।

राहुल गांधी का सवाल 



जहां तक इस पूरी प्रक्रिया में विचारधारा के पहलू की भूमिका का सवाल है, इसे खास तौर पर अकेले राहुल गांधी की व्यापक छवि में हो रहे तेज बदलाव के जरिए बहुत अच्छी तरह से समझा जा सकता है । वैसे इस लेखक ने तो 2014 के फरवरी महीने में ही अर्नब गोस्वामी के द्वारा राहुल गांधी के साक्षात्कार को देख कर अपने ब्लाग ‘चतुर्दिक’ पर लिखा था : 

“अर्नब गोस्वामी को दिये साक्षात्कार में राहुल गांधी का लगातार व्यवस्थागत प्रश्नों पर बल देना बहुत सुखदायी लगा । वे सत्ता के भूखे राजनीतिज्ञों से बिल्कुल विपरीत लगातार आम जन के सशक्तीकरण पर, महिलाओं, नौजवानों के हाथ मज़बूत करने पर बल देते रहे । उनकी बातचीत का मुहावरा आज के समय के बड़बड़ करते, चालाक-चतुर दिखने की होड़ में लगे नेताजी लोगों के बिल्कुल विपरीत था । उनकी तुलना में नरेंद्र मोदी आज की राजनीति के एक सबसे बदतर प्रतिनिधि दिखाई देते हैं ।

“एक बात और साफ़ दिखाई दी कि अर्नब की तरह के एक बड़बोले एंकर के उकसाने में न आना राहुल की सायास कोशिश नहीं थी, यही उसकी प्रकृति है ।

“सालों बाद, इस प्रकार के मूलभूत सवालों पर संकेंद्रित राजनीतिज्ञ को सुनना बहुतों को अटपटा लग सकता है । राजनीतिक विमर्श के नाम पर आरोपों-प्रत्यारोपों का हंगामा देखने की अभ्यस्त आँखों को इसमें सब कुछ सारहीन भी दिखाई दे सकता है । लेकिन भारत के मुट्ठी भर राजनीतिज्ञों ने राज्य की समूची शक्ति को हड़प कर जिस प्रकार के आततायियों का रूप ले लिया हैं,  इस परिस्थिति में सत्ता को सच्चे अर्थों में आम लोगों को सौंपने के सांस्थानिक परिवर्तनों की बात ही सबसे गंभीर राजनीति है । बाक़ी सब गर्जना-तर्जना पहले से ही अशक्त बना कर रख दिये गये भारत के मेहनतकशों को और निर्बल बनाने वाली अब तक चली आ रही राजनीति को आगे भी जारी रखने की बेशर्म कोशिशें हैं ।” (रविवार, 2 फ़रवरी 2014)

इस प्रकार, दस साल पहले ही राहुल गांधी ने अपने व्यक्तित्व के जो संकेत दिये थे, आज दस साल बाद, सोशल मीडिया के सारे बौद्धिक हलकों में उसे खुल कर स्वीकारा जाने लगा है । ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद तो, उम्मीद के अनुरूप ही, वे एक नई राजनीति की धुरी नज़र आने लगे हैं । नई राजनीति, अर्थात् कांग्रेस या विपक्ष की राजनीति की जानी-पहचानी हुई सूरत से एक बिल्कुल भिन्न राजनीति की धुरी ।

 


यह तो सब जानते हैं कि राहुल गांधी गांधी-नेहरू परिवार के वंशज और कांग्रेस दल के अभी सबसे बड़े नेता हैं। लेकिन आज वे अपनी उस मूल काया और भाषा से, जिसे उनका डीएनए माना जाता है, अर्थात् जो उनके खून में है, अलग उसकी सीमा का अतिक्रमण करते हुए एक बिल्कुल अलग प्रभाव पैदा करते हुए दिखाई देने लगे हैं । 

जब भी कोई व्यक्ति अपने शरीर और भाषा की सीमा के बाहर जाकर कोई प्रभाव पैदा कर पाता है, वास्तव अर्थों में तभी उसे अपना खास व्यक्तित्व मिलता है । व्यक्तित्व व्यक्तियों के ‘मैं’ या ‘हम’ के सर्वनामों में भी नहीं मिलता, बल्कि हमेशा उनके बाहर, अपवाद-स्वरूप होता है । भाषा में जब शब्द का अभिहित अर्थ उसकी संरचना से व्यक्त नहीं होता, बल्कि दूसरे ही संकेतों से व्यक्त होता है, तभी वह शब्द विशिष्ट और स्वतंत्र हुआ करता है । ‘जिसकी कोई जगह नहीं होती’ − इसी बात से उसकी संभावनापूर्ण स्थिति भी जाहिर होती है । जिसे अभी होना नहीं चाहिए था, वह अनायास ही जैसे लोकांतरण के नियम के अनुसार एक बहुरंगी परिदृश्य में अपने सत्य के साथ एक खास रंग में सामने आ जाता है । सत्य हमेशा विचारों के झुंड में किसी ब्लैक शीप की तरह होता है । उसे ही धारण करके व्यक्तित्व अपने को प्रभावी बनाता है, समग्र परिस्थिति के ताने-बाने में एक दरार और तनाव पैदा करता है। अन्यथा, सामान्य काया तो एक बेजान लाश ही होती है, निष्प्रभावी, निष्प्रयोजन । 

राहुल गांधी ने भारत में ‘नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान’ के नारे के साथ व्यापक जनता को लामबंद करने की जिस मुहिम का प्रारंभ किया, उसका सिर्फ हमारे देश तक सीमित स्थानीय महत्व नहीं है । सारी दुनिया में जातीय स्वायत्तता आदि की रक्षा के नाम पर आप्रवासियों और विधर्मियों इत्यादि ‘अन्यों’ के प्रति नफरत की धुर-दक्षिणपंथी राजनीति का अभी जो तूफान चल रहा है, उसमें यह मुहिम विश्व मानवता के सत्य को फिर से एक ठोस रूप में सामने लाने की तरह है । राजनीति की यह एक बुनियादी जरूरत होती है कि उसके इस मानवीय सत्य को परिस्थितियों की बहुलता के बीच बार-बार ठोस निकायी रूप में सामने लाया जाए । राहुल गांधी का संपूर्ण व्यक्तित्व भारत और विश्व की द्वंद्वात्मकता के बीच जैसे राजनीति की इसी जरूरत को पूरा कर रहा है । उन्होंने अपने को अभी भारत के प्रधानमंत्री की दौड़ से अलग करके विश्व के बहुत बड़े फलक में खड़ा कर दिया है । जैसे सन् ’47 में भारत की आजादी से दुनिया के अनौपनिवेशीकरण की प्रक्रिया का प्रारंभ हुआ था, वैसे ही भारत में फासीवाद की पराजय दुनिया भी सभी धुर-दक्षिणपंथी विचारधाराओं के अस्त का रास्ता खोलेगी । 

बीजेपी एक कैंसर है



इसमें कोई शक नहीं है भारतीय राजनीति के शरीर में बीजेपी कैंसर की कोशिका के मानिंद है । यह राजनीति मात्र के खिलाफ एक ऐसा विद्रोह है जो उसके अंत पर आमादा है । 

प्रसिद्ध लेखक और जाने-माने कैंसर विशेषज्ञ डा.सिद्धार्थ मुखर्जी अपनी अंतिम किताब ‘कोशिका का गीत’ (The song of the cell) में लिखते हैं कि “कोशिका जब शरीर से विद्रोह करती है तो शरीर मर जाता है । कैंसर की कोशिका की विशेषता है कि वह तेजी से विभाजित होती हुई पूरे शरीर में फैल जाती है । पर उसका इस प्रकार तेजी से बढ़ना उसका अपना करिश्मा नहीं होता है । वह हमेशा दूसरों की, बल्कि जो कोशिका जीवनदायी होती है और जिसमें अभिवृद्धि की क्षमता होती है, उसकी शक्ति को आत्मसात करते हुए ही बढ़ा करती है । इस प्रकार कैंसर का संक्रमण भी प्राकृतिक ढंग से ही हुआ करता है । कोशिका जिन जीन और प्रोटीन का प्रयोग उन ईंटों के निर्माण के लिए करती है जिनसे शरीर का गठन होता है, जीवन के शुरू में विकसित होता हुआ भ्रूण अपने विस्फोटक विस्तार के ईंधन के तौर पर उन्हीं जीन और प्रोटीन का इस्तेमाल किया करता है । कैंसर की कोशिका शरीर के विशाल क्षेत्र में फैलने के लिए जिन मार्गों का प्रयोग करती है वे उनके द्वारा ही शासित होते हैं जो शरीर में स्थित जीवनदायी कोशिका के अनियंत्रित विभाजन के मार्ग होते हैं । पर कैंसर की कोशिका के फैलाव को बढ़ाने वाला जीन सामान्य कोशिका के विभाजन की अनुमति देने वाले जीन का विरूपित संस्करण होता है । अर्थात्, कैंसर की कोशिका का रूप कोशिका का एक ऐसा जैविक रूप है जो शरीर में रोग के दर्पण में नजर आता है । इसीलिए डा. मुखर्जी कहते हैं कि कैंसर विशेषज्ञ मूलतः होता तो कोशिका का जीव विज्ञानी ही है, पर फर्क सिर्फ इतना है कि वह कोशिका के सामान्य जगत के बजाय उस जगत के एक दर्पण में प्रतिबिंबित उसके उलटे रूप को लेकर विचार किया करता है ।

बीजेपी की तरह की फासिस्ट ताकतें राजनीति के जगत में मौजूद सांप्रदायिक और तमाम प्रकार के विभाजनकारी, विरूपित जीन आदि के सहारे फैला करती हैं । 

अगर हम इसके इलाज पर विचार करें तो देखेंगे कि जैसे आज कैंसर के इलाज के लिए मोलिक्यूलर टारगेटेड थिरैपी के साथ ही शरीर की रोधक शक्ति के विकास के सूत्रों पर सबसे अधिक भरोसा किया जा रहा है, उसी प्रकार राजनीति के जगत के फासीवादी कैंसर के लिए भी एक  दोतरफा रणनीति की जरूरत है । 2024 के लिए न सिर्फ विपक्ष की, बल्कि सभी गैर-भाजपा दलों की एकता का जो महत्व है, उससे कम महत्वपूर्ण नहीं है प्रेम के नारे के साथ ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की तरह का राहुल के नेतृत्व वाला व्यापक जन-आंदोलन का। इस पूरी लड़ाई में राहुल के प्रधानमंत्री बनने, न बनने का सवाल बिल्कुल गौण हो जाता है ।