सोमवार, 7 जुलाई 2014

भारत में वामपंथी आंदोलन का विवेक - ज्योति बसु


ज्योति बसु की शताब्दी के मौक पर:
  अरुण माहेश्वरी


आज ज्योति बसु का 101वां जन्मदिन, उनके शताब्दी वर्ष का प्रारंभिक दिन।

ज्योति बसु की शताब्दी, और भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में विभाजन के बाद के पचास साल, सीपीआई(एम) की अर्द्ध-शती। इतिहास का यह एक ऐसा संधि-स्थल जब कम्युनिस्ट आंदोलन किसी बुझते हुए दीये की पीली लौ के बीच कालिमा ढकी विस्फारित असहाय आंखों की कोई करुण कहानी सा कहता दिखाई देता है। तर्क और भावना, कुछ साथ देते नहीं दिखाई देते। घेरा डाले निष्ठुर चाण्डाल क्रिया-कर्म की अधीरता-तत्परता के साथ अंतिम सांसों की प्रतीक्षा करते जान पड़ते हैं। सचमुच, यह बेहद दुखदायी है।

बहरहाल, ज्योति बसु कम्युनिस्ट आंदोलन की एक जिद थी। एक ऐसी जिद जिसने देश के किसानों-मजदूरों को जनतंत्र के खुले आकाश की ताजगी से पुष्ट करने का निश्चय किया था। मेहनतकशों को मानव की जनतांत्रिक नैतिकता को आत्मसात करते हुए आगे ले जाने की जिद !

छियानबे साल की उम्र में जब ज्योति बसु की मृत्यु हुई थी, हमने ‘जनसत्ता’ के अपने स्तंभ ‘चतुर्दिक’ में उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए उन्हें भारत के वामपंथी आंदोलन का विवेक कहा था। आज फिर उसीकी बातों को दोहरा रहा हूं । ज्योति बसु को केंद्र में रख कर आगामी पूरे साल भारत में वामपंथी राजनीति की संभावनाओं के मार्ग के संधान के लिये एक सघन विमर्श को जारी रखने की जरूरत है। कहना न होगा, वामपंथ के पुनर्जीवन में ही भारतीय जनतंत्र की संभावनाएं निहित है।

ज्योति बसु की मृत्यु के उपरांत विभिन्न अखबारों में उनकी प्रशंसा करते हुए भी उनके बुनियादी व्यक्तित्व के प्रभाव को कम करने की घुमावदार बातों में जिस एक बात को किसी न किसी रूप में सबसे अधिक कहा गया, वह यह कि वे एक कम्युनिस्ट होकर भी कम्युनिस्ट नहीं थे। उनकी बंगाली पोशाक, नपीतुली बातें, चुस्त चाल, व्यक्तित्व की मुग्ध कर देने वाली शालीनता - इन सबका किसी कम्युनिस्ट और जनता के अधिकारों के लिये लड़ने वाले आंदोलनकारी कार्यकर्ता की प्रचलित प्रतिमा से मेल नहीं बैठता। साफगोई और शालीनता, सिद्धांतवादिता और नपीतुली बातें, आंदोलन और सौम्यता - किसी भी कम्युनिस्ट व्यक्तित्व के संदर्भ में वे इन्हें परस्पर-विरोधी मानते थें। इसीलिये इन लोगों को ज्योति बसु कम्युनिस्ट होकर भी कम्युनिस्ट नहीं लगते थे।

बहरहाल, ज्योति बसु क्या थे, भारत की राजनीति में उनकी क्या भूमिका रही तथा भारतीय वामपंथ के लिये उनका क्या मायने था, इसकी पूरी कहानी तो बेहद लंबी है। यहां बहुत थोड़े प्रसंगों का ही उल्लेख किया जा सकता है।

ज्योति बसु सन् 1940 के नववर्ष के दिन पांच वर्षों की पढ़ाई के बाद इंगलैंड से बैरिस्टर बन कर कोलकाता आए और आने के साथ ही पिता से कहा कि वे वकालत नहीं, राजनीति करेंगे। हतप्रभ पिता ने जब यह कह कर संतोष पाना चाहा कि सी.आर.दास भी बैरिस्टरी और राजनीति, दोनों एक साथ करते हैं, तो ज्योति बसु ने दूसरी बात कही- वे कम्युनिस्ट पार्टी के पूरावक्ती कार्यकर्ता बनेंगे।

ज्योति बसु ने राजनीति रेलवे मजदूरों के संगठन से शुरू की। सन् 46 की विद्रोही परिस्थितियों में इन्हीं मजदूरों के चुनाव क्षेत्र से वे बंगाल की प्रांतीय असेंबली के सदस्य चुने गये। स्वतंत्र भारत में विधानसभा अधिवेशन के पहले दिन ही ज्योति बसु निहत्थे किसानों के एक प्रदर्शन के साथ पुलिस की लाठी और आंसू गैस का सामना कर रहे थे। वे राइटर्स बिल्डिंग(सचिवालय) जाकर तत्कालीन गृहमंत्री को प्रदर्शन-स्थल पर पकड़ लायेंं। प्रफुल्ल घोष की उस सरकार ने इस पहले सत्र में ही ‘पश्चिमबंग विशेष अधिकार कानून’ नामक पहला काला कानून लागू किया और ज्योति बसु ने घोषणा की - 'हम अपनी पूरी ताकत से इस पैशाचिक कानून का विरोध करेंगे।'

यहीं से आजाद भारत की विधानसभा के अंदर और बाहर नागरिक अधिकारों की रक्षा की लड़ाई का ज्योति बसु का जो सफर शुरू हुआ, जनता से जुड़े सवालों पर एक के बाद एक आंदोलन और उसी अनुपात में सरकारी दमन, अनगिनत बार कारादंड और सत्ता में आने के बाद सारी सत्ता जनता को ही सौंप देने का कर्मयज्ञ - इन सबने ही ज्योति बसु को ज्योति बसु बनाया।


इस संदर्भ में उल्लेखनीय है सन् 1959 का खाद्य आंदोलन। बंगाल में एक और मनवंतर की पदध्वनि सुनाई दे रही थी। जमींदारों-जखीरेबाजों के गोदाम अनाज से भरे पड़े थे, लेकिन बाजार में खाद्यान्नों की कीमतें आकाश छू रही थी। कम्युनिस्ट पार्टी ने पूरे प्रदेश में व्यापक खाद्य आंदोलन छेड़ दिया। मुख्यमंत्री विधानचंद्र राय इस आंदोलन को पूरी ताकत से कुचल डालने पर आमादा थे। 31 अगस्त के दिन कोलकाता के शहीद मीनार मैदान में लगभग तीन लाख लोगों की एक विशाल सभा हुई। इस सभा से निकले जुलूस पर पुलिस के जवान अकल्पनीय बर्बरता के साथ टूट पड़े और देखते ही देखते एक हफ्ते में पूरे पश्चिम बंगाल को भूखे और निरन्न लोगों की वध-स्थली में बदल दिया गया। 31 अगस्त से लेकर 3 सितंबर तक, सिर्फ चार दिनों में निरन्न लोगों के जुलूसों और प्रदर्शनों पर पुलिस के हमलों से 80 लोगों की जानें गयी, तीन हजार से ज्यादा लोग जख्मी हुए, निवारक सुरक्षा कानून के तहत बिना मुकदमा चलाये 21 हजार से ज्यादा लोगों को जेल की सींखचों के पीछे बंद कर दिया गया।

ज्योति बसु ने तब विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव पेश करते हुए अपने ऐतिहासिक भाषण के अंत में कहा, 'आज लोग आपको(सरकार को) धिक्कार रहे हैं। जिस आदमी के शरीर में जरा सा भी खून है, वह कभी आपलोगों को माफ नहीं करेगा। आज से हमारे आपके बीच एक दीवार खड़ी होगयी है। जो इस आंदोलन में शहीद हुए हैं, जिनके खून से बंगाल की मिट्टी रंग गयी है, उन्हें हम कभी भूल नहीं सकते।'

इसके पहले 1954 में राज्य के शिक्षकों के आंदोलन के समय ज्योति बसु लगातार सात दिनों तक विधानसभा में ही बैठे रहें, जब तक कि सरकार ने शिक्षकों से समझौता नहीं कर लिया।

1962 में भारत-चीन सीमा संघर्ष के समय ज्योति बसु ने अंधराष्ट्रवाद से बचते हुए पड़ौसी मुल्क के साथ शांतिपूर्ण संबंध के प्रयत्नों की दलील दी तो उन्हें चीन का दलाल कह कर जेल में बंद कर दिया गया। पांच साल बाद इन्हीं ज्योति बसु को पीकिंग रेडियो साम्राज्यवाद का पिट्ठु बता रहा था। चीन से लड़ाई बंद हो गयी फिर भी ज्योति बसु और एक साल तक जेल में ही बंद रहे।

1970 में राज्य में दूसरी संयुक्तमोर्चा सरकार के काल में श्रमजीवियों के बढ़ते हुए आंदोलनों से बौखला कर मुख्यमंत्री अजय मुखर्जी अपनी ही सरकार को बर्बर बता रहे थे। इसी दौरान कई प्रशासकीय नीतिगत प्रश्नों पर अजय मुखर्जी और ज्योति बसु के बीच हुए ऐतिहासिक महत्व के पत्राचार में ज्योति बसु ने साफ लिखा, 'मुख्यमंत्री अपनी मनमर्जी से किसी भी मामले को जनहित का मामला नहीं बता सकते और इसप्रकार खुद सरकार की सारी शक्तियों का अधिकारी होने का दावा नहीं कर सकते।'


16 मार्च 1970 के दिन अजय मुखर्जी ने इस्तीफा दिया और 31 मार्च को पटना रेलवे स्टेशन पर ज्योति बसु पर गोली चली। वे बाल-बाल बच गये।

इसीतरह स्मरणीय है बारानगर किलिंग (11-14 अगस्त 1971) के दिन। कोलकाता के इस ‘मुक्तांचल’ में जमे हुए कांगसाल, अर्थात कांग्रेस समर्थित नक्सल, जो  माकपा के कार्यकर्ताओं की हत्या करते थे, वे ही केंद्र में बिना किसी विभाग के मंत्री सिद्धार्थशंकर राय द्वारा जन-हत्या की साजिश के शिकार बनाये गये। ज्योति बसु ने इस जघन्य हत्याकांड को चुनौती देते हुए कहा, ‘दिस कैननाट गो अनचैलेंज्ड’। यहीं से पश्चिम बंगाल में अर्द्ध-फासिस्ट शासन का दौर शुरू होगया था। बंदूक की नोक पर लूट लिये गये 1972 के चुनाव में मतदान के दिन दोपहर के बारह बजे ही ज्योति बसु ने चुनाव को प्रहसन घोषित कर उसका वहिष्कार कर दिया और चुनाव के बाद पश्चिम बंगाल के लोगों से अपील की कि, पश्चिम बंगाल में सभी वामपंथी और जनतांत्रिक ताकतों, मजदूरों, किसानों, छात्रों, नौजवानों, महिलाआेंं आदि के जन-संगठनों को सरकार और गुंडों के हमलों को रोकने के लिये साहस और दृढ़ता के साथ एक ऐसी एकता कायम करनी होगी, जैसी पहले कभी नहीं देखी गयी। यह एक कठिन कार्य है लेकिन आम जनता को ही जन-प्रतिरोध के रास्तों को खोज लेना होगा।...
आज हमें जितना भी कष्ट, जितनी भी यातनाएं क्यों न सहनी पड़ें, सफलता के प्रति दृढ़ विश्वास के आधार पर ही इस कर्तव्य के निर्वाह के लिये हम आगे बढ़ते रहेंगे।

इन संघर्षों के शीर्ष पर 1977 में पहली वाममोर्चा सरकार का गठन हुआ। इस सरकार के पहले दिन ही राइटर्स बिल्डिंग के सामने मुख्यमंत्री ज्योति बसु की पहली घोषणा थी, यह सरकार सिर्फ राइटर्स बिल्डिंग से नहीं चलेगी, आम लोगों और उनके जनसंगठनों के साथ नजदीकी संपर्क बना कर चलेगी ताकि प्रभावशाली ढंग से उनकी सेवा की जा सके।

पश्चिम बंगाल में जनतंत्र को पटरी पर लाया गया, पंचायती राज, स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं के जरिये सत्ता का विकेंद्रीकरण हुआ। सच्चे भूमि सुधार, आपरेशन वर्गा और पंचायतों के जरिये ग्रामीण क्षेत्रों में शक्तियों का संतुलन ही बदल दिया गया। वाम मोर्चा की मूलभूत प्रतिश्रुतियों में एक यह भी थी कि जन-आंदोलनों के दमन के लिये कभी भी पुलिस का प्रयोग नहीं किया जायेगा। जिस केंद्र-राज्य संबंधों के सवाल को ज्योति बसु ने 1958 में विधान सभा में उठाया था, वह 80 के दशक में पूरे देश का एक प्रमुख राजनीतिक मुद्दा बन गया, जिसके लिये सरकारिया आयोग का गठन किया गया। 1992 में बाबरी मस्जिद को गिराने वाले आरएसएस और भाजपा को असभ्य और बर्बर कहने से ज्योति बसु कभी चूकते नहीं थे।

एक मुख्यमंत्री की उपलब्धियों, सफलता के साथ साझा सरकारें चलाने के लंबे अनुभवों और सर्वोपरि जनतंत्र तथा संविधान की रक्षा के लिये संघर्षरत देश के एक भविष्यद्रष्टा राजनेता के रूप में ज्योति बसु की इन तमाम भूमिकाओं ने ही 1996 में उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिये सभी गैर-भाजपा दलों का सर्वसम्मत पात्र बना दिया। माकपा की केंद्रीय कमेटी ने जब इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया तो  पार्टी के अनुशासन के हमेशा कायल रहने वाले ज्योति बसु ने इसे खुले आम, और बार-बार एक 'ऐतिहासिक भूल' कह कर कम्युनिस्ट पार्टी की सांगठनिक कार्य-पद्धति के बारे में कुछ ऐसे सवाल छोड़ें, जिनके सही समाधान की जरूरत से आज भी इंकार नहीं किया जा सकता।


अचरज की हद तक स्पष्टतावादी ज्योति बसु का व्यक्तित्व लोगों के लिये हमेशा एक चुनौती रहा है। घुमावदार बातें उन्हें नहीं आती थी - न सामान्य व्यवहार में, न लाखों लोगों को संबोधन में। उनके कुछ दृढ़ विश्वास और निष्ठाएं थी और सर्वोपरि नि:स्वार्थ हृदय की सरल सचाई थी - जिनसे वे कभी कोई समझौता नहीं करते थे। जनता के हितों के अलावा कम्युनिस्टों का अपना कोई हित नहीं है; मार्क्सवाद कोई लकीरपंथ नहीं, व्यवहारिक पथ-प्रदर्शन का विज्ञान है; आम लोग ही संघर्षों के जरिये इतिहास की रचना करते हैं; जनता पर पूरा विश्वास रखो और अपने आज के काम को पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ पूरा करो - इसप्रकार के कुछ आप्त-वाक्य उनकी मूलभूत आस्था से जुड़े हुए थें और उनके तमाम जन-संबोधनों में लगभग किसी टेक का रूप ले चुके थे। इसीलिये निजी स्वार्थों और कुटिलताओं से भरी राजनीति की दुनिया में वे सचमुच अकेले और अनूठे थे; भारत की राजनीति के सामान्य प्रेक्षकों के लिये हमेशा की तरह आज भी वे एक चुनौती ही हैं।
ज्योति बसु भारत के वामपंथी आंदोलन का विवेक थे।




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