गुरुवार, 28 अगस्त 2014

हिन्दी में पुरस्कारों की बरसात और लेखकों की गिरती साख !


आज (26 अगस्त) टीवी के एक हिन्दी चैनल में नीचे की पट्टी पर हिन्दी के कुछ लेखकों को मिले पुरस्कारों की सूचना देख रहा था । फ़ेसबुक पर तो हर रोज़ कोई न कोई लेखक अपने पुरस्कृत होने का जश्न मनाता हुआ दिखाई देता हैं । अगर हिसाब लगाया जाए तो अभी देश के गाँव, प्रखंड, जिलों, क़स्बों, महानगरों में हिन्दी के लेखकों को मिलने वाले पुरस्कारों की संख्या हज़ारों में होगी । 'वागर्थ' जैसी पत्रिकाओं में छपने वाले अधिकांश लेखकों को हम दो-चार पुरस्कारों से कम की कलंगियां लगाये नहीं देखते हैं ।
इतने सारे पुरस्कार लेकिन किताबों की बिक्री ! हिन्दी में साहित्यिक पुस्तकों की बिक्री आज नहीं के बराबर है । 99 प्रतिशत किताबें 500 से कम छापी जाती हैं । इनमें भी अधिकांश किसी इतर उद्देश्य की पूर्ति के लिये, सिर्फ़ 100-200 छापी जाती हैं । प्रकाशक पाठकों के लिये नहीं, सरकारी खरीदों के लिये किताबें छापते हैं और जितनी किताबों की ख़रीद का आदेश जुगाड़ करते हैं, उससे बमुश्किल दस किताबें ही अतिरिक्त छापने का जोखिम उठाते हैं ।
हिन्दी का साहित्य समाज में जितना अधिक अप्रासंगिक होता जा रहा है, उसी अनुपात में हिन्दी साहित्य पर पुरस्कारों की संख्या बढ़ती जा रही है । इसे उलट कर इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि हिन्दी में पुरस्कारों की संख्या जितनी बढ़ती जा रही है, समाज में साहित्य की प्रासंगिकता उतनी ही घटती जा रही है ।
सच यह है कि लेखकों ने आम लोगों और उनके जीवन के संघर्षों से अपना नाता तोड़ लिया हैं, तो आम लोगों ने भी लेखकों से अपना संबंध तोड़ लिया है । अभी के तमाम लेखक किसी न किसी प्रकार से सरकारी तंत्र के अंग हैं । वे इस तंत्र के सेवक हैं । जनता के सेवक होना तो दूर की बात, वे व्यापक जन-समाज के हिस्से भी नहीं हैं । सरकारी तंत्र में रहते हुए परस्पर एक-दूसरे को उपकृत करना, पुरस्कार लेने और देने की जोड़-तोड़ में ही इनकी ज़िंदगियाँ बीत रही हैं ।
तंत्र और जनता दो विपरीत ध्रुव हैं । तंत्र का अंग बन कर जनता का लेखक नहीं बना जा सकता । जीवन के संघर्षों में निहित रचनाशीलता के मूल स्रोत से कट जाने के कारण यह लेखक थोथा आलंकारिक लेखन करने के लिये अभिशप्त होता है ।
ऐसी स्थिति में आज पुरस्कार किसी की श्रेष्ठता के नहीं, लेन-देन के इस पूरे व्यापार में उसके लंबे हाथों और उसकी पहुँच का प्रमाण-पत्र बन कर रह गये हैं ।
यही वजह है कि आज हिन्दी का बड़े से बड़ा लेखक भी यह दावा नहीं कर सकता है कि हिन्दी भाषी समाज में उसकी कोई पूछ है, लोग उसे पहचानते हैं और किसी भी विषय पर उसकी राय का कोई महत्व है । किसी भी सामाजिक-राजनीतिक विषय पर आज हिन्दी के लेखकों से शायद ही कोई राय माँगता है । यह विचार का एक गंभीर विषय है । लेखकों-बुद्धिजीवियों की लगभग ख़त्म हो रही सामाजिक साख में पुरस्कारों के इस गोरख-धंधे की भूमिका पर भी विचार की ज़रूरत है ।

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