शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

‘दत्ता वर्सेस दत्ता’ : विरूपित मूल्यों पर अस्मिता का वरक!

अरुण माहेश्वरी


कल ही बांग्ला फिल्म ‘दत्ता वर्सेस दत्ता’ देखी। खास तौर पर पिछले पांच-छ: वर्षों में प्रसिद्धी पाये बांग्ला फिल्मकार अंजन दत्ता की नयी फिल्म। इसके पहले उनकी और दस फिल्में आ चुकी है। सबसे पहली फिल्म हिंदी में थी, ‘बड़ा दिन’, जो 1998 में प्रदर्शित हुई थी। लेकिन सही अर्थ में चर्चा में आने वाली उनकी पहली बांग्ला फिल्म थी ‘बोंग कनेक्शन’(2006)। उसके बाद, ‘मैडली बंगाली’ (2009), ‘व्योमकेश बक्शी’ (2010),‘रंजना आमी आर आसबो ना’(2011) तथा ‘आबार व्योमकेश’(2012) आदि। इनमें से  ‘बोंग कनेक्शन’, ‘रंजना आमी आर आसबो ना’ और ‘आबार व्योमकेश’ मैंने पहले ही देखी थी। आज जब इन सभी फिल्मों के बारे में सोचता हूं, और जिन फिल्मों को मैंने नहीं देखा है, उनके भी दूसरों से सुने कथानक पर गौर करता हूं तो एक बार के लिये ‘व्योमकेश’ श्रंखला को अगर अलग रख दिया जाए तो इन सभी फिल्मों से कुल मिला कर अंजन दत्ता की एक ऐसे फिल्मकार की छवि बनती है जिसमें आदमी की सभी प्रकार की पहचानों को मिटा देने वाले आज के क्रूर समय में किसी रोमांटिक सर्जनात्मक लेखक की तरह वे अपनी फिल्मों के जरिये खुद को, अपनी अस्मिता को तलाशने, रचने के लिये पागल की तरह जूझते हुए दिखाई देते हैं। उनकी फिल्मों का शिल्प तो वही पुराना, आख्यानपरक शिल्प ही है। लेकिन इसकी खूबी इनके फिल्मांकन के खास प्रकार के बेलौसपन में है जो आधुनिक कल्पित जीवन और चरित्रों के अतियथार्थवादी वर्णन से निस्संदेह हर प्रकार के संरक्षणवादी सोच को झकझोरती है। तथापि, इनकी कमजोरी एक बुनियादी दार्शनिक कमजोरी है, उत्तर-आधुनिक विखंडित जीवन की परिस्थितियों में नवजागरणकालीन बंगाली अस्मिता को खोजने या उस पर आरोपित करने की विडंबनापूर्ण कोशिश की कमजोरी। अज्ञेय के ‘नदी के द्वीप’ में उद्दाम प्रेम पर संस्कृति के प्रलेप की सुंदरता की भांति ही अंजन दत्ता को शराब, सिगरेट, ड्रग्स और सेक्स में डूबे बोहेमियन और विरूपित जीवन में अपनी सांस्कृतिक जड़ों की तलाश का फिल्मकार कहा जा सकता है और अपने इसी उपक्रम में वे आधुनिक जीवन की विकृतियों और विरूपताओं की चीर-फाड़ का ऐसा सम्मोहक आख्यान रचते हैं, कि लोग बेसाख्ता उन्हें लीक से हटा हुआ, एक दुस्साहसी फिल्मकार कहने लगते हैं।
यहां हम उनकी सभी फिल्मों पर नहीं, सिर्फ इस ताजातरीन फिल्म ‘दत्ता वर्सेस दत्ता’ पर ही अपने को केंद्रित करेंगें।
सत्तर के दशक के उत्तरी कोलकाता के प्रसिद्ध बारानगर के नक्सलपंथियों के कथित मुक्तांचल की तरह के दक्षिण कोलकाता के तालतल्ला क्षेत्र की एक तंग गली में स्थित ‘दत्ता बाड़ी’ के चरित्रों पर केंद्रित इस फिल्म के केंद्र में है हाईकोर्ट के एडवोकेट बिरेन दत्ता और उनका बेटा रोनो दत्ता। पेशे के प्रति बेफिक्र शराब, जुआं और सेक्स में डूबा एडवोकेट दत्ता अपने सामंती लंपटपन के चलते पूरे परिवार के ढांचे को बिगाड़ चुका है। उसकी पत्नी अल्कोहलिक होगयी है, बेटा दार्जलिंग के एक कुलीन स्कूल की फीस न भर पाने के कारण पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर कोलकाता आजाता है। एक ही मकान में रह रहे बीरेन की अपने बड़े भाई से हमेशा कलह लगी रहती है और आपस में मामले-मुकदमे तक चल रहे हैं। छोटा कुंवारा भाई विक्षिप्त है। बिरेन के पास मुवक्किल के नाम पर विधवा रुणु मासी है, जिसके साथ उसके अवैध संबंध है। काबुलीवाला से उधार ले-लेकर बिरेन ने उसे भी अपने मकान के एक कमरे में बसा लिया है। बिरेन की जवान बेटी है चिना। बिरेन रोनो को बैरिस्टर बनाने की बात करता है और रोनो जानता है कि यह एक कोरी बकवास है। जब दार्जलिंग में पढ़ाई का खर्च ही पूरा नहीं हो सका तो विलायत में पढ़ाई का खर्च कहां से आयेंगा! वह बैरिस्टर नहीं, अभिनेता बनना चाहता है। बिरेन की छोटी-मोटी पारिवारिक जरूरतों को पूरा करने वाले एक चरित्र घेंटू काकू का परिवार में आना-जाना है जो बिरेन की पत्नी और बेटी दोनों से ही अवैध संबंध रखता है। बेटी पर तो उसका ऐसा फितूर सवार होता है कि वह घेंटू काका से शादी करने की ही घोषणा कर देती है। घेंटू काका पर क्रुद्ध बिरेन उसके सफाये के लिये इलाके के नक्सलाइट नेता को सुपारी देता है, लेकिन नक्सली नेता घेंटू काका के सफाये के बजाये चिना के दिल से उसके सफाये के काम में लग जाता है और पता चलता है कि एक दिन कालीघाट जाकर चिना और नक्सली नेता ने शादी कर ली। बिरेन के पास ‘मार डालूंगा’ की थोथी धमकियों के अलावा करने को और कुछ नहीं रह जाता। बेटा रोनो अभिनेता के रूप में अपनी ‘परम-अभिव्यक्ति’ को प्राप्त करने के उपक्रम में एक आरकेस्ट्रा पार्टी के कलाकार निदेशक से संपर्क में आता है, कला से मुक्ति का संधान पाता है। इसी बीच कथानक में एक नया मोड़ बिरेन के पिता, दत्ता बाड़ी के बड़े कर्ता के प्रवेश से आता है, जो वर्षों से किसी संन्यासी के मठ में जीवन गुजार रहे थे। वे वायलिन-वादक हैं और मठ के जीवन से ही उन्हें इलहाम होता है कि ईश्वर तो उनकी वायलिन में बसता है, इसके संगीत के प्रसार से ही वे ईश्वर की वाणी का प्रसार कर सकते है। और, दत्ता बाड़ी में एक संगीत का स्कूल खोल कर पूरी तरह से बेढब और बेतरतीब होचुके इस परिवार के माहौल में नयी लय का संचार करते हैं। पोते रोनो से उनके तार ठीक मिल जाते हैंं। बिरेन और कलहप्रिय उसके बड़े भाई भौंचक सब देखते भर रहते हैं। नशे में डूबी रहने वाली बिरेन की पत्नी में पियानो बजाने का पुराना हुनर जागृत होता है और संगीत की कक्षा में भागीदारी से वह अपने को सार्थक करती है। इसप्रकार, परिवार में एक नयी तरंग पैदा करके अचानक ही दादाजी चल बसते है। दादाजी के रहते रोनो का जो विक्षिप्त काका सामान्य होचुका था, वह भी छत से गिर कर जान गंवा देता है। बिरेन खुद लकवा के कारण पंगू हो जाता है। बेटी चिना अपने नक्सली पति के साथ घर आती है, यह बताने कि उसका पति मैटलर्जिकल इंजीनियर होगया है और एक बड़ी कंपनी की पोस्टिंग में हांगकांग से अंत में अमेरिका चला जायेगा। चिना का पति सुपारी के एवज में बिरेन के दिये पैसों को ससम्मान लौटाता है। और रोनो भी एक अच्छा अभिनेता और फिल्म निदेशक बन कर मृणाल सेन तक की प्रशंसा पाता है। इसप्रकार, अंत में जीवन की निरंतरता का संदेश देता हुआ रोनो अपने पंगू बापी को उठकर चलने की प्रेरणा देता है और यहीं फिल्म खत्म हो जाती है।
फिल्मांकन में सत्तर दशक के कोलकाता के परिवेश, नक्सलवाद, सिद्धार्थशंकर राय सरकार के दमनतंत्र का जहां एक ओर इस्तेमाल किया गया है, वहीं एक पुराने जमींदार परिवार के चरित्रों की झूठी शान और दीमक लग चुकी नैतिकता के ‘साहब बीबी और गुलाम’ जैसे जाने-पहचाने चरित्रांकन का भी प्रयोग हुआ है। इसकी विडंबना यह है कि यह सब आधुनिकता के नाम पर एक प्रकार के बोहेमियन जीवन को अस्मिता के सवाल से जोड़ने कोशिश के तहत किया गया है, जिसके चलते सिर्फ बिरेन दत्ता ही एक क्विगजोटिक चरित्र नहीं बन जाता, बल्कि उस काल की सारी लड़ाइयां, पुलिस दमन और विचारधारात्मक बहसें, वर्ग शत्रु और वर्ग युद्ध आदि की बातें और दत्ता का प्रिय रवीन्द्र संगीत भी समग्रत: उस समय के यथार्थ का कैरीकेचर भर बन कर रह जाते हैं। चूंकि अंजन दत्ता की इन तमाम फिल्मों में एक खास प्रकार की जातीय अस्मिता की तलाश की बदहवास कोशिश रहती है, इसीलिये आत्म के संधान में ऐसे विरूपित जीवन के रास्तों पर उनकी भटकनों को लोग स्वाभाविक तौर पर दुस्साहसिक बता कर अपने ढंग से उसका मान रखते हैं। लेकिन अगर गहराई से देखा जाए तो वे वस्तुत: एक गढ़े हुए जीवन और चरित्रों से अस्मिता का कोरा भ्रम ही पैदा कर पाते हैं। यह वास्तविक से दूर, मरीचिका की ओर भागते मृग की ऐसी चिंतन प्रणाली है जो वैचारिक विकास की पूछ की ओर यात्रा करते हुए मदारी की तरह कई तमाशें तो दिखा सकती है, लेकिन जीवन की सहज सचाइयों को विषय बना कर आज के उभरते सच को व्यक्त नहीं कर सकती। आधुनिक यथार्थ का भ्रम पैदा करने वाला एक प्रकार का यह रूमानी कल्पना लोक ही आत्म-संधानी अंजन दत्ता की रचनाशीलता की सबसे बड़ी सीमा जान पड़ती है। आख्यान की शक्ति भी इसमें बहुत दूर तक सहयोगी नहीं बन पाती। फिल्मकार अपने प्रभामंडल को गंवा चुके जीवन के सभी काव्यात्मक संबंधों को भारी तनाव और पीड़ा के साथ सहेजने-संभालने की कोशिश में उनके निष्ठुर-निर्मम बिखराव का आख्यान ही तैयार कर पाता है। विधेयात्मक यह है कि जीवन फिर भी रुकता नहीं दिखाई देता।
अंजन दत्ता के इस फेनामेना को बांग्ला के साहित्य जगत के खास इतिहास से भी कुछ हद तक जोड़ कर देखा जा सकता है। बंगाल ही मलय रायचौधरी, शक्ति चट्टोपाध्याय आदि के हंग्री जेनरेशन वाले साहित्यिक आंदोलन की पीठ भूमि रही है, जिसकी गूंज-अनुगूंज हिंदी में अकविता, भूखी पीढ़ी और श्मशानी पीढ़ी के साठोत्तरी आंदोलन में सुनाई दी थी। वह समय बंगाल में वामपंथ के भारी उभार का भी काल था। वामपंथ अपने आप में परंपरा के लिये एक बड़ी चुनौती और विद्रोह का स्वर था। साहित्य और कला के क्षेत्र में प्रतिवाद और विद्रोह केंद्रीय स्चर था, परंपरा सृजन का स्रोत नहीं रह गयी थी। ऐसे में, जो रचनाकार किन्हीं कारणों से वामपंथियों के प्रतिवाद और विद्रोह के साथ निबाह नहीं कर पा रहे थे, उन्होंने सर्व-नकार की चरम स्थितियों को अपनाया, हर प्रचलित रीति-नीति की धज्जियां उड़ाई और लंपटपने को ही संस्कृति का मूल-स्रोत बताने की कोशिश की। लेकिन काल-क्रम में देखा गया कि यही तबका राज्य के प्रमुख प्रकाशन-गृह, आनंदबाजार ग्रुप के साथ जुड़ कर साहित्य की मुख्यधारा में तब्दील होगया और नवजागरणकालीन मनीषियों की जगह रवीन्द्रनाथ, सत्यजीत राय की नयी प्रतिमाओं (आइकन्स) के साथ बंगाली अस्मिता के पुनआर्विष्कार का नया उपक्रम शुरू हुआ। सुनील गंगोपाध्याय की भारी जनप्रियता इस उपक्रम की सफलता का क्लासिक उदाहरण है। लेकिन इस समूचे उपक्रम का एक सार-तत्व यह भी है कि शक्ति, सुनील के व्यक्तित्वों की जन- स्वीकृति हंग्री जेनरेशन के सर्व-नकारवाद की स्थापना का हेतु नहीं बन पायी। रवीन्द्रनाथ, सत्यजीत की परंपरा की कड़ी बन कर ही वे बांग्ला पाठकों के कंठहार में जगह पा सके। इसीप्रकार, अंजन दत्ता का बोहेमियनवाद संस्कृति जगत के कुछ लोगों की जीवन-शैली का अंग भले ही बन जाए, अपनी सांस्कृतिक प्रासंगिकता के लिये ही रवीन्द्र-सत्यजीत का अवलंबन इसकी मजबूरी है। सत्यजीत राय के चरित्र व्योमकेश पर फिर-फिर लौटना अंजन दत्ता की इसी रचनात्मक मजबूरी का संकेत है और यह अकेला तथ्य ही सृजनशीलता के संधान में अराजक, विरूपित बोहेमियन जीवन की अनिवार्यता के तत्व को खारिज करने के लिये काफी है।
बहरहाल, कामना यही है कि अंजन दत्ता अपने को इसी प्रकार दोहराते भर नहीं रहे, बल्कि अपने अंदर से निकल कर बाहर की धूल-मिट्टी में सने आदमी की सहज लेकिन फिर भी कठिन कहानियों को विषय बनायें। तभी उनकी रचनात्मकता को क्लासिक बांग्ला सिनेमा के महारथियों के समकक्ष स्थान मिल पायेगा।
27.11.2012  

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