गुरुवार, 21 अगस्त 2014

शंभु मित्रा की 100वीं सालगिरह

- अरुण माहेश्वरी


कोई भी युगान्तकारी जातीय सांस्कृतिक आंदोलन सिर्फ नयी रचनाशीलता के उन्मेष का बिन्दु नहीं होता, बल्कि परंपरागत सांस्कृतिक इतिहास के उज्जवल पक्षों को भी एक नयी अर्थवत्ता प्रदान करता है। वह जातीय संस्कृति के इतिहास की विकास यात्रा में मील का पत्थर होता है। इस सचाई को जब हम बांग्ला नाटकों के आधुनिक इतिहास की श्रंखला में देखते हैं तो इसमें जिन प्रमुख व्यक्तित्वों के कृतित्व की तस्वीर हमारी आंखों के सामने उभरती है, उनमें एक बहुत बड़ा नाम है शंभु मित्रा का। बांग्ला नाटकों के किंवदंती निदेशक, नाट्यकार, आवृत्तिकार और रंगमंच तथा फिल्मों के अभिनेता शंभु मित्रा।

आज, 22 अगस्त 2015 का दिन शंभु मित्रा की 100वीं सालगिरह का दिन है - उनके शताब्दी वर्ष का दिन।

बाईस अगस्त 1915 के दिन कोलकाता में जन्मे जियोलोजिकल सर्वे आफ इंडिया के एक कर्मचारी शरत् कुमार मित्रा की छठी संतान शंभु मित्रा। सरकारी स्कूल और फिर कोलकता के सेंट जेवियर्स कालेज के इस विधार्थी ने कम उम्र से ही बांग्ला नाटकों की दुनिया में आना-जाना शुरू कर दिया था। सन् 1939 में उत्तर कोलकाता के रंगमहल व्यवसायिक रंगमंच पर पहली बार वे एक अभिनेता के रूप में उतरे।

वह समय भारत की आजादी की लड़ाई का और गणनाट्य आंदोलन (आईपीटीए) के उदय का समय था। शंभु मित्रा ने इससे जुड़ कर गणनाट्य आंदोलन के इतिहास के उस स्वर्णिम पृष्ठ की रचना में अपना योगदान किया जो बिजन भट्टाचार्य के नाटक ‘नवान्नो’ के द्वारा रचा गया था। 1944 में खेले गये ‘नवान्नो’ नाटक में बिजन भट्टाचार्य के साथ सह-निदेशक थे शंभु मित्रा। 1948 में उन्होंने अपनी एक नयी नाट्य मंडली ‘बहुरूपी’ का गठन किया और वहीं से बंगाल में गणनाट्य के दायरे के बाहर के एक नये ग्रुपथियेटर आंदोलन का प्रारंभ हुआ। गणनाट्य संघ की आंदोलनात्मक नाट्य धारा के साथ ही रवीन्द्रनाथ सहित अन्य पारंपरिक नाट्यकारों और देश-विदेश में चल रहे रंगमंच के तमाम नये प्रयोगों को आत्मसात करते हुए एक सर्वांगीण विकसित नया बांग्ला रंगमंच सामने आया। बंगाल के जन-नाट्य का यहां के नवजागरण की सांस्कृतिक परंपरा से एक अटूट संबंध कायम हुआ।

शंभु मित्रा के निदेशन में ‘बहुरूपी’ नाट्य मंडली ने सन् 1950 से ही एक के बाद एक बेहद सफल नाटकों का मंचन किया। खास तौर पर रवीन्द्रनाथ के नाटक, जिनके बारे में कहा जाता था कि वे रंगमंच के लिये नहीं, बल्कि ठाकुर बाड़ी के निजी आयोजनों के लिये लिखे गये थे, उन्हें रंगमंच के बेहद सफल नाटकों का रूप देकर शंभु मित्रा ने बांग्ला रंगमंच को एक नयी शास्त्रीय गरिमा प्रदान की और रवीन्द्रनाथ के नाटकों की अन्तर्निहित सीमाहीन शक्ति से बांग्ला रंगमंच के दर्शकों को परिचित कराया। 1951 में उन्होंने रवीन्द्रनाथ के उपन्यास पर आधारित ‘चार अध्याय’ नाटक का मंचन किया, 1954 में ‘रक्त करबी’ (हिंदी में जिसका अनुवाद ‘लाल कनेर’ शीर्षक से हुआ है), 1959 में ‘मुक्तधारा’ नृत्य नाट्य, 1961 में ‘विसर्जन’ और 1964 में ‘राजा’ का मंचन किया।

इनके अलावा शंभु मित्रा द्वारा निदेशित और अभिनीत प्रसिद्ध नाटकों में इब्सन के ‘एन इनेमी आफ द पिपुल’ का बांग्ला रूपांतरण ‘दसचक्र’(1952) तथा ‘अ डाल्स हाउस’ का ‘पुतुल खेला’ (1958), सोफोक्लिस के ‘ओडिपस द किंग’ का ‘राजा ओडिपस’ शामिल है। उन्होंने बादल सरकार के ‘बाकी इतिहास’ और ‘पागला घोड़ा’ तथा विजय तेंदुलकर का ‘चोप अदालत चोलछे’, (1971) को भी निदेशित किया था। शंभु मित्र ने प्रसिद्ध हिंदी फिल्म ‘जागते रहो’ का निदेशन किया और उसकी पटकथा भी लिखी थी। हिंदी और बांग्ला की अपने जमाने की कई प्रसिद्ध फिल्मों में उन्होंने अभिनय किया था। देश-विदेश के अनेक सम्मान भी उन्हें मिलें।

शंभु मित्रा ने 1971 तक लगातार काम करने के बाद जीवन के अंतिम लगभग 25 साल नाटकों और फिल्मों की दुनिया से अलग, एकांतवास में बितायें। कल के आनंदबाजार पत्रिका में शंभु मित्रा पर शमीक बंदोपाध्याय और सुमन मुखोपाध्याय के जो दो लेख प्रकाशित हुए हैं।ं दोनों लेखकों ने अपने समय की रचनात्मक उपलब्धियों के शीर्ष पर बैठे उनके समान व्यक्तित्व के एकांतवासी होजाने के दुखांत को ही अपने विचार का विषय बनाया है। शमीक बंदोपाध्याय ने अपने लेख ‘आधुनिकतार एकटि असमाप्त पाठ’ में लिखा है कि ‘‘उन्होंने नाट्य निदेशन का एक नया रास्ता दिखाया था। लेकिन देखा गया कि उनका थियेटर दरअसल पन्द्रह सालों में ही समाप्त होगया।’’ सुमन मुखोपाध्याय ने भी शंभु मित्रा में आए व्यर्थता बोध के लिये नाटकों के क्रमश: गिरते हुए स्तर और श्रेष्ठ नाट्य कर्म के लिये जरूरी सुविधाओं के अभाव को और समाज में नाटकों की कम होती कद्र को जिम्मेदार बताया है। शमीक ने अपने लेख का अंत अजितेश बंदोपाध्याय के अंतिम साक्षात्कार को उद्धृत करते हुए किया है जिसमें अजितेश नाटक की दुनिया के यथार्थ के बारे में नाराजगी भरे स्वरों में कहा था - ‘शंभुदा पार्क सर्कश में रेस्ट ले रहे हैं...शंभुदा को शौख चर्राया था, करेंगे, किया भी। थक गये तो छोड़ दिया।’ शमीक लिखते हैं - ‘‘इससे कहीं ज्यादा अपमान, अनादर और असुरक्षा के बावजूद बिजन भट्टाचार्य या अजितेश बंदोपाध्याय - या शिशिर कुमार भी - मृत्यु की घड़ी तक थियेटर छोड़ नहीं पायें। जबकि शंभुबाबू का थियेटर दरअसल पन्द्रह सालों में ही खत्म होगया।’’

इस लेखक को भी शंभुमित्र द्वारा निदेशित और अभिनीत नाटक ‘रक्त करबी’ और ‘राजा ओडिपस’ को देखने का सौभाग्य मिला था। इसके अलावा बांग्ला नाटकों में किये गये एक समवेत अभिनव प्रयोग, ब्रेख्त के ‘गैलेलियो’ में शंभु मित्रा के असाधारण अभिनय को भी देखने का मौका मिला था, जिनकी स्मृतियों को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। ‘रक्त करबी’ में राजा और नंदिनी के संवाद और पूरे रंगमंच पर राजा के रूप में किसी बेचैन ग्रीक नायक की तरह की शंभु मित्र की उपस्थित लगभग चालीस साल बाद आज भी किसी रोमांचक रहस्य की धुंधली सी तस्वीर की तरह दिमाग में अटकी हुई है।

एक ऐसे भारतीय नाट्य जगत के किंवदंती पुरुष की जन्म शताब्दी के अवसर पर हिन्दी में भी नाट्य कर्म पर गंभीर चर्चा हो, हमारी यही कामना है। शंभु मित्रा के प्रति यही हमारी सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है।


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