सोमवार, 15 सितंबर 2014

सनातनपंथ और साईं भक्तों के प्रसंग पर एक सोच

अरुण माहेश्वरी

टेलिविजन के कुछ चैनलों पर सनातनपंथियों और साईं भक्तों के बीच धर्म की दुनिया में चल रही वर्चस्व की लड़ाई के दृश्य बेहद दिलचस्प है। मंदिरों से साईं बाबा की मूर्तियों को हटाने, उनकी पूजा-अर्चना पर रोक लगाने का जैसे एक पुरजोर अभियान चल रहा है। 33 करोड़ देवी-देवताओं के सनातन धर्म के पास अब एक भी नये देवता को रखने की जगह नहीं है!

जो लोग सनातन धर्म की सर्वसमावेशी उदारता के प्रमाण के तौर पर बुद्ध और महावीर को भी उसके देवताओं की कतार में शामिल करने की बात कहते हैं, उसी के इस आक्रामक रुख की उनके पास कोई विशेष व्याख्या नहीं है। साईं के चरित्र को लेकर नाना प्रकार के मनगढ़ंत किस्सों को जरूर हवा में उछाला जा रहा है, जैसा कभी ब्राह्मणवाद और बौद्ध दर्शन के बीच अथवा शैव और वैष्णवों के बीच के खूनी संघर्षों के समय में भी किया गया होगा। क्या इससे यह जाहिर नहीं होता कि इतिहास के न्याय में दमन और भक्षण ही ‘समावेशी उदारता’ की प्रक्रिया के लक्षण होते हैं?

इसीलिये जो लोग धर्म के राज में नीति-नैतिकता और शांति को देखते हैं, उनके लिये तो यह दृश्य और भी ज्यादा आंख खोलने वाला हैं। सनातन धर्म की वृहत प्रभुसत्ताओं के बाहर हिन्दू धर्म की ही नवोदित प्रभुसत्ताओं के साथ एक प्रकार का लघु ‘सीया-सुन्नी’ संघर्ष!

दरअसल, यह समूचा प्रसंग धर्म-निरपेक्ष भारत में धर्मों की प्रभुसत्ता के विस्तार की एक ऐसी कहानी कहता है, जो ज्यादा चिंतनीय है। जब हम आधुनिक भारत में राजनीति अथवा सत्ता-विमर्श में धर्म के प्रवेश के इतिहास को देखते हैं तो अनायास ही हमारा सबसे पहले ध्यान आरएसएस की ओर चला जाता है। आधुनिक भारत में आरएसएस एक ऐसा प्रमुख राजनीतिक उद्देश्यों वाला संगठन है, जो धर्म के जरिये राजनीति करने के साथ ही धर्म के क्षेत्र में भी प्रत्यक्ष दखलंदाजी को अपनी घोषित रणनीति का हिस्सा बनाये हुए हैं।

आरएसएस के इतिहासकार जनसंघ के बाद विश्व हिन्दू परिषद के गठन को आरएसएस के जीवन की एक बहुत बड़ी घटना मानते रहे हैं। गंगाधर इन्दूरकर ने अपनी किताब ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, अतीत और वर्तमान’ में लिखा है : ’’संघ द्वारा स्थापित अन्य संस्थाओं की अपेक्षा इस संस्था (विश्व हिन्दू परिषद, विहिप) के विषय में गुरु जी को अ​धिक आत्मीयता थी। ... राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अतिरिक्त किसी अन्य संस्था के साथ गुरु जी का नाम नहीं जुड़ा, किन्तु विश्व हिन्दू परिषद के लिए 22 व्यक्तियों का जो प्रथम ट्रस्ट बना, उसमें तेरहवें क्रमांक पर श्री माधव सदाशिव गोलवलकर, यह नाम दिखाई देता है।’’ (पृ. 138)

आर एस एस का ’एकचालाकानुवर्तित्व’ का सिद्धांत सिर्फ राजनीति के लिये नहीं, धर्म के क्षेत्र में भी हिन्दू समाज के सभी धार्मिक संस्थानों को एक कमान के अधीन लाने का सिद्धांत है। विहिप का गठन हिन्दू धर्म को एक पैगम्बरी धर्म में तब्दील करने के लिये हिन्दुओं की सभी धार्मिक संस्थाओं में दखल देने के लिये ही किया गया था। आर एस एस भारतीय धर्म-दर्शन की वैविध्यमय विशिष्टता को अपने रास्ते की एक बड़ी बाधा मानता रहा है और इसीलिये उसने गिरजाघरों और मस्जिदों की तरह किसी एक संस्था के द्वारा हिन्दुओं के धार्मिक जीवन को चालित करने का बीड़ा उठा रखा है।

विहिप की घोषित मान्यताओं में कहा गया है कि ’’परिवर्तित सन्दभो में मठ, मन्दिर आदि धार्मिक केन्द्रों को केवल भक्ति, पूजा, उपासना केन्द्रों के रूप में नहीं अपितु सेवा तथा सामाजिक प्रगति के आधार-बिन्दु के रूप में देखा जाएँ।’’

अपने अस्तित्व के इन तमाम सालों में विहिप धर्म-संस्थाओं पर अपनी जकड़बंदी के विस्तार में कितना सफल रहा, कितना विफल - यह एक अलग शोध का विषय है। लेकिन एक बात साफ है कि उसने धार्मिक मठों, बाबाओं-गुरुओं को सत्ता की राजनीति का अंग बना कर धर्म के पूरे क्षेत्र को आत्मिक उत्थान या आस्था के बजाय वर्चस्व कायम करने के तमाम कुत्सित झगड़ों और विवादों का रण-क्षेत्र जरूर बना दिया। आये दिन मठों के अंदर के खूनी संघर्षों के किस्से अखबारों में पढ़ने को मिलते रहते हैं। सत्ता के पक्ष-विपक्ष के खेल में शामिल करके संघी राजनीति ने तमाम मठाधीशों, बाबाओं-गुरुओं में सत्ता का नया मद जागृत किया है। इससे जुड़े उन्माद ने सनातन धर्म के कई मठाधीशों में क्रमश: एक भिन्न प्रकार की उग्रता और आक्रामकता भी पैदा की है।

कहना न होगा, साईं प्रसंग में किसी न किसी रूप में सनातनपंथियों की यही आक्रामकता खुल कर सामने आरही है।

आने वाले समय में यह पूरा प्रसंग क्या रूप लेगा कहना मुश्किल है। लेकिन इतिहास गवाह है कि वर्णाश्रमी सनातन धर्म के झंडाबरदारों के जरिये यदि समाज में पुरातनपंथी विचारों और भावनाओं को किसी भी रूप में बल मिलता है तो अन्तत: इसका निश्चित प्रभाव भारत में सामाजिक न्याय की लड़ाई पर, भारतीय जनतंत्र पर पड़ेगा। और, इसके लिये दोषी होगा - संघ परिवार और उसकी धर्म-आधारित राजनीतिक सोच। इस बारे में संघ परिवार को सफाई देनी होगी !

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