रविवार, 14 सितंबर 2014

विनय कोनार नहीं रहे





(आज पश्चिम बंगाल के किसान आंदोलन के एक किंवदंती नेता विनय कोनार का देहावसान हो गया। वे पिछले कुछ अरसे से बीमार चल रहे थे । विनय दा की मृत्यु बंगाल के किसान आंदोलन के एक युग के अवसान की तरह है । एक अत्यंत प्रभावशाली वक़्ता और उतने ही अच्छे लेखक विनय दा कम्युनिस्ट आंदोलन के नेतृत्व की उस परंपरा के प्रतिनिधि थे, जो मेहनतकशों के हित में संघर्ष के लिये अकूत त्याग-बलिदानों की परंपरा के रूप में जानी जाती है ।
आज उनका न रहना संकट की इस घड़ी में देश के किसान आंदोलन के लिये एक बड़ी क्षति है । उनकी स्मृति में हम आंतरिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं ।)


विनय कोनार का लिखा एक संस्मरण 
आलो
(मधुर यादों की कल्पना)
             
विनय कोनार

बचपन का दोस्त। हुगली जिले का निवासी, हमारे गांव में उसके मामा का घर था। छुट्टियां मिलने पर ही मामा के घर आजाता था। उम्र में एक साल बड़ा ही होगा, लेकिन पढ़ाई में मुझसे एक क्लास नीचे था। मुझे किसी पाठशाला में नहीं जाना पड़ा था, दस वर्ष का होते ही पिता ने सीधे पांचवी क्लास में भर्ती कर दिया। प्रधानाघ्यापक ने मुझसे सिर्फ दो सवाल पूछे थे, पहला था, ‘हमारे पास एक काली गाय है‘-इसका अंग्रेजी अनुवाद और दूसरा था, ‘ए स्लाई फोक्स मैट ए हेन‘-इसका बांग्ला में अनुवाद। आश्चर्य हुआ कि मैंने दोनों सवालों का ठीक जवाब दिया था।
आश्चर्य इसलिए हुआ क्योंकि मैं पढ़ने-लिखने में एकदम भी अच्छा नहीं था, पाठ्य पुस्तकों की ओर मेरा कोई रुझान ही नहीं था। पिता जिन्हें आमतौर पर अपठनीय समझते थे उन्हीं कहानी-उपन्यासों को पढ़ने की जबरदस्त इच्छा रहती थी। परीक्षा में किसी तरह पास होने से ही मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहता था। स्कूल में मेरी ख्याति बदमाशी के लिये थी, अच्छे छात्र के लिये नहीं।
सुधा मुझसे बिल्कुल उल्टा था। बिना मॉं-बाप का गरीब। लेकिन जैसे खेलकूद में अच्छा था उसी तरह पढ़ने में भी तेज था। स्कूल में किसी क्लास में प्रथम नहीं आया हो ऐसा विरल ही होता था। हम दोनों में एक बात मिलती थी। दोनों ही गणित बहुत पसंद करते थे। इसी एक विषय में मेरा लगाव था। मुझे लगता है मेरी स्मृति कमजोर है, गणित याद नहीं करना पड़ता, नियम तर्कसिद्ध है, इसलिए मुझे यही पसंद था। सुधा धीर-धीरे हमारे घर का ही लड़का जैसा हो गया। रेलगाड़ी से 25 मिनट लगते, मौका मिलते ही चला आता। इस तरह 1945 में गणित में बहुत अच्छे नम्बर लाकर भी मैं तीसरे दर्जे में पास हुआ। सुधा इसके एक साल बाद तीन विषयों में विशेष योग्यता के साथ 70 प्रतिशत अंक लेकर प्रथम श्रेणी से पास हुआ। पिता के दबाव से कुछ दिनों तक कालेज जाने का नाटक करता रहा। सुधा भी कालेज में भर्ती हो गया। मामा की हालत भी अच्छी नहीं थी, अनेक कष्ट उठाकर ट्यूशन करके सन् ‘48 में अच्छे नंबरों से आई.एस.सी. पास की।
दोनों के अलग-अलग जगह रहने पर भी हम दोनों की मित्रता परवान चढ़ने लगी। 1945 से ही हम दोनों पर समाजवाद का रंग चढ़ने लगा था और माक्‍​र्सवाद की तरफ आकर्षण भी बढ़ने लगा था। सन् 1948 में कम्युनिस्ट पार्टी के गैरकानूनी होने के बाद हमारा आग्रह और भी बढ़ गया। दूर रहने पर भी दोनों ने पढ़ना-लिखना शुरू किया। इसी बीच मुझे पार्टी सदस्यता मिल गयी थी तथा मैं गुप्त कामों में लग गया था। सुधा को यह बता नहीं सकता था। सुधा तब अपने दूर के किसी रिश्तेदार की मदद से शांतिपुर में एक अनाम संस्था में काम करने लगा। हमारे यहां तब भी खुले में पार्टी का अस्तित्व नहीं था। लेकिन उस वक्त शांतिपुर में आर.सी.पी.आई का संगठन था। कानाई पाल उसके नेता थे। यह पार्टी गैर-कानूनी नहीं थी। 1948 के 15 अगस्त को कानाई पाल के नेतृत्व में जुलूस के शुरू होते ही पुलिस ने अंधाधुंध गोलियां चलानी शुरू कर दी। पाल के साथ बहुत से लोग घायल होकर जेल चले गये। जुलूस को देखकर सुधा काफी उत्साहित हुआ और पत्र लिखकर मुझे सब कुछ बताया। सुधा इसी बीच एक क्लब से जुड़ गया था। क्लब और लाईब्रेरी एक साथ थे। अच्छा फुटबॉल खेलता था इसलिए क्लब में उसकी इज्जत थी। सुधा बहुत अच्छी तरह तर्क कर सकता था। बहुत कम शब्दों में वजनदार तर्क देकर लोगों का मन जीत सकता था। शांतिपुर के इस क्लब ने एक विचार-गोष्ठी का आयोजन किया। इस विचार-गोष्ठी का विषय था : नारी का दूसरा विवाह,समाज का अमंगल। सुधा ने बताया कि वह इसमें भाग लेगा और इसके लिए तीन लोगों की एक टीम तैयार की है। कहना न होगा कि सुधा विपक्ष में बोलेगा। ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र‘, ‘परिवार, निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति‘ उस समय हम पढ़ चुके थे। सुधा ने तब विद्यासागर और डिरोजियो को भी घोट लिया था। उसका कहना था कि मेरे आने पर उसे और भी बल मिलेगा। मैं गया, तीन लोगों की टीम में कौन क्या बोलेगा यह भी ठीक कर लिया गया। शाम को क्लब के प्रांगण में विचार-गोष्ठी तथा उसके बाद गीत-संगीत का कार्यक्रम था। गोष्ठी के शुरू में ही प्राय: चार-पांच सौ लोग जमा हो गये थे। लड़कियों की उपस्थिति भी काफी थी। सुधा की टीम के लोगों ने नारियों के समानाधिकार के सवाल के साथ ही साथ दूसरे विवाह के प्रश्न को भी उठाया : समानता के संबंधों के बिना उच्च और निम्न संबंधों में दया और निर्भरता रह सकती है,लेकिन प्रेम नहीं रह सकता और इसीलिए प्रेम-हीन संबंध व्यभिचार के अलावा और कुछ नहीं हो सकता। इसीतरह दूसरे विवाह का अधिकार न रहने पर समाज किस तरह कलुषित होता है इसका साहित्य के जरिये विभिन्न उद्धरण देकर उसने सभा को इसतरह मंत्र-मुग्ध किया कि सुधा का दल तो जीत ही गया, साथ में सुधा को श्रेष्ठ तार्किक का ईनाम भी मिला।
दोनों दोस्त खा-पीकर बतियाने के बात जब बिस्तर में घुसे तो देखा कि मच्छरदानी के अंदर कीड़ों की तरह कुछ चल रहा है। सुधा को पूछा तो बोला कि ‘वो कुछ नहीं है ऐसे ही मच्छर है‘। कुछ-कुछ शरतचन्द्र के श्रीकांत के इंद्रनाथ की तरह का भाव था, ‘वो कुछ नहीं सांप है‘ जैसा ही। समझ गया कि सुधा इन सबका अभ्यस्त है। लेकिन मैंने कहा कि मैं यहां सो नहीं सकूंगा। मैंने कहा कि चलो छत पर चलते हैं वहां दरी बिछाकर पांव पर चादर डालकर सो जाएंगे, हवा चल रही है इसलिए मच्छर भी नहीं काटेगें। वो रात आज भी यादों में तरोताजा है। आकाश में बड़ा सा चमकता हुआ चांद और श्वेत-काले बादलों का खेल । तेज गति से दौड़ रहे बादलों के साथ चांद की लुका-छिपी, मन को लुभाने वाला सौन्दर्य। नजदीक ही एक नाला और उसके पार जमीन। नाले पर एक बांस का मचान और उसपर बैठा हुआ अनजान एक युवक बांसुरी बजा रहा है। रात की गहरी निस्तब्धता, आकाश में बादलों की लुका-छिपी प्रकृति जैसे काव्यमय हो उठी थी -हम भी निस्तब्ध हो गये थे।
        सुधा शांतिपुर में दो-एक वर्ष रहा। उसके बाद प्राईवेट बी.ए. पास किया, किसी तरह संपर्क से उसकी बर्माशेल में नौकरी लग गयी। टे्रन से रोज यातायात करके ही नौकरी करता था। उसे भी अपने इलाके में पार्टी की सदस्यता मिल गयी थी। अलग जिले में होने के बावजूद हमारा संबंध नियमित बना रहा। आपस में एक-दूसरे को पुस्तकें भेजते, अवसर मिलते ही विचार-विमर्श करते। इसी बीच सुधा ने विवाह कर लिया। दो लड़के, आफिस में प्रमोशन हो गया, आफिसर बन गया। नि:संतान मामा अब नहीं रहे, सुधा ने वहीं अपना नया घर बनाया है। सन् ‘64 के विवाद के समय भी हम लोग एकमत ही रहे। लेकिन ‘70 के दशक के हमलों के समय सुधा और ठीक नहीं रह सका, मारपीट खाकर खून-खराबे के उस माहौल में आत्मसमर्पण करके चुपचाप बैठ गया, उसने पार्टी सदस्यता का नवीकरण नहीं कराया। 1977 के चुनाव के बाद सुधा का पत्र मिला-बड़े लड़के की शादी है, जरूर से आना है। बड़े लड़के को हाल ही में बैंक में नौकरी मिली है। बहू गांव की ही है बिना मॉ-बाप की, चाचा के पास रहकर बड़ी हुई है, बी.ए. की परीक्षा दी है। पार्टी छोड़ने के बावजूद आदर्श बचे हुए हैं। इसीलिए विवाह में कोई दहेज या लेन-देन नहीं हुआ, आमंत्रितों को निर्देश के लहजे में ही कहा गया कि वो कोई उपहार न लाएं। सुधा का छोटा लड़का तब इंजीनियरिंग में डिप्लोमा पढ़ रहा था। छोटा सा सुखी परिवार। मैंने जब फिर से पार्टी का कुछ काम शुरू करने के लिए कहा तो कहने लगा-अब और मत बोलो, मैं हार गया हूं, दुर्दिनों में बचकर निकल गया, आज अब फिर पार्टी करना अवसरवाद ही कहलायेगा। मैं ऐसा नहीं कर सकता। पार्टी के साथ हूं, रहूंगा भी, सदस्य रहते हुए जितनी लेवी देनी पड़ती उतनी लेवी जिला कमेटी के एक सदस्य के पास जमा करवा देता हूं। काम नहीं करने पर भी पढ़ना-लिखना जारी है। सुधा की बातें अच्छी ही लगीं।
सुधा की पत्नी सरला मुझे भाई कहकर ही बुलाती है, मेरा हाथ पकड़कर बोली, भैया, समय मिलने पर बीच-बीच में घर आया करो। उसके बाद से हर वर्ष एकबार वहां चला ही जाता हूं। छोटे लड़के की भी शादी हो गयी है, टाटा में नौकरी मिल गयी है, बहू भी वहीं रहती है। एक बच्चा भी हो गया है। बड़ी बहू सुधा के पास रहती है। बहुत सुंदर लड़की है। प्रतिभावान है, बड़ी फुर्ति से चलती-फिरती है, हर समय चेहरे पर हंसी-खुशी का भाव, किंतु कौन जाने होंठों के ऊपर काली छाया में कहीं कोई विषाद छिपा हुआ है या नहीं। 7-8 वर्ष हो गये लेकिन अभी तक कोई बच्चा नहीं हुआ। कारण कुछ भी क्यों न रहे हो,बच्चे न होने का दोष लड़कियों पर थोपना तथा इसके लिए लड़कियों में हीनता का बोध यही प्रचलित रीति है। प्रतिमा बड़ी बुद्धिमानी से इस हीनता बोध को दूर रख सकती थी। रिश्तेदार या मित्र मंडली में कोई यदि संतानहीनता के चलते सहानुभूति दिखलाने की कोशिश करता तो साहस के साथ कह उठती-ओ मॉ! मेरे बच्चे नहीं है किसने कहा? मेरे एक लड़का और एक लड़की है। सास-ससुर के पास रहने पर उन्हें पकड़कर कहती,कहो ना क्या तुम मेरे लड़के या लड़की नहीं हो। सुधा-सरला प्यार से इसकी हामी भरते। प्रतिमा सुधा या सरला को कभी भी आप कहकर नहीं पुकारती, हमेशा तुम ही कहकर बुलाती और वे प्रतिमा को ‘बड़ो मॉ‘ कहकर बुलाते। प्रतिमा को वे अपनी बहू नहीं बेटी ही समझते। घर में कब कौनसी चीज चाहिए सब प्रतिमा ही देखती।
लेकिन अचानक घर में एक दुर्घटना हो गयी। सुधा ने तब तक नौकरी से अवकाश नहीं लिया था। हटात पांच दिन के बुखार ने बड़े लड़के की जान ले ली। प्रतिमा विधवा हो गयी। बहुत खतरनाक ढ़ग का एनसेफेलाइटिस हुआ था। शोक का वातावरण कुछ कम होने के एक महीने पश्चात सुधा का बुलावा आया। झमेले में फंसा है। प्रतिमा ने बी.ए. पास की थी। उम्र तब 30 के पास होगी। पति की मृत्यु के कारण बैंक में नौकरी मिलने का मौका है। प्रतिमा नौकरी करना चाहती है। सुधा और सरला नहीं चाहते थे। सुधा का कहना था, क्या जरूरत है मैं तो अभी नौकरी कर रहा हूं,सेवा निवृत होने पर भी पेंशन मिलगी ही। संसार चल ही जायेगा। मैंने सुधा से कहा कि तुम लोग क्या अमर रहोगे? तुम नहीं रहोगे तो पेंशन किसे मिलेगी? इसक अलावा प्रतिमा को भी तो जीवन का एक सहारा चाहिए। सुधा मन से वैसे भी काफी कमजोर हो गया था,मेरी बात पर उसने और आपत्ति नहीं की। प्रतिमा को नौकरी मिल गयी। बीच-बीच में खबर लेता रहता। सुधा रिटायर हो गया। प्राय: तीन वर्ष गुजर गये।
प्रतिमा ने एक दिन फोन करके कहा,काकू मुझे बहुत जरूरत है,एक बार मिलना चाहती हूं। वह आई, साथ में एक लड़का,उम्र 40 से कुछ कम ही होगी। दुविधा और संकोच छोड़कर उसने जो कहा उसका सार इसतरह है-यह लड़का मेरे साथ एक ही बैंक में काम करता है। ट्रेन में यातायात और नौकरी के चलते घनिष्ठता हुई। लड़का भी विधुर है और कोई संतान नहीं है। प्राय: दस वर्ष पहले संतान के जन्म के समय पत्नी की मृत्यु हो गयी थी और उसने इसके बाद शादी नहीं की। अब दोनों शादी करना चाहते हैं। प्रतिम ने सुधा और सरला से अनुमति मांगी थी, लेकिन सुधा ने नाराज होकर उसे घर से निकाल दिया था। तीन दिनों से अपने एक मित्र के यहां रह रही थी। मैंने कहा,तुम लोग शादी कर लो इसमें परेशानी क्या है? उसने कहा वह तो कर सकती हूं, रजिस्ट्रार के पास आवेदन भी करके रखा है, लेकिन मां-बाप को दुखी करके कैसे करूं? वो तो मेरे मॉ-बाप ही हैं। तुम पिताजी सभी तो समानाधिकार की बातें करते हो। पिता तो तुम्हारी बात सुनते हैं,  मुझसे लिपट कर बोली, काकू तुम पिता को समझाओ ना। मैंने स्वीकार किया।
एकबार फिर सुधा के घर गया। सुधा एकदम ढला हुआ, टूटा हुआ। कहा, प्रतिमा के लिए आया हूं। कहा था ना कि सक्रि्रय नहीं रहने पर भी कभी भी आदर्श से मुंह नहीं मोड़ूंगा। चालीस वर्ष पहले शांतिपुर की उस बहस की याद है? आज भी उस ईनाम को सहेज कर रखा है। उसे फेंक दो। आदर्शबोध क्या कोई दामी जूते हैं, जिन्हें सिर्फ बाहर पहना जाता है, घर में नहीं? खुद की पूत्रवधु दूसरे की वधु होगी-यह स्वीकारा नहीं जा रहा, लेकिन प्रतिमा यदि तुम्हारी बेटी होती तो क्या आपत्ति करते? उसे बेटी नहीं मान पा रहे हो?
सुधा मेरा हाथ पकड़कर रोते हुए बोला, चुप करो, तुम अब जाओ। पांच दिन बाद प्रतिमा फिर हाजिर हुई। शर्माते हुए मेरे हाथ में एक पत्र दिया और कहा कि पिताजी ने भेजा है। पढ़ा। सुधा ने लिखा था, स्नेहमयी बड़ी मां,  घर से निकालकर बडा दुखी़ हूं। उम्र हो गयी है, मन का जोर कम हो गया है। जन्मों के संस्कारों को तोड़ने में बड़ा कष्ट हुआ है, अब संभल गया हूं। तुम तो मेरी बेटी हो। बेटी का अवदान क्या कभी भूल सकता हूं? तुम्हारे लिए मेरी शुभकामनाएं हैं। खुद खड़े रहकर सामाजिक रूप में विवाह करवाना ज्यादती होगी। जिस दिन रजिस्ट्रार के पास जाओगी, उस दिन मैं और तुम्हारी मां दोनों ही जाएंगे, काकू को भी कहना। रजिस्ट्री होने के बाद बेटी और जंवाई दोनों को लेकर घर आऊंगा। पत्र मिलते ही घर आजाना। काकू को कहना मैं एकदम खत्म नहीं हुआ हूं। तुम्हारे लिए असंख्य शुभकामनाएं। तुम्हारा पिता।

इसके बाद काफी समय गुजर गया। प्रतिमा की शादी के पांचेक वर्ष बाद ही सरला की मृत्यु हो गयी। तीन वर्ष पहले सुधा भी चल बसा। उसके घर के बाहर काफी जगह थी, वहां बगीचा था। सुधा ने उसे प्रतिमा को दे दिया था। प्रतिमा वहीं रहती है। ‘‘आलो‘‘, मेरा ही दिया हुआ नाम है। प्रतिमा मेरी नियमित खोज-खबर लेती रहती है, बीच-बीच में आकर मिल लेती है। वर्ष के शुरू में और पूजा के समय उसके पास से कपड़े आते हैं। अनजाने में ही प्रतिमा लगता है मेरी भी बेटी हो गयी है। लम्बे जीवन में अनेक हार-जीत का सैनिक, प्रतिमा के मामले में हुई जीत को भूल नहीं सकता। बहुत संतोष होता है।

(अनुवाद : सरला माहेश्वरी)                                                                                                                                                                                                    
                                             


   
                                                                                                                                                                                                 
                                             


   

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