बुधवार, 15 अप्रैल 2015

राष्ट्र के हित में इंटरनेट सेवाओं का पूर्ण राष्ट्रीयकरण जरूरी है : प्रसंग नेट- तटस्थता



अरुण माहेश्वरी

तथाकथित कारपोरेट जनतंत्र के ध्वजाधारी अमेरिका में अभी तक जिस ओर लोगों का ध्यान उतनी संजीदगी से नहीं गया है, उस सवाल ने आज भारत के व्यापार जगत में जिस प्रकार की एक गहरी बहस का रूप ले लिया है, उससे भारतीय अर्थ-जगत के आगामी स्वरूप के बारे में कुछ अंदाज तो जरूर मिल सकता है। यह सवाल है नेट तटस्थता (Net neutrality) का सवाल।

पिछले दिनों यहां रिलायंस की इंटरनेट कंपनी रिलायंस कम्युनिकेशन ने 38 कंपनियों के साथ ऐसे समझौते किये थे जिनसे उन कंपनियों के एप्स का प्रयोग करने पर इंटरनेट ग्राहकों को कोई कीमत अदा नहीं करनी पड़ेगी। इस खर्च को विक्रेता कंपनियां खुद उठायेगी।

इसके साथ ही इंटरनेट कंपनियों में चुनिंदा कंपनियों से ऐसे समझौतों की एक होड़ सी मच गयी। एयर टेल की इंटरनेट कंपनी ने बाकायदा एक नया साइट ही शुरू कर दिया - एयरटेल जीरो। एयरटेल जीरो के साथ नेट-विपणन की अभी सबसे तेजी से बढ़ रही कंपनी फ्लिपकार्ट ने समझौता किया। इस समझौते के साथ ही इस पूरे मामले की जानकारी रखने वाले तबकों में एक तूफान सा खड़ा होगया। यह सवाल उठाया जाने लगा कि इस प्रकार तो इंटरनेट पर बड़ी पूंजी की पूर्ण इजारेदारी कायम होजायेगी और बेहतर उत्पादों के निर्माता होने पर भी सिर्फ पूंजी के अभाव के चलते उन्हें अपने विस्तार के लिये इंटरनेट के प्रयोग की समान सुविधा नहीं मिल पायेगी।

दूसरी ओर, एयरटेल जीरो के साथ फ्लिपकार्ट के समझौते का एक तात्कालिक परिणाम यह हुआ कि अन्य इंटरनेट साइट पर से लोगों ने भारी संख्या में फ्लिपकार्ट के एप्स को उतारना शुरू कर दिया। इसके चलते फ्लिपकार्ट को एयरटेल की मुफ्त सुविधा से होने वाले लाभ की जगह नुकसान कहीं ज्यादा होने लगा।
फ्लिपकार्ट के जो मालिक शुरू में एयरटेल जीरो के साथ अपने समझौते की जोरदार पैरवी कर रहे थे, अचानक ही उन्होंने पैंतरा बदल कर इंटरनेट तटस्थता के पक्ष में एक सैद्धांतिक रुख अपना लिया और एयरटेल जीरो से हुए समझौते से पीछे हट गयें। और इसके साथ ही, ‘नेट तटस्थता’ का मुद्दा अखबारों और टेलिविजन चैनलों में एक बहस का मुद्दा बन गया। इंटरनेट जनतंत्र की तरह के कुछ बुनियादी सवाल उठने लगे। केंद्रीय सूचना मंत्री तक ने बयान दे दिया कि वे इंटरनेट तटस्थता के पक्ष में हैं। टेलिकॉम रेगुलेटरी प्राधिकरण ट्राइ के सामने भी यह मसला जा चुका है और इस बारे में वह शीघ्र ही अपनी नीतियों को साफ करने का आश्वासन दे रहा है।

इस पूरे प्रसंग में आज जो सवाल दाव पर है, वह यह कि इंटरनेट प्रणाली अर्थ-जगत में पूर्ण इजारेदारी को कायम करने का माध्यम बनेगी या सबके लिये विकास का समान अवसर प्रदान करेगी ?

यह जाहिर है कि भारतीय अर्थजगत का भावी स्वरूप गुड़गांव आदि की तरह के उभर रहे आईटी केंद्रित शहरों में सक्रिय हजारों नयी स्टार्ट अप की गतिविधियों में निहित हैं। नई तकनीक और इंटरनेट के बल पर आर्थिक जगत के पूरे ताने-बाने का कायांतर होना तय है। अब सवाल यही रह जाता है कि इस नयी आर्थिक संरचना में सिर्फ बड़ी पूंजी के लिये ही जगह रहेगी या छोटी-छोटी पूंजी के प्रतिभाशाली उद्यमी भी इसमें जिंदा रह पायेंगे। इंटरनेट वह बुनियादी क्षेत्र है जिसमें प्रवेश करके ही इस कथित नयी आर्थिक-संरचना का रूप बदलना हैं। अगर इसमें प्रवेश के पहले दरवाजे पर ही इसप्रकार का भेद-भाव किया जाने लगे कि जिससे बड़ी पूंजी के बल पर ही आगे बढ़ा जा सकता है तो यह क्षेत्र अर्थ-व्यवस्था में किसी प्रकार के खुलेपन या प्रतिद्वंद्विता में मददगार बनने के बजाय शुरू में ही इजारेदाराना पूंजी के पूर्ण अधिकार को कायम करने के औजार के रूप में काम करने लगेगा। यह निश्चित तौर पर उन हजारों प्रतिभाशाली नौजवानों को हतोत्साहित करेगा जो दिन-रात परिश्रम करके सारी दुनिया में इस क्षेत्र के विकास में भी आज भारी योगदान कर रहे हैं।

हमारी नजर में अब समय आगया है जब राष्ट्र और मानवता के हित में यह जरूरी है कि इंटरनेट की तरह की सेवाओं का राष्ट्रीयकरण करके इसे मुनाफाखोरों के चंगुल से पूरी तरह मुक्त किया जाए और इसका प्रयोग करने वालों के साथ किसी भी प्रकार का भेद-भाव बरतने की संभावना ही न छोड़ी जाए। तभी अर्थ-जगत के मानवीय कायांतर में इस महत्वपूर्ण सेवा का कारगर ढंग से इस्तेमाल हो सकता है।



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