बुधवार, 29 अप्रैल 2015

'जानकीदास तेजपाल मैनशन'


- अरुण माहेश्वरी

रोहिणी अग्रवाल जी ने अलका सरावगी के हाल में प्रकाशित उपन्यास ‘जानकीदास तेजपाल मैनशन’ की अतिशय तारीफ करते हुए अपनी फेसबुक वाल पर एक पोस्ट लगायी थी। उसका अंत उन्होंने इन शब्दों से किया था : ‘‘ वह इंसान की अपनी ही चूलों के हिल जाने की कथा कहता है। न, आतंक फैला कर पाठक की घिघियाई मुद्रा का लुत्फ उठाने की जरा भी शाइस्तगी नहीं लेखिका में। वह तो हौले से उसके हाथ को अपने संपुट में ले न्यौता दे डालती है कि आओ, चलें, अपने हिस्से के वक्त पर एक नई तामीर खड़ी करें - भागते-भागते नहीं, धीरज के साथ, सृष्टि की आदिम लय-ताल से एकमेक होते हुए क्योंकि अचर-अगोचर के बिना अपने तईं इंसान ही कहां मुकम्मल है।’’
यह उपन्यास हमने भी पढ़ा है। इसीलिये रोहिणी जी की पोस्ट पर हमने एक टिप्पणी की जिसे मैं यहां मित्रों के साथ शेयर कर रहा हूंं। चूंकि इस मामले में कथा साहित्य की कुछ बुनियादी बातें शामिल है, इसीलिये मित्रों को हमारी यह टिप्पणी कुछ उपयोगी लग सकती है, जो इसप्रकार है :-
रोहिणी जी, मैंने भी यह उपन्यास पढ़ा है, बड़े ध्यान से पढ़ा है।
दरअसल, आख्यान और विवरण में कुछ बुनियादी फर्क होते हैं। आख्यान में हम जिन घटनाओं का साक्षात करते हैं वे चरित्रों के जीवन से सीधे जुड़ी होती है। चरित्रों के विकासमान जीवन में घटनाएं भी अपने सामाजिक महत्व के कारण एक सक्रिय भूमिका अदा करती दिखाई देती है। जिन घटनाओं में चरित्र शामिल होता है पाठक उनके दर्शक होते हैं। इसके चलते पाठक खुद उन घटनाओं का अनुभव भी करते हैं। दुनिया के सभी बड़े-बड़े उपन्यासकारों को देख लीजिये। बाल्जक, तालस्ताय, गोर्की, प्रेमचंद, लू शुन से लेकर हमारे यशपाल, जैनेन्द्र और अभी के उदयप्रकाश तक। उनके चरित्र किसी भी मायने में निष्क्रिय चरित्र या घटनाओं के दर्शक भर नहीं होते।
जिन रचनाओं में चरित्र ही दर्शक हो, निष्क्रिय, घटनाओं को दिखाने की एक खिड़की मात्र, वहां घटना पाठक के लिये एक कोरी प्रदर्शनी बन जाती है, अधिक से अधिक प्रदर्शनीय श्रृंखला। पाठक उनका एक अवलोकक होता है, उन्हें महसूस नहीं करता। आख्यान निष्प्राण होकर कोरा ब्यौरा बन जाता है, एक रिपोर्ट।
इसीलिये आख्यानों की जान सप्राण, वैविध्यमय, संघर्षमय और उद्यमशील चरित्र होते हैं। अलका सरावगी के लेखन की दिक्कत यह है कि उनमें ऐसे चरित्रों के लिये कोई जगह नहीं होती है। इसीलिये हमें तो उनका लेखन बेहद बनावटी और उबाऊ लगता रहा हैं। कोरी बतकही, अधिक से अधिक कह सकते हैं, किस्सागोई। यह उपन्यास तो और भी उबाऊ है, क्योंकि इसमें घटनाओं की वैसी श्रृंखला वाली किंचित गतिशीलता भी नहीं है, जिसकी एक झलक ‘कलिकथा’ में दिखती है। इसके अलावा ब्यौरा भी सघन नहीं, उथला-उथला। वे सामाजिक तौर पर निष्क्रिय चरित्रों को लेकर चलती हैं, जिनका अपने समय की राजनीति, सामाजिक आंदोलनों के प्रति ही नहीं, हर प्रकार की उद्यमशीलता के प्रति भी एक प्रकार की उदासीनता, हिकारत और वितृष्णा से भरा नजरिया होता है। ऐसे चरित्र प्रकारांतर से यथास्थिति के समर्थक, आत्मा-विहीन चरित्र होते हैं। यह लेखक की अपनी भी दिक्कत है, घटनाओं की सिर्फ दर्शक भर बने रहने की दिक्कत । बातों की चकल्लस की दिक्कत। वे लगातार इसीप्रकार का लेखन कर रही है। अब तो यह किसी ब्रांड के नाम को भुनाने का पण्य जैसा भी लगने लगा है।
आपने इसका उपभोग किया, इसके लिये आप प्रशंसा की पात्र है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें