शनिवार, 30 सितंबर 2017

'न्यूटन' – हास्य-व्यंग्य की एक सीधी-सरल फिल्म


-अरुण माहेश्वरी


आज 'न्यूटन' फिल्म देखी । छत्तीसगढ़ का माओवाद प्रभावी क्षेत्र और उसमें घने जंगल में माओवादियों की चुनौती के सामने सिर्फ 76 मतदाताओं के एक मतदान केंद्र पर वोट कराने की चुनौती । न्यूटन नव-नियुक्त नौजवान अधिकारी है, जिसने निष्ठा के साथ अपने सरकारी कर्त्तव्य का पालन करने का पाठ पढ़ा है । उसे ही संयोगवश इस केंद्र का प्रिसाइडिंग ऑफिसर बना कर भेजा जाता है ।

नीचे का पूरा सरकारी महकमा और पुलिस बल के लिये यह मतदान कोरी खानापूर्ति से ज्यादा मायने नहीं रखती है । लेकिन जनतंत्र में राज्य इतना भी न करे तो क्या करे ! बुलेट पर बैलट की श्रेष्ठता ही तो जनतंत्र के होने का प्रमाण है । इसीलिये माओवादियों की चुनौती और सरकारी मुस्तैदी, दोनों ही प्रतीकात्मकता से कुछ ज्यादा मानीखेज हो जाते हैं । ज़मीनी सचाई से वाक़िफ़ लोग दोनों पक्षों की ऐसी प्रतीकात्मकता की निस्सारता को बख़ूबी समझते हैं । पुलिस और सुरक्षाबलों की तरह ही  स्थानीय आदिवासी वोटकर्मी भी । लेकिन न्यूटन ! उसे तो एक सरकारी कर्मी के नाते हर क़ीमत पर सिर्फ अपने पवित्र कर्त्तव्य का पालन करना है !

जिस समय-काल में जीवन में कोई पवित्रता शेष नहीं है, सब राज्य के कोरे पाखंड का हिस्सा बन चुकी है, उस समय न्यूटन अपने कर्त्तव्य की पवित्रता को सर पर लादे हुए हैं, अर्थात पूरी ईमानदारी के साथ एक पाखंड को ही लादे हुए है,! यही इस फिल्म की कहानी का सार-तत्व, उसके मूल चरित्र की विडंबना है । जीवन का पाखंड और ईमानदार कर्त्तव्य-निष्ठा के बेमेल मेल से पैदा होने वाले एक कारुणिक हास्य की विडंबना। न्यूटन में यह निष्ठा लगभग एक मनोरोग की तरह प्रकट होती है । वह लगभग विक्षिप्त स्थिति में सुरक्षाकर्मियों की इच्छा के विरुद्ध उन पर बंदूक़ तान कर मतदान के समय की अंतिम घड़ी तक मतदान की समाप्ति की घोषणा नहीं होने देता है ।

न्यूटन अपनी सारी मासूमियत के बावजूद अनायास ही व्यवस्था पर से पर्दा उठाने वाले शहर में घूमते किसी आईने की भूमिका अदा नहीं कर पाता है क्योंकि पहले से ही पूरी तरह से नंगी व्यवस्था को और ज्यादा नंगा तो नहीं किया जा सकता है ।कुल मिला कर पूरी फील्म कर्त्तव्य-निष्ठा पर ही एक हास्य-व्यंग्य का रूप लेती दिखाई देती है ।

वैसे कहने के लिये कहा जा सकता है कि प्रकारांतर से यह वर्तमान समय के पूरे स्वरूप पर, इसकी संरचना पर एक तंज भी है जिसमें कर्त्तव्य-निष्ठा से बड़ा मज़ाक़ और कुछ नहीं जान पड़ता है । लेकिन सच कहा जाए तो न्यूटन अभी की पूरी सेटिंग में एक ऐसा करुण चरित्र ही दिखाई देता है जो रोष के बजाय हास्य ज्यादा पैदा करता है । न्यूटन की गर्दन टेढ़ी हो गई है, लेकिन व्यवस्था इन सबसे पूरी तरह से अप्रभावित सुरक्षा अधिकारी की तरह शापिंग मॉल में मजे से ऑलीव ऑयल की खरीद का मज़ा लूट रही है ।

राजकुमार राव, पंकज त्रिपाठी, अंजली पाटिल, संजय मिश्रा – सब मंजे हुए अभिनेता हैं । अमित मासुरकर ने साफ सुथरे ढंग से कही गई कहानी के शिल्प का प्रयोग करके दर्शकों को बांधे रखा है, लेकिन फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है कि इसे आस्कर जैसी प्रतियोगिता के लिये भेजने के बारे में सोचा भी जा सके ।

इसमें कोई रचनात्मक तनाव नहीं नज़र आता है, इसीलिये इसकी कोई रचनात्मक उपलब्धि भी नहीं है ।



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