—अरुण माहेश्वरी
मानव सभ्यता का
इतिहास जिन तमाम बातों से निर्मित हुआ है, वे सब अगर झूठ या आधी-अधूरी साबित न होती तो
क्या मानव समाज का सचमुच का कोई इतिहास बन पाता । आज ऐसी ढेर सारी बातें हमें कोरा
अंध-विश्वास प्रतीत होती है, मिथकीय लगती है, जिन बातों में कभी सैकड़ों हजारों साल तक आदमी
अपना सर गड़ाये हुए उन्हें ध्रुव और अटल सत्य माने बैठा था और उसके लिये न जाने
कितनों का खून तक बहा देने से परहेज नहीं किया गया । अंबर्तो इको का एक लेख है — 'Power of Falsehood' । इसमें सदियों तक धरती गोल नहीं चपटी है या
पृथ्वी नहीं सूरज धरती के चारो ओर चक्कर लगाता है की तरह के अटल विश्वासों का
ब्यौरा देते हुए अंत में यह कहा गया है कि “चूंकि कुछ लोगों को इतिहास के एक समय में ऐसा
संदेह कि सूरज धरती के चारो ओर चक्कर नहीं लगाता है उतना ही घृणित लगता था जैसे यह
कि इस ब्रह्मांड का कोई अस्तित्व ही नहीं है, इसीलिये अपने दिमाग को ऐसे समय के लिये
स्वतंत्र और तरोताजा रखने की जरूरत है जब विज्ञान के क्षेत्र के लोग यह घोषणा कर
दे कि ब्रह्मांड का विचार ही एक कोरा भ्रम था जैसे चपटी धरती और रोसीक्रुसियन्स 1 ।
“गहराई में जाए तो, समाज का पहला कर्त्तव्य यह है कि वह इतना चौकस रहे ताकि
प्रत्येक दिन वह विश्वकोश का पुनर्लेखन कर सके ।”2
इसीलिये मानव
सभ्यता के इतिहास के आख्यान कितनी सारी भ्रामक अवधारणाओं और व्याख्याओं से भरे हुए
हैं, इसका अनुमान
लगाना कठिन है । पूंजीवादी युग की व्याख्या करते हुए मार्क्स कम्युनिस्ट घोषणापत्र
में लिखते हैं — “उत्पादन प्रणाली में निरंतर क्रांतिकारी परिवर्तन, सभी सामाजिक अवस्थाओं में लगातार उथल-पुथल, शाश्वत अनिश्चयता
और हलचल — ये चीजें
पूंजीवादी युग को पहले के सभी युगों से अलग करती है । सभी स्थिर और जड़ीभूत संबंध, जिनके साथ
प्राचीन और पूज्य पूर्वाग्रहों तथा मतों की एक पूरी श्रृंखला होती है, मिटा दिये जाते
हैं, और तभी नये बनने
वाले संबंध जड़ीभूत होने के पहले ही पुराने पड़ जाते हैं । जो कुछ भी ठोस है वह
हवा में उड़ जाता है, जो कुछ पावन है, वह भ्रष्ट हो जाता है,
और आखिरकार मनुष्य संजीदा
नजर से जीवन के वास्तविक हालतों को, मानव मानव के आपसी संबंधों को देखने के लिए
मजबूर हो जाता है ।”3
इसी में वे आगे
कहते हैं — “उत्पादन के तमाम औजारों में तीव्र उन्नति और संचार-साधनों की विपुल सुविधाओं
के कारण पूंजीपति वर्ग सभी राष्ट्रों को, यहां तक कि बर्बर से बर्बर राष्ट्रों को भी
सभ्यता की परिधि में खींच लाता है । उसके माल की सस्ती कीमत एक ऐसा तोपखाना है
जिसके जरिए वह सभी चीनी दीवारों को ढहा देता है, और विदेशियों के प्रति तीव्र और घोर घृणा रखने
वाली बर्बर जातियों को आत्म-समर्पण के लिए मजबूर कर देता है ।...संक्षेप में, पूंजीपति वर्ग
सारे जगत को आपने ही सांचे में ढाल लेता है ।”4
जाहिर है कि यह
पूरा ब्यौरा एक वैश्विक परिघटना का ब्यौरा है, पूंजीवादी विश्व की वैश्विकता का एक
परिघटनात्मक ब्यौरा । जब हम 'विश्व' को एक परिघटना
कहते हैं तो इसका मतलब है एक वैश्विक जीवंत-सत्ता जिसके दायरे में जो अन्य 'सत्ताएं' सामने आती हैं, उन्हें हम उसके
अंग के तौर पर देख सके ।
अन्तर्राष्ट्रीयतावाद
मार्क्सवाद का मूलभूत तत्व है ; पूंजीवादी वैश्विकता में शोषण के प्रभुत्व के बरक्स
सर्वहारा के अन्तर्राष्ट्रीयतावाद के मानव मुक्ति का स्वर । कहना न होगा, 'राष्ट्रीयता और
राष्ट्रवाद' उन चीजों में आते हैं जिन्हें परिघटना-पूर्व की चीजें कह सकते हैं, इनका विश्व की
परिघटनात्मकता से कोई सीधा संबंध नहीं होता है । ये तत्वमूलक है, लेकिन विडंबना है
कि हम इन्हें जीवंत सत्ता के रूप में देखने के लिये मजबूर होते हैं ।
अगर हम मार्क्स
के पूंजीवाद के बारे में उपरोक्त ब्यौरे को ही देखें तो पता चलता है कि यह
पूंजीवादी वैश्वीकरण का एक परिघटनात्मक संदर्भ है । यह सीधे तौर पर राष्ट्र नामक
भौगोलिक सीमाओं में बंधी एक स्वायत्त अवधारणा के अवलोप का संदर्भ है, सीमा-विहीन विश्व
का संदर्भ । लेकिन पूंजीवादी विश्व की इसी विश्वात्मकता के संदर्भ में अपने यथार्थ
ज्ञान की अज्ञानता देखियें कि पूंजीवाद को हम राष्ट्रवाद के उदय के साथ जोड़ कर
देखने के अभ्यस्त हैं और वह अपनी सामयिकता में कई बार इतिहास-सम्मत भी जान पड़ता
है । इसी से इस बात का भी कुछ तो अंदाज लगता ही है कि इतिहास की सच्चाई खुद में
क्या है !
आधुनिक काल के
इधर के पूरे परिघटनात्मक इतिहास से हम यह अच्छी तरह से जानते हैं कि राष्ट्रों से
संबद्ध 'राष्ट्रवाद' की अवधारणा
भी खुद में भी कोई एक स्वयंसिद्ध सत्य
नहीं है । इसका भी अपना एक अलग बहुलतावादी रूप है । उपनिवेशवादियों का अपना एक
राष्ट्रवाद था, राष्ट्रीय मुक्ति के लिये संघर्षरत शक्तियों का अपना राष्ट्रवाद, फासीवाद-नाजीवाद
का अपना राष्ट्रवाद और यहां तक कि तीसरी दुनिया के देशों में समाजवाद की लड़ाई का
भी अपना एक राष्ट्रवाद रहा है, जिसे दुनिया में चल रही राष्ट्रीय मुक्ति की लड़ाई के अंग
के तौर पर देखा जाता है ।
इसीलिये, जब हम राष्ट्रवाद
को एक सामान्य चर्चा का विषय बनाते हैं तो हमारे सामने सवालों की एक पूरी श्रृंखला
खड़ी हो जाती है । हमारा पहला सवाल तो यही होता है कि क्या हम उस राष्ट्रवाद की
चर्चा करना चाहते हैं, पूंजीवाद में जिसकी अपनी कोई तात्विक जीवंत सत्ता ही नहीं
हो सकती थी, लेकिन वह पूंजीवाद के विकास के साथ ही अपने सबसे उग्र रूपों में सामने आया ? या
उत्तर-औपनिवेशिक समय में हम किसी नव-उपनिवेशवादी राष्ट्रवाद, बहुराष्ट्रीय
निगमों से जुड़े राष्ट्रवाद पर विचार करना चाहते हैं ? या हमारे विचार का विषय नाजियों का राष्ट्रवाद
है, पूंजीवाद का कथित
सबसे बर्बर रूप जिसे औपनिवेशिक गुलामी के अपने अनुभवों से जोड़ कर रवीन्द्रनाथ और
प्रेमचंद ने मानवता के लिये किसी कोढ़ से कम नहीं माना था ? या हम राष्ट्रीय
मुक्ति संघर्ष के साम्राज्यवाद-विरोधी और समाजवादी रूझान वाले राष्ट्रवाद पर चर्चा
करना चाहते हैं ? राष्ट्रवाद के किसी निश्चित स्वात्मभूत तत्व का न होना ही इसके मिथ्यात्व का
भी सबसे बड़ा प्रमाण है । फिर भी यदि हम इसकी चर्चा के लिये मजबूर होते हैं, तो इसीलिये
क्योंकि यह भले ही मिथ्या जगत की ही कोई सचाई क्यों न हो,
यह बाकायदा मौजूद है । एक
शक्तिशाली झूठ की तरह ही क्यों न हो, यह हमें बुरी तरह से प्रभावित कर रहा है, और इसीलिये हम
इससे जुड़े प्रसंगों से आंख नहीं चुरा सकते हैं ।
'इकोनोमिस्ट' लिखता है कि “राष्ट्रवाद को दरकिनार करने के ढेर सारे आंदोलन हुए, जिनमें सबसे उल्लेखनीय है मार्क्सवाद । लेकिन
कोई सफल नहीं हुआ । 19वीं सदी के मध्य में एक अखिल-स्लाविक कांग्रेस में कोई एक
दूसरे को नहीं समझ सका और जर्मन में लौट जाना पड़ा । अखिल-अरबवाद और निग्रोवाद
मध्य पूर्व या अफ्रीका को एकजुट करने में विफल रहा । एक उत्तर-राष्ट्रीय खलीफाई की
स्थापना के बजाय इस्लामिक स्टेट (आईएस) और अल-कायदा ने सुन्नी इस्लाम को विभाजित
कर दिया ।”5
हमारे सामने 17 फरवरी 2016 से जेएनयू में
राष्ट्रवाद को विषय बना कर शुरू हुए भाषणों की पूरी श्रृंखला के लिखित रूप का एक
संकलन है — What the nation really needs to know (The
JNU Nationalism Lectures) । इस संकलन की एक
संपादिका जानकी नायर ने इसे 'अरब बसंत' की तर्ज पर 'जेएनयू बसंत के लिये एक शिक्षण' बताया है । यह जेएनयू छात्र यूनियन के अध्यक्ष
कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी के बाद जेएनयू के खिलाफ भाजपा के प्रवक्ताओं और मीडिया
से राष्ट्रवाद के नाम पर जो जघन्य कुत्सा अभियान चलाया गया था, उसी का एक बहुत
शानदार रचनात्मक प्रत्युत्तर था, जिसे सारे भारत में लोगों ने देखा था और इन वक्तव्यों की
श्रृंखला ने राष्ट्रवाद को कोई अत्यंत पूजनीय वस्तु मानने के बजाय तमाम ऐतिहासिक
संदर्भों के साथ उस पर ठोस रूप में विचार की एक जमीन तैयार की थी ।
जाहिर है कि अभी
हमारे सामने 'राष्ट्रवाद' पर विचार का अपना यह खास राजनीतिक संदर्भ है, जिसमें 2014 में मोदी की बहुमत की सरकार बनने के बाद से
विचारों की स्वतंत्रता पर और फिर विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता पर जिस प्रकार के
प्रत्यक्ष हमले शुरू हुए, उन्हें राष्ट्रवाद के एक ऐतिहासिक और विश्वव्यापी विमर्श से
जोड़ कर देखने, समझने की कोशिश की गई थी । इस पूरी बहस का हमारे अपने राष्ट्रीय राजनीतिक
संदर्भ के अलावा एक तात्कालिक अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक संदर्भ भी है । मोदी के
सत्ता में आने के बाद इस बीच गोरे नस्लवाद की खुले आम पैरवी करने वाला अरबपति
डोनाल्ड ट्रंप अपनी चरम दक्षिणपंथी नीतियों के साथ अमेरिका की गद्दी पर बैठ चुका
है ।
कहा जा सकता है
कि अभी चारों ओर एक प्रकार के मोदी-छाप राष्ट्रवाद की बाढ़ आई हुई है । इसे उदार
जनतंत्र की, या और व्यापक संदर्भ में आधुनिकता के समग्र प्रकल्प की विफलताओं की विकृति कह
सकते हैं । एक लोकलुभावन प्रतिक्रियावादी
दक्षिणपंथ । जर्मनी की पार्लियामेंट में हाल में 'जर्मनी के लिये विकल्प'
को 94 सीटें मिल गई, तो फ्रांस में
नेशनल फ्रंट की मरीन ली पेन को राष्ट्रपति चुनाव में एक-तिहाई वोट मिल गए । हंगरी, आस्ट्रिया, क्रोसिया और चेक
गणतंत्र में पोलैंड की तरह ही 'राष्ट्रवादियों' के हाथ में आज सत्ता है, ब्रिटेन में
ब्रेक्सिट के जनमत-संग्रह से भी ऐसी ताकतों ने ही सत्ता पर कब्जा जमाया है । टर्की
उग्रवाद के रास्ते पर है तो जापान भी शांति के रास्ते से हटता दिखाई देता है । रूस
मरने-मारने पर उतारू रहता है, तो कम्युनिस्ट शासन के बावजूद चीन भी अपने राष्ट्रीय गौरव
पर अतिरिक्त बल दे रहा है । कई जगह तो यह प्रवृत्ति क्षेत्रीय आत्म-निर्णय के
अधिकार के रूप में भी दिखाई दे रही है, जैसे स्पेन के कैटेलोनिया में, इराक के
कुर्दिस्तान में, ब्रिटेन के स्काटलैंड में, नाइजीरिया के बियाफ्रा में । भारत और अमेरिका की बात तो हम
पहले ही कह आए हैं । इसने मानव समस्याओं के प्रति सरकारों के दृष्टिकोण में आए
परिवर्तन के लिहाज से जो नई समस्याएं खड़ी की हैं उनमें एक बड़ी समस्या
शरणार्थियों की समस्या है जिसे हम अमेरिका में अप्रवासियों की समस्या के संदर्भ
में, पूरे यूरोप में
मध्यपूर्व के शरणार्थियों के संदर्भ में और भारतीय उप-महाद्वीप में म्यांमार और
बांग्लादेश के शरणार्थियों के मामले में भी देख सकते हैं ।
'राष्ट्रवाद' के संदर्भ में आज की दुनिया की यह एक सामान्य परिस्थिति है, जिसकी गहराई में
यदि हम जाए तो 1930 की विश्व-व्यापी महामंदी के बाद पूरे पश्चिमी यूरोप में
जिस प्रकार से दक्षिणपंथ का उभार देखने को मिला था, कमोबेस उसी की एक छाया हम इसमें देख सकते हैं ।
यह पूंजीवादी उदार जनतंत्र के अपने आंतरिक संकट की, उसके प्रभुत्व के डगमगाने के एक खास परिणति है
। लेकिन इसमें भी हमारे सामने विचार का जो सबसे महत्वपूर्ण सवाल रह जाता है वह यह
है कि 1930 के जमाने के
यूरोप में दक्षिणपंथ के सामान्य उभार के बावजूद सिर्फ इटली, जर्मनी और स्पेन
में ही वास्तव अर्थों में फासीवाद-नाजीवाद किस्म के 'राष्ट्रवाद' का उभार क्यों हुआ था ?
अन्य सभी जगहों पर वैसा ही
क्यों नहीं हो पाया ? पूंजीवाद के भीतर की इस एक लाक्षणिकता ने इटली-जर्मनी-जापान
और स्पेन में जो एक खास बर्बर शक्ल अख्तियार की, अन्य देशों में दक्षिणपंथ वह रूप क्यों नहीं ले
पाया ?
हमारे अपने
संदर्भ में विचार के लिये यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है । मोदी शासन के इन
साढ़े तीन सालों को देखिये । बुद्धिजीवियों-पत्रकारों की हत्या, मीडिया की
संपूर्ण नाकेबंदी, नोटबंदी, जीएसटी, गोरक्षा, बीफ, लव जेहाद, पद्मावती प्रकरण, और हाल में असम में नागरिकता के राष्ट्रीय
रजिस्टर (एनआरसी) आदि के तमाम डरावने अनुभवों के अलावा इनमें जनता को स्वतंत्र
करने वाला एक भी तत्व नहीं दिखाई देता है । इसके सभी पक्षों पर यदि हम गहराई से
विचार करे तो हम संभवतः यह पकड़ने में सक्षम हो जायेंगे कि पूंजीवाद के प्रभुत्व
के डगमगाने की परिस्थिति में कुछ खास जगहों पर ही फासीवाद क्यों और कैसे अपनी
जड़ें पकड़ता है । इसके लिये जरूरी है कि हम अपने समय के समग्र राजनीतिक संदर्भों
में इस परिघटना की व्याख्या करें ताकि इस शासन के स्वेच्छाचारी कदमों के अंदर की
सचाई को उजागर करने वाली दरारों पर रोशनी डाल सके । इससे हम न सिर्फ अपनी
जनतांत्रिक व्यवस्था के नैतिक, न्यायिक और राजनीतिक आधार की तात्विक कमजोरी को पहचान सकते
हैं, बल्कि हमारे यहां
विभिन्न मंचों पर फासीवाद-विरोधी विमर्श की जो खास कमजोरियां सामने आती हैं, उन्हें भी एक हद
तक देख सकेंगे । यह पड़ताल 'राष्ट्रवाद' संबंधी विमर्श से भी अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है ।
फासीवाद क्या है ? मोदी और आरएसएस
फासीवादी हैं, या नहीं ? इस प्रकार के सवाल आज भी, खास तौर पर वामपंथ के दायरे में भी गाहे-बगाहे उठते रहते
हैं । इसके मूल में क्या कारण हैं ? आखिर वह कौन सी मजबूरी है जिसके कारण हम
फासीवाद को उस समय तक पहचानने से इंकार करते रहते हैं जब तक वह अपने पूर्ण विकसित
रूप में हमारे जीवन पर अपने नख-दंतों को गाड़ नहीं लेता है ?
आम तौर पर
वामपंथियों के बीच फासीवाद के बारे में, चालीस के जमाने से ही एक शास्त्रीय परिभाषा
प्रचलित है कि 'यह वित्तीय पूंजी के सबसे निकृष्ट रूप की एक अभिव्यक्ति' है । सिर्फ इसी
आधार पर सोचे तो कहना होगा कि पूंजीवाद तो हमारे यहां एक मान्य सत्य है, लेकिन जब हम
फासीवाद के खिलाफ लड़ाई की बात करते हैं तब हम सिर्फ उस क्षण को टालने के लिये लड़
रहे होते हैं जब यह पूंजीवाद अपने इस सबसे निकृष्ट रूप में सामने आता है ।
कहना न होगा, यही वह
सैद्धांतिक सूत्रों की जकड़ में कैद समझ है जो खास तौर पर बुद्धिजीवियों के एक
अच्छे-खासे हिस्से में ऐसा गतिरोध पैदा करने का कारण बनती है जो उसे राष्ट्रवाद का
रूप धारण करके आ रहे फासीवाद के खिलाफ व्यापकतम गोलबंदी पर आधारित लड़ाई की
सारवत्ता के प्रति संशयग्रस्त करती है । उल्टे, इसी तात्विकता के चक्कर में वह फासीवादी सत्ता
के साथ सुलह करके चलने में भी कोई बुराई महसूस नहीं करते हैं । हिटलर के जमाने में
जर्मनी के सबसे बड़े दार्शनिक हाइडेगर ने नाजीवाद के बारे में अपनी इसी तात्विकता
के चलते हिटलर के साथ निबाह करके चलने में कोई बुराई नहीं महसूस की थी । हॉलोकास्ट
की तरह के भयावह मानवीय अघटन को हाइडेगर ने महज 'तात्विक घटना' के रूप में देखा था; जनतंत्र और फासीवाद के बीच किसी फर्क को देखने
से उन्होंने इंकार किया था ।6 एक ही पूंजीवादी 'विश्व' के अंदर की दो सत्ताएं !
जब हम इस प्रकार
की उलझन में फंस जाते हैं, 'विश्व' की वैश्विकता के रूप की बहुलताओं को नहीं देख पाते हैं, तब हमारे सामने
विकल्पों के अंदर से एक निर्विकल्प रास्ते को अपनाना कठिन हो जाता है । सब कुछ
गड्ड-मड्ड दिखाई देने लगता है । यही वह उलझन है जो फासीवाद के खिलाफ समझौताहीन
संघर्ष के लिये जरूरी व्यापकतम एकता की जरूरी रणनीति को अपनाने के रास्ते में बाधक
बनती है । जनतांत्रिक ताकतों की वर्गीय पहचान के नाम पर व्यापकतम एकजुट लड़ाई के
प्रति संशय पैदा करती है । किसी भी परिघटना
के सूत्रीकरणों, abstractions (विविक्तियों) के बारे में 'जर्मन विचारधारा' में मार्क्स का यह
कथन बहुत महत्वपूर्ण है कि “वास्तविक इतिहास से पृथक रूप से देखने पर इन
विविक्तियों का अपने में कोई मूल्य नहीं होता है । हमारी कठिनाई ठीक उस समय शुरू
होती है जब हम ऐतिहासिक सामग्री का, वह चाहे बीते युग की हो या वर्तमान की,
प्रेक्षण करना यानी वास्तविक चित्रण करना आरंभ करते हैं ।”7
गौर करने की बात
है कि पूंजीवादी जनतंत्र की विशेषता है कि इसमें मानव अधिकारों की कद्र की जाती है, अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता का मान किया जाता है, कानून का शासन होता है जिसके सामने सब समान होते हैं और यही
उसकी स्वत्त्रताकामी वैश्विकता का पूरा संदर्भ तैयार करता है । इसके विपरीत
फासीवाद में मानव अधिकारों का कोई मूल्य नहीं होता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोट दिया जाता
है, कानून के शासन के
बजाय एक तानाशाह के हुक्म चला करते हैं, यह पूर्व-पूंजीवादी राजशाही-सामंतशाही का
स्थानीयतावाद है, जिसमें वैश्विकता का संदर्भ सिर्फ मालिक और गुलाम का संदर्भ हो सकता है; विजेता और विजयी
का संदर्भ । इन दोनों को एक पूंजीवाद के ही दो रूप मान लेने की बुनियादी तौर पर
गलत विचारधारात्मक समझ ही इन उलझनों के मूल में होती है । इस बात को भी और गंभीरता
से समझने की जरूरत है, क्योंकि जिस फासीवाद को हम पूर्व-पूंजीवाद से जोड़ कर देख
रहे हैं, वह किसी राजशाही
या सामंती समाज में पैदा नहीं हुआ है । तब हम इसे पूंजीवाद से कैसे अलग करके देखें
?
मार्क्स ने बताया
था कि उत्पादन का स्वरूप ही किसी भी समाज में आदमी के जीवन का स्वरूप होता है ।
इसके साथ ही उन्होंने यह भी बताया था कि उत्पादन के साधनों की मिल्कियत अर्थात
उत्पादन-संबंध किसी भी समाज के सामाजिक संबंधों, सामाजिक-व्यवस्था को व्यक्त करते हैं । जब हम
सिर्फ उत्पादन के स्वरूप के आधार पर ही समाज व्यवस्थाओं पर राय देने लगते हैं तब
हम वही भूल करने के लिये मजबूर होते हैं जो भूल हर्बर्ट मारक्यूस से लेकर
फ्रैंकफर्ट स्कूल के विचारकों ने साठ के दशक में पूंजीवाद और समाजवाद, दोनों को आधुनिक
तकनीक की औद्योगिक समाज-व्यवस्था मान कर, समान बताने की भूल की थी । उन्होंने उत्पादन के
साधनों की सामाजिक मिल्कियत के उस सच की अवहेलना की थी जो समाजवाद को पूंजीवाद से मूलभूत
रूप में अलग करता है ।
इसे ही आगे
फासीवाद पर भी लागू करके देखा जाना चाहिए । थोड़ी सी गहराई में जाने से ही हम देख
पायेंगे कि फासीवाद उत्पादन संबंधों के उस रूप पर टिका हुआ है जिसमें उत्पादन के
साधनों की निजी मिल्कियत के बावजूद उनका तानाशाही शासन की कमांड व्यवस्था से
संचालन किया जाता है । हिटलर ने ट्रेडयूनियन आंदोलन को कुचल कर पूंजीपतियों को
मजदूरों की सौदेबाजी के दबाव से मुक्त कर दिया था, लेकिन इसके साथ ही खुद पूंजीपतियों के लिये भी
यह तय कर दिया था कि जर्मनी के कारखानों में किस चीज का कितना उत्पादन किया जायेगा; किस प्रकार वे
विश्व विजय की हिटलर की योजना की सेवा में लगे रहेंगे । अर्थात, उद्योग चलेंगे
पूरी तरह से हिटलर के फरमानों के अनुसार । उत्पादन का यह केंद्रीभूत ढांचा कुछ
अंशों में हिटलर ने समाजवाद से ग्रहण किया था — नेशनल सोशलिज्म (नाजीवाद) । हमारे यहां मोदी में इस प्रवृत्ति को साफ रूप
में देखा जा सकता है । पूरी अर्थ-व्यवस्था को अपनी निजी मुट्ठी में कस लेने के
लिये नोटबंदी की तरह का सामान्य रूप से निंदित कदम उठाने में उन्होंने जरा सी भी
हिचक नहीं दिखाई । अर्थ-व्यवस्था के सामान्य मान्य नियमों को ताक पर रख कर उसे एक
तानाशाह की सनक के अधीन कर देने की यह लाक्षणिकता मोदी और आरएसएस के फासीवादी
चरित्र का एक सबसे बड़ा सबूत पेश करती है । हिटलर ने अपने काल में उन सभी
उद्योगपतियों को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा दिया था जिन्होंने हिटलर के उदय में
उसकी सबसे ज्यादा आर्थिक सहायता की थी ।8 मोदी भाजपा के समर्थकों
के परंपरागत आधार, शहरी व्यापारियों की पिटाई को ही आज अपनी अर्थनीति और
राजनीति का आधार बनाये हुए हैं । उपभोक्ता और नागरिक के अधिकार मोदी के लिये कोई
विषय ही नहीं है ।
इसकी तुलना में
सामान्य पूंजीवादी जनतंत्र मूलतः उत्पादन के साधनों की निजी मिल्कियत पर टिका होने
पर भी वह किसी कमांड व्यवस्था के जरिये नहीं, बल्कि मूलतः बाजार के नियमों से संचालित होता
है, जिसमें संपत्ति
के मूलभूत अधिकार को स्वीकृति के साथ ही सामान्य उपभोक्ता समाज की एक सक्रिय
भागीदारी हुआ करती है । उपभोक्ता के हितों की रक्षा भी राज्य का एक प्रमुख दायित्व
होता है । नागरिक के अधिकार, मानव-अधिकार, कानून का शासन की संगति में ही पूंजीपति और
उपभोक्ता के अधिकार भी अपनी न्यायोचितता को प्रमाणित करते हैं ।
इस प्रकार, आधुनिक तकनीक के
औद्योगिक युग के एक ही वैश्विक क्षितिज में उभर कर आने वाली इन तीन अलग-अलग
समाज-व्यवस्थाओं, पूंजीवादी जनतंत्र, फासीवाद और समाजवाद को हम तात्विक रूप में तीन बिल्कुल
अलग-अलग जगहों पर रख कर स्वतंत्र रूप में समझ सकते हैं और इन तीनों व्यवस्थाओं के
तहत सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक मान-मूल्यों को भी अलग—अलग करके देखा जा सकता है।
मार्क्स की
शब्दावली में इन्हीं बातों को कहे तो, ‘‘समाज - उसका रूप चाहे जो हो - क्या है ? वह मानवों की
अन्योन्यक्रिया का फल है। क्या मनुष्य को समाज का जो भी रूप चाहे चुन लेने की
स्वतंत्रता प्राप्त है ? कदापि नहीं।...उत्पादन, वाणिज्य और उपभोग के विकास की कोई खास अवस्था
ले लीजिए, तो आपको उसके
अनुरूप ही सामाजिक गठन का रूप, परिवार का, सामाजिक श्रेणियों या वर्गों का संगठन भी, या एक शब्द में
कहें तो नागरिक समाज भी मिलेगा। किसी खास नागरिक समाज को ले लीजिए तो आपको खास
राजनीतिक व्यवस्था भी मिलेगी, जो नागरिक समाज की आधिकारिक अभिव्यक्ति मात्र है।’’
मार्क्स इसके साथ
ही यह भी कहते हैं कि ‘‘ मानव अपनी उत्पादन शक्तियों का - जो उसके पूरे इतिहास का
आधार है - स्वाधीन विधाता नहीं होता, क्योंकि प्रत्येक उत्पादक शक्ति अर्जित शक्ति
होती है, भूतपूर्व
कार्यकलाप की उपज होती है।’’
मार्क्स ने
वासिल्येविच आन्नेनकोव के नाम अपने इसी पत्र में, यह भी लिखा था कि ‘‘मानव का सामाजिक इतिहास उसके व्यक्तिगत विकास
के इतिहास के अलावा और कुछ भी नहीं है - भले ही उसको इसकी चेतना हो या न हो।’’ और, ‘‘ मनुष्य जो
उपार्जित करता है उसे फिर कभी छोड़ता नहीं। पर इसका अर्थ यह नहीं कि वह उस सामाजिक
रूप का भी परित्याग नहीं करता जिसमें उसने किन्हीं उत्पादक शक्तियों को प्राप्त
किया है। इसके विपरीत, प्राप्त परिणाम से वंचित न होने, और सभ्यता के फलों को न गंवाने के लिए, मनुष्य उस क्षण
से ही अपने सारे परंपरागत सामाजिक रूपों को बदलने को बाध्य होता है जब से उसके
वाणिज्य के रूप का अर्जित उत्पादक शक्तियों के साथ सामंजस्य नहीं रह जाता।’’9
‘‘ मनुष्य जो उपार्जित करता है उसे फिर कभी छोड़ता नहीं। पर इसका अर्थ यह नहीं कि
वह उस सामाजिक रूप का भी परित्याग नहीं करता जिसमें उसने किन्हीं उत्पादक शक्तियों
को प्राप्त किया है।” अपनी उपार्जित उत्पादन शक्ति को न छोड़ना, लेकिन उस सामाजिक
रूप का त्याग कर देना, जिसमें उस शक्ति को अर्जित किया गया था — मार्क्स की इसी
बात से जाहिर है कि पूंजीवादी जनतांत्रिक व्यवस्था का संकट सामाजिक स्वरूप में
परिवर्तन का कारण बनता है । अब वह जहां फासीवाद के आगमन का कारण बन सकता है, वहीं समाजवाद के
द्वार भी खोल सकता है । फासीवाद जहां मनुष्य द्वारा पहले से उपार्जित शक्तियों और
अधिकारों को उनसे जबर्दस्ती छीन लेने का रास्ता है तो समाजवाद उनकी रक्षा करते हुए
और आगे बढ़ाने का रास्ता है ।
यह समय और स्थान
के एक वृत्त से मुक्त होकर बिल्कुल दूसरे वृत्त में प्रवेश की तरह है । जब हम
समाज-व्यवस्थाओँ और उसमें होने वाले परिवर्तनों की इस प्रकार की एक स्पष्ट तात्विक
समझ को हासिल करेंगे, हमें भारतीय राजनीति में पिछले लगभग सत्तर साल से शासन की
नीतियों को तय कर रही कांग्रेस पार्टी और हिटलर के नाजीवादी एकीकृत शासन की समझ पर
चलने वाली आरएसएस और नोटबंदी तथा विकृत ढंग से जीएसटी लागू करने वाले तुगलकी नेता
नरेन्द्र मोदी के बीच फर्क करने में भी कोई कठिनाई नहीं होगी । फासीवाद से लड़ाई
को लेकर हमारे सामने तब कोई मानसिक गतिरोध नहीं होगा । मोदी के खिलाफ जरूरी हो तो
कांग्रेस के नेतृत्व में ही व्यापकतम एकजुट आंदोलन की रणनीति से अपने को जोड़ने
में हमें कोई कठिनाई नहीं होगी ।
मोदी के नेतृत्व
में एक संगठित तूफानी शक्ति इस नई परिस्थिति का इस्तेमाल राज्य को अधिक से अधिक
दमन-मूलक बनाने के लिये कर रही है । बेरोजगारों की बढ़ती हुई फौज को
गुंडों-बदमाशों (गोगुंडों) की फौज में बदलने की कोशिश जारी है । इनसे ही दंगाइयों
की, अन्ध-राष्ट्रवाद
के नशे में चूर आत्म-घाती युद्धबाजों की फौज बनाई जायेगी। आरएसएस इस मामले में
हिटलर की नाजी पार्टी और उसके तूफानी दस्तों की भूमिका निभाने के लिये मौजूद है ।
इस लेख के शुरू में ही हमने जो सवाल किया था कि फासीवाद सिर्फ जर्मनी, इटली, जापान और स्पेन
में ही क्यों पनपा, उसकी वजह यही थी कि हिटलर, मुसोलिनी, तोजो और फ्रैंकों के पास उनकी पार्टियों के
हमलावरों का आरएसएस की तरह का संगठित ढांचा था । हमारे यहां आरएसएस का जन्म
फासिस्टों के तमाम सैद्धांतिक और सांगठनिक उसूलों के आधार पर ही हुआ है । उसके
नेतृत्व में भारत में किसी दक्षिणपंथी सरकार का बनना अन्य देशों में, यहां तक कि
अमेरिका में भी ट्रंप का राष्ट्रपति बनना एक सी बात नहीं है । यह उदार पूंजीवाद के
संकट के बीच से सीधे फासीवाद की ओर बढ़ना है ।
इसके विपरीत, आज के समय का यह
भी उतना ही बड़ा सच है कि यह हिटलर का, औद्योगिक पूंजीवाद के प्रथम चरण का जमाना नहीं
है। आज यदि हम समग्र रूप से उत्पादन के स्वरूप पर विचार करे तो मानव समाज अभी
कृत्रिम बुद्धि द्वारा उत्पादन के एक नए दौर में प्रवेश कर रहा है। यह इजारेदारी
को भी एक नये स्तर तक ले जाने का समय है ।10
जरूरत सिर्फ इस
बात पर विचार की है कि इन सभी चुनौतियों के सामने कैसे धर्म-निरपेक्ष और
कल्याणकारी राज्य के संविधान की रक्षा की लड़ाई के जरिये नागरिकों की अब तक अर्जित
शक्तियों और उनके अधिकारों के प्रयोग को सुनिश्चित किया जाए ? कहना न होगा, यह मनुष्यों के
आत्म-विखंडन से लेकर विखंडित, अकेले मनुष्यों की नई सामाजिकता का जमाना भी है । यह बड़ी
पूंजी के इलेक्ट्रोनिक माध्यमों के बरक्स सोशल मीडिया का भी जमाना है ।
फासीवादी
राष्ट्रवाद वैश्विकता के समग्र संदर्भ में एक सबसे बड़ा झूठ है जो मूलतः पूंजीवादी
वैश्विकता से नहीं, राजशाही और सामंतशाही, हिंदू पादशाही स्थानिकता से शक्ति पाता है ।
आरएसएस के राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर ढेर सारी सामग्री उपलब्ध है ।
हमारी किताब 'आर.एस.एस. और उसकी विचारधारा' में भी इसपर विस्तार से चर्चा की गई है । जेएनयू के
कार्यक्रम में दिये गये वक्तव्यों में भी इस पर काफी कुछ कहा गया है । गोलवलकर की
किताब ' वी आर आवर
नेशनहुड डिफाइन्ड' में इसे खुल कर परिभाषित किया गया है । 1939 में प्रकाशित इस
किताब में हिटलर के जर्मनी के बारे में वे लिखते हैं : ’’आज दुनिया की नजरों में सबसे ज्यादा जो दूसरा
राष्ट्र है वह है जर्मनी। यह राष्ट्रवाद का बहुत ही ज्वलन्त उदाहरण है। आधुनिक
जर्मनी कर्मरत है तथा वह जिस उद्दंश्य में लगा हुआ है उसे काफी हद तक उसने हासिल
भी कर लिया है। पुरखों के समय से जो भी जर्मनों का था लेकिन जिसे राजनीतिक विवादों
के कारण अलग-अलग राज्यों के अलग-अलग देशों के रूप में बाँट दिया गया था, उसे फिर उन्होंने
अपने आीन कर लिया है। उदाहरण के लिए आस्ट्रिया सिर्फ एक प्रान्त भर था, जैसे प्रुशिया, बवारिया तथा अन्य
कई प्रान्त हैं जिन्हें मिलाकर जर्मन साम्राज्य बना था। तर्क के अनुसार आस्ट्रिया
एक स्वतंत्र देश नहीं होना चाहिए था, बल्कि उसे बाकी जर्मनी के साथ ही होना चाहिए
था। इसी प्रकार के क्षेत्र हैं जिनमें जर्मन बसते हैं, जिन्हें युद्ध के बाद नए चेकोस्लोवाकिया राज्य
में मिला दिया गया था। पितृभूमि के प्रति जर्मन गर्वबोध, जिसके प्रति उस जाति का परम्परागत लगाव रहा है, सच्ची राष्ट्रीयता
का जरूरी तत्त्व है। आज वह राष्ट्रीयता जाग उठी है तथा उसने नए सिरे से विश्व
युद्ध छेड़ने का जोखिम उठाते हुए अपने ’’पुरखों के क्षेत्र‘ पर एकजुट, अतुलनीय, विवादहीन, जर्मन साम्राज्य की स्थापना की ठान ली है।
जर्मनी की यह स्वाभाविक तार्किक आकांक्षा अब प्राय: परिपूर्ण हो गई है तथा एक बार
फिर वर्तमान काल में राष्ट्रीयता में ’’देशवाले पहलू‘ का अतीव महत्त्व प्रमाणित हो गया है।‘ (गोलवलकर, वी आर आवर
नेशनहुड डिफाइन्ड, प्रथम संस्करण, पृ. 34-35)11
यह एक ही राष्ट्र
में एथनिक क्लिंजिंग वाला 'राष्ट्रवाद' है । यह अन्य राष्ट्रों के संदर्भ में परिभाषित नहीं होता
है, 'भीतरी दुश्मनों' के संदर्भ में
तैयार किया गया राष्ट्रवाद है, हिटलर के हॉलोकास्ट वाला राष्ट्रवाद । गोलवलकर का उपरोक्त कथन, और हिंदुत्व के
प्रमुख सिद्धांतकार वीर सावरकर का 'हिंदू ही राष्ट्र है' तथा राष्ट्रीयता के पहलू को पितृ भूमि के साथ
ही पुण्य भूमि से जोड़ने और पेशवाई पादशाही की पुनर्स्थापना, हिंदुओं के
सैन्यीकरण की तरह की तमाम बातें इसके मूलभूत विभाजनकारी, दलित और मुसलमान-विरोधी — समग्र रूप से
जनतंत्र-विरोधी चरित्र को बताने के लिये काफी है । इसे सीधे तौर पर फासीवाद की
विचारधारा के तौर पर ही देखा जाना चाहिए ।
संदर्भ :
1. Rosicrucians — 17वीं सदी में यूरोप में पैदा हुआ एक सांस्कृतिक आंदोलन जो
विश्व की अब तक की अज्ञात गुह्य व्यवस्था के ज्ञान की बात करता था ।
2. Umberto Eco, On Literature, vintage,
paperback, 2006, p. 301.
3. मार्क्स-एंगेल्स संकलित रचनाएं,(चार भागों में) भाग –
1, प्रगति प्रकाशन, पृः 49
4. पूर्वोक्त, पृः 50-51
5.
https://www.economist.com/news/christmas-specials/21732704-nationalism-not-fading-away-it-not-clear-where-it-heading-whither?frsc=dg%7Ce
6. Slavoj Zizek, Absolute Recoil, Verso,
p.94-95
7.Karl Marx Frederick Engels, Collected orks, Vol.
5, Page 37
8. अरुण माहेश्वरी : हिटलर और व्यवसायी वर्ग https://chaturdik.blogspot.in/2016/03/blog-post_10.html)
9. Karl Marx Frederick Engels, Collected
Works, Progress Publishers, Moscow, Vol.38,p.96
10. अरुण माहेश्वरी, 'प्रतिद्वंद्विता से इजारेदारी तक',
अनामिका प्रकाशन, पृः 15-23
11.
https://chaturdik.blogspot.in/2014/01/blog-post_7544.html
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