-अरुण माहेश्वरी
उधर ट्रंप और इधर मोदी, दोनों ही कल तक शेयर बाज़ारों में छलाँग लगाती वृद्धि पर अपनी पीठ थपथपा रहे थे, आज सब जगह उस बाजार के औंधे मुँह गिरने पर वे ही मुँह पर ल्युकोपास्ट लगा कर बैठ गये हैं । ‘जो जैसे आता है, वैसे ही जाता भी है’ के वीतराग में अब दोनों ही मगन है ।
भारत में पिछले छ: दिन के शेयर बाजार के कारोबार में सेंसेक्स 2087 प्वाइंट गिर गया । 2017 के बजट के बाद एक साल में इसमें 2300 प्वाइंट की वृद्धि हुई थी, छ: दिन में उसका 90 प्रतिशत उड़ गया । आगे कहा टिकेगा, किसी को पता नहीं है, क्योंकि अब यह गिरावट विश्व-व्यापी गिरावट से जुड़ गई है । पहले झटके के बारे में विशेषज्ञों ने कहा था कि यह होना तो था ही, बजट में शेयरों में दीर्घावधि निवेश से होने वाली आमदनी पर कर लगाने से इसका मौका मिल गया । अब कह रहे हैं कि इस गिरावट के साथ ही विश्व-व्यापी गिरावट से भारत के शेयर बाजार में लगी विदेशी पूँजी और अल्पकालीन पूँजी के पलायन का ख़तरा है जो भारत सरकार के चालू खाते के घाटे को बढ़ा देगा, इससे सरकारी काम काज भी बाधित होगा ।
कुछ लोग भारत की इस गिरावट को राजस्थान के उपचुनाव में भाजपा की हार और आगे कर्नाटक, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान की विधानसभा के चुनावों में संभावित और बड़े झटके के क़यास को भी एक वजह बता रहे हैं, क्योंकि वे समझते हैं कि इनके चलते दबाव में आकर केंद्र सरकार कहीं किसानों को लागत के डेढ़ गुना एमएसपी की घोषणा न कर दें जिससे उद्योगों में सरकारी निवेश और ज्यादा प्रभावित होगा !
कहना न होगा, शेयर मार्केट में तेजी-मंदी के कारणों के तौर पर ऐसी दूर की राजनीतिक कौड़ी खोजना शेखचिल्ली की कल्पना से अधिक कुछ नहीं है । शेयर बाजार जो अभी काफी हद तक एक विशाल जूआ घर बन कर रह गया है, जहाँ छोटे-छोटे निवेशकों के आखेट रचे जाते हैं, उसमें सचमुच ऐसे किसी तर्क की तलाश का कोई मायने नहीं है ।
मसलन्, भारत में एलटीसीजी कर की वजह से निवेशकों की आहत भावना को इसमें गिरावट का कारण बताया जा रहा है तो अमेरिका में जो 4.6 प्रतिशत की गिरावट हुई है, उसे अर्थ-व्यवस्था में सुधार की वजह से निवेशकों के अति-उत्साह के कारण अर्थ-व्यवस्था के अतिरिक्त गर्म हो जाने और इसे ठंडा करने के लिये सरकार की नीतियों में परिवर्तन के क़यास का कारण बताया जा रहा है ।
अर्थात क़यास और सिर्फ क़यास ! वह भले सच पर टिका हो या अफ़वाह पर । जब अर्थ-व्यवस्था का यथार्थ नहीं, सिर्फ किसी अच्छे-बुरे क़यास को ही उतार-चढ़ाव का कारण माना जाता हो, तो इस बाजार की मूल प्रकृति का कोई भी अंदाज लगा सकता है । यह उद्योगों के लिये निजी संचित पूँजी को जुटा कर देने के यंत्र से ज्यादा भाग्यवाद का खेल रह गया है । जब इसमें अनाप-शनाप वृद्धि होती है, तभी समझ में आ जाता है कि यह जल्द ही धड़ाम से कुछ इस प्रकार गिरने वाला है कि बहुत सारे निवेशकों के शेयर के काग़ज़ात कोरे काग़ज़ ही रह जायेंगे । इस बाजार की भाषा में इसे ‘करेक्शन’ कहते हैं, साधारण निवेशकों को लालच में अपने पास बुला कर फिर उनका जिबह करके खा जाने का उत्सव । यह दुर्घटना की साजिश से रची जाने वाली मृत्यु का वह खेल है, जिसमें क्रमिक या तार्किक कुछ नहीं होता है । तर्क से परे विवेकहीनता का खेल ।
भारत में मोदी ने जान-बूझ कर एक झटके में आम लोगों पर नोटबंदी का क़हर बरपा किया था, शेयर बाजार में यह काम सामान्य निवेशकों पर गाहे-बगाहे, सड़क दुर्घटना की साजिश या फेक इनकाउंटर की तरह आम तौर पर होता ही रहता है । पूँजीवाद का संकट इसी प्रकार साधारण लोगों के सर पर डाल दिया जाता है ।
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