रविवार, 18 फ़रवरी 2018

उत्तर-सत्य और लोकतंत्र

—अरुण माहेश्वरी

हम सचमुच एक अजीब से काल में रह रहे है । अंबर्तो इको का प्रसिद्ध लेख है — Power of Falsehood । इस लेख की मैंने पहले भी कई बार चर्चा की है । इसमें उन्होंने आदमी के जीवन में सच की शक्ति को मानने पर भी झूठ की महत्ता को कुछ इस रूप में भी देखा था कि जैसे यह सच की ओर यात्रा के किसी प्रस्थान की तरह हो, मनुष्य की यात्रा के लिये एक चुनौती की तरह ।  इस लेख के अंत में वे कहते हैं कि “ कुछ लोगों को इतिहास के एक समय में यह संदेह कि सूरज धरती के चारो ओर चक्कर नहीं लगाता है उतना ही घृणित लगता था जैसे यह कि इस ब्रह्मांड का कोई अस्तित्व ही नहीं है, इसीलिये अपने दिमाग को ऐसे समय के लिये स्वतंत्र और तरोताजा रखने की जरूरत है जब विज्ञान के क्षेत्र के लोग यह घोषणा कर दे कि ब्रह्मांड का विचार ही एक कोरा भ्रम है जैसे धरती के चपटे होने की बात ।” इस लेख का अंतिम वाक्य था :
“गहराई में जाए तो, समाज का पहला कर्त्तव्य यह है कि वह इतना चौकस रहे ताकि प्रत्येक दिन वह विश्वकोश का पुनर्लेखन कर सके ।”2

लेकिन हम यहां जिस उत्तर सत्य की बात करने के लिये इकट्ठे हुए हैं, उसका सत्य की खोज या पहचान की तरह के पहलू से दूर दूर तक का भी कोई रिश्ता नहीं है । सत्य के परे — यह झूठ और झूठ और झूठ के रसातल में ही डूब कर खत्म हो जाने के जीवन के एक नये युग की परिभाषा है । यह पूर्व से कभी आदमी के मानस में बैठा हुआ झूठ नहीं है, यह जान-बूझ कर फैलाया जा रहा और अपनाया जा रहा झूठ है ।

'पोस्ट ट्रुथ' पद सिर्फ डेढ़ साल पहले दुनिया में चर्चा में आया था जब 2016 के अमेरिकी चुनाव में लोगों ने अचानक देखा कि राष्ट्रपति पद के लिये वहां एक ऐसा आदमी खड़ा हो गया है, जिसका सच की किसी भी बात से कोई संबंध नहीं है । वह पूरे दम-खम के साथ अनर्गल रूप से झूठ पर झूठ बोलता चला जाता है । मामूली तथ्यों तक की वह परवाह नहीं करता । उसने चला दिया कि ओबामा का बर्थ सर्टिफिकेट झूठा है और ओबामा ने ही आईएस(इस्लामिक स्टेट) की नींव रखी थी । ओसामा बिन लादेन और बराक ओबामा को एक व्यक्ति तक बना दिया । क्लिंटन दंपत्ति के बारे में चला दिया कि वे बच्चों के हत्यारे हैं । एक और प्रतिद्वंद्वी के पिता को उस ली हार्वे ओसवाल्ड का साथी बता दिया जिसने जॉन एफ कैनेडी की हत्या की थी ।

हम जानते हैं कि हर जगह राजनीतिज्ञ झूठ बोलते रहे हैं, लेकिन यहां समस्या यह है कि राजनीतिज्ञों की इस नई पौद का सच से जैसे कोई नाता ही नहीं है ! और इससे भी बड़ी समस्या यह है कि इतनी नंगई के साथ झूठ बोलने वाला भी राजनीति में जनता के द्वारा पुरस्कृत हो जाता है । साधारण लोगों को उसकी उटपटांग बातों से कुछ इस प्रकार का अहसास होने लगता है कि देखो, यह एक शेर आया है जो अब तक के सारे बुद्धिमानों, कुलीनों की अक्ल ठिकाने लगा सकता है ।

दुनिया में डोनाल्ड ट्रंप को इस पोस्ट ट्रुथ का प्रवर्त्तक माना जाता है । लेकिन राजनीति के इस रूप का हमारा अनुभव तो ट्रंप से भी दो साल पुराना है, केंद्र की राजनीति में मोदी के उदय के समय से ही । हमने तो देखा था कि मोदी कैसे धड़ल्ले से तक्षशिला को बिहार में ले आए थे और सिकंदर की लड़ाई बिहारियों से करवा दी थी । उन्होंने जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी को क्रांतिकारी बताने के लिये उन्हें लंदन में श्याम कृष्ण वर्मा बता दिया । यहां तक कि धारा 370 के बारे में कह दिया कि वह तो सिर्फ औरतों के अधिकारों से जुड़ी एक धारा है । ऐतिहासिक तथ्यों की मनमानी व्याख्या में भी उनकी कोई बराबरी नहीं थी । भारत को वे 1000-1200 साल से गुलाम बताने से नहीं हिचकते । 'सामाजिक समरसता' नामक पुस्तक का विमोचन करते हुए उन्होंने कह दिया कि “दलित मंद बुद्धि बच्चों की तरह होते हैं।” वाल्मीकि समुदाय के लोगों के बारे में कहा कि वे आध्यात्मिक अनुभव लेने के लिये मैला ढोया करते हैं और गटर साफ करते हैं । सोहराबुद्दीन शेख के फर्जी इनकाउंटर के बारे में भरी सभा में कहा कि वह इसी प्रकार के व्यवहार का हकदार था, और उस पर सभा में शामिल लोगों का अनुमोदन भी हासिल किया । हांकने में वे इतने उस्ताद रहे कि पश्चिमी सीमाओं पर डटे हुए सैनिकों के प्रति अपने प्रेम को जताने के लिये कह दिया कि वे 700 किलोमीटर की पाइप लाईन बैठा कर उनके लिये नर्मदा का पानी लाये हैं । इसके पहले अपनी एक सभा में उन्होंने फैला दिया था कि 15 दिसंबर 2012 के दिन भारत गुजरात और सिंध को समुद्र में अलग करने वाले सर क्रीक मुहाने को पाकिस्तान को सौंप देगा, जबकि इस विषय पर कभी किसी की किसी के साथ कोई चर्चा तक नहीं हुई थी ।

सन् 2002 में मुसलमानों के बारे में कहा कि उनका उसूल है — हम पांच और हमारे पचीस। जब कि गुजरात में मुसलमानों की आबादी के अनुपात में पचास साल में कोई वृद्धि नहीं हुई है । सोनिया गांधी के इलाज पर सरकार ने 1800 करोड़ रुपये खर्च कर दिये, यह भी उनका फैलाया हुआ ही एक झूठ था।

मोदी शुरू से लेकर आज तक ऐसी न जाने कितनी बेतुकी, तथ्यहीन बातें कहते रहे हैं, इसका कोई हिसाब नहीं है । नोटबंदी के समय तो वे हर रोज एक नया झूठ गढ़ा करते थे । अभी वे डावोस में अपने भाषण में कितनी झूठी बातें बोल रहे थे, भारत में शांति और समृद्धि के बारे में, लाल फीताशाही के खात्मे और इनक्लुसिव ग्रोथ के बारे में। इन बातों को हम सब जानते हैं । जिस समय वे भारत में 'सबका साथ सबका विकास' की बात कह रहे थे, उसी समय यहां पर इन तथ्यों पर चर्चा चल रही थी कि देश की 73 प्रतिशत संपदा पर 1 प्रतिशत लोगों का कब्जा है । देश में अपने को सुखी और समृद्ध  समझने वालों की संख्या घटते-घटते अब आबादी का सिर्फ तीन प्रतिशत रह गई है । और प्रधानमंत्री डावोस में बड़े लोगों के अपने टोले के साथ बेपनाह मौज में लगे हुए थे ।

इन सबमें जिस बात से हम पोस्ट ट्रुथ को परिभाषित कर सकते हैं, वह प्रमुख बात यह है कि इस प्रकार पूरी नंगई के साथ सफेद झूठ बोल कर भी राजनीति में एक आदमी सफलता की सीढ़िया चढ़ सकता है । आज यह मामला सिर्फ मोदी या ट्रंप तक सीमित नहीं है । पोलैंड, रूस, टर्की, ब्रिटेन — सब जगह इसके उदाहरण देखने को मिल रहे हैं । ब्रिटेन में ब्रेक्सिट के लिये प्रचार के वक्त यह झूठ फैलाया गया था कि यदि ब्रिटेन ईयू से अपने को अलग नहीं करता है तो टर्की का जो विभाजन होने वाला है, उससे ब्रिटेन में टर्की के शरणार्थियों की बाढ़ आ जायेगी ।

सफेद झूठ के आधार पर की जाने वाली राजनीति की इस स्थिति में जिन देशों में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हैं, वे तो झूठ की इस नई बाढ़ से किसी प्रकार निपट लेंगे, लेकिन यह उत्तर सत्य उन देशों की राजनीतिक व्यवस्थाओं की चूलें तक हिला सकता है जो किसी न किसी रूप में पहले से ही तानाशाही शासनों के अधीन रहे हैं ।

उत्तर-सत्य की राजनीति सिर्फ झूठ के प्रयोग की राजनीति नहीं है । इसमें बहुत गहरे तक बौद्धिकता की, पढ़े-लिखे लोगों की खिल्ली उड़ाने का भाव भी निहित होता है । हम साक्षी है कि किस प्रकार लालू यादव ने जिस समय इंद्रकुमार गुजराल को बिहार से राज्य सभा में भेजा था, उसी समय उन्होंने 'लालू चालीसा' लिखने वाले एक जोकर को भी राज्य सभा में भेजा और तब हमें लगा था कि यह और कुछ नहीं, गुजराल  का मजाक उड़ाना है । आज यह प्रवृत्ति जब विकसित देशों में भी दिखाई देने लगी है, तब वहां के लोगों के कान खड़े हुए हैं । यह झूठ को फेंकते जाना भर नहीं है, बल्कि उसके साथ ही सच को कठघरे में खड़ा करना भी है । पहले झूठ का प्रयोग एक गलत विश्व-दृष्टि तैयार करने के लिये किया जाता था, लेकिन मोदी और ट्रंप का वास्तव में देखा जाए तो ऐसा कोई उद्देश्य नहीं है । मोदी के पीछे अगर मान लिया जाए कि आरएसएस की विचारधारा का एक पहलू है, लेकिन ट्रंप के मामले में तो वह भी नहीं है । वे झूठ का इसलिये धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं क्योंकि वे यह जान गये है कि जिन लोगों को वे संबोधित कर रहे हैं, उनका सच के ऊपर से, समझदार और बुद्धिमान माने जाने वाले लोगों के ऊपर से विश्वास पहले ही उठ चुका हैं । ट्रंप और मोदी की तरह के लोग उनके इन्हीं पूर्वाग्रहों को, उनके तमाम अंध-विश्वासों को, उनके झूठे संशयों को और पुख्ता करने के लिये झूठ का प्रयोग करते हैं । मोदी ने तो उत्तर प्रदेश में खुद को गर्व के साथ गधा तक कह दिया था । चूंकि उनके झूठ को ही लोगों का समर्थन मिलता है इसीलिये ये न्यूनतम तथ्यों तक की परवाह नहीं करते । सुनने वाले को कुछ अपने मन जैसा लगे, बस यही इनका एक मात्र लक्ष्य होता है ।

जनता में इनके विरोधियों के प्रति अविश्वास को वे 'हम' वनाम 'वे' की लड़ाई का रूप देने के लिये सफेद झूठ के जरिये उनसे अपने को अलग करते हैं । इनके तथ्यों को चुनौती देने की विरोधी की कोशिश एक प्रकार से उससे उसके सकारात्मक प्रचार के अवसर को ही छीन लेती है । वे इनकी उट-पटांग बातों में ही उलझ कर रह जाते हैं ।

इस प्रकार की उत्तर-सत्य की राजनीति कई प्रकार के स्रोतों से पैदा होती है । इसमें व्यवस्था-विरोध की बौद्धिकता की भी एक भूमिका है । और उतनी ही भूमिका उन लोगों की भी हैं जो पारंपरिक संस्थाओं में जंग लगने का कारण बनते हैं । इनकी वजह से लोग सामान्य तौर पर अपने को ठगा गया महसूस करने लगते हैं, और देखते है कि कुलीनों का एक तबका जंग खा रही संस्थाओं के जरिये ही फल-फूल रहा है । विशेषज्ञ कहलाने वाले लोगों के प्रति कोई आस्था शेष नहीं रह जाती है, क्योंकि उन्हें लोग अक्सर झूठ बोलते और अपना उल्लू सीधा करते हुए देखते हैं ।

बशीर बद्र का एक शेर है :
मैंने तेरी बातों को कभी झूठ कहा था
उस जुर्म पर हर झूठ को सच मान लिया है ।

इसके अतिरिक्त, मीडिया का विस्फोट भी उत्तर-सत्य की इन परिस्थितियों में अपनी भूमिका अदा कर रहा है । सूचना केंद्रों के बिखराव से झूठ और अफवाहों के केंद्रों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है । 'व्हाट्स अप' इंडस्ट्री तो झूठ की फैक्ट्री है । इसके ग्रुप के सदस्य आपस में ही एक-दूसरे पर विश्वास करते हैं, और किसी पर नहीं । इस प्रकार के केंद्रों से फैलाये जाने वाले झूठ की काट भी मुश्किल होती है । मीडिया में विषय के साथ न्याय करने के चक्कर में भी झूठ को मीडिया में उतनी ही जगह दे दी जाती है, जितनी सच को दी जाती है । मसलन्, नासा कहता है कि मंगल ग्रह पर जीवन मिल सकता है तो उसके कथन को मंगल ग्रह पर एलियन्स के होने के प्रमाण के तौर पर फैला दिया जाता है ।

इन सब चक्कर में अक्सर जिसका नुकसान होता है वह है सच का नुकसान । बहसें सच पर नहीं, झूठ पर केंद्रित हो जाती है । जीवन के असली विषय पीछे छूट जाते हैं । भारत के टीवी मीडिया पर जब मोदी के आईटी सेल का छोड़ा हुआ दूसरा कोई मुद्दा नहीं होता है तब किम जोंग उन या सीरिया, इराक की कहानियां छाई रहती है ।

आज सचमुच इस सवाल पर सोचने का वक्त भी आ गया है जब तमाम प्रकार की झूठी बातों और आश्वासनों के आधार पर एक नेता सत्ता पर आता है, और जल्द ही उस नेता की कथनी और करनी के बीच जमीन आसमान का फर्क देख कर उसके समर्थकों का ही मोहभंग होने लगता है, तब समाज में कैसी हताशा और बदहवासी पैदा हो सकती है ? आज के भारत को देखिये । मात्र साढ़े तीन साल के मोदी के शासन की तमाम झूठी बातों के चलते जिन लोगों ने कांग्रेस तथा दूसरी पार्टियों को बुरी तरह हराया था, वे सब अपने को जैसे किसी बंद गली के आखिरी छोर तक पहुंच गया महसूस करते हैं । जनता के बीच आज जैसी बेचैनी शायद ही पहले कभी देखने को मिली होगी । लोग बिना वजह ही किसी भी मामूली बात पर हिंसक हो जा रहे हैं । जनता का कोई हिस्सा ऐसा नहीं है जो आज सड़कों पर नहीं है । 2014 तक भारत में लगभग 15-20 प्रतिशत लोग अपने को अपेक्षाकृत सुखी और संपन्न महसूस करते थे, आज उनकी संख्या घटते-घटते सिर्फ 3 प्रतिशत पर पहुंच गई है । आम लोगों की मनोदशा का सर्वेक्षण करके उनका विश्लेषण करने वाली प्रतिष्ठित 80 साल पुरानी, 160 देशों पर काम करने वाली संस्था 'गैलप' की भारत के बारे में यह सबसे ताजा रिपोर्ट है । यह आम लोगों में बढ़ती हुई एक प्रकार की अलगाव की भावना को ही दर्शाती है ।

इस उत्तर-सत्य की राजनीति की सबसे बुरी बात यह है कि इसमें समय के साथ अपने आप सुधार की कोई गुंजाईश नहीं होती है । जिस किसी ने यह सोचा होगा कि सत्ता पर आने के बाद मोदी जैसा झूठ बोलने वाले व्यक्ति में जिम्मेदारी का बोध पैदा हो जायेगा तो उसे सिवाय निराशा के न आज तक कुछ हाथ लगा है और न आगे लगने वाला है । आम जनता में बढ़ता हुआ अविश्वास और विच्छिन्नता बोध इस प्रकार की राजनीति के लिये और ज्यादा उर्वर जमीन तैयार करने लगता है । कुल मिला कर फासीवाद और बल पाता है ।

यह है उत्तर सत्य का पूरा सत्य । यह सत्य के अस्तित्व मात्र पर एक खतरे की तरह है । आज का यह प्रमुख सवाल है कि आखिर इसका मुकाबला कैसे हो ? कैसे इस राजनीति की सत्य पर टिकी हुई एक जवाबी भाषा तैयार की जाए ?

हम जितना इस विषय में सोचते हैं, इसके अलावा हमें दूसरा कोई उत्तर नहीं मिलता है कि परिस्थितियां जितनी भी प्रतिकूल क्यों न हो, सत्य की लड़ाई लड़ने वालों को पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ अपने सत्य पर अडिग रहना होगा । झूठ से मुकाबले के नाम पर उसी के जाल में फंसने से बचना होगा । सत्य की ताकत पर भरोसा रखना होगा । आज मीडिया के विस्फोट के इस काल का एक सच यह भी है इसमें झूठी बातों पर से बहुत जल्द ही पर्दा भी उठ जाता है । फैलाये गये झूठ का तत्काल सही काट भी व्हाट्स अप, फेसबुक आदि पर आ जाता है । हर षड़यंत्र के बेनकाब होने की संभावना भी बनी रहती है । यह सोशल मीडिया का ही दबाव है कि जज लोया के मामले की तलवार आज भी अभियुक्त अमित शाह पर लटक रही है । कानून की दुनिया को अगर इस उत्तर सत्य ने प्रभावित किया है, तो उसमें विद्रोह के बीज भी सत्य की लड़ाई के जरिये देखने को मिल रहे हैं । आज उत्तर-सत्य के मोदी-शाह जैसे नायकों को भी इसी के औजारों का डर सता रहा है । कहना न होगा इससे राज्य के और ज्यादा दमनकारी होने का खतरा है, तो आम लोगों में विद्रोह की संभावना भी बन रही है ।   


बहरहाल, गालिब का एक शेर है —

कोई वीरानी सी वीरानी है
दश्त को देख के घर याद आया ।

उत्तर-सत्य में यह उलट कर कुछ इस प्रकार हो जाता है —

कोई आबादी सी आबादी है
शहर को देख के दश्त याद आया

जरूरत बस इस जंगल को सच की आग से जलाने और एक नई रोशनी पैदा करने की है ।

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