शनिवार, 3 मार्च 2018

2019 के चुनाव के लिये कांग्रेस, अन्य धर्म-निरपेक्ष जनतांत्रिक ताकतों और वामपंथ का एक चुनाव-पूर्व गठबंधन कायम हो


त्रिपुरा के चुनाव का सबक
—अरुण माहेश्वरी


त्रिपुरा में वाम मोर्चा की बुरी पराजय फिर एक बार वामपंथियों के अंदर कांग्रेस या दूसरी धर्म-निरपेक्ष और जनतांत्रिक ताकतों के साथ संबंधों को लेकर अब तक चली आ रही पूरी बहस की निस्सारता को प्रमाणित करने के लिये काफी है ।

2011 में पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा पराजित हुआ था तृणमूल कांग्रेस के हाथों । तब कांग्रेस टीएमसी के साथ थी । 2016 में फिर वाममोर्चा टीएमसी से पराजित हुआ तब कांग्रेस वाम के साथ थी । लेकिन सीपीएम के बहुमतवादियों ने बिना किसी आधार के रटना शुरू कर दिया कि वाम पराजित हुआ है कांग्रेस के साथ समझौते की वजह से । इस बार त्रिपुरा में कांग्रेस के साथ वाममोर्चा का कोई संपर्क नहीं था, वहां भी वाम मोर्चा हार गया ! इससे कोई क्या अर्थ निकालेगा ?

खुद वामपंथियों का मानना है कि सारी दुनिया में अभी दक्षिणपंथ का उभार चल रहा है । इसे हाल में सीपीआई(एम) के दस्तावेज में भी दर्ज किया गया है । दक्षिणपंथ से तात्पर्य क्या है ? दक्षिणपंथ का अर्थ है धर्म, नस्ल, जाति आदि से जुड़ा संकीर्ण राष्ट्रवाद । यह जरूरी नहीं है कि दुनिया में सब जगह यह राष्ट्रवाद फासीवाद का रूप ले पाये । थोड़ा सा इतिहास के पन्नों को पलटिये, पता चलेगा कि 1930 के दशक में पूरे यूरोप में दक्षिणपंथ का उदय हुआ था, लेकिन सिर्फ जर्मनी और इटली में ही इसने फासीवाद का रूप लिया । इसीलिये दक्षिणपंथ के फासीवादी रूपांतरण की अपनी कुछ भी शर्तें क्यों न हो, इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि इसकी पूरी संभावना रहती है । भारत में आरएसएस की तरह के एक संगठन और उसके ताने-बाने के रहते हमारे यहां उसकी ये संभावनाएं सबसे प्रबल हैं । इसीलिये यहां सिर्फ 'दक्षिणपंथ' के उभार की चर्चा से परिस्थिति की गंभीरता को पूरी तरह से जाहिर नहीं किया जा सकता है । यह नितांत अपर्याप्त है ।

और जब हम यह कहते हैं कि अभी दुनिया में दक्षिणपंथ के उभार का दौर चल रहा है तब क्यों नहीं हम भारत में वामपंथ की पराजयों को भी इस सचाई से नहीं जोड़ पाते हैं ? इसी से जुड़ा हुआ है फासीवाद के आगमन का आयाम भी ।

पश्चिम बंगाल में वामपंथियों को 34 साल के अपने पूरे शासन में लगातार 45 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिलते रहे, लेकिन लगभग 40 प्रतिशत मत वहां लगातार वाममोर्चा के विरोध में भी गिरते रहे । नई परिस्थिति में इन लगातार जारी विरोधी मतों में कुछ और मतों के योग से ही वामपंथ पराजित होगया । यही बात इस बार त्रिपुरा में भी देखने को मिली है । इससे जो एक बात साफ जाहिर होती है वह यह कि सत्ता में रहते हुए वामपंथियों को समाज के उन सभी जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष लोगों के साथ जिस प्रकार का संवाद कायम करके उन्हें अपने करीब लाना चाहिए था, जो उनके खिलाफ मतदान करते रहे हैं, उसमें सत्ता पर शुरू के कुछ सालों के बाद ही वामपंथी विफल हुए हैं । जबकि इस संवाद को स्थापित करना और अपने जनाधार को लगातार विकसित करना वाम के अस्तित्व के बने रहने की प्राथमिक शर्त है ।

दुर्भाग्य की बात यह है कि आज के 'दक्षिणपंथ' के उभार के काल में भी खास तौर पर सीपीआई(एम) के अंदर ऐसे लोगों ने अपना बहुमत बना रखा है जो अपने से बाहर के जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष लोगों से एक निरंतर और ठोस संवाद बनाने की कार्यनीति के विरोधी है । इसके लिये वे दलील देते हैं नव-उदारवाद की, जो खुद में एक ऐसी वैश्विकता का परिप्रेक्ष्य है जिसके परे जाना भारत के संसदीय जनतांत्रिक चुनावों में किसी के लिये भी एक कल्पनातीत स्थिति है ।

बहरहाल, 2016 में पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के साथ एक चुनावी समझौता करके प्रदेश की गैर-वामपंथी जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष ताकतों के साथ संवाद कायम करने की एक ठोस प्रक्रिया शुरू हुई थी । लेकिन चूंकि 2016 के चुनावों में सीपीएम को कोई लाभ नहीं हुआ, इसीलिये यह मान लिया गया कि इस प्रकार के संपर्कों का कोई लाभ नहीं, बल्कि नुकसान ही है । यद्यपि 34 साल के अपने लंबे शासन के बाद इतनी जल्दी लोगों का विश्वास पा लेना किसी शेखचिल्ली के सपने से कम नहीं था । कांग्रेस के साथ समझौता उस दिशा में एक सही और छोटा सा कदम था । अब इसे भी वापस ले कर अपने खोल में घुसे रहने की बात की जा रही है !

इस पूरे संदर्भ में भारत में वामपंथ का तीसरा गढ़ माने जाने वाले केरल के बारे में कोई भी चर्चा व्यर्थ है । वहां पिछले अनेक सालों से हर पांच साल में वाम और कांग्रेस के बीच सत्ता की अदला-बदली होती रही है । दोनों पक्षों में एक-दो प्रतिशत मतों का एक स्थायी फर्क है । चुनाव के वक्त उसमें व्यवस्था-विरोधी एक-दो प्रतिशत के योग से सत्ता का परिवर्तन हो जाता है । लेकिन यह सच है कि केरल में भी वाम मोर्चा गैर-वामपंथी धर्म-निरपेक्ष लोगों से संवाद की किसी प्रक्रिया से अपने आधार का विस्तार करने में विफल रहा है । ऐसे में यह मुमकिन है कि कांग्रेस-समर्थक वाम-विरोधी जनमत कभी भी एकमुश्त भाजपा जैसी फासिस्ट पार्टी के पक्ष में चला जाए, जैसा कि त्रिपुरा में अभी हुआ है ।

यह देख कर सचमुच आश्चर्य होता है सीपीआई(एम) की तरह की पार्टी अपनी बैठकों में अपने सामाजिक विस्तार के रास्ते की बाधाओं से उभरने के उपायों पर खुद को केंद्रित करने के बजाय ऐसे-ऐसे विषयों पर केंद्रित रहती है जिसमें उसकी मुख्य चिंता अपनी तथाकथित शुद्धता की रक्षा की रहती है, अर्थात अपने संकुचन को, अपने खोल को ही और कठोर करने की कार्यनीति की । पिछले दिनों कोलकाता में इनकी केंद्रीय कमेटी ने तीन दिन सिर्फ एक बात पर चर्चा में लगा दिये कि आगामी अप्रैल महीने में पार्टी कांग्रेस में बहस के लिये जो प्रस्ताव पेश किया जायेगा, उसमें कांग्रेस दल के साथ संबंधों के विषय में साफ बातें लिखी होनी चाहिए । तीन दिन तक इस विषय में सिर गड़ाये रखने के बाद अंत में मतदान के जरिये यह तय किया गया कि कांग्रेस के साथ आगामी चुनावों में किसी प्रकार का कोई समझौता नहीं होगा ! अर्थात, सीपीआई(एम) ने 'दक्षिणपंथ' के प्रसार के काल में बहुत सोच-समझ कर अपने को और संकुचित रखने, गैर-वामपंथियों से पूरी तरह से काट कर रखने का निर्णय लिया !

हम नहीं जानते कि त्रिपुरा से सीपीआई(एम) का प्रभावी नेतृत्व कोई सबक लेगा या नहीं । खुद माणिक सरकार पार्टी के अंदर इस मत के थे कि कांग्रेस के साथ सीपीएम का कोई संपर्क नहीं होना चाहिए । अब अपनी इस लाईन की उपलब्धियों को उन्होंने खुद देख लिया है । शुद्धता का अहंकार किसी को कहीं का नहीं छोड़ता है । जहां तक सीपीआई(एम) के बहुमतवादी नेतृत्व के लोगों का सवाल है, वे तो 1996 से भारत में वामपंथ के संकुचन-यज्ञ के प्रमुख होता रहे हैं । संभव है, उनके सिर पर इससे कोई सिकन नहीं आयेगी !

बहरहाल, हम तो यह समझते है कि यदि 2019 के चुनाव में मोदी-शाह के रोड रोलर को रोकना है तो इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है कि कांग्रेस, अन्य धर्म-निरपेक्ष और जनतांत्रिक ताकतों और वामपंथ के बीच किसी भी प्रकार से क्यों न हो, एक सुचिंतित कार्यक्रम के आधार पर बाकायदा एक चुनाव-पूर्व गठबंधन कायम किया जाए जो चुनाव के बाद भी भारत की राजनीति में एक नेतृत्वकारी भूमिका अदा कर सके । इस बात को अभी से समझा जाना चाहिए कि मोदी-आरएसएस का मसला सिर्फ एक चुनाव का मसला नहीं है । यह देश की पूरी राजनीतिक संरचना में आई एक बड़ी विकृति का मसला है । आगामी चुनाव में इन्हें परास्त करके समाज के अन्य सभी स्तरों पर भी इन्हें पराजित करने की एक लंबी लड़ाई लड़नी होगी ।     

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