रविवार, 11 मार्च 2018

बांग्ला नाट्य पत्रिकाओं के अविस्मरणीय संपादक नृपेन्द्र साहा नहीं रहे



अभी-अभी ‘आनन्द बाजार पत्रिका’ के स्तंभ ‘कोलकातार कड़चा’ (कलकत्ता का रोज़नामचा) से पता चला कि नृपेन्द्र साहा हमारे बीच नहीं रहे । बचपन से लेकर लगभग पचास साल की उम्र तक हमने जिस व्यक्ति को अपने परिवार के एक अभिन्न सदस्य के रूप में देखा था, आज वह इतनी ख़ामोशी से हमारे बीच से चला गया, सोच कर मन बेहद भारी है ।

हमारे पिता के अभिन्न मित्र नृपेन्द्र साहा बांग्ला की नाट्य पत्रकारिता का एक ऐसा नाम था, जिनके अवदान को बांग्ला नाट्य जगत शायद कभी भूल नहीं सकता ।
वे हमारे पिता के संपर्क में संभवत: साठ के दशक में आए थे जब पिता बांग्ला की एक नाट्य मंडली ‘गंधर्व’ से जुड़े । श्यामल बनर्जी और देबकुमार भट्टाचार्य के स्तर के जाने-माने नाट्य निदेशकों की इस मंडली से पिता का कैसे संपर्क हुआ, यह हम नहीं जानते । लेकिन उसके साथ ही नृपेन्द्र साहा के साथ वे घनिष्ठ रूप में जुड़ गये जो गंधर्व नाट्य मंडली की पत्रिका ‘गंधर्व’ के संपादक थे । कोलकाता के ‘मु्क्तांगन नाट्य मंच’ पर इस मंडली के नाटकों का प्रदर्शन हुआ करता था जिसकी स्मृतियाँ हमारे अंदर हमेशा से बनी हुई हैं । आज तो उस मुक्तांगन रंगमंच का ही शायद अस्तित्व नहीं बचा है ।

बहरहाल, नृपेन्द्र साहा कोलकाता के निकटवर्ती कल्याणी शहर में अपनी एक नर्सरी भी चलाते थे और फूलों के प्रति उनके अगाध प्रेम ने कैसे उनके लेखन, खास तौर पर संपादन और पत्रिका के प्रस्तुतीकरण को सँवार कर एक नई ऊँचाई दी थी, इसे उनके द्वारा संपादित पत्रिकाओं को देख चुका हर व्यक्ति स्वीकारता रहा है ।

‘गंधर्व’ पत्रिका के बाद 1978 से वे लगभग तीस साल तक ‘ग्रुप थियेटर’ पत्रिका का संपादन करते रहे जिसमें हमारे पिता भी उनके संपादकीय सहयोगी थे । बांग्ला की इस नाट्य पत्रिका ने बांग्ला के नाट्य आंदोलन में निश्चित तौर पर एक इतिहास की रचना की थी । हर शनिवार को इस पत्रिका के संपादक मंडल की बैठक हमारे घर पर ही हुआ करती थी । परवर्ती दिनों में कोलकाता के राजाबाजार में इसका अपना दफ्तर हो जाने पर ये बैठकें वहीं होने लगी थी । आज इससे जुड़ा शायद कोई भी व्यक्ति जीवित नहीं है और पत्रिका बंद हो चुकी है । लेकिन तक़रीबन पैंतीस सालों तक यह पत्रिका बिना नागा हर तीन महीनों पर बाक़ायदा निकलती रही ।

‘ग्रुप थियेटर’ पत्रिका से पाँच साल पहले हट कर नृपेन्द्र साहा ने बांग्ला अकादमी की पत्रिका का दायित्व सम्हाला था, लेकिन तभी से पिता से उनका संपर्क लगभग टूट सा गया था । बांग्ला थियेटर की शायद एक भी ऐसी बड़ी हस्ती नहीं होगी, उत्पल दत्त, शंभु मित्रा से लेकर विभाष चक्रवर्ती, अरुण मुखर्जी तक, जो उनके संपादन में प्रकाशित न हुए हो । मृ्त्यु के वक्त उनकी उम्र 81 साल थी ।

आज एक अख़बार के एक स्तंभ के जरिये उनकी मृत्यु का समाचार सुन कर हम स्तब्ध है । यहाँ उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए हम उनकी पत्नी के प्रति अपनी गहरी संवेदना प्रेषित करते हैं ।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें