शुक्रवार, 9 मार्च 2018

यह कैसा जड़भरत्व !


अरुण माहेश्वरी

सीपीआई(एम) के सर्वशक्तिमान प्रकाश करात के 'द सिटिजन' पत्रिका (31 दिसंबर 2017) में सीमा मुस्तफा को दिये गये एक साक्षात्कार के अंशों की हाल में फिर से एक बार विभिन्न माध्यमों पर रिपोर्टिंग की जा रही है । इस साक्षात्कार में उन्होंने उन लोगों के प्रति थोड़ी सी दया दिखाई थी जो भारत में आरएसएस-मोदी के बारे में मूलतः फासिस्ट होने की धारणा बनाये हुए हैं और इनके खिलाफ व्यापकतम संयुक्त मोर्चा के गठन को आज की राजनीति की प्राथमिक जरूरत मानते हैं । उन्होंने फरमाया था कि “हमारी नीति समदुरत्व की नीति नहीं है, भाजपा कांग्रेस की तुलना में राजनीतिक लिहाज से बहुत ज्यादा खतरनाक है ।”(Our is not a policy of Equidistance, BJP is politically far more dangerous than Congress) । इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि चुनावी राजनीति ही सबकुछ नहीं है । “लोगों की नजर सिर्फ 2019 के लोकसभा चुनाव पर लगी हुई है, लेकिन भाजपा से लड़ने और उसे हराने के लिये जरूरी है कि आप जनता को गोलबंद करें ।“ (People tend to only look at the Lok Sabha elections in 2019, but in order to fight and defeat the BJP you need to mobilise the people.)

इसके पहले तक सीपीआई(एम) की 15वीं कांग्रेस की राजनीतिक-कार्यनीतिक लाइन के 'अनुलंघनीय' प्रस्ताव का हवाला दिया जाता था जिसमें यह तय कर दिया गया था कि भाजपा और कांग्रेस दोनों से कोई समझौता नहीं हो सकता है । इसमें वे उस अतीत की बाधा से थोड़ा मुक्त हुए लगे तो अपने कथन के दूसरे वाक्य में ही उन्होंने अब वर्तमान के जरूरी कार्य से हट कर सिर छिपाने के लिये भविष्य की, 2019 के बाद की स्थिति की एक दूसरी काल्पनिक जगह की तलाश शुरू कर दी । '2019 के चुनाव पर ही केंद्रित करना काफी नहीं है' । अपने प्रत्यक्ष यथार्थ पर से ध्यान हटाने का लिये कल तक अतीत के एक फरमान का सहारा लिया जा रहा था, अब उसी काम के लिये शायद भविष्य की अपनी किसी मनोगत योजना के कल्पना लोक का !

हमें लगता है क्यों न हम अपने इन नेताओं का ध्यान माओ त्से तुंग के एक सबसे लोकप्रिय लेख 'व्यवहार के बारे में (ज्ञान और व्यवहार : जानने और करने के आपसी संबंध के बारे में)' की ओर दिलाए ।

“अगर मनुष्य अपने काम में सफल होना चाहता है अर्थात प्रत्याशित फल पाना चाहता है, तो उसे चाहिए कि वह अपने विचार को वस्तुगत जगत के नियमों अनुरूप बनाए ; यदि उसके विचार उन नियमों के अनुरूप नहीं बनेंगे तो वह अपने व्यवहार में असफल हो जायेगा ।”

“सभी प्रकार का सच्चा ज्ञान प्रत्यक्ष अनुभव से ही प्राप्त होता है।”

“चीन में कहावत है — बाघ की मांद में घुसे बिना बाघ के बच्चें कैसे मिल सकते हैं ।”
(माओ त्से तुंग, चुनी हुई कृतियां, विचार प्रकाशन, खंड-1, पृष्ठ-351-368)

—ये उद्धृतियां उसी लेख से ली गई है । विज्ञान का मूल नियम है कि यथार्थ के, अर्थात जो घटित हो गया है उसीके निरीक्षण-परीक्षण से सत्य की परख की जाए और उसके आधार पर आगे बढ़ा जाए । दुनिया में आज तक कोई भी भविष्य के घटना क्रम के स्वरूप को अपनी ओर से अंतिम तौर पर निर्धारित नहीं कर सका है ।
इसीलिये सामान्य लोग और आदर्शवादी विचारक जीवन को ईश्वर की लीला कहते हैं । परिस्थितियों का संयोग कब किस प्रकार का तैयार होता है, उस पर तमाम अनुमानों के बावजूद विफलता की हमेशा गुंजाईश होती है । और विचारधारा और ज्ञान घटित के आधार पर पैदा होते हैं न कि विचारधारा और ज्ञान से जीवन का यथार्थ निर्धारित होता है । इसीलिये विचारधारा में यथार्थ के प्रति एक प्रकार की अंधता का तत्व जरूर होता है ।

माओ कहते हैं कि “यदि कोई किसी चीज को जानना चाहता है तो उसके सामने इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है कि वह उस चीज के संपर्क में आए, यानी उसके वातावरण में रहे । सामंती समाज में पूंजीवादी समाज के नियम पहले से ही जान लेना असंभव था, क्योंकि पूंजीवाद का अभी उदय नहीं हुआ था और उससे संबंधित व्यवहार का भी अभाव था । मार्क्सवाद केवल पूंजीवादी समाज की ही उपज हो सकता है । पूंजीवाद के स्वच्छंद प्रतिद्वंद्विता वाले युग में मार्क्स पहले से साम्राज्यवादी युग की विशेषताओं को नहीं जान सकते थे ।”(वही, पृः358)

गौर करने की बात यह है कि सीपीआई(एम) के बहुमतवादी गुट ने हमेशा से तेजी से बदलते प्रत्यक्ष यथार्थ की अवहेलना करके विचारधारा को, पार्टी कांग्रेस के प्रस्ताव को एक प्रकार की ईश्वरीय सत्ता प्रदान करके चलने का हठपूर्ण रवैया अपना रखा है । जब से सीपीआई(एम) के सर्वोच्च नेतृत्व में ऐसे एक बहुमत की जकड़ बनी, तभी से वह भविष्य की किसी काल्पनिक परिणति के बहाने या अतीत के किसी प्रस्ताव की बाधा के नाम पर वर्तमान के सही विश्लेषण के आधार पर फौरी अमल के मामले में पूरी पार्टी को भटकाता रहा है ।

1996 में ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने के प्रस्ताव को ही ले । उन्होंने उस प्रस्ताव में भविष्य में एक भारी अघटन (catastrophe) के खतरे की घंटी बजाई थी । तब केंद्रीय कमेटी के फैसले के समर्थक सिद्धांतकार प्रो. एजाज अहमद ने ईपीडब्लू में एक लंबे लेख में यहां तक लिखा था कि यदि ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने के प्रस्ताव को मान लिया गया होता तो वे आसमान में टूट कर गिरने वाले सितारे की तरह एक चमक भर दिखा कर हमेशा के लिये बुझ गये होते, हासिल कुछ नहीं होता ! इसी प्रकार तब कुछ ने चिले के राष्ट्रपति आइंदे के दुखद अंत को भी याद कर लिया था । बहुमतवादियों की मुख्य दलील यह थी कि संसद में संख्या की कमी की वजह से ही ज्योति बसु सिर्फ कांग्रेस के हाथ की कठपुतली बन कर रह जायेंगे । और, इस प्रकार उस महत्वपूर्ण राजनीतिक घड़ी में भविष्य की एक काल्पनिक डरावनी तस्वीर तैयार करके पार्टी को तब एक नई जमीनी चुनौती को स्वीकार करने से रोक दिया गया ।

इन बहुमतवादियों ने हूबहू यही रुख अपनाया 2004 में यूपीए-1 से परमाणु संधि के नाम पर समर्थन वापस लेते वक्त । उन्होंने उस समय पूरी ताकत लगाकर भविष्य का यही डरावना मंजर तैयार किया था कि अगर अमेरिका के साथ यह संधि हो जाती है तो भारत में वामपंथ का कोई भविष्य नहीं रह जायेगा और भारत अमेरिकी साम्राज्यवाद का एक नक्षत्र बन जायेगा । आज हम सब जानते हैं कि वह परमाणविक संधि कूड़े के ढेर पर पड़ी हुई है, भारत और अमेरिका, दोनों जगह ही कोई उसकी सुध लेने वाला नहीं है !

और, अभी 2014 में मोदी के सत्ता पर आने के बाद जब एक नई संकटपूर्ण परिस्थिति आई है, जब प्रकाश करात पार्टी के महासचिव पद पर नहीं है, लेकिन केंद्रीय कमेटी में उनके बहुमतवादियों ने वस्तुतः उन्हें ही अब तक पार्टी के इंद्रासन पर बैठा रखा है, इन सबने नये महासचिव के लिये एक लक्ष्मण-रेखा बांध दी है — पिछली पार्टी कांग्रेस की राजनीतिक-कार्यनीतिक लाइन की लक्ष्मण-रेखा । अर्थात, इस बार जीवन के विकासमान यथार्थ के प्रति अंधे बने रहने के लिये भविष्य के बारे में किसी डरावने सपने का विचारधारात्मक विभ्रम तैयार करने के बजाय अतीत की एक 'ईश्वरीय' आज्ञप्ति का सहारा लिया गया है ।

माओ लिखते हैं — “ज्ञान व्यवहार से शुरू होता है, और व्यवहार के जरिये प्राप्त होने वाले सैद्धांतिक ज्ञान को फिर व्यवहार के पास लौट आना होता है ।” हम भारत के दार्शनिक अभिनवगुप्त की शब्दावली में कहे तो “तत्र अध्यवसायात्मकं बुद्धनिष्ठमेव ज्ञानं प्रधानम् तदेव च अभ्यस्यमानं पौरुषमपि अज्ञानं निहन्ति, विकल्पसंविदभ्यासस्य अविकल्पनान्ततापर्यवसनात् । (अर्थात, व्यवहार से प्राप्त विवेक ही प्रमुख होता है । उसी अभ्यास के जरिये मनुष्य के अज्ञान को खत्म करता है । क्योंकि विविध विकल्पों पर काम करके ही एक निश्चित निर्विकल्प दिशा पकड़ी जाती है ।)

लेकिन हमारे यहां उल्टी ही गंगा बहाया जा रही है । यहां हम सिद्धांत से जीवन के व्यवहार को तय करते हैं, न कि व्यवहार से सिद्धांत को । इस प्रकार के सिद्धांतवीरों का विरोध करते हुए ही माओ को लिखना पड़ा था — “हम लोग वामपंथियों की लफ्फाजी का भी विरोध करते हैं । उनके विचार वस्तुगत प्रक्रिया के विकास की निश्चित मंजिल से आगे होते हैं । उनमें से कुछ लोग अपनी कल्पना की उड़ान को ही सत्य मान लेते हैं, जबकि कुछ दूसरे लोग एक ऐसे आदर्श को ही अमल में लाना चाहते हैं जिसे सिर्फ कल ही अमल में लाया जा सकता है । ये लोग बहुसंख्यक जनता के सामयिक व्यवहार और तात्कालिक वास्तविकता से अपने को अलग कर लेते हैं तथा अपनी कार्यवाही में अपने-आपको दुस्साहसवादी दिखलाते हैं ।

“आदर्शवाद और यांत्रिक भौतिकवाद, अवसरवाद और दुस्साहसवाद सभी की यह विशेषता होती है कि उनके यहां मनोगत और वस्तुजगत के बीच दरार होती है, ज्ञान और व्यवहार में अलगाव होता है ।” (वही, पृः367)
सीताराम येचुरी कहते हैं कि फासिस्ट रुझान के आरएसएस-मोदी के प्रतिरोध के लिये कांग्रेस सहित सभी जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष लोगों की एकता कायम हो, तो इन बहुमतवादियों ने यह कह कर सबको एक नई वैचारिक उलझन में फंसा दिया कि आरएसएस-मोदी फासिस्ट ही नहीं है ! प्रकाश करात ने 'इंडियन एक्सप्रेस' में अपने लेख में एक नया आप्त वाक्य चलाया कि 'शत्रु से लड़ने के लिये शत्रु को सटीक रूप में जानो' और इस प्रकार अब तक के अतीत और वर्तमान के प्रत्यक्ष ज्ञान और अनुभवों से शत्रु को जितना  जाना गया है, उस जानकारी को ही उलझन में डाल दिया ! फलतः सीपीएम के लोगों को पुनः व्यवहार से अलग करके एक नये वैचारिक उहा-पोह में घसीट लिया गया । जिस समय पूरा राजनीतिक परिदृश्य 2019 के लिये नये राजनीतिक समीकरणों से तैयार हो रहा है, तब सीपीएम इस वैचारिक उधेड़बुन में अपना समय गंवा रही है !

इसके अलावा 'नव-उदारवाद' का एक अचूक हथियार तो इनके पास पहले से ही है जिससे वे 'किसी प्रकार का कोई समझौता नहीं कर सकते हैं' । क्या इससे वे प्रकारांतर से यह नहीं कह रहे हैं कि 'भारत के संसदीय लोकतंत्र से कोई निबाह नहीं हो सकता है' ? संसदीय जनतंत्र पूंजीवादी जनतंत्र का ही दूसरा नाम है और नव-उदारवाद आज की दुनिया के पूंजीवाद के अलावा और कुछ नहीं है । लेकिन 'नव-उदारवाद' फासीवाद नहीं है, जैसे पूंजीवादी जनतंत्र फासीवाद नहीं होता है । इस विषय पर हमने काफी विस्तार से अनेक मर्तबा लिखा है ।
कहने का तात्पर्य यह है कि इस बार अब इन बहुमतवादियों ने सीपीआई(एम) को भारतीय राजनीति के वर्तमान परिदृश्य से ही, जो मुख्य रूप से चुनावी राजनीति के जरिये ही परिभाषित होता है, अलग कर देने की एक नई फिसलन की जमीन तैयार कर दी है । आज जब प्रकाश करात भाजपा को भारी खतरनाक बताते हुए उसके खिलाफ लड़ाई करने की बात को थोड़ी रियायत देते हैं, उसी सांस में चुनावी राजनीति की अहमियत को कमतर बताने की बात कह कर वे अपने पुराने, जड़भरत्व के रोग को ही जाहिर कर रहे हैं, जिससे वे फिर वर्तमान की चुनौतियों से कट कर एक काल्पनिक 'गोलबंदी' के लालीपाप से अपने लोगों को उलझाये रखना चाहते हैं ।

अभी त्रिपुरा की हार पर कुछ लोगों ने अजीबों-गरीब तरीके से सोशल मीडिया पर कर्नाटक के एक पत्रकार नवीन सुरिंजे की एक रिपोर्ट को फैलाना शुरू किया जिसमें कहा गया था कि त्रिपुरा में भले भाजपा चुनाव जीत गई हो, लेकिन नैतिक जीत सीपीएम की हुई है । भौतिक जीवन में पराजय को आत्मिक स्तर पर नैतिक विजय में तब्दील कर लेने के इस आत्मिक खेल के लिये चीन में एक खास पद चलन में है — आ क्यू वाद । यह चीन के महान कथाकार लू शुन की विश्व-प्रसिद्ध कहानी 'आ क्यू की सच्ची कहानी' से निकला हुआ पद है ।  इस कहानी में गाँव में हर किसी की लात खाने वाला और सबके लिये बेगार करने वाला आ क्यू लात मारने और गाली देने वाले को मन ही मन 'बुरा आदमी' बता कर जीवन में अपनी पराजय को अपने अंतर में नैतिक विजय में तब्दील कर लेने का अभ्यस्त था । ऐसी नैतिक या विचारधारात्मक विजय भौतिक पराजय का विकल्प तभी बनती है जब कोई वास्तविक जीवन में पूरी तरह से हार चुका होता हैं । यह हर कमज़ोर और पराजित का जीवन दर्शन होता है ।
 

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