शनिवार, 23 मार्च 2019

पुण्य प्रसून प्रकरण और प्रतिष्ठित पत्रकारिता के संकट पर एक सोच


-अरुण माहेश्वरी

पुण्य प्रसून वाजपेयी ने जबसे मोदी सरकार की कमियों और घोटालों पर खुल कर बोलना शुरू किया है, तभी से एक पेशेवर पत्रकार के रूप में उनका जीवन अस्थिर बना हुआ है पुण्य प्रसून की प्रतिष्ठा के कारण उन्हें नई-नई जगह पर नियुक्तियाँ मिलती गई, लेकिन वे कहीं भी स्थिर नहीं रह पा रहे हैं  

यही स्थिति एबीपी चैनल के एक और लोकप्रिय ऐंकर अभिसार शर्मा की भी है उन्होंने तो फ़िलहाल फ्रीलांसिंग की कठिन डगर पकड़ ली है  

इस मामले में अब तक अकेले रवीश कुमार की स्थिति अलग नज़र आती है लेकिन इसलिये नहीं कि वे रवीश कुमार है, बल्कि सिर्फ इसलिये कि अब तक एनडीटीवी ने सरकार के दबावों का मुक़ाबला करते हुए उन्हें सुरक्षा दे रखी है  

पत्रकारिता जगत के इस सच से हमारे सामने पत्रकार और उसकी प्रतिष्ठा के स्रोत का एक और ही पहलू खुलने लगता है प्रतिष्ठित पत्रकार प्रतिष्ठित समाचार प्रतिष्ठानों से पैदा होते हैं और प्रतिष्ठित समाचार प्रतिष्ठान तैयार होते हैं व्यवस्था की कृपा से इसीलिये सामान्य तौर पर सभी प्रतिष्ठित पत्रकार यथास्थितिवादी हुआ करते हैं वे सत्ताधारी में सत्ता पर बने रहने का ईश्वर प्रदत्त अधिकार देखते हैं और विपक्ष में पराजित होते रहने का स्थायी अभिशाप प्रतिष्ठित पत्रकार पत्रकारिता की निरपेक्ष भूमिका की ओट में कभी किसी विपक्षी राजनीतिक मुहिम का हिस्सा नहीं बनते ख़ास तौर पर तब तो बिल्कुल नहीं जब सत्ता इस बात की अनुमति देने के लिये बिल्कुल तैयार नहीं होती है  

स्थापित प्रतिष्ठानों की सत्ता-विरोधी भूमिका कोई सामान्य नियम नहीं, बल्कि पूरी तरह से अपवाद हुआ करती है सामान्य नियम को प्रमाणित करने वाला अपवाद इसके साथ जब भी किसी ख़ास ऐतिहासिक क्षण का संयोग होता है, जब जनता में सत्ता के प्रति भारी बेचैनी होती है, तब इन विपक्षी समाचार प्रतिष्ठानों और उनके विशेष पत्रकारों की एक जीवन से बड़ी छवि सामने आने लगती है वे प्रतिष्ठितों में भी और प्रतिष्ठित हो जाते हैं  

आज एनडीटीवी के रवीश कुमार की हैसियत कुछ वैसी ही बन गई है शेखर गुप्ता आदि-आदि स्तर के अधकचरे पत्रकार और टीवी चैनलों पर विचरण करने वाले कई विश्लेषक अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप सत्ता के कृपाकांक्षी होने के नाते यथास्थितिवाद की साधना में लगे हुए हैं, चिर अधकचरे लेकिन प्रतिष्ठित बने रहने की साधना में लेकिन रवीश कुमार एनडीटीवी के सहयोग से एक भिन्न स्तर पर चले गये हैं  

पुण्य प्रसून और अभिसार शर्मा के पास एनडीटीवी की तरह का कोई मज़बूत सहारा होने से, वे सचमुच अपनी प्रतिष्ठा के लिये फ़िलहाल जूझ रहे हैं। इस पूरे संदर्भ में हमें हिंदी के प्रतिष्ठानवादी साहित्यकार विद्यानिवास मिश्र की एक बात याद आती है उन्होंने लिखा है कि हमारे जीवन में भले कोई चीज़ सधे, सिर्फ एकछितवनसध जाए तो उससे अधिक मुझे कुछ नहीं चाहिए छितवनअर्थात शक्तिशाली की छाया विद्यानिवास जी भी एक वैसे ही सम्मानित और स्थापित साहित्यकार थे, जैसे उपरोक्त तमाम पत्रकार हैं  

सरकार से बड़ी छितवन तो कोई दूसरी नहीं हो सकती है इसीलिये स्थापित पत्रकार आम तौर पर सरकार-समर्थक ही होते हैं इसके बाद कुछ अन्य संस्थानों की छितवन तभी किसी को बड़ा बनाती है जब समय का चमत्कार उन लघुतर छितवनों को विशाल स्वरूप दे देता है  


इसीलिये, आम तौर पर, जब जनता में त्राहिमाम की स्थिति हो, वह बदलाव चाहती हो, तब तथाकथित स्थापित पत्रकारों और विश्लेषणों की बातों पर रत्ती भर भी भरोसा नहीं करना चाहिए उन्हें सच बोलने के लिये दृश्य से निकाल बाहर कर दिये जाने के पुण्य प्रसून और अभिसार शर्मा की तरह की नियति के लिये खुद को तैयार रखना होता है छितवनके लिये तरसने वालों के लिये हमेशा सच बोलना संभव नहीं होता है

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