मंगलवार, 5 मार्च 2019

न्यूज चैनलों को न देखना खुद की रक्षा के लिये ही जरूरी है


—अरुण माहेश्वरी


बहुत से विवेकवान लोग अब कहने लगे हैं कि टेलिविजन के न्यूज चैनलों को मत देखिये । रविश कुमार कहते हैं कि यदि आप खुद को और अपने बच्चों को दंगाई नहीं बनाना चाहते, गुंडा और हत्यारा बनने से रोकना चाहते हैं तो भारत के न्यूज चैनल को देखना बंद कर दीजिए । अपनी मानवीय संवेदनाओं और नागरिक के विवेक को बचाए रखना चाहते हैं, तो इसके लिये भी न्यूज चैनल को दूर रखिये । अपनी पसंदीदा किताबें पढ़ियें या फिर राजनीति से अलग रहने वाले किसी मनोरंजन चैनल का लुत्फ लीजिए ।

इनका साफ कहना है कि अभी इन चैनलों पर सिर्फ हिंदू-मुस्लिम नफरत और तमाम प्रकार की झूठी शौर्य की बातों की बमबारी चल रही है । यदि आप इसे देखते हैं तो यह आपके स्वाभाविक परिवेश का हिस्सा बन जाता है और फिर अपने दबाव से उस गंदगी के दलदल में आपको घसीटने लगता है । यह आपको झूठ और नफरत का पुतला बना कर आपके अपने व्यक्तित्व को कुंद और और विवेक को कमजोर कर देता है । इस परिवेश से घिरे होने के कारण आपमें एक प्रकार से जाति-च्युत होकर अलग-थलग पड़ जाने का डर पैदा होने लगता है और आप उनके द्वारा पेश किये जा रहे सभी गलीज तत्वों को अपनाने के लिये बाध्य होने लगते हैं । आप सोचते हैं कि ऐसा करते हुए मानो आप अपने को सुरक्षित कर ले रहे हैं । लेकिन यह सोचना एक कोरे भ्रम के अलावा कुछ नहीं होता है । जीवन की किसी भी समस्या से, बेरोजगारी, छंटनी, महंगाई, सामाजिक अन्याय और किसी भी अन्य भेद-भाव से यह आपको बचा नहीं सकता है, यह आपके जीवन को बेहतर बनाने में आपकी किसी प्रकार की कोई मदद नहीं कर सकता है । उल्टे यह आपसे सोचने-समझने की शक्ति छीन कर आपको उन्हीं शासकों का गुलाम बनाता है जो आपके जीवन की, समाज में गैर-बराबरी और अन्याय की तमाम परिस्थितियों के लिये जिम्मेदार है । इस प्रकार यह अपनी मूलभूत समस्याओं से मुक्ति के आपके संघर्ष को और कठिन बनाता है ।

प्रकृति में ऐसे बहुत से जीव-जंतु पाये जाते हैं जो अपने परिवेश, प्रकृति के अनुसार अपना रंग-रूप धारण कर लेते हैं । बांस में पाया जाने वाला कीड़ा बिल्कुल बांस के ही रंग जैसा होता है । पहले यह माना जाता था कि इस प्रकार अपने परिवेश का रंगरूप धारण कर लेने वाले जीव अपने को छिपा कर किसी भी हमले से बचा लेते हैं, यह उसका एक प्रकार का सुरक्षा-कवच है । लेकिन 1930 के जमाने में अमेरिका में सरकार के द्वारा ही नाकटक के वनक्षेत्र में एक खास अध्ययन किया गया जिसमें वहां की लगभग साठ हजार चिड़ियों के पेट में पाये जाने वाले कीड़ों की सिनाख्त की गई जिन्हें चिड़ियाएं खा लिया करती थी ।  उस जांच में पाया गया कि उनके पेट में पाये गये कीड़ों में परिवेश के अनुसार रंग-रूप बदलने वाले कीड़ें भी बिल्कुल उतने ही थे जितने वे कीड़े जो अपना रंग-रूप नहीं बदला करते हैं, अपनी पहचान बनाए रखते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि परिवेश के अनुरूप रंगत बदलने वालों को यथार्थ जीवन की प्रतिकूलताओं से लड़ने में कभी किसी प्रकार की कोई अतिरिक्त मदद नहीं मिलती है ।

इसके विपरीत, फ्रायड आदि तमाम मनोचिकित्सकों ने यह पाया है कि बाहर के ऐसे दबावों के सामने समर्पण ही, जिन्हें पूरी तरह से स्वीकार पाना  आदमी की क्षमताओं के बाहर होता है, आदमी में तमाम प्रकार के मनोविकारों, प्रमादों और विक्षिप्तताओं को जन्म देता है । ये तमाम दबाव उन सामाजिक नैतिकताओं और कथित मर्यादाओं से हर रोज आदमी पर डाले जाते हैं जिनसे आदमी अपनी रुचि और स्वातंत्र्य की रक्षा के लिये ही विद्रोह करने के लिये मजबूर होता है, अन्यथा वह तमाम प्रकार की कुंठाओं और दमित भावनाओं का शिकार बन कर किसी प्रमाद या विक्षिप्तता के रोग से ग्रसित हो जाता है ।

इसीलिये, अभी मोदी-शाह गिरोह ने जिस प्रकार भारत के तमाम न्यूज चैनलों पर कब्जा करके आदमी से स्वस्थ मूल्यबोध छीन कर उसे युद्धबाजी और दंगाबाजी के जंजाल में फंसा देने का अभियान चला रखा है, ऐसे समय में अपने मनुष्यत्व को ही बचाए रखने के लिये इन सभी मोदीपंथी न्यूज चैनलों से अपने को दूर रखने का रवीश, पूण्य प्रसून की तरह के विवेकवान ऐंकरों का सुझाव हमें बिल्कुल सही और जरूरी लगता है । यह हमारे नागरिक बोध को ही बचाये रखने के लिये जरूरी हो गया है । इन चैनलों से हम कभी अपने जीवन-संघर्षों के लिये किसी प्रकार की अन्तरदृष्टि या नैतिक बल नहीं पा सकते हैं, बल्कि खुद को और अधिक निर्बल करते जाने के लिये ही मजबूर होते है ।     

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