-एक बेहद परेशान करने वाला सवाल
- अरुण माहेश्वरी
मोदी के इन छ: सालों में हो रही तमाम बर्बादियों के इतिहास को देखते हुए अब इस बात की खोज करने की ज़रूरत है कि आख़िर इस सरकार का असली सूत्रधार कौन है ? आरएसएस ही आखिर क्या है ?
हमने 1992 में बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने के बाद ही आरएसएस पर एक शोध किया था, जो ‘आरएसएस और उसकी विचारधारा’ शीर्षक से किताब के रूप में प्रकाशित हो चुका है और अब तक उस किताब के कई संस्करण निकले हैं ।
उसमें आरएसएस के स्थापनाकर्ताओं और दूसरे कार्यकर्ताओं के अपने लिखे हुए प्राथमिक स्रोतों के अलावा पचास के दशक में सीआईए की एक वैश्विक संस्था ‘Institute of Pacific Relations’ के द्वारा आरएसएस और भारत में उसकी संभावित भूमिका के बारे में कराये गये एक शोध का भी काफ़ी इस्तेमाल किया गया था । वह शोध हमें दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू म्यूज़ियम लाइब्रेरी से मिला था । शोधकर्ता थे -जे. ए. क़ुर्रान, जूनियर । उस शोध का शीर्षक था —‘Militant Hinduism in Indian Politics : A study of the R. S. S. ।
उस शोध की एक जेराक्स कॉपी आज भी मेरी लाइब्रेरी में सहेज कर रखी हुई है । बहुत ही मूल्यवान सामग्री है उसमें आरएसएस के बारे में ।
जिस समय अमेरीकियों ने वह शोध कराया था, तब जन संघ का गठन हुआ नहीं था । उसकी तैयारियाँ चल रही थी । 1951 में वह शोध प्रकाशित हुआ और उसी साल जन संघ की भी स्थापना हुई । उस शोध से जो एक सबसे अहम् बात खुल कर सामने आई थी, वह यह थी कि भारत में आरएसएस की राजनीतिक गतिविधियों को सीधे तौर पर भारतीय राजनीति में एक अमेरिकी हस्तक्षेप कहा जा सकता है । उस शोध के अंतिम अंश में यही निष्कर्ष था कि भारत में कांग्रेस के कमजोर पड़ने की स्थिति में यदि कम्युनिस्टों के प्रभाव के विस्तार को रोकना है तो आरएसएस अमेरिका के लिये सबसे अधिक भरोसेमंद हो सकता है ।
मोदी पिछले छ: साल से इस देश की सत्ता पर है । इनके एक भी काम ने न इस देश की अर्थ-व्यवस्था को बल पहुँचाया है और न इसके सामाजिक ताने-बाने को मज़बूत किया है । इन्होंने न सिर्फ़ अर्थ-व्यवस्था की कमर तोड़ दी है, बल्कि राष्ट्रीय एकता पर, यहाँ के तमाम धर्मों और जातियों के बीच एकता को लगभग तहस-नहस सा कर दिया है । सांप्रदायिक ज़हर को तो हमारे सामाजिक परिवेश का जैसे एक स्थाई अंग बना दिया है ।
यह बिल्कुल वही रास्ता है जो अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानियों का रास्ता था । वहाँ रूस के प्रभाव को रोकने के लिये अमेरिकियों ने पाकिस्तान के ज़रिये तालिबानियों को खड़ा किया और तालिबानियों ने सत्ता पर आकर पूरे अफ़ग़ानिस्तान को एक खंडहर में बदल दिया । अमेरिकी हथियारों का बाज़ार चमकता रहा ।
हुबहू उसी रास्ते पर यहाँ मोदी को सत्ता पर लाया गया है । इसमें भी पाकिस्तान की परोक्ष रूप से मदद ली गई है । जे ए कुर्रान ने अपने सत्तर साल पहले के शोध में यह लिखा था कि भारत में आरएसएस का भविष्य भारत-पाक संबंधों की स्थिति पर निर्भर करेगा । ये संबंध जितने बिगड़ेंगे, आरएसएस का प्रभाव उतना ही बढ़ेगा ।
कोई भी यह देख सकता है कि मोदी किस प्रकार बार-बार अपनी राजनीतिक ताक़त को बढ़ाने के लिये पाकिस्तान से दुश्मनी का इस्तेमाल किया करते हैं ।
जहां तक मोदी के ज़रिये भारत की बर्बादी की कहानी का सवाल है, हमने नोटबंदी के बाद भी उस पर अपनी किताब के प्राक्कथन में इसके बारे में ठोस तथ्यों का विस्तार से उल्लेख किया था कि कैसे अमेरिकियों ने मोदी से वह भयावह आत्मघाती काम करवाया था, ताकि भारत को बलि का बकरा बना कर मुद्रा नीति के सामाजिक-आर्थिक प्रभावों के बारे में वे गहराई से जाँच पड़ताल कर सके ।
अभी, कोरोना में लॉक डाउन के प्रसंग को भी इसी सच्चाई की रोशनी में कुछ-कुछ देखा जा सकता है । भारत में इक्कीस दिन के दुनिया के सबसे बड़े लॉक डाउन के भयावह सामाजिक अस्थिरता के परिणाम आज दुनिया के सामने हैं । आज ही इसे देख कर अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने यह साफ़ घोषणा कर दी है कि वे कोई लॉक डाउन नहीं करने वाले हैं , जबकि आज दुनिया में कोरोना से प्रभावित लोगों की सबसे बड़ी संख्या अमेरिका में हैं।हम नहीं जानते उनका फ़ैसला कितना सही है । चीन ने भी इतने भारी संकट के बावजूद पूरे देश को इस प्रकार लॉक डाउन नहीं किया था ।
भारत में इन छ: सालों का मोदी के द्वारा की गई तबाहियों का दर्दनाक इतिहास आज फिर से भारतीय राजनीति में अमेरिकी हस्तक्षेप के रूप में आरएसएस की भूमिका की सच्चाई की याद दिला रहा है । पता नहीं, हमारे देश को इस दुर्योग से कैसे मुक्ति मिलेगी ?
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