शनिवार, 21 मार्च 2020

कोरोना वायरस के प्रभाव का वर्तमान वैश्विक और भारतीय परिदृश्य


(‘इकोनोमिस्ट’ पत्रिका की टिप्पणियों पर आधारित ) 


अरुण माहेश्वरी



अब समय आ गया है जब यहां कोरोना और उसके खतरे के बारे में बहुत साफ ढंग से बात करने की जरूरत है । हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे यहां एक ऐसे दल की सरकार है जो वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित सच्चाई पर विश्वास नहीं करती है । आज काफी देर बाद, जब सारी दुनिया में इस महामारी के तमाम रूप खुल कर सामने आने लगे हैं, प्रधानमंत्री से लेकर नीचे के स्तर तक सारे लोग घरों में रहने, सोशल डिस्टेंसिंग की बात तो करने लगे हैं, लेकिन वे अपने अंदर ही अंदर इतने गहरे अंधविश्वासों में फंसे हुए हैं कि उन्हें खुद इससे निपटने के लिये जरूरी वैज्ञानिक उपायों पर जैसे भरोसा नहीं हैं । इसीलिये इनके तमाम लोग कहीं चरम अपराधी वृत्ति का परिचय देते हुए लोगों को गाय का पेशाब पिला रहे हैं, तो कहीं लोगों से सांसों के व्यायाम के जरिये इसकी जांच के झूठे उपाय सुझा रहे हैं । इनमें से अधिकांश इस झूठ के प्रचार में भी लगे हुए हैं कि भारत में यहां के लोगों की खान-पान की आदतों के कारण ही इसका फैलाव नहीं होगा, तो कुछ हमारे देश की पांच ऋतुओं की विशेषताओं को गिनाते हुए लोगों को आश्वस्त कर रहे हैं । इनकी अवैज्ञानिक करतूतों में एक नया योगदान करतल और घंटा-घड़ियालों की ध्वनि से वायरस को भगाने के सिद्धांत का भी हुआ है । देश-विदेश से प्रधानमंत्री के लिये ‘महामानव’ के तमगे इकट्ठा करके प्रचारित किया जा रहा है । 

हमारे यहां लगता है कि जैसे सरकार सहित कोई भी दुनिया के अनुभवों से सीखते हुए आपात गति से आपके दरवाजे पर आ खड़ी हुई इस महामारी से निपटने के उपायों में अपना सब कुछ झोंक देने की उस मानसिकता का परिचय देने के लिये तैयार नहीं है, जैसा कि दुनिया के बाकी देश देने के लिए मजबूर हुए हैं । प्रधानमंत्री ने टेलिविजन पर एक भाषण में लोगों को सोशल डिस्टेंसिंग का एक जरूरी संदेश तो दिया, लेकिन सरकार इस रोग से पीड़ित लोगों के उपचार के लिये क्या कुछ कर रही है, उसके लिये कितना संसाधन अलग से रख दिया जा रहा है, उसका जिक्र तक नहीं किया । इसके बारे में भारत में किसी भी प्रकार के शोध व अनुसंधान की पहल, प्रतिषेधक और दवाओं की खोज की कोशिश का भी रत्ती भर संकेत नहीं दिया । इन विषयों में उनका रवैया अपनी कोरी असहायता को व्यक्त करने का रहा । वे कुल मिला कर यही कहते रह गये कि जब दुनिया के दूसरे देश इसका कोई उपचार खोज लेंगे, तब हम भी उनसे वह पा लेंगे, अर्थात् हमारे देश को इस मामले में उनका आश्रित बताने में उन्हें जरा भी शर्म नहीं आई ।

बहरहाल, जैसा कि हमने पहले ही कहा, यह हमारा दुर्भाग्य है । यहां ऐसे तमाम जाहिल लोग मौजूद है जो प्रधानमंत्री के ‘जनता कर्फ्यू’ के आह्वान को ही एक ईश्वरीय पैगाम मान कर उनके लिये ‘धन्य-धन्य’ के नारे दे रहे हैं । किसी को यह नहीं दिखाई दे रहा है कि इन प्रधानमंत्री को ही कल के दिन तक पार्लियामेंट का सदन चलाने में जरा भी हिचक इसलिए नहीं हुई, क्योंकि उसे दिखा कर उन्हें मध्य प्रदेश में शक्ति परीक्षण के लिए सुप्रीम कोर्ट से आदेश लेना था । अब जो तथ्य आ रहे हैं, उनसे पता चलता है कि इस संसद के कई सदस्य पिछले दिनों ऐसे लोगों से मिल चुके हैं जिन्हें अभी कोरोना पोजिटिव पाया जा चुका है और संसद के अधिवेशन में उपस्थित रहने के बाद उन्होंने अपने को अब क्वारंटाइन कर लिया है ।

जो भी हो, इन सब बातों के परे, यहां हमें कोरोना के पूरे वैश्विक और भारतीय परिदृश्य के बारे में, बिना किसी आवेग के, किंचित स्थिरता के साथ कुछ बाते रखनी है । दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका ‘इकोनोमिस्ट’ के ताजा 21 मार्च के अंक में इसके बारे में कुछ लेख प्रकाशित हुए हैं । इनमें एक लेख इसकी वर्तमान वैश्विक परिस्थिति के बारे में है और दूसरा लेख भारत की स्थिति के बारे में ।

पृथ्वी नक्षत्र की तस्वीर पर क्लोज्ड की तख्ती टंगी है और लिखा है — वैश्विक महामारी को रोकने की कीमत : कोविद-19 ने बंद कर दिया । (Closed by covid-19 : Paying to stop the pandemic) ।
इस लेख में कहा गया है कि “पृथ्वी नक्षत्र बंद हो रहा है । कोविद-19 से निपटने के लिए एक के बाद एक देश अपने नागरिकों से यह मांग कर रहे है कि वे समाज से कट जाए । इससे होने वाली आर्थिक दुर्गति से बदहवास सरकारें कंपनियों और उपभोक्ताओं की सहायता और उनके कर्ज की गारंटी के लिए खरबों डालर अपने खजाने से दे रही है । यह भी कितना कारगर होगा, कोई नहीं जानता । 
“किंतु अवस्था और भी खराब है । नई खोजों से पता चल रहा है कि इस महामारी को रोकने के लिए बार-बार सट-डाउन करने होंगे । फिर भी, अब यह साफ हो चुका है कि ये रणनीति अर्थव्यवस्था को गंभीर — शायद असहनीय — नुकसान पहुंचाएगी ।”

अभी इस महामारी के बारे में मिली पहली सूचना को सिर्फ बारह हफ्ते बीते हैं । दुनिया इसकी भारी कीमत अदा करने लगी है । अभी तक इससे अढ़ाई लाख से ज्यादा लोग पीड़ित हो चुके हैं । हर दिन हजारों की संख्या में नए लोग इससे पीड़ित हो रहे हैं । जितने लोग अभी वास्तव में इससे ग्रसित दिखाई दे रहे है, उनसे कई गुना ज्यादा लोग हैं जिनका रोग सामने नहीं आया है । इस प्रेत के आतंक में सारी दुनिया में लोगों पर ऐसी-ऐसी पाबंदियां लगाई जा रही है, जिनकी चंद हफ्तों पहले तक कोई कल्पना नहीं कर सकता था । टाइम स्क्वायर पर जैसे भूत मंडरा रहे हैं, लंदन में सन्नाटा पसर गया है, फ्रांस, इटली, स्पेन के सदा चहकते रहने वाले कैफे और बार आज बंद पड़े हैं । हवाई अड्डों तक पर सन्नाटा दिखता है, स्टैडियम खाली हैं ।

‘इकोनोमिस्ट’ लिखता है कि पहले सोचा गया था कि चीन की अर्थ-व्यवस्था में पिछले साल से 3 प्रतिशत की गिरावट आएगी, वह अब 13.5 प्रतिशत कही जा रही है । खुदरा बिक्री में कमी का अनुमान 4 प्रतिशत के बजाय 20.5 प्रतिशत हो गया है । अचल संपत्तियों में निवेश में अनुमान से छः गुना ज्यादा 24 प्रतिशत की कमी आ चुकी है । इसने सारी दुनिया में आर्थिक विकास के अनुमानों को गड़बड़ा दिया है । सामने जीवन की सबसे निर्दयी मंदी को खड़ा देख कर तमाम सरकारों ने 2007-09 की भी तुलना में कई गुना ज्यादा आर्थिक राहत देने के पैकेज तैयार करने शुरू कर दिये हैं ।

यह है वह पृष्ठभूमि जिसमें इस महामारी से निपटने के रास्ते निकालने हैं । ‘इकोनोमिस्ट’ बताता है कि लंदन के इम्पीरियल कालेज में कुछ लोगों ने मिल कर इससे लड़ने के लिये दुनिया के नीति नियामकों के सामने जो एक खाका पेश किया है, वह निराशाजनक है । उनका कहना है कि इसके प्रति पहला रवैया तो इसके शमन (mitigation) का है, इसके उर्ध्वमुखी विकास को नीचे समतल बनाने (flattening the curve) का है । दूसरा इसे व्यापक कदमों के जरिये दबाने (suppression) का है, जिनमें हर किसी को घर में बंद करके रख देना होगा, सिवाय उनके जो घर में रह कर काम नहीं कर सकते हैं । सारे संस्थानों को बंद कर देना होगा । शमन से महामारी घटेगी, दमन से उस पर रोक लगेगी । उन्होंने यह पाया है कि इसे यदि इसी प्रकार छोड़ दिया जाता है तो इससे अकेले अमेरिका में 22 लाख लोगों की मृत्यु हो जाएगी, ब्रिटेन में 5 लाख की । उनका यह निष्कर्ष है कि तीन महीनों तक इसके शमन, जिसमें इससे पीड़ित तमाम लोगों को दो हफ्तों के लिए सबसे अलग-थलग रखना शामिल है, इससे सिर्फ इनमें से आधे लोगों को बचाया जा सकेगा । इसमें भी इंटेंसिव चिकित्सा की जो मांग पैदा होगी, वह ब्रिटेन में उपलब्ध सुविधाओं से तकरीबन आठ गुना ज्यादा होगी । इससे भी मरने वालों की संख्या में काफी वृद्धि होगी । इसी अनुमान से बाकी यूरोप में भी, मसलन् जर्मनी की तरह के अधिक सुविधाओं वाले देश में भी, स्वास्थ्य सेवाएं कम पड़ेगी । इसीलिये सरकारें महामारी को दबाने के ज्यादा कड़े कदम अपना रही है । ऐसे कदमों का सुफल चीन में देखने को मिल चुका है । आज इटली में चीन से ज्यादा लोगों की मौतें हो चुकी है । इसी समूह का कहना है कि यदि इस वायरस को यूं ही छोड़ दिया जाता है तो यह ब्रिटेन और अमेरिका की आबादी के 80 प्रतिशत लोगों को रोगग्रस्त कर देगा ।

इसमें और भी खतरनाक बात यह कही गई है कि चूंकि यह वायरस दुनिया के कोने-कोने में फैल चुका है, इसीलिये दबाने पर भी इसके अवशेष बचे रहेंगे । इसके कारण पाबंदियां हटने के चंद हफ्तों बाद भी यह महामारी फिर से लौट कर आएगी । और हर बार, इसको दबाने के लिए सभी देशों को काफी समय लॉक डाउन में लगाना पड़ेगा । यह लॉक डाउन का उठना और फिर से लागू होना तब तक जारी रहना होगा जब तक यह आबादी में ही इसके प्रतिरोध की ताकत न पैदा हो जाए या इसका प्रतिषेधक तैयार न हो जाए ।

‘इकोनोमिस्ट’ ने ही इसे एक खाका भर कहा है जो ठोस जानकारियों के आधार पर तैयार किया जाता है । उसने चीन पर नजर रखने की बात पर भी बल दिया है कि वहां कैसे जिंदगी कैसे सामान्य होती है । आज अच्छी बात यह है कि महामारियों के विस्तार की तत्काल पहचान करने की पद्धतियां विकसित हो चुकी है । इसमें नई दवाएं भी मददगार हो सकती है, मसलन्, जापान का एंटी-वायरल कंपाउंड जिसे चीन ने प्रभावशाली पाया है । लेकिन यह भी एक आशा ही है, आशा नीति नहीं होती है । कटु सत्य यह है कि शमन से बहुत सारी जिंदगियों का अंत होगा, और दमन का आर्थिक भार असहनीय होगा । कुछ बार के बाद सरकारों के पास अपना और आम लोगों का काम चलाने जितनी क्षमता ही नहीं होगी । इस विपत्ति को आम लोग तो बर्दाश्त ही नहीं कर पाएंगे । इन दोनों उपायों को आजमा कर देखने की जरूरत होगी । चीन, दक्षिण कोरिया और इटली ने इनका परीक्षण शुरू कर दिया है । कौन संक्रमित है, इसे आप जितना साफ तौर पर जान पायेंगे, उतना ही अधिक आप मनमानी पाबंदियों को टाल पायेंगे । प्रतिषेधकों के प्रयोग में भी सुविधा होगी ।

क्वारंटाइन के लिये तकनीकी उपकरणों की सहायता भी ली जा रही है । चीन ने यह काम शुरू कर दिया है । लोगों के मेडिकल रेकर्ड को हासिल करने की कानूनी व्यवस्थाएं भी की जा रही है ।

‘इकोनोमिस्ट’ की इस टिप्पणी के अंत में कहा गया है कि अंत में सबसे जरूरी यह है कि सरकारें चिकित्सा सेवाओं में ज्यादा से ज्यादा निवेश करे । इसके तत्काल लाभ न मिले, फिर भी करें । इससे हर समय रोग के शमन और दमन, दोनों में सुविधा होगी ।

‘इकोनोमिस्ट’ का कहना है कि —
“इसके बावजूद लोगों को इसके बारे में कोई भ्रम नहीं पालना चाहिए । इन तमाम कदमों के बावजूद यह वैश्विक महामारी भारी कीमत ले सकती है । आज सरकारें हर कीमत पर इसके दमन में लगी हुई है । लेकिन यदि इस रोग पर जल्द विजय नहीं पाई जाती है तो वे शमन का रास्ता पकड़ेगी, भले ही उससे काफी ज्यादा मौतें होगी । इसीलिये आज कोई भी सरकार उस ओर बढ़ने पर नहीं सोच रही है । पर बहुत जल्द ही उनके सामने दूसरा कोई उपाय नहीं रह जाएगा ।”

कोरोना का भारतीय परिदृश्य




यह तो हुआ कोरोना महामारी के सामाजिक-आर्थिक आयामों का एक  वैश्विक परिदृश्य । अब हम आते हैं, इसके संभावित प्रभावों के बारे में अनुमान के भारतीय परिदृश्य पर जिस पर ‘इकोनोमिस्ट’ का ही दूसरा लेख है — अरब लोगों का सवाल ; यदि कोविद-19 भारत में आ जाता है तो संख्या विकट होगी । (The billion-person question ; If covid-19 takes hold in India the toll will be grim)

इसके बाद ही, उप-शीर्षक के तौर पर कहा गया है — “भारत गरीब है, भीड़ से भरा हुआ, डाक्टरों और उपकरणों की कमी है और बीमारियों के प्रकोप से भरा हुआ है ।” (It is poor, crowded, short of doctors and equipment and rife with exacerbating diseases)

इस लेख का शीर्षक ही आगे की कहानी का एक अनुमान देने के लिए काफी है ।

लेख की शुरूआत 1918-19 के स्पैनिश इन्फ्लुएँजा को याद करते हुए की गई है जिसमें भारत में तकरीबन एक करोड़ 80 लाख लोगों की मृत्यु हुई थी, तब की भारत की आबादी का छठवा हिस्सा खत्म हो गया था । उसकी एक सदी के बाद जब भारत में भीड़ बहुत ज्यादा बढ़ गई है, इस बात की आशंका की जा रही है कि शायद कोरोना की सबसे बड़ी कीमत इसी देश को चुकानी पड़ सकती है ।

इस मामले में भारत अब तक भाग्यशाली रहा है । नाना कारणों से भारत में चीन, ईरान और इटली से लोगों की आवाजाही बहुत कम है । इसी कारण अब तक काफी कम लोग इससे ग्रसित हुए है और जो ग्रसित पाए भी गए हैं, वे बाहर से आए हुए लोग है । भारत की राज्य सरकारें और केंद्र सरकार यात्रियों को रोकने के बारे में सक्रिय हो चुकी है । सभी टेलिविजन चैनलों से इसके बारे में लोगों को लगातार जागरूक किया जा रहा है । मोबाइल फोन पर भी संदेश दिये जा रहे हैं । स्कूल, कालेज, सार्वजनिक कार्यक्रम रोक दिये गये है । केरल जैसे राज्य में जहां जन स्वास्थ्य व्यवस्था दूसरे किसी भी राज्य से काफी बेहतर है, लोगों के घरों तक स्कूल का भोजन पहुंचाया जा रहा है, सड़क किनारे बेसिन लगा कर हाथ धोने के प्रबंध किये गये हैं । लोग घरों में क्वारंटाइन के आदेश का सख्ती से पालन करे, इसके लिए महाराष्ट्र सरकार लोगों के हाथ पर स्टांप लगा दे रही है । केरल में एक समय निपा वायरस पाए जाने पर जो सांस्थानिक व्यवस्थाएं विकसित की गई थी, वे भी कारगर ढंग से काम कर रही है ।

पर भारत में परीक्षण के सही आंकड़ें ही नहीं मिल रहे हैं । परीक्षण महंगा है और उसकी उतनी व्यवस्था भी नहीं है, इसीलिए अब तक बमुश्किल पंद्रह हजार लोगों का परीक्षण किया जा सका है जबकि दक्षिण कोरिया जैसे छोटे देश में तीन लाख का परीक्षण हो चुका है । इसके अलावा चूंकि परीक्षण सिर्फ विदेश यात्रा से लौटे लोगों का किया जा रहा है, इसीलिए यह मान लिया जा रहा है कि यह संक्रमण सिर्फ विदेश से आए लोगों में ही हुआ है । प्रिंसटन विश्वविद्यालय के डा. रमानन लक्ष्मीनारायण का कहना है कि यदि इससे बीस गुना लोगों का परीक्षण किया गया होता तो मरीजों की संख्या भी अभी से बीस गुना ज्यादा पाई जाती । उनकी निजी राय में अब तक भारत में दस हजार से ज्यादा लोग संक्रमित हो चुके हैं ।

अब जब वायरस ने भारत में पांव पसार लिये है तो इसका कोई कारण नहीं नजर आता कि इसका व्यवहार यहां दूसरे देशों से अलग होगा । बस इतना है कि यह भारत में अमेरिका की तुलना में दो हफ्ते बाद और इटली की तुलना में एक महीने बाद बड़े रूप में सामने आएगी । यही पर खतरे की घंटी है । दुनिया के मानदंडों पर भारत इसके लिये इतना कम तैयार नजर आता है कि किसी के भी रौंगटे खड़े हो सकते हैं । जन स्वास्थ्य सुविधाओं में कई दशकों से निवेश में भारी कमी, जीडीपी का महज 1.3 प्रतिशत, इस व्यवस्था को इतना कमजोर और खोखला बना चुका है कि थोड़े से दबाव में ही यह चरमरा कर ढह सकती है । देश के 130 करोड़ लोगों पर साधारण दिनों के लिये ही न पर्याप्त संख्या में डाक्टर है, न बेड और न ही जरूरी उपकरण । और जो संसाधन उपलब्ध हैं वे भी सब जगह समान रूप में नहीं है । मुंबई, दिल्ली में कुछ बेहतरीन अस्पताल है, जो काम कर सकते हैं । लेकिन 2017 में ही गोरखपुर में सिर्फ आक्सीजन की कमी के कारण 63 बच्चों की जानें चली गई थी । भारत भर में कुल एक लाख इंटेंसिव केयर के बेड साल भर में तकरीबन पचास लाख लोगों के काम आ पाते हैं, उतने मरीज तो यहां एक महीने में तैयार हो सकते हैं ।

‘इकोनोमिस्ट’ लिखता है कि भारत के लोग भी उतने जागरूक नहीं हैं । खास तौर पर ऐसे रोगी जिनकी पहले से ही कुछ हालत खराब हो, उनमें फेफड़ों को प्रभावित करने वाली इस बीमारी को वे समझ ही नहीं पायेंगे । इसके साथ ही प्रदुषण और टीबी, स्थिति को और बदतर बना देते हैं । दुनिया के शुगर से पीड़ित रोगियों की संख्या में 49 प्रतिशत भारत में हैं । व्यापक गरीबी न सिर्फ इस बीमारी को बढ़ाती हैं, बल्कि इसके चलते लोग अपना काम छोड़ कर घर पर भी नहीं बैठ सकेंगे । अनेक जगह तो अच्छी तरह से साफ-सफाई भी मुमकिन नहीं है । 16 करोड़ लोगों तक स्वच्छ पानी भी उपलब्ध नहीं है ।

इन सबके कितने डरावने परिणाम हो सकते हैं, उसे कोई भी देख सकता है । डा. लक्ष्मीनारायण का कहना है कि भारत में लोगों में किसी भी बहाने, शादियों, त्यौहारों, राजनीतिक रैलियों में भीड़ इकट्ठा करने की विशेष योग्यता है । यहां ऐसे लोग भी है जो समझते हैं कि भारत की कड़ाके की गर्मी कोरोना वायरस को भगा देगी । सड़कों पर ऐसी उटपटांग बातें कहने वालों की भी कमी नहीं है कि भारत के लोग पहले से ही मुसीबतों के चलते इतने पक गये हैं कि उन्हें यह वायरस प्रभावित नहीं कर पायेगा । इसके अलावा नाना प्रकार के जादू-टोने वाले तो भरे हुए हैं । हाल में दिल्ली के एक आयोजन में एक समूह के लोगों ने गाय के पेशाब के गुणों का उत्सव मनाया था । अखिल भारतीय हिंदू महासभा के राजीव कुमार ने जोश के साथ कहा था कि गाय के पेशाब को “भारत आने वाले सभी पर्यटकों को पिलाया जाना चाहिए ।” एक हिंदू संगठन कह रहा है कि “हम इसके एक छोटे से पैकेट को राष्ट्रपति ट्रंप के पास भी भेजेंगे, ताकि उनकी कोरोना से रक्षा हो सके ।”

‘इकोनोमिस्ट की इस टिप्पणी के बाद कोरोना वायरस के संदर्भ में भारत के डरावने सच के बारे में शायद कहने को विशेष कुछ नहीं रह जाता है । यहां तमाम लोग करतल और घंटा ध्वनि से भी इस वायरस को भगाने के सपने में खोए हुए हैं ।

देखिए, आगे क्या होता है ! 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें