सोमवार, 15 फ़रवरी 2021

किसान आंदोलन की गति-प्रकृति पर दैनंदिन टिप्पणियों पर एक टिप्पणी

-अरुण माहेश्वरी



सरकार या कोई भी पत्रकारजब किसी भी तर्क पर किसान आंदोलन के स्वतबिखरने की कल्पना करता हैतो उसके यथार्थबोध परगहरा शक होता है  तब वह आंदोलन की अपनी आंतरिक गति, ‘उसके अपने तर्क’ के प्रति अंधा हो कर पूरी तरह से आत्म-केंद्रित होचुका होता है  


किसान आंदोलन को यदि ऐसे ही बिखरना होता तो उसका इतने लंबे कालअब तक चलना ही असंभव होता  


आंदोलन का अपना तर्क’ उसकी अपनी आंतरिक गति होती है  आंतरिक गति का अर्थ है उसमें अन्तर्निहित वह शक्ति जो उसकी अपनीमूल वृत्तियों (basic instincts) को संतुष्ट करने के लिए प्रेरित रहती है  


यह अनेक रूपी होती है जो उसके साथ जुड़ी हुई कोई बाहर की चीज नहींउसकी नैसर्गिकता है  इसे मूल वृत्ति को संतुष्ट करने कीसंभावना कहा जा सकता हैउसका अभीष्ट  


अर्थात् ‘आंतरिक गति’ के उद्दीपन का लक्ष्य स्वयं को संतुष्ट करना होता है  इसे अन्य की कामनाओं के चौखटे में देखना चालू क़िस्म कीपत्रकारिता का एक बुनियादी दोष होता है 


अक्सरअपने को अतिरिक्त समझदार और चपल मानने वाले चालू पत्रकार इसी दोष के चलते अपनी सारी बातों को कोरी बकवास मेंपर्यवसित कर देते हैं  


हम थोड़ी सी अतिरिक्त जानकारियों से उत्साहित रहने वाले अच्छे-अच्छे पत्रकारों की इन हवाबाजियों के विडंबनापूर्ण मसखरेपन केदृश्यों को हर रोज़ देखते हैं  


वे बात-बेबात आंदोलन के स्वतबिखर जाने की संभावना की बातों का ऐसे ज़िक्र करते हैं जैसे उन्होंने इसकी आंतरिक गति को अच्छीतरह से जान लिया है ! उनकी यह बेचैनी उनकी सारी चर्चा के एक आंतरिक सूत्र के रूप में ही हमेशा बनी रहती है  


दरअसल,, चीजों को देखने का यह पहलू उनकी खुद की कथित ‘पत्रकारी नैतिकता’ की तटस्थता की उपज है  और यही उस कथितनैतिकता को रसद भी जुटाता है  


कहना  होगा कि किसी भी घटना-क्रम की अपनी ‘खुद की गति’ के प्रति यह बेफ़िक्री ही उन्हें सत्य के प्रति निष्ठा और प्रतिबद्धता से दूरकरती है और अंततउन्हें एक और बाज़ारू पत्रकारों की श्रेणी में ही खड़ा कर देता है 

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