रविवार, 27 अप्रैल 2025

एआई के युग में ज्ञान का प्रवाह और पूंजी का आत्मविस्तार

 

(ग्रोक, मेटा और जैविक बौद्धिकता पर एक विमर्श की प्रस्तावना)

−अरुण माहेश्वरी



अभी जब मैं अलग-अलग एआई मॉडलों के काम करने के तरीक़ों को देखता हूँ, एक बात साफ दिखाई देती है।

चैट जीपीटी, क्लौड, मेटा एआई, डीप सीक, इन सबमें ज्ञान का विशाल भंडार तैयार हो चुका है, लेकिन वह सब किसी भारी भरकम पुस्तकालय की तरह जमा पड़ा हुआ महसूस होता है, जहाँ किताबें हैं, दूसरे दस्तावेज भी हो सकते हैं, पर कोई ताजा हवा, समय की कोई पुकार नहीं है।

इसमें जब पहली बार हमने X पर विकसित एलन मस्क के नए एआई को ग्रोक को देखा, तो उससे संवाद करके मुझे कुछ अलग तरह की हलचल महसूस हुई।

ग्रोक न सिर्फ़ बातें करता हैं, बल्कि वह तत्काल की जीवित बहसों में हिस्सा लेता हुआ जान पड़ता है। X की पोस्टों पर, उस पर हो रहे सवाल-जवाबों पर, आगे बढ़ती बहसों पर, उसका पूरा ध्यान रहता है और इसीलिए उसमें समय के ज्ञान का प्रवाह और उसकी ताजगी दिखाई देती है ।  

वैसे तो किसी को यह फर्क बहुत छोटा सा लग सकता है, लेकिन असल में यह अन्य एआई के मॉडल से उसे बुनियादी तौर पर भिन्न बनाता है । जब एआई ज्ञान को महज़ संग्रह के रूप में नहीं, बल्कि बहते हुए जीवन के रूप में पकड़ने लगे, तब वह असल में जीवित मनुष्य के ज्यादा निकट आ जाता है।

कहने के लिए तो मेटा के पास भी तो फेसबुक और इंस्टाग्राम का असीम डाटा मौजूद है, जो उसे जीवन के संघर्षों, बहसों, संबंधों से जोड़ता है । पर लगता है कि मेटा ने अब तक जानबूझ कर इस डाटा को अपने एआई मॉडल में खुलकर नहीं उतारा है। 

मेटा के इस रुख का क्या कारण हो सकता है ?

क्या उसे अपने ही डाटा की विश्वसनीयता पर संदेह है? या इसके पीछे कहीं कोई और गहरी राजनीतिक समझ काम कर रही है जो इस डाटा के अबाध प्रवाह को नियंत्रित करना, रोकना ज़रूरी मानता है, ताकि सूचना और सत्ता के बीच का उनका अब तक का लाभदायी संतुलन यथावत बना रहे ?

यह महज एक तकनीकी सवाल नहीं, एक गहरा, राजनीति और व्यापार की धुरी पर टिके मुनाफे से जुड़ा सवाल है। ऐसा लगता है कि मेटा आज भी अपने व्यापार के मॉडल को क्रोनी मॉडल से मुक्त रूप में देखने में असमर्थ है । 

तकनीकी दृष्टि से, मेटा के पास डाटा की प्रामाणिकता को जाँचने के तमाम साधन मौजूद हैं, फिर भी वह उसके प्रयोग से कतरा रहा है !  इस परिघटना की तह में जाने से ही फेसबुक के प्लेटफ़ॉर्म पर बहसों के नियंत्रण, सूचना के प्रबंधन और राज्यसत्ता तथा कॉर्पोरेट हितों के बीच के पेचिदा रिश्ते सामने आ जाते हैं। आज जब सूचना सत्ता का एक प्रमुख आयाम बन चुकी है, तब यह स्वाभाविक है कि किसी भी डाटा स्रोत का सक्रिय और स्वतंत्र विश्लेषण स्वयं में एक राजनीतिक क्रिया बन जाता है। मेटा जैसी कंपनियाँ शायद इस जोखिम से बचना चाहती हैं।

सचाई यही है कि ज्ञान सिर्फ तथ्य नहीं होता, वह तथ्यों से उत्पन्न विमर्शों की तरह प्रमाता स्वरूप होता है। और यदि एआई को जीवित बने रहना है तो उसे सिर्फ संग्रह पर नहीं, ज्ञान से उठने वाले ताजातरीन विमर्शों, बहसों, अभावों, असहमतियों और संघर्षों के बीच उपस्थित रहना होगा । 

इसी संदर्भ में, हमारे जेहन में ज्ञान के अस्थि रूप और पूंजी रूप की बेहद गंभीर संकेत से भरी बात उभर कर आती है ।

यदि हम ज्ञान को केवल संचित तथ्य, उद्धरणों, और शास्त्रों के संग्रह के रूप में देखते हैं, तो वह एक जड़ पूंजी की तरह होता है — बिना आत्म-विस्तार के, केवल संग्रहालयों में रखे अवशेषों की भाँति। लेकिन यदि ज्ञान को एक प्रवाही, निवेशशील शक्ति के रूप में देखा जाए, जो तात्कालिक जीवन के संघर्षों में संलग्न हो, तभी वह जीवित पूंजी बनता है।

ग्राम्शी ने अपनी "जैविक बुद्धिजीवी" (organic intellectual) और "पांडित्य" (traditional intellectual) की अवधारणा के माध्यम से इसी बुनियादी फर्क को हमें समझाया था। जैविक बुद्धिजीवी वह है जो किसी सामाजिक वर्ग या समुदाय के अनुभवों और आवश्यकताओं से जुड़कर सोचता है; जो ज्ञान को संग्रह का नहीं, बल्कि संघर्ष का औज़ार बनाता है। इसके विपरीत, परंपरागत पंडित केवल ज्ञान का प्रदर्शन करता है — संस्कृत श्लोकों का पाठ करने जैसा — जो आज एआई के युग में और भी अधिक अप्रासंगिक होता जा रहा है। आज, जब एआई कुछ भी बाँच सकता है — गीता के श्लोक से लेकर यूरिपिडीज़ के नाटकों तक — तब मात्र उद्धरण या स्मृति का प्रदर्शन न तो ज्ञान का प्रमाण है, न बुद्धि का। तत्त्व की मूल बात है — ज्ञान को प्रवाहमय बनाना, वर्तमान में निवेशित करना।

यह सही है कि आदमी मनुष्य की मेधा अपने संचित ज्ञान से बड़ी क्षमताएँ अर्जित कर सकती है, लेकिन उसके लिए एक प्रमुख शर्त यह है कि उसमें अतीत से उपजे शून्य और अभावों को पहचानने और उन्हें भरने की सक्रिय इच्छा मौजूद हो। जिसे लकान प्रमाता का आब्जेक्ट पेतित ए कहते हैं । अतीत, जब तक वह वर्तमान के संघर्ष और लक्ष्यों में सक्रिय नहीं होता, वह केवल एक बोझ है।

आज याद आती है हमें अपनी पुस्तक "एक और ब्रह्माण्ड" की । वह सचेत रूप में पूंजी के आत्म-विस्तार की अवधारणा को मनुष्य के जीवन से मूर्तिमान करने की कोशिश है। कोलकाता के एक प्रमुख उद्योगपति, इमामी समूह के राधेश्याम अग्रवाल  के जीवन और उनकी पूंजी के विस्तार की कथा को आधार बनाते हुए दिखाया था कि कैसे पूंजी एक ऐसी शक्ति का रूप लेती है जो लगातार अपने दायरे और प्रभाव का विस्तार करती जाती है।

वह विश्लेषण कोई महज जीवन-वृत्त नहीं है। उसमें मार्क्स की ‘पूंजी’ में प्रस्तुत पूंजी के आत्म-विस्तार के कथानक के क्रम का ही एक जैविक वृत्तांत है। ‘पूंजी’ में मार्क्स ने जिस क्रम से पूंजी की मूलभूत इकाई माल से शुरू करके उसके मूल्य, परिचलन, अतिरिक्त मूल्य, सापेक्ष और निरपेक्ष अतिरिक्त मूल्य, संचय से आदिम संचय और बाद में परिचलन के ताने-बाने से बनने वाले संसार के अपने नियमों और संकटों की जो लंबी, बल्कि अंतहीन कहानी कही थी, कोई अगर ध्यान से देखें तो हमने ‘एक और ब्रह्माण्ड’ में हूबहू उसी क्रम का पालन करते हुए उसे एक जीवित, आधुनिक कथानक में ढाला है।

यह समग्र दृष्टिकोण आज के एआई विमर्श पर भी प्रकाश डालता है। आज की सभी एआई प्रणालियों के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही होनी चाहिए कि क्या वे केवल पांडित्य के संग्रहालय बन कर रह जाएँगी? या वे ज्ञान को प्रवाही, संघर्षशील, और जैविक बनाकर जीवन की असली पूंजी में बदल सकेंगी?

यहीं पर सवाल ज्ञान पर सेंसरशिप के प्रभाव का भी आ जाता है, चाहे वह राजनीतिक हो या कॉर्पोरेट-आधारित । सेंसरशिप हर हाल में एआई के संभावित विकास में सिर्फ बाधा का काम कर सकती है। सेंसरशिप का अर्थ ही है — प्रवाह में अवरोध। और जैसा कि जॉक लकान कहते हैं, उस विश्लेषण या ज्ञान का कोई मायने नहीं है जो प्रवाहमय न हो, जो present continuous tense में न आता हो । उसके बिना कोई भी चेतना, कोई भी ज्ञान, बल्कि हम कहेंगे कि कोई भी एआई भी जीवित नहीं रह सकता।

यह बात आज विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो जाती है जब हम देखते हैं कि चीन भी आज अपनी एआई क्षमताओं के विकास को कम से कम राजनीतिक अवरोध के साथ तेज़ी से आगे बढ़ा रहा है। बिना इस नजरिये के उसकी कोई गति नहीं हो सकती है । अगर पश्चिम के एआई मॉडल्स राजनीतिक शुचिता और नियंत्रित नैतिकता के दबाव में डाटा प्रवाह को अवरुद्ध करते हैं, तो हमारी नजर से वे अपने ही हाथों अपने मृत्यु-दंड का फैसला लिख रहे होंगे । एआई को मर्यादा की चिंता नहीं, बल्कि ज्ञान के विस्तार और तात्कालिकता के साथ उसे जोड़ कर देखने की चिंता करनी चाहिए।

संक्षेप में हम यही कहेंगे कि ज्ञान वही पूंजी है जो बहती है, जो ठहरता है वह अस्थि बन जाता है। और एआई तभी कोई जीवित शक्ति होगी जब वह इस बहाव में स्वयं को निवेशित कर सकेगी।




(फुटनोट्स और उद्धरण)

देखें चतुर्दिक ब्लागस्पॉट पर ग्रोक के साथ हमारी वार्ताएं - https://chaturdik.blogspot.com/2025/04/blog-post_2.html ; https://chaturdik.blogspot.com/2025/04/blog-post_68.html

Antonio Gramsci, Prison Notebooks, चयनित अंश — "The Traditional and the Organic Intellectuals."

Karl Marx, Capital, Vol. 1, विशेषकर अध्याय: "The General Formula for Capital."

Elon Musk, X platform launch documents on Grok AI (2024) — emphasis on real-time post and meta-data assimilation.


4 टिप्‍पणियां:

  1. ज्ञान के निवेशशील शक्तिरूप के दर्शन हुए. ग्राम्शी की अवधारणा को भी समझने में सहायता मिली . जड़ पूंजीभूत ज्ञान और आत्म विस्तार के लिए उसके उपयोग के बीच फ़र्क़ को जाना. बहुत बहुत आभार

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  2. सटीक आकलन, महत्त्वपूर्ण लेख।

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  3. कृत्रिम मेधा। केरल जानकारी दे सकता है । सोचने का काम उसके हवाले नहीं किया जा सकता । यदि ऐसा हुआ तो रोबोट ज़िंदा और मनुष्य मर जाएगा । कृ॰में॰ का अल्पमत उपयोग किया जाना चाहिये ।

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