बुधवार, 2 अप्रैल 2025

प्रभात पटनायक के लेख “Common Trend” के बहाने

—अरुण माहेश्वरी 



आज के “टेलिग्राफ” में प्रकाशित प्रभात पटनायक का लेख “Common Trend” समकालीन यूरोप की राजनीति में उभरते नए रूझानों की पहचान कराता है। वे बताते हैं कि राजनीतिक मध्य का विघटन और दक्षिण-वाम ध्रुवीकरण अब केवल जर्मनी या फ्रांस तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक व्यापक और शायद राजनीति की सार्वभौमिक परिघटना बन चुका है। वे इस प्रवृत्ति को नव-उदारवाद के संकट की परिणति के रूप में देखते हैं। लेकिन लेख जिस बिंदु पर रुक जाता है, हमारी दृष्टि में वहीं से आज के वास्तविक संकट की गहराई शुरू होती है।


हम लगातार इस बात को दोहराते रहे हैं कि नव-उदारवाद वास्तव में कोई अस्थायी राजनीतिक प्रयोग नहीं है जिसे केवल लोक-कल्याण की उपेक्षा या बाज़ारोन्मुख नीतियों के ज़रिये समझा जा सके। यह पूंजीवाद की उस संरचनात्मक अवस्था का नाम है जो लाभ की दर में गिरावट, उत्पादन से वित्त की ओर पलायन, और श्रम से पूंजी के संबंध में आए गहरे अवसाद का परिणाम है। मार्क्स ने “पूंजी” में लाभ की सामान्य दर में गिरावट की जिस प्रवृत्ति का विश्लेषण किया था, यह उसीका एक और ऐतिहासिक स्वरूप है।


प्रभात मानते हैं कि मध्यमार्गी राजनीति जो दशकों तक नव-उदारवाद का नेतृत्व करती रही है, वह अब विघटित हो रही है । लेकिन वे इस विघटन को पूंजी की आंतरिक गति के ही एक तार्किक परिणाम की बजाय इससे पैदा हुए राजनीतिक असंतोष की प्रतिक्रिया मात्र मानते हैं। यही वह बिंदु है जहाँ हमारी नज़र में उनके लेख की आलोचनात्मक क्षमता सीमित हो जाती है।


वे पश्चिम में दक्षिणपंथ के उत्थान के रूप में जिन ताक़तों को पहचानते हैं, जैसे AfD, Le Pen, Meloni, या ट्रंप, वास्तव में वे नव-उदारवाद से उत्पन्न हताशा की प्रतिक्रियाएँ हैं। उनकी भाषा भले ही ‘राष्ट्रवाद’ (Make America Great Again) या ‘संप्रभुता’ (sovereign) की हो सकती है । लेकिन उनकी संरचना पूंजी के उसी वर्चस्व को और सुदृढ़ करती है, जो नव-उदारवाद की विशिष्टता माना जाता है । ये शक्तियाँ सत्ता में आते ही उसी वित्तीय अनुशासन और सामाजिक कटौतियों को दोहराती हैं जिनके विरुद्ध वे जनता के असंतोष का लाभ उठा कर वे सत्ता तक पहुँची थीं। 


प्रभात ठीक ही यह पहचानते हैं कि ये ताक़तें विरोध में रहते हुए नव-उदारवाद से अलग दिखती हैं, पर सत्ता में आते ही उसी की भाषा बोलने लगती हैं। परंतु वे इस विडम्बना की जड़ में उनके उस प्रमातृत्व (subjectivity) को नहीं देखते, जो पूंजी के विमर्श के बीच से ही गठित हुआ है । 


प्रभात के लेख में वाम की जो छवि उभरती है, वह भी कोई स्वच्छ छवि नहीं है । जर्मनी में Die Linke का विघटन, या ब्रिटेन में लेबर की सीमित सफलता, यही दर्शाते हैं कि वाम भी नव-उदारवाद के विरोध में कोई सम्यक् प्रत्युत्तर पेश नहीं कर पा रहा है। वाम की राजनीति अब भी इस भ्रम में है कि कल्याणकारी राज्य की पुनर्रचना से पूंजी की अनैतिकता पर नियंत्रण पाया जा सकता है। इसके मूल में वही केन्सियन विचारधारा सक्रिय है, जो पूंजीवाद के संकटों के तात्कालिक समाधान प्रस्तुत करती रही है—मूल संकट के स्रोत की दिशा में जाए बिना। यह समझना उनके वश में नहीं है कि नव-उदारवाद कोई नैतिक विचलन नहीं, बल्कि पूंजी के तर्क की एक परिष्कृत अवस्था है। इसलिए इसका कथित संकट भी दरअसल पूंजीवाद की एक और आंतरिक टूटन है, जिसे नए रूपों में आत्मसात कर लेने की पूंजी के पास अपार क्षमता है।


यदि वाम को वाकई विकल्प बनना है, तो उसे ‘कल्याण’ की पुनर्स्थापना से आगे बढ़कर उस प्रमाता को संबोधित करना होगा, जो पूंजी को केवल एक आर्थिक तर्क नहीं, बल्कि एक नियति—यहाँ तक कि एक फैंटेसी—के रूप में स्वीकार कर चुका है। यह प्रमाता, जिसे लकान की भाषा में हम ex-sistent (बाह्याश्रित अस्तित्व) कह सकते हैं, अब अपने ही रचे पूंजी-संरचित संसार में बाँध दिया गया है। वह पूंजी के प्रतीकात्मक तंत्र को ही यथार्थ का पर्याय मान बैठा है—जिसे लकान ‘रीयल’ कहते हैं: ऐसा यथार्थ जो स्वयं में हस्तक्षेप की अनुमति नहीं देता, जो प्रतीकों के पार होता है लेकिन उन पर शासन करता है। इस अर्थ में पूंजी का यह विमर्श रीयल के रूप में काम करता है—जिसे अनुभव तो किया जा सकता है, पर बदला नहीं जा सकता। और यह वह जगह है जहाँ से हर वैकल्पिक राजनीति बार-बार परास्त होती है।


प्रभात पटनायक के लेख में यह बोध नहीं है कि संकट अब केवल नीति या रणनीति का नहीं, बल्कि चेतना का संकट है। पूंजीवाद का वर्तमान संस्करण संसाधनों के वितरण की विषमता भर नहीं पैदा करता, वह प्रतीकों और संभावनाओं के अर्थतंत्र को भी केंद्रीकृत कर देता है। ‘भविष्य’, ‘विकास’, ‘प्रगति’—इन सभी की कल्पना अब केवल वित्तीय पूंजी के द्वारा ही मूर्त हो सकती है, ऐसा प्रतीकात्मक ढाँचा बना दिया गया है। तथाकथित वाम भी इस प्रतीक संरचना से बाहर निकलने की जगह उसी में एक अधिक मानवीय संस्करण की माँग करता है। वह पूंजी को चुनौती नहीं देता, केवल उसमें अपनी जगह सुरक्षित करना चाहता है।


इसलिए आज का संकट नव-उदारवाद का संकट नहीं है—बल्कि उस प्रमाता का संकट है, जो नव-उदारवाद के भीतर गठित हुआ है और अब उसी की सीमाओं में अपनी मुक्ति की तलाश कर रहा है। ट्रंप का टैरिफवाद हो या यूरोप की ‘सॉवरेन’ वाली भाषा—ये सभी उसी भ्रम के लक्षण हैं, कि संकट का हल कहीं बाहर है, न कि स्वयं उस संरचना में जिसमें संकट अंतर्निहित है।


प्रभात पटनायक का लेख इस व्यापक पृष्ठभूमि की ओर संकेत तो करता है, पर वहाँ टिकता नहीं है। वह राजनीति की सतह पर बहस को सीमित रखता है—जहाँ संकट के लक्षण तो स्पष्ट हैं, पर उनके गहन कारणों की तहों तक जाने की कोशिश नहीं की गई है। हम पहले भी उनके इस प्रकार के राजनीतिक सूत्रीकरणों की सीमाओं की ओर इशारा करते रहे हैं। पत्रकारितामूलक टिप्पणियाँ राजनीतिक घटनाओं की पंजिका के लिए उपयोगी हो सकती हैं, पर उनसे कोई नई वैचारिक दिशा नहीं मिलती। क्योंकि वे उस सिंथोम (sinthome) को नहीं पहचानतीं, जिसके माध्यम से पूंजी का विमर्श प्रमाता को बाँधता है। 


और यही कारण है कि प्रभात का वाम एक भला, लेकिन भटका हुआ मार्गदर्शक बनकर रह जाता है।


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