रविवार, 27 जुलाई 2025

ये ‘नैरेटिव’ के भूखें !

 

−अरुण माहेश्वरी 



ठोस यथार्थ नहीं कोरा आख्यान, वस्तु नहीं सिर्फ चेतना – दर्शन के जगत का यह सनातन संघर्ष हमारे जीवन में कैसे-कैसे गुल खिलाता है, इसे हम हर रोज के अपने अनुभवों, राजनीतिक घटनाक्रमों में देख सकते हैं । 

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ को खदेड़ बाहर किया गया, क्योंकि उन्होंने मोदी के एक नरेटिव को गंवा दिया । मसला था हाईकोर्ट के एक भ्रष्ट जज को हटाने की संसदीय कार्रवाई का, लेकिन मोदी के लिए इस मसले का नहीं, नरेटिव का ज्यादा दाम था । धनखड़ ने उसे विपक्ष को सौंप कर महापराध कर दिया ! 

इतिहास में नैरेटिव की ताकत हिटलर सबसे अधिक जानता था । उसने नफरत की झूठी कहानियों से ही यहूदियों को धरती पर एक गंदगी साबित कर दिया; सारी गैर-जर्मन जातियों को तुच्छ और जर्मनों को सर्वश्रेष्ठ । यह भी कहा कि जो श्रेष्ठ है, वही राज करेगा; बाकी सब गुलाम पैरों तले कुचल दिए जाने के अधिकारी हैं । समूची जर्मन जाति दुनिया के ‘क्षुद्र जीवों’ के सफाये में जुट गई । मानव अस्तित्व का सत्य गौण हो गया । 

भारत में हिटलर के चेले, संघ और मोदी भी ऐसे नैरेटिव के परम भक्त हैं । वे हमेशा झूठ को सच और सच को झूठ बनाने की कारस्तानियों में लगे रहते हैं । राजनीति का इसके अलावा उनके लिए कोई मायने नहीं है । हर रोज एक नया शत्रु तैयार करके उसके शिकार का आखेट रचते हैं । 

और जब असली शत्रु सामने होते है, दुम दबा का दुबक जाते हैं, जैसे अमेरिका । अब तो चीन से, बल्कि पाकिस्तान के हाथों अपने रफाल गंवा कर उस से भी डरे बैठे हैं । लेकिन बांग्लादेश के नाम पर अपने ही देश के बांग्लाभाषी निरीह जनों पर पिल पड़े हैं । खबर है कि कई जगह सरकार की कुत्ते पकड़ने वाली गाड़ियों में उन्हें भर कर सताया जा रहा हैं । 

सचमुच, इतिहास में सत्य का रास्ता बेहद कठिन होता है, पर विजय उसी की होती है । वस्तु को जितना झुठलाओं, वह अपनी सत्ता को प्रमाणित करती ही है । झूठ का सरदार हिटलर अपने बंकर में खुद मरा और मुसोलिनी की लाश पर हजारों लोगों ने मूता । पूरा जर्मनी युद्ध के बाद सर झुकाये गुलाम सा नजर आता था । 

पर जैसे इसराइल के यहूदी होलोकॉस्ट से भी कोई सबक नहीं ले रहे, हिटलर के बचे हुए चेले भी इतिहास से कोई सबक नहीं लेना चाहते । मोदी जैसे आज हिटलर को छोड़ नेतन्याहू की दुम पकड़े हुए हैं ! 

दर्शनशास्त्र के इतिहास में यह सवाल हमेशा प्रमुख रहा है कि विश्व इतिहास में ‘वस्तु’ या ‘चेतना’, इन दोनों में कौन निर्णायक क्रियाशील शक्ति है ? लगता है इतिहास की यह गुत्थी आज भी अनसुलझी ही है । 

पिछले दिनों हमने अपने ब्लाग ‘चतुर्दिक’ पर ‘भू-राजनीति का मनोविश्लेषणात्मक मानचित्र’ पर एक लेख में Countries of Jouissance और Countries of Homeostatis में दुनिया के विभाजन को इसी गुत्थी के रूप में रखा था । जुएसाँस का मतलब स्वेच्छाचार और होमियोस्टेटिस का मतलब था शिष्टाचार । पहला उन्माद और दूसरा विवेक । अलग-अलग विषयों में इन अवधारणाओं के अलग-अलग मायने होते हैं । पर दाव पर हमेशा झूठ और सच का संघर्ष होता है । 

पश्चिम के आधुनिक दर्शन में हेगेल ने प्रकृति को विचारों की व्युत्पत्ति बता कर भाव वाद की जमीन तैयार की, वहीं फायरबाख ने प्रकृति को विचार से स्वतंत्र घोषित करके भौतिकवाद की विजय का ऐलान किया । लेकिन यह भौतिकवाद की अवधारणा भी यांत्रिक थी क्योंकि इसमें वस्तु को प्रक्रिया के रूप में देखने का अवकाश नहीं था, जबकि हेगेल ने विचारों के विकासक्रम को देखा था । फायरबाख के भौतिकवाद के पास विचारों के विकासमान ताने-बाने का कोई जवाब नहीं था जिससे इतिहास में वैध-अवैध की धारणाएं लगातार पैदा होती हैं । इसमें, अकेले मार्क्स ने दुनिया को तयशुदा वस्तुओं के समुच्चय के बजाय प्रक्रियाओं के समुच्चय के रूप में देखा; हेगेल के द्वंद्ववाद को भौतिकवाद में आत्मसात किया । और आज भी, यथार्थ की प्रक्रियामूलक (द्वंद्वात्मक भौतिकवादी) पहचान ही सत्य की प्रतिष्ठा की लड़ाई का प्रमुख विषय रहता है । कोरे भौतिकवाद की क्रांतिकारी ध्वजा विचारों की यांत्रिकता में की पहचान बन गई है । 

जो भी हो, मोदी की ‘नैरेटिव’ की भूख की विक्षिप्तता ने अनायास ही हमें दर्शन और विचारधारा के क्षेत्र के इस सनातन पहलू की याद दिला दीं । नैरेटिव यदि हिटलर के जनसंहारों और आक्रामक अभियानों का है, तो हिटलर-मुसोलिनी के कुत्तों की मौत मरने और नाजीवाद-फासीवाद की बुरी पराजय का भी है । 

मोदी-संघ जैसे झूठ के नैरेटिव-खोरों को सत्य के इन प्रति-नैरिटिव की भी हमेशा याद दिलाते रहना चाहिए ।  

   


    


रविवार, 20 जुलाई 2025

ट्रंप के कुत्सित क़िस्सें

 


आज के “टेलिग्राफ” के पहले पन्ने पर न्यूयार्क टाइम्स की न्यूज़ सर्विस की एक लंबी कहानी छपी है जिसमें अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप और कम उम्र की लड़कियों के यौन शोषण के कुख्यात अपराधी एपस्टीन के बीच लंबी, पंद्रह साल की गाढ़ी दोस्ती और उनके साझा यौन अपराधों की जघन्य कहानी सुनाई गई है । हम नहीं जानते कि ऐसे यौन-कुंठित राष्ट्रपति से दुनिया के दूसरे नेता, खास तौर पर स्त्री राष्ट्राध्यक्ष कैसे सहज रहा करते होंगे ! 


एलन फ्यूर और मैथ्यू गोल्डस्टीन की इस कहानी की शुरुआत कुछ इस प्रकार होती है कि दौलत और धूप से तपी औरतों और पाम बीच और मैनहट्टन की हलचलों के बीच डोनाल्ड जे. ट्रंप और जेफ़री एपस्टीन ने लगभग 15 साल एक-दूसरे के गाढ़े मित्रों की तरह जीवन जीया था, जिसे सब जानते थे । 



अपर ईस्ट साइड में एपस्टीन की बदनाम हवेली में मशहूर हस्तियों के साथ शानदार डिनरों में उन्हें देखा जाता तो ट्रंप के निजी क्लब और निवास मार-ए-लागो  पर भी चीयरलीडर्स और मॉडलों के साथ पार्टियों में शोर मचाते नज़र आते ।एपस्टीन के निजी जेट से फ़्लोरिडा और न्यू यॉर्क के बीच उनका आना-जाना लगा रहता था ।

यह सब कोरे ग्लैमर को नहीं, ट्रंप के चरित्र और उसके निम्न सोच को प्रदर्शित करता है। 


इस कहानी में बताया गया है कि कैसे 2003 में ट्रंप ने एपस्टीन को उसके 50वें जन्मदिन पर एक संदेश भेजा था जिसमें एक नग्न महिला के रेखाचित्र साथ किसी गुप्त रहस्य का संकेत दिया गया था । आज ट्रंप इस संदेश का लेखक होने से इंकार करता है और कहते हैं कि उसने न्यू वॉल स्ट्रीट जर्नल की इसके बारे में रिपोर्ट के लिए उस पर मानहानि का मुक़दमा भी दायर किया है, लेकिन इसकी कोई पुष्टि नहीं हुई है । व्हाइट हाउस की प्रेस सचिव कैरोलिन लेविट ने ट्रंप ने यह भी दावा किया है कि एपस्टीन को मार-ए-लागो क्लब से उसके गंदे व्यवहार के कारण बाहर निकाल दिया गया था। 

उनके शब्दों में, “ये थकी हुई और दयनीय कहानियां हैं, जो ट्रंप प्रशासन की सफलता से ध्यान हटाने की कोशिश हैं।”


बहरहाल, टेलिग्राफ की रिपोर्ट में एक महिला के अनुभव का ज़िक्र है जो मार-ए-लागो में स्पा अटेंडेंट थी । एपस्टीन ने उसे अपने दल में शामिल करके उसका यौन शोषण किया था । एक अन्य महिला ने बताया कि एपस्टीन के कार्यालय में एक बार ट्रंप ने उसे घूरा तो एपस्टीन ने ट्रंप से कहा, “वह तुम्हारे लायक़ नहीं है।” एक और महिला ने आरोप लगाया कि जब एपस्टीन उसे ट्रंप टॉवर में ट्रंप से मिलाने लाया, तो ट्रंप ने उसे दबोचा था । 


इस समाचार कहानी में ही 2004 का ज़िक्र है तब से ट्रंप और एपस्टीन के रास्ते अलग-अलग हो गए । एपस्टीन जेल गया तभी ट्रंप व्हाइट हाउस की दौड़ में शामिल हो गया । उसने उल्टे डैमोक्रैट्स पर ही अपस्ट्रीम गिरोह को शरण देने के आरोप लगाए ।



लेकिन आज फिर से ट्रंप को उसका ही काला अतीत घेरने लगा है। ट्रंप ने ही यह माँग की थी कि न्याय विभाग एपस्टीन के 2019 के केस और उसकी साथी घिसलेन मैक्सवेल (जिसे 20 साल की सज़ा मिली है) के मामले में हुई गवाही की फ़ाइलों को सार्वजनिक करें । 


कहा जा रहा है कि इन दस्तावेज़ों से ट्रंप और एपस्टीन के रिश्ते पर ज़्यादा रोशनी नहीं पड़ेगी क्योंकि इनमें ट्रंप कोई मुख्य आरोपी नहीं है। फिर भी जानकार मानते हैं कि जो चीज़ उन दोनों को जोड़ती है वह है युवा महिलाओं के प्रति उनकी लोलुपता और उन्हें अपने जाल में फॉंसने के लिए की जाने वाली पार्टियां, नाइटक्लबों और निजी क्षेत्रों के आयोजन । 


ट्रंप और एपस्टीन शायद 1990 में मिले थे जब एपस्टीन ने मार-ए-लागो से तीन किलोमीटर की दूरी पर संपत्ति खरीदी और वहाँ के पाम बीच पर संभ्रांतजनों के सामाजिक दायरे में अपनी जगह बनाने लगा। ट्रंप ने मार-ए-लागो पाँच साल पहले ही खरीदा था और अपने आलीशान जीवन और अपनी प्लेबॉय छवि के लिए प्रसिद्ध हो चुका था। ये दोनों ही मैनहट्टन में सफलता पाने वाले न्यू यॉर्कर के सबर्बन थे। दोनों खुद को प्रमोट करने में माहिर और आत्म-मुग्ध व्यक्ति थे। और, सर्वोपरि, दोनों की ख्याति कम उम्र की युवतियों के साथ संबंधों के लिए भी थी।


1992 में, सबसे पहले NBC न्यूज़ कैमरे ने मार-ए-लागो की पार्टी को रिकॉर्ड किया था जिसमें बफ़ेलो बिल्स की चीयरलीडर्स शामिल थीं। उसमें ट्रंप को युवा महिलाओं के बीच नाचते हुए दिखाया गया था । वे अन्य महिलाओं की ओर इशारा कर रहे थे और एपस्टीन के कान में फुसफुसाते हुए, दोनों ठहाका लगा रहे थे । 


उसी साल, ट्रंप ने मार-ए-लागो में एक “कैलेंडर गर्ल” प्रतियोगिता के लिए युवा महिलाओं की एक पार्टी होस्ट की। गवाहों के अनुसार, एपस्टीन एकमात्र व्यक्ति थे जिनका नाम उनकी गेस्ट लिस्ट में दर्ज था।

ट्रंप पर जिल हार्थ नामक स्त्री ने अदालत में यह कहते हुए यौन शोषण का आरोप लगाया कि वह उसे जबरन एक कमरे में खींच कर ले गया और छोड़ा नहीं। हार्थ तब 22 साल की प्रतियोगी थी । यह मामला 1997 में किसी प्रकार सुलझा लिया गया ।”टेलिग्राफ़ “ की इस रिपोर्ट में ट्रंप और एपस्टीन की गंदी करतूतों के ऐसे कई क़िस्से दिये गए हैं।  


स्टेसी प्लास्किन ने कहा कि जब उन्होंने ट्रंप से मुलाकात की, तो वह उन्हें गंदी नज़र से देख रहे थे और “ऑक्टोपस” की तरह उनके शरीर को छूने लगे।

इन दोनों के बीच 2004 के अंत में दरार पैदा हुई एक संपत्ति को लेकर। ‘ला मैज़ों दे ल’अमिती’, एक फ्रेंच शैली की हवेली। इस पर दोनों ने बोलियां लगाई और ट्रंप ने 41.35 मिलियन डालर में उसे खरीद लिया। उसके बाद दोनों आपस में कट गए। अभी तो ट्रंप एपस्टीन पर उनकी बेटी को लेकर भी आरोप लगा रहे हैं । 


जुलाई 2019 में अभियोजकों ने न्यू यॉर्क में एपस्टीन पर बच्चों के यौन व्यापार और साज़िश के आरोप लगाए। तब ट्रंप ने तुरंत खुद को यह कहते हुए उससे दूर कर लिया कि “मैं उसे बहुत अच्छी तरह जानता था, जैसे पाम बीच में सभी जानते थे ।वह वहां की सामाजिक दुनिया का हिस्सा था।”



2019 में एपस्टीन की जेल में संदिग्ध हालत में मौत हो गई। उस समय ट्रंप ही अमेरिका के राष्ट्रपति थे।  ट्रंप ने इसे ‘हत्याकांड’ माना और सोशल मीडिया पर क्लिंटन को दोषी ठहराने वाला एक वीडियो भी साझा किया।


यह है इस पूरी कहानी का लुब्बेलुबाब । 


आज के टेलिग्राफ़ के ही संपादकीय पृष्ठ पर सेवंती निनन का एक लेख है -Spiral of silence( मौन का फैलता वृत्त) । यह जर्मन समाजशास्त्री एलिज़ाबेथ नोएल-नॉयमैन (Elisabeth Noelle-Neumann) द्वारा प्रतिपादित एक सिद्धांत है, जिसके अनुसार जब किसी व्यक्ति को यह लगता है कि उसकी राय अल्पमत में हैतो वह सार्वजनिक रूप से चुप्पी साध लेता हैजिससे बहुमत की राय और अधिक शक्तिशाली लगने लगतीहै — और इस प्रकार मौन का एक चक्रवात या सर्पिल (spiral) बनता है।


सेवंती ने इसकी चर्चा अमेरिका के संदर्भ में की है और कहा है कि हम भारत में कई सालों से इस परिघटना का अनुभव कर रहे हैं। मेनन लिखते हैं कि अचरज होता है कि अमेरिका अब भारत का अनुसरण करने लगा है ! 


ट्रंप के उपरोक्त कुत्सित किस्से के संदर्भ में हम कहेंगे कि सिर्फ मौन के विस्तार के मामले में ही नहीं, जल्द ही हम पायेंगे कि नेताओं के चरित्रों के पतन के घिनौने क़िस्सों के मामले भी अमेरिका सूक्ष्म रूप में भारत के नेताओं की गोपनीयता बनाये खने की पद्धतियों का अनुसरण कर रहा है ! 


—अरुण माहेश्वरी  


शनिवार, 12 जुलाई 2025

“वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइन्ड” क्या सचमुच एक अज्ञात किताब थी !


−अरुण माहेश्वरी 



शम्सुल इस्लाम-अशोक पांडे के बीच गोलवलकर की किताब ‘वी ऑर आवर नेशनहुड’ से जुड़े विवाद में रॉयल्टी वगैरह का जो भी विषय है, उसके बारे में हम कुछ नहीं जानते । वह विषय दोनों के बीच का करार-सापेक्ष विषय है । 

पर इस विवाद में शम्सुल इस्लाम ने अशोक पांडे को जो पत्र लिखा है, उसे जब आज देखा तो जरूर कुछ देर के लिए हमारा दिमाग चकरा गया । उस पत्र में यह दावा किया गया है कि “इस पुस्तक के कारण ही गोलवलकर की यह घृणित किताब देश के सामने आ सकी । और वहीं से गोलवलकर के हिटलर के नरसंहार के प्रेम, फासीवादी विचारों से देश परिचित हो सका । जिसे छुपाने के लिए इस पुस्तक को खुद आरएसएस कभी प्रकाशित नहीं करता । वो वर्षों पुरानी छुपी हुई किताब पहली बार इस पुस्तक के माध्यम से सबके सामने आ सकी ।” 

शम्सुल इस्लाम ने यह दावा इस आधार पर किया है कि उनकी पुस्तक के प्रकाशन के पहले “इस किताब के बारे में खुशवंत सिंह जी को भी सूचना नहीं थी । उन्हें भी पहली बार मेरी किताब से ही इस किताब की जानकारी मिली कि गोलवलकर ने ऐसी भी कोई किताब लिखी थी ।” खुशवंत सिंह का यह कथन किताब के बैक कवर पर भी प्रकाशित हुआ है । 

हम इस तर्क को समझने में असमर्थ है कि किसी किताब की जानकारी यदि खुशवंत सिंह जी को नहीं थी तो इसका अर्थ यह कैसे हो जाता है कि पूरी दुनिया ही उस किताब के बारे में कुछ नहीं जानती थी !

हमारी जानकारी में आरएसएस को विषय बना कर आलोचनात्मक दृष्टि से लिखा गया सबसे पहला काम श्री गोविंद सहाय का मिलता है, जिसे उन्होंने गांधी जी की हत्या के ठीक बाद सबसे पहले एक पैंफलेट की शक्ल में लिखा था – “Nazi Technique and R.S.S.” । श्री सहाय उस वक्त उत्तर प्रदेश सचिवालय के एक अधिकारी हुआ करते थे । गांधी हत्या के बाद, जब आरएसएस पर प्रतिबंध लगा, तब 1948 में गोविंद सहाय ने 60 पृष्ठों की पूरी किताब लिखी –“R.S.S. : Ideology, Technique, Propaganda”(1948) । इस किताब में भी तमाम उदाहरणों से यही बताया गया था कि किस प्रकार आरएसएस संगठन और विचारधारा के हर मामले में नाजियों की नीतियों का अनुसरण करता है । 



फिर भी, यह सच है कि गोविंद सहाय आरएसएस में गोलवलकर की अहम् भूमिका को जानने बावजूद तब तक उन्हें गोलवलकर की इस किताब, “We or our Nationhood defined” की जानकारी नहीं थी । लेकिन आरएसएस के बारे में जो सबसे पहला व्यवस्थित अध्ययन किया गया, वह था J. A. Curran, Jr. का “Militant Hinduism in Indian Politics : A study of the R.S.S.” । कुर्रान ने यह अध्ययन अमेरिकी संस्था इंस्टिट्यूट आफ पैसिफिक रिलेशन्स की ओर से किया था, जिसे 1951 में न्यूयार्क से प्रकाशित किया गया था । कहा जाता है कि यह काम सन् पचास के जमाने में भारतीय समाज के तनावों के बारे में सीआईए द्वारा कराये गये अध्ययनों की श्रृंखला की एक कड़ी था । परंतु खुद इस संस्थान का दावा था कि वह “कोई शासकीय या पक्षधर संस्थान नहीं है ।” आरएसएस के बारे में अब तक की सबसे लोकप्रिय देसराज गोयल की  पुस्तक “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ” में भी यह माना गया है कि “इस अध्ययन का उद्देश्य जो भी हो, आर.एस.एस. पर आलेखों से पुष्ट यह पहला शोध-निबंध है । इसीलिए इसका महत्व निर्विवाद है ।” (पृः68)



गौर करने लायक बात है कि कुर्रान के इस अध्ययन में गोलवलकर की इस छोटी सी 78 पृष्ठों की पुस्तक ‘वी’ को बाकायदा आरएसएस की ‘बाइबिल’ कहते हुए काफी विस्तार से उद्धृत किया गया था । कुर्रान के 93 पृष्ठों की इस निबंध के पूरे छः पृष्ठ (पृष्ठ 28-33) इस एक पुस्तिका पर ही खर्च किए गए थे । 



इसके बाद हम आते हैं इस किताब पर हिंदी में हुई चर्चा पर । देसराज गोयल की पुस्तक “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ” जिसका हिंदी में अनुवाद विश्वनाथ त्रिपाठी ने किया था और जिसका प्रकाशन 1979 में राधाकृष्ण प्रकाशन ने किया उस किताब में भी कुर्रान की किताब “मिलिटेंट हिंदुइज्म इन इंडियन पोलिटिक्स” और गोलवलकर की “वी ऑर आवर नेशनहुथ डिफाइंड”  (हम : हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा) पर चर्चा मिलती है । पर श्री गोयल ने ‘वी’ के प्रसंग को उसकी स्थापनाओं के विवेचन के बजाय एक दूसरा ही मोड़ दे दिया कि वह किताब आरएसएस के दावों के विपरीत गोलवलकर की अपनी ‘मौलिक रचना’ नहीं थी । (पृः66) आरएसएस ने उस किताब का बाद में ज्यादा खुल कर प्रचार नहीं किया, इसे भी उन्होंने सिर्फ गोलवलकर के ‘मौलिक विचार’ के दावे के झूठ को छिपाने की एक कोशिश मान कर किताब पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और कह दिया कि यह किताब बाबाराव सावरकर की मराठी किताब “राष्ट्र मीमांसा” का संक्षिप्त अनुवाद थी । गोयल ने अपने इस निष्कर्ष के पक्ष में गोलवलकर के ही एक कथन का उल्लेख किया जिसमें फैलाया था कि “संघ के स्वयंसेवक ‘वी’ नामक जिस पुस्तक का पारायण करते हैं वह मेरे द्वारा किया गया बाबाराव सावरकर की पुस्तक ‘राष्ट्र मीमांसा’ का संक्षिप्त रूप है ।”

हमारी राय में देसराज गोयल का गोलवलकर की बात पर यकीन करना जरा भी उचित नहीं था, क्योंकि 1947 के बाद जब आरएसएस पर प्रतिबंध लग गया था, तब ऐसी नाजी विचारधारा पर आधारित पुस्तक से खुद के और आरएसएस के नाम को दूर रखने के उद्देश्य से ही गोलवलकर ने जहां खुद को उससे अलग करने की घोषणा की थी वहीं आरएसएस ने भी उस पुस्तक के प्रकाशन को रोक दिया और जगह-जगह से उसे गायब भी करने लगे । गोयल ने यह गौर नहीं किया कि 1947, अर्थात् आरएसएस पर प्रतिबंध के पहले तक इस किताब के चार संस्करण प्रकाशित हो चुके थे ।



बहरहाल, अब हम आते हैं 1993 में प्रकाशित हमारी पुस्तक “आर एस एस और उसकी विचारधारा” पर । यह किताब सबसे पहले सीपीआई(एम) की केंद्रीय कमेटी के प्रकाशन से छापी गई थी । बाद में जब केंद्रीय कमेटी ने हिंदी की किताबों के प्रकाशन को बंद करने का निर्णय लिया तो इसे राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित किया गया । और बाद में यह लगातार दिल्ली के अनामिका प्रकाशन से छप रही है । इसके चौथे संस्करण (2014) तक तो हमने इसमें कुछ-कुछ संशोधन किए, पर तब से अब तक यह उसी रूप में छप रही है ।  



अपनी इस किताब में हमने जे. ए. कुर्रान जूनियर के शोध-निबंध और गोलवलकर की पुस्तक “वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइन्ड” पर काफी विस्तृत चर्चा की है । सिर्फ ‘वी’ पर लगभग 23 पृष्ठ लिखे गए । उसके एक अध्याय “फासीवाद का भारतीय संस्करण : संघ का हिंदुत्व” में ‘आर एस एस की गीता’ उपशीर्षक से लगभग सात पृष्ठों का एक पूरा अध्याय ही है । (पृष्ठ 55-62) और फिर “मुस्लिम-विद्वेष” शीर्षक अध्याय में इस पर और लगभग 15 पृष्ठ लिखे गए । इनके अलावा भी पूरी किताब की संरचना में ‘वी’ किसी न किसी रूप में मौजूद है । 



इसी संदर्भ में, “मुस्लिम-विद्वेष” शीर्षक अध्याय का एक सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि इसमें बताया गया है कि किस प्रकार जब सन् 1939 में ‘वी’ का पहला संस्करण प्रकाशित हुआ था उस समय एआईसीसी के तत्कालीन जाने-माने नेता लोकनायक एम.एस.अणे ने उसकी भूमिका लिखी थी और उस भूमिका के लिए गोलवलकर ने किताब की अपनी भूमिका में यह लिखा कि “यह मेरे लिए व्यक्तिगत तौर पर प्रसन्नता की बात है कि लेखन के क्षेत्र में अब तक अनजान मेरे जैसे व्यक्ति के इस प्रथम प्रयास की भूमिका लोकनायक एम.एस. अणे ने लिखी। एक महान तथा निःस्वार्थ देशभक्त, अद्यीत विद्वान तथा गहन चिंतक होने के नाते, जैसा मैंने सोचा था, उनकी भूमिका ने ठोस रूप में पुस्तक के मूल्य को बढ़ाया है।" (वी, पृ. 3) ।




मजे की बात यह है कि लोकनायक अणे की इसी भूमिका को गोलवलकर ने इस पुस्तक के बाद के संस्करणों से हटा दिया, जैसा कि 1947 के इसके चौथे संस्करण को देखने से पता चलता है । 

हमने सवाल उठाया कि ऐसे ‘एक महान तथा निःस्वार्थ देशभक्त, अद्यीत विद्वान तथा गहन चिंतक’ अणे की ही इस भूमिका को गोलवलकर ने बाद में हटा क्यों दिया ? इस पर हमने पाया कि श्री अणे ने अपनी उस भूमिका में ही किताब की स्थापनाओं की तीव्र भर्त्सना की थी । हमारी किताब “आरएसएस और उसकी विचारधारा” में यह पूरी कहानी मौजूद है । हम यहां फिर से एक बार अणे ने गोलवलकर की इस किताब पर जिस प्रकार आपत्तियां उठाई थी, उसके एक विस्तृत उद्धरण देना चाहेंगे । इस किताब के निष्कर्षों के बारे में श्री अणे लिखते हैं: 

“इन निष्कर्षों से राजनीतिज्ञों के सामने जो व्यवहारिक समस्याएं खड़ी होती हैं, वह अत्यंत गहरी है तथा उन पर सावधानी और धीरज के साथ विचार किया जाना चाहिए। मुझे लगता है कि मुसलमानों के स्थान की समस्याओं के बारे में विचार करते वक्त लेखक (गोलवलकर) ने हिंदू राष्ट्रीयता तथा हिंदू राष्ट्र के सार्वभौम राज्य के बीच के फर्क को हमेशा ध्यान में नहीं रखा है। एक सार्वभौम राज्य के रूप में हिंदू राष्ट्र एक सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के रूप में हिंदू राष्ट्र से पूरी तरह भिन्न चीज है। किसी भी आधुनिक राष्ट्र ने विभिन्न राष्ट्रीयताओं के अपने अधिवासी अल्पसंख्यकों को नागरिकता के अधिकार से वंचित नहीं किया है यदि वे स्वतःस्फूर्त ढंग से या कानून के द्वारा राष्ट्र के स्वाभाविक अंग बन गए हों।...अल्पसंख्यक के रूप में नागरिकता के सभी अधिकारों के साथ ही अपनी संस्कृति, भाषा और धर्म को सुरक्षित रखने की विशेष व्यवस्थाएं कुल मिलाकर किसी भी राज्य के सार्वभौमिकता के अधिकारों के प्रयोग के साथ बेमेल नहीं मानी गई हैं।…कोई भी आधुनिक न्यायशास्त्री या राजनीतिक दर्शनशास्त्री या संवैधानिक कानून का विद्यार्थी पुस्तक के पांचवें अध्याय में कही गई लेखक की इस बात को स्वीकार नहीं कर सकता।...मेरे मन में इस बारे में कोई संदेह नहीं है कि लीग ऑफ नेशंस की अल्पसंख्यक संबंधी संधि का धीरज से अध्ययन करने पर लेखक ने इतनी धृष्टता के साथ जो बात कही है, उसका कोई स्थान रह जाता। सांस्कृतिक तौर पर भिन्न अल्पसंख्यकों को अपने धार्मिक आचार को बनाए रखने तथा उसका पालन करने की अनुमति देने और उनकी संस्कृति की रक्षा के अनुकूल स्थितियां बनाने से किसी भी राज्य की सार्वभौमिकता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, बशर्ते वे सार्वजनिक नैतिकता और नीति का उल्लंघन न करें। किसी भी देश में पैदा हुआ कोई भी व्यक्ति, जिसके पुरखों को सदियों से नागरिकता के अधिकार प्राप्त रहे हैं, किसी भी आधुनिक राज्य में सिर्फ इसलिए विदेशी नहीं माना जा सकता है कि वह उस देश की बहुसंख्यक आबादी, जो स्वाभाविक तौर पर उस राज्य पर नियंत्रण रखती है, से भिन्न धर्म को अपनाए हुए है। इस बीसवीं सदी में किसी भी बाहरी व्यक्ति के प्रकृतिकरण की शर्त धर्म परिवर्तन नहीं हो सकता।...मैं यह भी जोड़ना चाहता हूं कि लेखक ने उन लोगों के प्रति, जो राष्ट्रवाद के उनके सिद्धांत को स्वीकार नहीं करते, जिस कठोर और उत्तेजक भाषा का प्रयोग किया है, वह राष्ट्रवाद की तरह की एक जटिल समस्या के लिए आवश्यक वैज्ञानिक अध्ययन की मर्यादा के अनुकूल नहीं है। इस भूमिका में इन बातों का उल्लेख करना मुझे कष्टदायी प्रतीत होता है। लेकिन मैं समझता हूं कि इन उपरोक्त विषयों पर अपनी राय को बिलकुल साफ और स्पष्ट शब्दों में न रखकर मैं अपने प्रति ही गैर-ईमानदार और अन्यायपूर्ण होता ।" (वी, पृ. 14 से 18)



और, जहां तक इस पुस्तक को जी डी सावरकर की ही मराठी पुस्तक “राष्ट्र मीमांसा” का संक्षिप्त संस्करण घोषित करने के गोलवलकर के झूठ का सवाल है, यह गौर करने की बात है कि 1939 में प्रकाशित पुस्तक के पहले संस्करण की भूमिका में खुद गोलवलकर ने उस पुस्तक का उल्लेख किया है और लिखा है कि “राष्ट्र मीमांसा” का अंग्रेजी अनुवाद जल्द ही आने वाला है । उनके शब्दों में – “His (G.D.Savarkar’s) work Rashtra Meemansa in Marathi has been one of my chief sources of inspiration and help. An English translation of this work is due shortly out.”



अर्थात् यह साफ है कि गोलवलकर की यह किताब जी.डी.सावरकर उर्फ बाबा राव सावरकर, जैसा कि देसराज गोयल ने माना था, की नहीं थी, खुद गोलवलकर की ही थी । ‘राष्ट्र मीमांसा’ का अंग्रेजी अनुवाद अलग से आया था, जिसकी पूर्वघोषणा गोलवलकर ने ही अपनी किताब के पहले संस्करण की भूमिका में की थी । 

गोलवलकर एक कितने गैर-ईमानदार और कृतध्न व्यक्ति थे, इस सचाई को उनकी इस किताब के चौथे संस्करण को देख कर बहुत अच्छी तरह से जाना जा सकता है, जिसमें उन्होंने पहले संस्करण की भूमिका को भी फिर से प्रकाशित कराया था । चौथे संस्करण में पुनर्प्रकाशित पहले संस्करण की भूमिका से न सिर्फ लोकनायक अणे के प्रति आभार वाले प्रसंग को ही हटा दिया गया, बल्कि जी.डी.सावरकर की “राष्ट्र मीमांसा” और उससे मिली प्रेरणा आदि के प्रसंगों को भी गायब कर दिया । और बाद में, जब 1948 में आरएसएस पर प्रतिबंध लगाया गया, तब खुद गोलवलकर ने यह प्रचारित कराया कि उनकी पुस्तक ‘वी’ तो उनकी लिखी हुई नहीं थी, वह तो बाबा राव सावरकर की “राष्ट्र मीमांसा” का एक संक्षिप्त संस्करण भर थी ! दुर्भाग्यवश, देसराज गोयल जैसे गहन शोधकर्ता ने भी इस बात पर विश्वास कर लिया, वे गोलवलकर के राजनीतिक छल को समझने में विफल रहे । हम यहाँ ‘वी’  के 1939 के पहले संस्करण की भूमिका और 1944 के चौथे संस्करण में पुनर्प्रकाशित पहले संस्करण की भूमिका, दोनों की तस्वीरें प्रकाशित कर रहे हैं ।

यहां प्रसंगवश हम इस विषय में अपने एक निजी अनुभव को भी साझा करना चाहेंगे । 

6 दिसंबर 1992 में जब बाबरी मस्जिद को ढहाया गया, तभी दिल्ली में रहते हुए हमने आरएसएस के सांगठनिक ढांचे और उसकी विचारधारा के स्रोतों के अध्ययन का बीड़ा उठाया । उन दिनों हम त्रिमूर्ति भवन में स्थित नेहरू मेमोरियल एंड म्यूजियम लाइब्रेरी में नियमित जाया करते थे । वहां उस समय पुराने सोशलिस्ट और इतिहास के विषयों के अद्यीत विद्वान हरिदेव शर्मा डिप्टी लाइब्रेरियन हुआ करते थे, जिनसे हर दिन उनके चैंबर में हम गप-शप करते थे । आरएसएस पर काम में उनके सहयोग को मैं कभी भूल नहीं सकता हूँ । वे मुझे अपने नाम से किताबें ईशू कराके घर भी ले जाने देते थे । 

उन्होंने ही एक दिन हमसे कहा कि गोलवलकर की इस किताब “वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइन्ड” को आप ले जाइयें और इसकी एक प्रति जेराक्स कराके अपने पास रख लीजिए । उन्होंने बताया कि जिस मुस्तैदी से आरएसएस के लोग हर जगह से इस किताब को गायब कर रहे हैं, बहुत संभव है कि हमारे यहां से भी कोई इसे चुरा ले जायेगा और फिर इस पुस्तक का कहीं मिलना ही कठिन हो जाएगा । यह कहते हुए उन्होंने ‘वी’ का पहला और चौथा संस्करण, दोनों ही मुझे दो दिन के लिए दे दिये। हमने उन दोनों किताबों की जेराक्स कराके बाकायदा उन्हें मजबूत जिल्द में मढ़वा कर अपनी लाइब्रेरी में सहेज कर रख लिया। उस समय तक गोलवलकर की मृत्यु के बाद पचीस साल भी नहीं बीते थे, इसलिये उसे किसी प्रकाशक को दे कर प्रकाशित कराना मुमकिन नहीं था । कॉपीराइट का सवाल था । पर वे दोनों किताबें हमारे उस पूरे अध्ययन में बहुत काम आई और हमारे पास आज भी हमारी एक बेशकीमती निधि के रूप में मौजूद हैं । यहां हम इन दोनों संस्करणों की तस्वीरें भी मित्रों से साझा कर रहे हैं ।  


यहां तक कि जून 1993 में ही प्रकाशित सुमित सरकार, तनिका सरकार सहित दिल्ली के कुल पाँच इतिहासकारों की प्रसिद्ध किताब “ख़ाकी शार्ट्स एंड सैफ्रन फ्लैग्स” में भी इस किताब का काफ़ी उल्लेख हुआ है।  



गोलवलकर की मृत्यु 5 जून 1973 के दिन हुई और इसके ठीक पचास साल बाद ही हमने देखा कि शम्सुल इस्लाम ने उस पूरी किताब को अपनी आलोचना के साथ प्रकाशित करा दिया । तब हमने सचमुच राहत की साँस ली कि अपनी तमाम गतिविधियों को गोपनीय रखने के फासिस्ट विचारों वाला आरएसएस इस महत्वपूर्ण किताब को दफना देने के अपने इरादे में कामयाब नहीं हुआ, जिससे उसकी विचारधारा और उसकी सांगठनिक गतिविधियों के स्रोत का बिल्कुल सही-सही अनुमान मिल जाता है ।

इस पूरे प्रसंग में अंत में हम श्री शम्सुल इस्लाम से यही कहेंगे कि वे यह दावा न करें कि उनकी किताब के पहले दुनिया में कोई इस किताब को जानता नहीं था । बल्कि सचाई यह है कि उसे आधार बना कर बहुत पहले ही इस लेखक ने आरएसएस की सारी गोपनीयता और उसके नाजीवादी विचारों पर से पूरी गंभीरता और शोधपरक ढंग से पर्दा उठाया था ।  


बुधवार, 2 जुलाई 2025

कृष्ण कल्पित प्रसंग

-अरुण माहेश्वरी 

 


पटना में कृष्ण कल्पित की हरकत केवल एक सामाजिक अपराध नहीं, बल्कि एक विकृत आत्म-संरचना का उदाहरण भी है । वह जो अपने भाषिक तेवर में विद्रोही और मुक्त दिखाई देता है, वही कैसे भीतर ही भीतर असंख्य कुंठाओं और खास तौर पर स्त्रीत्व के बारे में अजीबोगरीब प्रतीकात्मक उहापोह (अस्थिरता)  से भी भरा होता है, कृष्ण कल्पित उसका एक ख़ास उदाहरण है ।

जब हम किसी में स्त्रीत्व के बारे में “प्रतीकात्मक अस्थिरता" की बात कहते हैं तो उसका अर्थ यह है कि ऐसे व्यक्ति के लिए स्त्री कोई स्वतंत्र सामाजिक या भाषिक सत्ता नहीं, बल्कि महज उसकी फैंटेसी की जगह है, जिस पर वह अपनी अधूरी कामनाओं को आरोपित करता है।

दरअसल आदमी एक प्रतीकात्मकता व्यवस्था से अर्थ ग्रहण करता है। यह व्यवस्था भाषा, नियम, कानून, समाज, निषेध, और नाम-का-पिता (Name-of-the-Father) की व्यवस्था है । इसका चरित्र पितृसत्तात्मक है । उसमें 'स्त्री' की स्थिति एक तरह की अनुपस्थिति या असंभवता के रूप में आती है।

लकान का प्रसिद्ध कथन हैं:

 

“La femme n'existe pas.” –The Woman does not exist.

यह स्त्री के अस्तित्व से इंकार  नहीं है । इसका तात्पर्य यह है कि ‘स्त्री’ एक पूर्ण और स्थिर संकेतक के रूप में प्रतीकात्मक व्यवस्था में कभी दर्ज नहीं होती। उसका अस्तित्व हमेशा एक फिसलते हुए संकेतक (sliding signifier) की तरह होता है — कभी माँ के रूप में, कभी कामना की वस्तु के रूप में, कभी निषेध की भूमि के रूप में। स्त्रीत्व का कोई स्थायी, निश्चित अर्थ नहीं बनता, इसीलिए वह प्रतीकात्मक व्यवस्था में अस्थिर है। या तो एक आदर्श होती है (देवी, माँ, प्रेरणा), या एक कुलटा, अपवित्र (कामुकता, भय, अपराध की चीज)। यह दरअसल स्त्री को एक स्वायत्त मानव नहीं, बल्कि एक प्रतीकात्मक वस्तु (signifier-object) मानने की मानसिकता है — जिसे या तो ऊँचे कंगूरे पर रखा जाए या ज़मीन पर पटक दिया जाए, लेकिन उसके साथ संवाद नहीं किया जाए।

 

लकान इसे “phallogocentric” संरचना कहते हैं — एक ऐसी भाषा-संरचना जिसमें अर्थ, अधिकार और इच्छा सभी पुरुष की स्थिति से निकलते हैं। इन दोनों ध्रुवों के बीच 'स्त्री' का अपना स्वायत्त स्वरूप गायब हो जाता है।

यही कारण है कि जब कोई स्त्री अपनी स्वतंत्रता का अहसास कराती है, तब वह आदमी की उस फैंटेसी की संरचना को तोड़ती है। स्त्री की अपनी चेतना — उसकी अस्मिता, सीमाएँ, प्रतिरोध — उनके लिए केवल एक ‘बाधा’ बनती है, जिसे वे नकारते हैं।

लेकिन जैसे ही वास्तविक स्त्री — जैसे वह कवयित्री — ना कहती है, सीमाएँ तय करती है, प्रतिरोध करती है, वह आदमी के अंदर की प्रतीकात्मक अस्थिरता को चुनौती देती है। और यही वह क्षण होता है, जब कल्पित जैसों की असहनीय यौनिक और भाषिक हताशा  आक्रामक रूप ले लेती है।

कवयित्री के घर में जबरन घुस जाना दरअसल कल्पित के अंदर की विध्वस्त संस्कृति, उसके प्रतीकात्मक विधान के ध्वंस का कुत्सित प्रकटीकरण है।

 

सच यह है कि जो व्यक्ति शब्दों से अपनी आत्म-छवि का निर्माण करता है, यदि वह स्वयं को उस छवि के जाल में पहचानने लगे, तो वही छवि उसे सिंथोम (sinthome) की तरह बाँध लेती है । ऐसा बंधन  रचनात्मक भी हो सकता है, यदि सामाजिक विधान को मान कर चला जाए ; परंतु जब इस सामाजिक विधान को ही ठुकरा दिया जाता है तो वह सिंथोम अपराध की शक्ल ले सकता है।

कृष्ण कल्पित की करतूत कोई क्षणिक उन्माद या अकेलेपन की उपज नहीं है, बल्कि एक लंबे समय से भीतर पल रही लालसात्मक विकृति और भाषिक आत्ममुग्धता का सामाजिक अपराध में बदलना है ।

इस प्रकरण में प्रताड़ित कवयित्री ने अपनी पहचान उजागर नहीं की। उसने पुलिस में शिकायत नहीं की। पर क्या इस चुप्पी को हम उसकी कमज़ोरी कहेंगे ! जब पीड़िता अपनी पहचान को उजागर नहीं करना चाहती, तो यह न केवल उसका संवैधानिक अधिकार है, बल्कि एक प्रतीकात्मक उत्तरजीविता की रणनीति भी है। स्त्री की चुप्पी कई बार उसकी भाषा होती है। वास्तव में वह यह जता रही होती है कि ‘मैं इस संरचना में अपनी देह नहीं, अपनी भाषा को सुरक्षित रखना चाहती हूँ।’

आज फ़ेसबुक पर कल्पित प्रकरण पर कुछ महानुभाव अजीब प्रकार की अदालती जिरह वाली मुद्रा में उतर पड़े हैं। वे अपनी बात कहने के बजाय कवयित्री से सवाल कर रहे हैं कि "अगर इतनी गंभीर बात थी, तो रिपोर्ट क्यों नहीं की?"

वे सवाल पर सवाल उछालते हैं कि कहाँ थी, क्यों गई, रात में क्यों गई, किस मंशा से गई?”

इन सब सवालों से यही साफ़ होता है कि स्त्री को ये सब उसकी ‘इच्छा की स्वायत्त सत्ता’ के रूप में स्वीकारने के लिए तैयार नहीं है ।

कुछ महानुभाव कल्पित के प्रति  सहानुभूति में कह रहे हैं कि उनका ‘मीडिया ट्रायल’ हो रहा है !  

वे यह नहीं देख पा रहे हैं कि यह कथित ‘मीडिया ट्रायल’ वास्तव में एक प्रतीकात्मक न्याय है, जो उस मौन की जगह से हो रहा है जहाँ कानून की भाषा काम नहीं करती, पर जहां स्त्री की पीड़ा और आक्रांता के अपराध की छाप  मौजूद रहती है।

कल्पित का कृत्य महज़ नशे में की गई ‘चूक’ नहीं, बल्कि उनकी उस मानसिक संरचना का प्रतिशोध है जिसमें स्त्री उनके लिए अब कोई प्रेरणा नहीं, बल्कि प्रतिरोध बन चुकी थी।

सवाल उठता है कि क्या हम स्त्री को केवल तब तक ही साहित्यिक मान्यता देंगे, जब तक वह हास्यास्पद “प्रेरणा” बनी रहे?

क्या हम उसकी चुप्पी को समझने के बजाय उसे “नाटकीय मौन” कहकर खारिज कर देंगे?

यह पूरा प्रसंग — केवल एक कवि का पतन नहीं, बल्कि एक समूचे काव्य-प्रेमी समाज की आत्मपरीक्षा है।