रविवार, 27 जुलाई 2025

ये ‘नैरेटिव’ के भूखें !

 

−अरुण माहेश्वरी 



ठोस यथार्थ नहीं कोरा आख्यान, वस्तु नहीं सिर्फ चेतना – दर्शन के जगत का यह सनातन संघर्ष हमारे जीवन में कैसे-कैसे गुल खिलाता है, इसे हम हर रोज के अपने अनुभवों, राजनीतिक घटनाक्रमों में देख सकते हैं । 

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ को खदेड़ बाहर किया गया, क्योंकि उन्होंने मोदी के एक नरेटिव को गंवा दिया । मसला था हाईकोर्ट के एक भ्रष्ट जज को हटाने की संसदीय कार्रवाई का, लेकिन मोदी के लिए इस मसले का नहीं, नरेटिव का ज्यादा दाम था । धनखड़ ने उसे विपक्ष को सौंप कर महापराध कर दिया ! 

इतिहास में नैरेटिव की ताकत हिटलर सबसे अधिक जानता था । उसने नफरत की झूठी कहानियों से ही यहूदियों को धरती पर एक गंदगी साबित कर दिया; सारी गैर-जर्मन जातियों को तुच्छ और जर्मनों को सर्वश्रेष्ठ । यह भी कहा कि जो श्रेष्ठ है, वही राज करेगा; बाकी सब गुलाम पैरों तले कुचल दिए जाने के अधिकारी हैं । समूची जर्मन जाति दुनिया के ‘क्षुद्र जीवों’ के सफाये में जुट गई । मानव अस्तित्व का सत्य गौण हो गया । 

भारत में हिटलर के चेले, संघ और मोदी भी ऐसे नैरेटिव के परम भक्त हैं । वे हमेशा झूठ को सच और सच को झूठ बनाने की कारस्तानियों में लगे रहते हैं । राजनीति का इसके अलावा उनके लिए कोई मायने नहीं है । हर रोज एक नया शत्रु तैयार करके उसके शिकार का आखेट रचते हैं । 

और जब असली शत्रु सामने होते है, दुम दबा का दुबक जाते हैं, जैसे अमेरिका । अब तो चीन से, बल्कि पाकिस्तान के हाथों अपने रफाल गंवा कर उस से भी डरे बैठे हैं । लेकिन बांग्लादेश के नाम पर अपने ही देश के बांग्लाभाषी निरीह जनों पर पिल पड़े हैं । खबर है कि कई जगह सरकार की कुत्ते पकड़ने वाली गाड़ियों में उन्हें भर कर सताया जा रहा हैं । 

सचमुच, इतिहास में सत्य का रास्ता बेहद कठिन होता है, पर विजय उसी की होती है । वस्तु को जितना झुठलाओं, वह अपनी सत्ता को प्रमाणित करती ही है । झूठ का सरदार हिटलर अपने बंकर में खुद मरा और मुसोलिनी की लाश पर हजारों लोगों ने मूता । पूरा जर्मनी युद्ध के बाद सर झुकाये गुलाम सा नजर आता था । 

पर जैसे इसराइल के यहूदी होलोकॉस्ट से भी कोई सबक नहीं ले रहे, हिटलर के बचे हुए चेले भी इतिहास से कोई सबक नहीं लेना चाहते । मोदी जैसे आज हिटलर को छोड़ नेतन्याहू की दुम पकड़े हुए हैं ! 

दर्शनशास्त्र के इतिहास में यह सवाल हमेशा प्रमुख रहा है कि विश्व इतिहास में ‘वस्तु’ या ‘चेतना’, इन दोनों में कौन निर्णायक क्रियाशील शक्ति है ? लगता है इतिहास की यह गुत्थी आज भी अनसुलझी ही है । 

पिछले दिनों हमने अपने ब्लाग ‘चतुर्दिक’ पर ‘भू-राजनीति का मनोविश्लेषणात्मक मानचित्र’ पर एक लेख में Countries of Jouissance और Countries of Homeostatis में दुनिया के विभाजन को इसी गुत्थी के रूप में रखा था । जुएसाँस का मतलब स्वेच्छाचार और होमियोस्टेटिस का मतलब था शिष्टाचार । पहला उन्माद और दूसरा विवेक । अलग-अलग विषयों में इन अवधारणाओं के अलग-अलग मायने होते हैं । पर दाव पर हमेशा झूठ और सच का संघर्ष होता है । 

पश्चिम के आधुनिक दर्शन में हेगेल ने प्रकृति को विचारों की व्युत्पत्ति बता कर भाव वाद की जमीन तैयार की, वहीं फायरबाख ने प्रकृति को विचार से स्वतंत्र घोषित करके भौतिकवाद की विजय का ऐलान किया । लेकिन यह भौतिकवाद की अवधारणा भी यांत्रिक थी क्योंकि इसमें वस्तु को प्रक्रिया के रूप में देखने का अवकाश नहीं था, जबकि हेगेल ने विचारों के विकासक्रम को देखा था । फायरबाख के भौतिकवाद के पास विचारों के विकासमान ताने-बाने का कोई जवाब नहीं था जिससे इतिहास में वैध-अवैध की धारणाएं लगातार पैदा होती हैं । इसमें, अकेले मार्क्स ने दुनिया को तयशुदा वस्तुओं के समुच्चय के बजाय प्रक्रियाओं के समुच्चय के रूप में देखा; हेगेल के द्वंद्ववाद को भौतिकवाद में आत्मसात किया । और आज भी, यथार्थ की प्रक्रियामूलक (द्वंद्वात्मक भौतिकवादी) पहचान ही सत्य की प्रतिष्ठा की लड़ाई का प्रमुख विषय रहता है । कोरे भौतिकवाद की क्रांतिकारी ध्वजा विचारों की यांत्रिकता में की पहचान बन गई है । 

जो भी हो, मोदी की ‘नैरेटिव’ की भूख की विक्षिप्तता ने अनायास ही हमें दर्शन और विचारधारा के क्षेत्र के इस सनातन पहलू की याद दिला दीं । नैरेटिव यदि हिटलर के जनसंहारों और आक्रामक अभियानों का है, तो हिटलर-मुसोलिनी के कुत्तों की मौत मरने और नाजीवाद-फासीवाद की बुरी पराजय का भी है । 

मोदी-संघ जैसे झूठ के नैरेटिव-खोरों को सत्य के इन प्रति-नैरिटिव की भी हमेशा याद दिलाते रहना चाहिए ।  

   


    


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