−अरुण माहेश्वरी
भारतीय ज्ञानमीमांसा में प्रमाता, प्रमाण और प्रमेय, ये तीन पद ज्ञान की पूरी त्रिपुटी को रचते हैं। इन्हें केवल स्थिर परिभाषाओं में नहीं, बल्कि एक ऐसे जीवित परिपथ की तरह देखना चाहिए जिसमें जानने वाला, जानने का साधन और जाना जाने वाला निरंतर परस्पर प्रवृत्त होते हैं। तीनों में ‘प्र’ उपसर्ग का होना संयोग नहीं है; यह उस प्रवाह का चिह्न है जिसमें ज्ञान कोई ठहरी हुई वस्तु न होकर सतत क्रिया बन जाता है। ‘मा’ धातु मापने और जानने का सूचक है, पर जब उसके आगे ‘प्र’ आता है तो उसमें पूर्वापरता, स्पष्टता और प्रखरता का वह संचार हो जाता है जो स्थिरता को गति में बदल देता है। ‘त्र’, ‘ण’ और ‘य’ जैसे प्रत्ययों के साथ यह उपसर्ग कर्ता, साधन और कर्म, तीनों में अलग-अलग रूप से जीवित रहता है।
प्रत्यभिज्ञा दर्शन में उत्पलदेव और अभिनवगुप्त ने इस त्रिपुटी को मात्र कार्य-कारण की यांत्रिक श्रृंखला नहीं माना, बल्कि आत्म-साक्षात्कारी चेतना के अद्वैत स्पन्दन के रूप में देखा। प्रमाता यहाँ कोई मनोवैज्ञानिक ‘मैं’ नहीं, बल्कि स्वप्रकाश आत्मा है । शिवस्वरूप चिति, जो स्वयं को प्रमाण और प्रमेय के रूप में व्यक्त करती है। प्रमाण, चिति की वही शक्ति है जो वाक्, स्मृति और अनुभव में स्वतन्त्र विकल्पना करती है; प्रमेय वही सत्ता है जो अपने ही प्रतिबिम्ब रूप में भिन्न-भिन्न प्रतीत होती है।
प्रमाता की सत्ता पर उत्पलदेव का महत्त्वपूर्ण श्लोक है –
"नैव प्रमाणं न च वा प्रमाण्यं प्रमेयं वा दृश्यते त्वात्मनि त्वम्।
केवलं स्फुटवेद्यवेद्यवेदनं स्वप्रकाशात्मनि संलयं यति॥"
(ईश्वरप्रत्यभिज्ञा, I.1.5)
(न तो प्रमाण अलग है, न प्रमेय; सबका विलय स्वप्रकाश आत्मा (प्रमाता) में हो जाता है, क्योंकि स्फुट (अलग-अलग) प्रतीत होनेवाले यह तीनों तत्त्व एक ही चेतना की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं।
उत्पलदेव का यह कथन स्पष्ट करता है कि इन तीनों के बीच का भेद स्फुट प्रतीत अवश्य होता हैं, पर अंततः इनका विलय स्वप्रकाश आत्मा में ही है। ‘प्र’ यहाँ चेतना के उसी आत्म-स्फोट का सूचक है, जो उसे भिन्न-भिन्न रूपों में प्रवृत्त करता है। अभिनवगुप्त इस त्रिपुटी को स्फोट चेतना (emergent self-consciousness) की एक प्रक्रिया के रूप में व्याख्यायित करते हैं। प्रमाता कोई स्थूल कर्ता नहीं, बल्कि स्वानुभवात्मक, स्वात्मपरामर्श करता हुआ शिव है। प्रमाण कोई यंत्रवत् साधन नहीं, चिति की विकल्पना-शक्ति (अर्थ-गठन की क्रिया) है, जो स्वातंत्र्य से विकल्पन करती है। यहां प्रमेय भी कोई बाह्य वस्तु नहीं, बल्कि चिति का ही आत्मनिष्ठ प्रतिबिम्ब है।
ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी में अभिनवगुप्त कहते हैं कि चिति (स्वप्रकाश चेतना) ही प्रमाण, प्रमेय और प्रमाता इन तीन रूपों में प्रवृत्त होती है। यह एक अद्वैत-स्फोट की बात है, जिसमें सभी द्वैत (ज्ञाता और ज्ञेय) का विलय चेतना की एकमात्र सत्ता में होता है। प्रत्यभिज्ञा दर्शन के अनुसार यह त्रैविध्य वास्तव में एक ही चेतन सत्ता का आभासात्मक विभाजन है। अर्थात् ‘ज्ञान’ कोई बाहरी घटना नहीं, बल्कि चिति का स्वयं में स्पन्दन है, जिसे प्रमेय, प्रमाण और प्रमाता के भेद में देखा जाता है।
यहीं से यह विचार जॉक लकान के subject की अवधारणा से एक अनपेक्षित संवाद कायम करता दिखाई देता है। लकान के लिए subject कोई स्थायी सत्ता नहीं, बल्कि होते जाने की प्रक्रिया है । being नहीं, बल्कि becoming है । वह भाषा की संकेतक-श्रृंखला में ही प्रकट हो सकता है, और उसका इस प्रकार हर रूप में प्रकट होना उसे आंशिक रूप से विच्छिन्न भी करता है। प्रत्यभिज्ञा में भाषा का अर्थ है सत्ता का प्रस्फुट रूप (वाक् या चिति); चिति एक स्पन्दमान सत्ता है और ‘प्र’ उपसर्ग चेतना की प्रवृत्ति । लकान भी भाषा को समग्रतः एक प्रतीकात्मक व्यवस्था के रूप में देखते हैं और उनका subject भाषा में व्यक्त, अपने सत्य से विभाजित, एक चेतन सत्ता है।
लकान के अनुसार, subject कभी भी अपना पूर्ण प्रतिनिधित्व नहीं करता है। वह केवल एक signifier (संकेतक) के द्वारा दूसरे signifier (संकेतक) के लिए प्रतिनिधित्व करता है। यही प्रमाता (Subject) के गठन में विच्छिन्नता (Alienation) और विभाजन (Separation) की जरूरी क्रिया का स्वरूप है जिसमें विच्छिन्नता प्रमाता के विखंडन अर्थात् उसके विभाजन से जुड़ी होती है । लकान ने अपने ‘मनोविश्लेषण की चार मूलभूत अवधारणाओं’ पर अपने सेमिनार में प्राणीसत्ता के अर्थ-गठन में विच्छिन्नता की भूमिका का जो एक नक्शा तैयार किया था, वह इस प्रकार है:
लकान इस स्केच में subject के being (प्राणीसत्ता) की संकल्पना को उसकी आंतरिक जैविक या ऐंद्रिक क्रियाशीलता से जोड़ते हैं, जबकि प्रमाता के रूप में उसका अर्थ विच्छिन्न हो कर किसी अन्य से जुड़ा होता है, जो उसके स्व के बाहर होता है । इस नक्शे में subject का संकेतक के रूप में लुप्त हो जाना मुख्य बात है । इस प्रकार, कह सकते हैं कि हमारी प्राणीसत्ता पर विच्छिन्नता से उत्पन्न संकेतक का ग्रहण, अर्थ की खोज के लिए चुकाई जाने वाली कीमत है ।
लकान की विच्छिन्नता संबंधी यह अवधारणा बहुत ही मौलिक और मूलगामी है जिस पर हम अपनी किताब ‘विच्छिन्नता’ में काफी विस्तार से चर्चा कर चुके हैं ।
प्रत्यभिज्ञा में भी प्रमाता स्वसंवित से उत्पन्न अवश्य है, पर अर्थ-गठन की प्रक्रिया से गुज़रे बिना प्रकट नहीं होता; वह हर विकल्पना में एक नया स्वरूप ग्रहण करता है, और इस प्रकार विभाजन और प्रवाह में बना रहता है। उसकी सत्ता विकल्पों के माध्यम से आभासित होती है और हर विकल्प का एक नया स्वरूप (प्रतिबिंब) होता है।
लकान इसीलिए उस लेखन को निरर्थक मानते हैं जो विषय को स्थिर कर दे; उनके लिए जीवित लेखन वह है जो subject को present continuous में रचता है, प्रकट करते हुए भी छिपाता है, और छिपाते हुए भी गति में रखता है। वह लेखन जो प्रमाता की उपस्थिति को पूर्णता में नहीं, बल्कि गतिशील रूप में रचता है, वह स्वयं भी एक विमर्शकारी प्रमाता होता है। और यदि कोई लेखन विषय की गतिशीलता को जड़ कर देता है, तो वह लेखन मृत प्रतीकों का कब्रगाह बन जाता है।
लकान ने अपने Encore में ‘to be’ क्रिया के किसी भी स्थिर प्रयोग को जोखिम भरा कहा है, क्योंकि यह भाषा की जीवित गति को एक ठहरे हुए “होने” में जकड़ देता है। वे लिखते हैं −
“Ontology is what highlighted in language the use of the copula, isolating it as a signifier… In order to exorcise it, it might perhaps suffice to suggest that when we say about anything whatsoever that it is what it is, nothing in any way obliges us to isolate the verb ‘to be’… In this use of the copula, we would see nothing whatsoever if a discourse, the discourse of the master, didn’t emphasize the verb ‘to be’.” (p. 33)
यह ‘होने’ (to be) के जड़ रूप के प्रति चेतावनी है, क्योंकि जब ‘to be’ को भाषा में अलग-थलग करके, स्थायी अस्तित्व के संकेतक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, तो वह subject की निरंतरता और प्रवाह को काट देता है।
इस संदर्भ में गंभीरता से गौर करने लायक बात है कि संस्कृत का ‘प्र’ उपसर्ग ‘होने’ (to be) की जकड़बंदी को तोड़ता है। वह दिशा और प्रस्फुटन का सूचक है ।प्रगति, प्रवचन, प्रज्ञा जैसे शब्दों में यह स्थिरता को प्रक्रिया में बदल देता है। यही वह स्वर है जो प्रमाता, प्रमाण और प्रमेय में समान रूप से गूँजता है, और यह बताता है कि ज्ञान का सार निष्क्रिय अवस्था में नहीं, बल्कि सतत आत्म-स्फुट क्रिया में है। चेतना जब ज्ञाता बनती है, वह प्रमाता है; जब जानने की शक्ति बनती है, वह प्रमाण है; और जब अपने ही प्रतिबिम्ब को वस्तु रूप में देखती है, वह प्रमेय है । और, इन तीनों में ‘प्र’ वही ध्वनि है जो विषय को स्थिर नहीं रहने देती, बल्कि निरंतर प्रवृत्त रखती है।
इस दृष्टि से ‘प्र’ केवल एक उपसर्ग नहीं, बल्कि भाषा में विषय को होते जाने की दिशा देने वाला नाद है। यह प्रत्यभिज्ञा के शिवस्वरूप प्रमाता और लकान के गतिशील subject, दोनों में एक साझा स्पन्दन पैदा करता है; स्थिरता को तोड़कर अर्थ और सत्ता को एक अंतहीन, जीवित प्रक्रिया में बदल देता है।
बहुत ही महत्वपूर्ण भाषा सम्बन्धी दुर्लभ ज्ञान प्रदायी आलेख,जिसे मनोयोग पूर्वक पढ़ने और समझने की आवश्यकता है।प्रेषित करने के लिये आपका हार्दिक आभार।
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जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक
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हटाएंएक महत्त्वपूर्ण और दुर्लभ लेख !
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