रविवार, 19 जनवरी 2025

इस कांग्रेस से वामपंथ के एक नए, गंभीर और अर्थपूर्ण संस्करण का उदय हो !

 (सीपीआई(एम) की 24वीं पार्टी कांग्रेस)

−अरुण माहेश्वरी



सीपीआई(एम) की 24वीं पार्टी कांग्रेस (मदुराई, 2-6 अप्रैल 2025) की प्रक्रिया पुरजोर शुरू हो चुकी है । कुछ राज्यों में तो स्थानीय सम्मेलनों के अलावा जिला इकाइयों और राज्य के सम्मेलन भी पूरे हो गए हैं । कुछ के होने की प्रक्रिया में हैं । पार्टी कांग्रेस के प्रारंभ के पहले सभी राज्यों के सम्मेलन पूरे हो जायेंगे । 

पार्टी कांग्रेस से वर्तमान परिस्थितियों के बारे में पार्टी की राजनीतिक समझ के पुनर्नवीकरण के अलावा संगठन का भी यथासंभव नवीकरण होता है । यह माना जाता है कि पार्टी के अंदर चलने वाली यह प्रक्रिया ही अंततः पार्टी के संगठन की क्रिया शक्ति का रूप लेती है । इस प्रक्रिया से पार्टी के लक्ष्य का प्रयोजन और स्पष्ट होता है जिससे उसकी इच्छा शक्ति उत्तरोत्तर बढ़ती हुई पूरी पार्टी की क्रिया शक्ति में परिणत होती है । जीवन के ठोस अनुभवों से चेतना अर्जित करके पार्टी के तात्कालिक और दूरगामी विचारधारात्मक लक्ष्यों की भी शिनाख्त होती है । क्रिया का अर्थ ही ज्ञान का विस्तार है । इसीलिए जाहिर है कि जो प्रक्रिया पार्टी की इच्छा शक्ति को क्रिया शक्ति में बदलती है, पार्टी के पूरे जीवन और उसकी सामाजिक भूमिका के लिए उस प्रक्रिया की स्वच्छता का असीम महत्व होता है ।   

किसी भी राजनीतिक दल के लिए उसका संगठन अगर उसका शरीर है तो उसकी विचारधारा उसकी आत्मा, आध्यात्म की भाषा में उसका परमार्थ रूप । 

संगठन कोई जड़ वस्तु नहीं होता । अगर इसे जड़ अर्थात् अचल मान लिया जाए तो उससे किसी भी काम की सिद्धि कैसे संभव होगी ? इससे तो उसकी आत्मा, अर्थात् विचारधारा भी जड़ हो जाएगी । विचारधारा को यदि हम स्व-प्रकाशतुल्य भी मान लें, अर्थात् उसे स्वयं में क्रियामूलक और अद्दम्य भी मान लिया जाए तब भी यह सवाल बना रह जाता है कि मृत संगठन के चलते उसका स्वरूप किस माध्यम से अपने को व्यक्त करेगा ? दर्शन की भाषा में कहें तो विचारधारा अर्थात् परमार्थ सृष्टि रूप होने के कारण ही किसी संगठन (प्रमाता) की आत्म-चेतना नहीं होती । वह तो संगठन की ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति के ऊपर आरूढ़ होती है । 

पार्टी कांग्रेस की पूरी प्रक्रिया का अर्थ होता है पार्टी के स्व-स्वरूप की पहचान, जिसे हमारे दर्शन की भाषा में प्रत्यभिज्ञा कहा जाता है । प्रत्यभिज्ञा, अर्थात् स्व-स्वरूप का वह ज्ञान जो पहले भी आभासित होता रहा और इस समय भी भासित हो रहा है । ‘पूर्वकाल एवं वर्तमान समय के काल का सम्प्रति वर्तमान से एकाकार होकर भासित होने का नाम प्रत्यभिज्ञा है’ । स्व-स्वरूप का यह काल-संबद्ध सटीक अभिज्ञान ही अन्य से आपके भेद का वास्तविक आधार बनता है । 

पार्टी कांग्रेस कम्युनिस्ट पार्टियों के लिए एक वैसे ही विमर्श को संभव बनाती है जिसमें इस कालावधि में पार्टी का जो स्वरूप सामने आया है उसका परिचय प्राप्त किया जाए । इस प्रक्रिया में राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय तमाम विषयों के आकलन से आगे उनमें अपनी क्रियाशीलता की संभावना का संधान किया जाता है । यह काम किसी पत्रकार की भांति महज राजनीतिक घटनाक्रमों के, अर्थात् यथार्थ के ब्यौरों मात्र से संभव नहीं हो सकता है । यथार्थ का विवरण भर हमेशा किसी चौखटे में बांध  दिये गए ‘ठोस यथार्थ’ की जड़ता से जुड़ी आधिभौतिकता को पैदा करता है । इसके बजाय विमर्श के लिए जरूरी होता है अनेक अर्थों की संभावनाओं को बनाने वाले सामान्यीकरण का खुलापन । इसीलिए माना जाता है कि ज्ञानमीमांसा में ठोस संदर्भ मीमांसा के प्रवाह को परिमित करके एक प्रकार से उसे बाधित ही करते हैं । 

सारी दुनिया में कम्युनिस्ट पार्टी के सिद्धांतकार नेताओं और सैद्धांतिक दस्तावेजों की मूल भूमिका ठोस संदर्भों से प्रारंभ करके उन सामान्यीकृत निदर्शनों की दिशा में विमर्शों को ले जाने की रही है, जिनका काल-सापेक्ष सार्विक महत्व होता है । विमर्शों से अर्जित इस ज्ञान से ही पार्टी किसी समग्र और परिमित राजनीतिक घटनाक्रम में भी अपना स्थान बनाने में सक्षम हो सकती है । 

कहने का तात्पर्य यह है कि ज्ञान और क्रिया ही जीवित प्राणियों का जीवन होता है । जड़ता का कोई भी रूप हमेशा प्रमाता के अर्थ प्रकाश की क्षमता को बाधित करेगा । इसीलिए जब पार्टी के कथित सैद्धांतिक दस्तावेज पत्रकारितामूलक, राजनीतिक घटनाओं के बीच तारतम्य के क्रमिक ब्यौरों की तरह के बन जाते हैं तब उनसे किसी वास्तविक विमर्श के पैदा होने की गुंजाइश नहीं रहती है । तभी पार्टी कांग्रेस की पूरी प्रक्रिया के एक भ्रामक कर्मकांड में बदल जाने का खतरा भी पैदा हो जाता है ।   

पार्टी कांग्रेस का वास्तविक अर्थ किसी भी मायने में कोरी खाना-पूर्ति नहीं हो सकता है । आज भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के सामने जिस प्रकार की अस्तित्व से जुड़ी चुनौतियां हैं, उस परिस्थिति में यह नितांत स्वाभाविक और अपेक्षित है कि पार्टी कांग्रेस की प्रक्रिया से पार्टी के अंदर से एक तीव्र विचाराधारात्मक संघर्ष आभासित हो । इसका गतानुगतिक रूप में, बिना किसी वैचारिक रक्तपात के गुजर जाना कभी भी अपेक्षित नहीं हो सकता है । 

अगर हम गहराई से देखें तो पायेंगे कि सीपीआई(एम) के सामने कमोबेस ऐसी ही चुनौतीपूर्ण स्थिति 21वीं (2015) की विशाखापटनम (आंध्र प्रदेश) कांग्रेस, 22वीं (2018) तेलंगाना (हैदराबाद) कांग्रेस और फिर 23वीं (2022) कन्नूर (केरल) कांग्रेस के वक्त भी रही थी । विशाखापटनम में ही पहली बार सीताराम येचुरी को पार्टी के महासचिव पद के लिए चुना गया था । तब से लेकर 23वीं अर्थात् कन्नूर कांग्रेस तक वे बार-बार इस पद के लिए चुने जाते रहें । पर गौर करने की बात है कि ऐसे हर मौके पर उनके चुनाव को लेकर पार्टी के अंदर से तीखी खींच-तान के समाचार आभासित होते रहे । सीताराम येचुरी का चुनाव कभी भी सहजता से न हो पाना जहां इस बात का गवाह था कि पार्टी में 2008 (जब सीपीएम यूपीए सरकार से निकल कर उसके खिलाफ उतर गई थी) से लेकर 2014 में नरेन्द्र मोदी की जीत के घटना क्रम के बाद एक आंतरिक वैचारिक तनाव विकसित हो रहा था, वहीं इस खास प्रकार के तनाव के लंबे काल तक लगातार बने रहने से यह भी जाहिर हुआ कि नेतृत्व में परिवर्तन के बावजूद सीपीआई(एम) को अपने अन्तर्द्वन्द्व के निदान का सही पथ नहीं मिल पाया है । इसके चलते ही सीपीआई(एम) एक गहरे गतिरोध की शिकार नजर आने लगी । तीखे तनावों के बाद प्रकाश करात की जगह महासचिव पद पर सीताराम येचुरी का आना सीपीआई(एम) के सामूहिक नेतृत्व के चरित्र में किसी परिवर्तन का हेतु नहीं बन पाया था । 

सीपीआई(एम) के नेतृत्व का जो प्रमुख तबका 1993 में ज्योति बसु को प्रधानमंत्री पद न स्वीकारने के लिए मजबूर करने की अपनी हठ के लिए केंद्रीय कमेटी में अपने बहुमत की शुद्ध पेशी शक्ति तक का प्रयोग करने का दोषी था, और वही तबका 2008 में अमेरिका से न्यूक्लियर समझौते के प्रश्न पर यूपीए सरकार से अपना समर्थन वापस ले लेने के अज्ञानतापूर्ण हठ और अहंकार के लिए जिम्मेदार था, वही तबका 2012 में पार्टी के नेतृत्व में परिवर्तन के बाद भी पोलिट ब्यूरो और केंद्रीय कमेटी पर अपने प्रभावी वर्चस्व को बनाये रखने में सफल रहा । फलतः 2012 से पार्टी में जिन नए विमर्शों के रास्ते खुलने की संभावना बनी थी, वह संभावना आज तक एक कोरी संभावना ही रह गई है, पार्टी की अपनी राजनीतिक-सांगठनिक संरचना पर उसका कोई वास्तविक असर दिखाई नहीं देता है । समय के प्रवाह के क्षय के साथ पार्टी क्रमशः और भी रसातल में जाती हुई दिखाई देती है । 

एक ऐसी परिस्थिति में, अब सीपीआई(एम) की इस 24वीं कांग्रेस के वक्त कुछ खास कारणों से हमें भारतीय वामपंथ के इस सबसे प्रमुख दल की संरचना और उसकी भूमिका में कुछ वास्तविक, नए परिवर्तनों की आशा के संकेत दिखाई देते हैं । इस आशा के पीछे भी खास राजनीतिक और सांगठनिक, दोनों कारण हैं । 

पहला, राजनीतिक कारण, यह है कि पिछले दस सालों के अनुभवों के बाद सीपीआई(एम) में अब इस बात को लेकर किसी प्रकार का कोई भ्रम नहीं रह गया है कि मोदी और आरएसएस के नेतृत्व की भारतीय जनता पार्टी शुद्ध रूप में एक सांप्रदायिक फासीवादी पार्टी है । 2014 के बाद कतिपय मौकों पर प्रकाश करात ने आरएसएस के बारे में अब तक के तमाम अध्ययनों की सचाई से इंकार करते हुए भाजपा और कांग्रेस के बीच नवउदारवाद के नाम पर  भ्रामक सादृश्यता की जो तस्वीर पेश करने की कोशिश की थी, वह समझ अब तक पूरी तरह से पिट चुकी है । इस विषय में उसमें कोई भ्रम शेष नहीं रहा है । 

दूसरा, सांगठनिक कारण, यह है कि पिछले दिनों सीपीआई(एम) ने अपने नेतृत्व के ऐसे तमाम लोगों को जिनकी उम्र 75 साल पूरी हो चुकी है, नेतृत्वकारी पदों से हटाने का निर्णय लिया था । अब उस निर्णय पर अमल से यह साफ नजर आता है कि इससे पार्टी के नेतृत्व की पूरी संरचना में भारी परिवर्तन अवश्यंभावी है । नेतृत्व में लंबे अरसे से जमे हुए ऐसे तमाम लोग, जो 1993 की ऐतिहासिक भूल और 2008 के अज्ञानतापूर्ण हठ के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार रहे हैं और जो 2012, 2015 और 2018 की कांग्रेस में बार-बार पराजित होने पर भी पार्टी पर अपना वर्चस्व बनाये रखने में सफल हुए हैं, उन सबकी इस कांग्रेस से एकमुश्त विदाई होना तय है । 

पार्टी की 24वीं कांग्रेस यदि अपने कांग्रेस की प्रक्रिया से पैदा होने वाले विमर्शों की शुद्धता को बनाये रखते हुए राजनीतिक लक्ष्यों के बारे में स्पष्टता के आधार पर अपनी आगे की कार्यनीति तय करती है और अपने सांगठनिक ताने-बाने के नवीकरण को बाधित नहीं होने देती है, तो हमारा मानना है कि इससे भारतीय वामपंथ के एक और नए, गंभीर, लचीले और जुझारू संस्करण का जन्म होगा । इस टिप्पणी में हमने ‘विमर्श की शुद्धता’ की बात पर बार-बार बल दिया है क्योंकि हम संगठन नामक जिस तंत्र को तैयार करके शक्ति अर्जित करते हैं, उसके गठन की प्रक्रिया में इतिहास में अक्सर ऐसी गलत प्रवृत्तियों की प्रबलता रही है, जिनसे यह तंत्र ही हमारे अभिष्ट के विरुद्ध असाधारण रूप से अपरिमित शक्ति हासिल कर लेते हैं । स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे की क्रांतिकारी जनवादी धारा के विकास से उत्पन्न समाजवाद ही स्वतंत्रता का दुश्मन बन जाता है । विमर्श की शुद्धता के बीच से ही वर्तमान कायरता का भी अंत होगा जो नए नेतृत्व को साहसपूर्ण फैसलों की शक्ति देगा; पराजितों की वर्चस्व की बेजा कोशिश को परास्त करेगा । 

बहरहाल, सीपीआई(एम) की 24वीं कांग्रेस के मध्य से भारतीय वामपंथ के राजनीतिक और सांगठनिक स्वरूप में बड़े परिवर्तनों की तमाम नई संभावनाओं को ही मद्देनजर रखते हुए, आज जब पार्टी कांग्रेस की प्रक्रिया शुरू हो गई है, हम 24वीं कांग्रेस का स्वागत करते हैं और तहे दिल से इसकी सफलता की कामना करते हैं।          


बुधवार, 25 दिसंबर 2024

इसराइल साहब की स्मृति में:

 


आज 26 दिसंबर । पूरे 23 साल पहले, 26 दिसंबर 2001 के दिन इसराइल साहब का देहांत हुआ था । तब मैं काम के सिलसिले में कनाडा में था । खबर मिलते ही कोलकाता के लिए रवाना हुआ और किसी प्रकार 27 दिसंबर को उनको दफनाने के अंतिम कामों में उपस्थित रह सका ।

जाहिर है कि तब से अब तक लगभग एक चौथाई सदी बीतने वाली है । गंगा से बहुत सारा पानी बह चुका है । पर इसराइल साहब के खयाल से यही लगता है कि अगर समय को मापने के लिए हमारे पास तिथियों का औजार न होता तो यह बहुत सारा बहता हुआ पानी भी बर्फ की तरह जमा हुआ ही प्रतीत होता । स्मृतियों से ज्ञान की कुछ टपकी हुई बूंदे ही घटनाओं के रूप में जीवन के प्रमाण स्वरूप होती । 

सचमुच, लंबे अंतराल के बाद भी इसराइल साहब की स्मृतियां जीवन के ऐसे अवभास सी बनी हुई है जिसमें हम आज भी अपने तमाम रूपों का अनुभव करते हैं । घड़ी की सूईं की यह अटकन ही चेतना का प्रत्यवमर्श है जो बार-बार अपनी ही ओर लौटकर स्वयं को पहचानती है । इसराइल साहब हमारे स्वयं के लिए वैसे ही एक संदर्भ बिंदु हैं ।

बहरहाल, आज उन्हें विशेष रूप से याद करने की बड़ी वजह यह है कि ‘वांग्मय’ पत्रिका के संपादक, अलीगढ़ निवासी डा. फिरोज खान ने, जिन्होंने कुछ महीनों पहले इसराइल साहब पर अपनी पत्रिका का एक विशेषांक प्रकाशित किया था और उन पर प्रकाशित लेखों का एक संकलन ‘जनवादी कथाकार इसराइल का रचना संसार’ भी निकाला था, अब अपने संपादन में कानपुर के विकास प्रकाशन से ‘इसराइल कथा समग्र’ प्रकाशित कराया है । यह कथा-समग्र शायद अब तक बाजार में आ चुका होगा । इसराइल साहब के साहित्य पर भारी महत्व के इन कामों के लिए डा. फिरोज खान के प्रति जितना भी आभार प्रकट किया जाएं, कम होगा । 

प्रसंगवश, डा. खान के अनुरोध पर इस ‘कथा समग्र’ की हमने जो भूमिका लिखी है, उसे यहां इसराइल साहब की स्मृतियों में श्रद्धांजलि स्वरूप मित्रों के साथ साझा कर रहा हूँ: 


भूमिका

‘ईश्वरीय स्पर्श’

गाब्रिअल गार्सिया मार्केस के उपन्यास ‘वन हन्ड्रेड ईयर्स आफ सालिच्यूड’ (एकान्त के सौ वर्ष) को जिन्होंने भी पढ़ा है वे उसके उस प्रारंभ को कभी नहीं भूल पाते हैं जो किसी चुंबक की तरह पाठक को तत्काल उस जीवन के अजीबोगरीब रहस्यों के पाश में बांध लेता है । उपन्यास के एक केंद्रीय चरित्र कर्नल ओरलियानी बुएनदीया की स्मृतियों की छाया से बुना गया रहस्यों का वह तानाबाना न जाने कितने सालों पहले के उस प्रागैतिहासिक युग की चर्चा से शुरू होता है जब मार्केस के शब्दों में  ‘कई चीजों का नाम तक नहीं पड़ा था’, तब ओरलियानी के पिता को बंजारों ने बर्फ से परिचित कराया था । ओरलियानी के माकोन्दी गांव में तब हर साल मार्च के महीने में बंजारों के परिवार डेरा डाला करते थे । उन्होंने सबसे पहले लोगों को चुंबक दिखा कर विस्मित किया जिसके बारे में मार्केस लिखते हैं कि उसके घरों में प्रवेश से धातु के बर्तन-भांडे भड़भड़ा कर लुढ़कने लगते थे । यहां तक कि “लकड़ी की कड़ियाँ कीलों और पेंचों के उखड़ पड़ने की कसक के साथ चरमराने लगती थी । बहुत अर्से से खोई हुई चीजें ठीक वहीं से अवतरित होने लगी जहाँ उन्हें सबसे अधिक ढूँढ़ा गया था”। इस प्रकार, यथार्थ को किसी मैग्निफाइंग ग्लास से देखने की इस सर्रियलिस्ट पद्धति को ही उपन्यास की जादूई यथार्थवादी शैली कहा जाता है । किसी अपरिचित संसार के साक्षात्कार से विस्फारित आँखों से देखा गया यथार्थ । अज्ञात के स्वरूप की अनुपातहीन विस्मयकारी तस्वीर। 

“चीजों में अपनी खुद की जान होती है”, बंजारे ने कर्कश स्वर में ऐलान किया, “बस आत्मा को जगाने भर की बात है ।”

आज लगभग चौथाई सदी पहले हमसे बिछुड़ चुके इसराइल साहब की कहानियों की प्रस्तावना के वक्त उनके कथाकार व्यक्तित्व की सारी यादें हमें कुछ वैसे ही आदिम विस्मय के भाव से भर देती है । मार्केस के ‘एकान्त के सौ साल’ का पूरा आख्यान ही हमारे सामने एक ऐसे रूपक की तरह आता है जो हर रोज अपने जाने हुए जीवन के ही अज्ञात, बल्कि खोए हुए पहलुओं से किसी ‘परासत्य’ के आभास की तरह परिचित कराके अवाक करने के संकेत देता है ।   

इसराइल साहब के पास वास्तविक जीवन में जितनी कहानियां हुआ करती थी, उनकी तुलना में उन्होंने बहुत कम लिखा था । जैसा कि इस समग्र से जाहिर है, कुल जमा पचीस कहानियाँ और एक उपन्यास । वे हमारे परिवार के सदस्य थे । लगभग पैतींस सालों तक उनका हमारे घर नियमित आना-जाना था । इर्द-गिर्द के तमाम चरित्रों के विश्लेषण की उनकी अद्भुत क्षमता के चलते ही उनके साथ हमारी गप्पों का कभी कोई अंत नहीं होता था । मैं अपने कारखाने से हर शाम सीधे पार्टी आफिस में ‘स्वाधीनता’ के दफ्तर पहुँचता और वहीं से गप्प का जो सिलसिला शुरू होता, शाम आठ-साढ़े आठ बजे पार्टी आफिस से निकल कर हम तीनों सीधे पार्क स्ट्रीट के अपने घर पहुँच जाते और वहां से रात के दस बजे के पहले इसराइल साहब नहीं लौटा करते थे । मजाक में हमारी मां उन्हें सरला की सौतन कहा करती थी । 

बहरहाल, उन्होंने कम लिखा लेकिन जितना और जब भी लिखा, उसने अपने समय के पाठकों को अनोखे विस्मय से भर दिया । उनकी कहानियाँ हिंदी के कथा जगत के अधूरे संकेतनों से भरे अंधेरे में एक बिल्कुल नए संकेतक की कौंध की तरह आया करती थी। वे जैसे एक अन्य जगत के अवचेतन की कहानी कह रहे होते थे । वे उन जगहों से अपनी कहानियाँ उठाते थे जो अन्य ‘प्रतिबद्ध’ माने जाने वाले लेखकों के लिए भी उनकी इच्छा और वास्तविक क्रिया के बीच के फ़र्क़ की जगह होती थी । हम जो कहना चाहते हैं और जो कहते हैं, उसमें जो फ़र्क़ की ज़मीन होती है, वह प्रमाता के अवचेतन की ज़मीन होती है । इसराइल की कहानियाँ मज़दूर जीवन की इसी अप्रकाशित जमीन को प्रकाशित किया करती थी ।   

दुनिया में जैसे गोर्की, लू शुन और प्रेमचंद ने क्रमशः मजदूरों, गरीब दुखीजनों और किसानों की कहानियाँ कह कर विश्व कथा जगत में मेहनतकशों और वंचितों के उपेक्षित कोनों को रोशन किया था, कुछ वैसे ही चंद कहानियों और एक उपन्यास के अपने सीमित परिसर से इसराइल ने भी उन मजदूरों की कहानियां कह कर अपने समय के हिंदी के कथा जगत पर अपना सिक्का जमा लिया था जिन्होंने कोलकाता की चटकलों के सामंती सरदारों से स्वतंत्र एक संगठित वर्गीय चेतना की दिशा में अभी छोटे-छोटे कदम बढ़ाने शुरू ही किए थे और जो हर रोज अपने जीवन में विक्षोभ से उत्पन्न विक्षिप्तता की अद्भुत कहानियां पैदा करते थे । कहना न होगा, इसराइल के जरिये भारत में औद्योगिक पूँजी के एक सबसे प्रारंभिक स्रोत चटकलों के मज़दूर इलाक़ों में पूँजी की ग़ुलामी और आदमी की स्वतंत्रता के बीच के आदिम द्वंद्व, बेबस मज़दूर और अपनी मर्ज़ी के मालिक मनुष्य के मूलभूत अन्तर्द्वन्द्व को वाणी मिली थी । 


इसराइल ने किसी बुद्धिमान ट्रेडयूनियन नेता, या मजदूरों की लड़ाई के नायक की कहानी नहीं लिखी, पर उन्होंने ट्रेडयूनियनों के गठन से आम मजदूरों के जीवन में पैदा होने वाली हलचल और उससे उत्पन्न विक्षोभ और विक्षिप्तता के उन नाना रूपों की कहानियां लिखी जिन्हें वर्ग-चेतन समाजवादी यथार्थवाद के कोरे सैद्धांतिक सूत्रों से क़तई हासिल नहीं किया जा सकता था । इसराइल के चरित्रों का संसार क्षोभ की उस शुद्ध अति के नकारात्मक भाव का जगत था जो लक्ष्यहीन होने पर भी यथास्थिति का उग्र विरोधी था । वह जीने के फ्रायडियन ‘आनंद सिद्धांत’ से मुक्त एक ऐसा दरकता हुआ अस्थिर जगत था जिसकी दरारों से ही सतह के नीचे के बदलावों की झलक मिला करती है । इसराइल के उपन्यास ‘रोशन’ को केंद्र में रख कर इस लेखक ने विक्षोभ से जुड़े मनुष्य के उल्लासोद्वेलन (jouissance) के तत्व पर एक पूरी पुस्तिका ही लिखी है – विक्षोभ ।  

जब इसराइल लिख रहे थे, ’60 से ’90 के दशक तक का वह काल देश में वामपंथी-जनवादी आंदोलन के व्यापक उभार का काल था । समाजवादी विश्व कायम था और भारत की फ़िज़ा भी भूमि संघर्ष और वर्ग संघर्ष की गूँज से भरी हुई थी । साहित्य में यथार्थवाद − आलोचनात्मक यथार्थवाद – समाजवादी यथार्थवाद की कसौटियों की धूम थी । कहानियों में मजदूरों, किसानों, आम आदमी, सामान्य आदमी आदि की कमी नहीं थी । ऐसे समय में इसराइल के मजदूर की खूबी यह थी कि वे सर्वनाम की तरह किसी सुपरिभाषित समूह की श्रेणी में नहीं पड़ते थे । वे कोलकाता के निकटवर्ती चटकलों के मजदूर इलाकों के धूल-धुएँ से भरे समग्र जीवन के खास जीव थे, जो श्रमजीवी थे, तो श्रमिकों के बीच ही जीने वाले श्रम के अवसरों से वंचित कर दिये गये बेजुबान परजीवी भी थे; विक्षिप्त समाज-विरोधी, नीचे की सतह के ‘जान मराई’ जैसे अजीब किस्म के पेशों से जुड़े समूह का हिस्सा थे, तो किसी भी अन्य की उपस्थिति से बेखबर, अपनी ही धुन में रमा हुआ शुद्ध प्रेमी, अन्य के प्रति उन्मुख न रहने के कारण स्वतंत्र पर अनंत अभिलाषाओं से भरे सर्वहारा के मुक्त भाव से दूर, इच्छाओं के अंत से पूरित संसार के प्राणी थे । इसीलिए इसराइल के चरित्रों का किसी नेता या नायक के रूप में उत्तरण नहीं होता; न वह मन मसोस कर जीता है और न किसी उच्च अभिलाषा के साथ जीता है । 

इसराइल खुद कोलकाता के निकटवर्ती उत्तर 24 परगना के कांकीनाड़ा में चटकल मज़दूर थे । पढ़ने-लिखने के उनके रुझान को देख कर ही चटकलों के प्रसिद्ध मज़दूर नेता निरेन घोष, कमल सरकार ने उन्हें भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) (सीपीआईएम) के मुखपत्र ‘स्वाधीनता’ का पूरावक्ती कार्यकर्ता बना दिया । 1964 में तब संयुक्त कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन के बाद सीपीआई(एम) का गठन हुआ ही था । ‘स्वाधीनता’ संयुक्त पार्टी का हिंदी मुखपत्र था जिस पर पार्टी के विभाजन के बाद सीपीआई(एम) का अधिकार क़ायम हो गया था । ‘स्वाधीनता’ से जुड़ कर ही इसराइल का कथाकार परवान चढ़ा था । यही वह केंद्र था जहां से वे अनायास ही राजनीति और साहित्य के अखिल भारतीय विमर्शों के बीच में आ गए थे । 

वह समय बंगाल में सीपीआई(एम) के नेतृत्व में बड़े-बड़े आंदोलनों और पार्टी के तीव्र विस्तार का समय था । पूरे भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के अंदर जो नया और गहरा विचाधारात्मक विमर्श शुरू हुआ था, कोलकाता उसके केंद्र में था । कोलकाता में ही सीपीआई (एम) की केंद्रीय कमेटी का दफ़्तर था और ‘स्वाधीनता’ केंद्र कमेटी का मुखपत्र । यही वजह है कि लेखन के मामले में इसराइल को शायद ही कभी किसी प्रकार के स्थानीयतावाद की समस्या का सामना करना पड़ा हो । कोलकाता में रहने के बावजूद साठोत्तरी पीढ़ी, भूखी पीढ़ी श्मशानी पीढ़ी, अकविता, अकहानी की तरह के साहित्य के नित नए फ़ैशन की ओर उन्होंने कभी झांक कर देखने की भी ज़रूरत नहीं महसूस की । किताबों के ज़रिए हिंदी और बांग्ला के श्रेष्ठ कथा साहित्य से तो उनका परिचय था ही, ‘स्वाधीनता’ कार्यालय ने उन्हें हिंदी के स्थानीय वामपंथी लेखकों के साथ ही उस समय के हिंदी के वामपंथी रुझान के तमाम राष्ट्रव्यापी बड़े लेखकों, आलोचकों  और श्रेष्ठ संपादकों के संपर्क में ला दिया । इसराइल की कहानियाँ बिल्कुल शुरू से ही भैरव प्रसाद गुप्त, श्रीपत राय, मार्कण्डेय और चन्द्रभूषण तिवारी जैसे अपने समय के दक्काक संपादकों की पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थी । उनकी हर कहानी पर खूब चर्चा होती थी और इस प्रकार शुरू से ही उनका लेखन हिंदी कहानी के एक नए मयार के रूप में नजर आने लगा था । उनके कथ्य और लेखन को बड़े-बड़े संपादकों ने संवारा था जिनसे उनके सामने खुद के लेखन के ही हमेशा बेहद ऊँचे मानदंडों की चुनौती उपस्थित रहती थी । इसी वजह से उन्होंने बहुत कम लिखा पर जो भी लिखा, मज़दूर बस्तियों के उनके निजी यथार्थ के साथ साहित्य के ऊँचे मानदंडों के योग ने उनके लेखन को वह सौष्ठव प्रदान किया जो किसी भी दूसरे कथाकार के लिए रश्क का विषय हो सकता है । सचमुच इसराइल साहब की कहानियाँ कथ्य और शिल्प से जुड़े तमाम कारणों से आज भी मध्यवर्ग के लेखकों की जमात के लिए किसी जलते हुए अंगारे से कम नहीं हैं जिन्हें पकड़ने की कोशिश में वे सिर्फ अपना हाथ जला सकते हैं, हासिल कुछ नहीं कर सकते । वे उनके लिए एक बिल्कुल दूसरे जगत से पैदा हुई कुछ वैसे ही विस्मय की कहानियाँ हैं, जिसका ज़िक्र हमने यहाँ मार्केस के लेखन की सर्रियलिस्ट शैली के संदर्भ में किया हैं । 

इसराइल विपरीत से विपरीत हालात में भी एक अदने से आदमी के ज़िन्दा होने के संकेतों के रचनाकार थे । चटकलों की तरह के मजदूर इलाकों के चरित्रों की ऐसी असली कहानी कहना उन मध्यवर्गीय लेखकों के बूते में नहीं हो सकता हैं जिनका हिंदी कथा साहित्य पर हमेशा से वर्चस्व बना हुआ है । व्यापक अर्थ में इसराइल हमें तीसरी दुनिया के अभिशप्त मजदूरों की बस्तियों के विचित्र चरित्रों के रहस्यों के एक अनूठे कथाकार दिखाई देते हैं ।

मार्केस ने जो कहा था कि “चीजों में अपनी खुद की जान होती है, बस आत्मा को जगाने भर की बात है”, इसराइल ने अपनी कहानियों के स्पर्श से मजदूर बस्तियों के उसी ‘अहिल्या’ पत्थर को जगाने का काम किया है । और जिस स्पर्श से पत्थर बोलने लगे, वही ईश्वरीय स्पर्श कहलाता है – एक स्फूरित सत्ता वाला स्थिति रूप, जो अनेक प्रकार की सृष्टि की संभावनाओं से भरा होता है । 

पिछले दिनों डा. एम. फ़िरोज़ खान साहब ने अपनी त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका ‘वांग्मय’ का इसराइल पर केन्द्रित एक शानदार विशेषांक प्रकाशित किया था । अब उन्होंने ही इस इसराइल समग्र के प्रकाशन का बीड़ा उठाया है । हिन्दी साहित्य के लिए उनकी इस सेवा की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। हम तो उनके इस कार्य के लिए व्यक्तिगत रूप से उनके आभारी है।  हमारा विश्वास है कि इस समग्र की प्रस्तावना में हमने यहाँ जो लिखा है, इसराइल की रचनाओं को पढ़ कर किसी को भी इसमें अतिशयोक्ति का लेश मात्र नज़र नहीं आयेगा । इसराइल की पुनर्खोज हिन्दी के समग्र कथा जगत के लिए अपनी ही पुनर्खोज से कम बड़ा अनुभव साबित नहीं होगा । 


28.10.2024.                                                                                        अरुण माहेश्वरी      


शनिवार, 7 दिसंबर 2024

“जॉक लकान या जॉक लकां !” प्रसंग

 — अरुण माहेश्वरी 

(“जॉक लकान या जॉक लकां !” इसी शीर्षक से फेसबुक की अपनी वॉल पर हमने एक पोस्ट लगाई जिस पर हुई चर्चा को हम यहां अपने ब्लाग पर एक स्वतंत्र  टिप्पणी के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं:) 


हिन्दी में अकारण ही यह फैशन चल पड़ा है कि Jacques Lacan को  जॉक लकां लिखा जाए । 

सब जानते हैं कि जॉक लकान फ्रांसीसी मनोविश्लेषक हुए हैं । फ्रांसीसी उच्चारण Jacques का उच्चारण "जॉक" जैसा होता है। इसमें "s" मूक होता है। और Lacan का उच्चारण "लकान" के करीब होता है, जहाँ "n" बहुत हल्की और एक नाक से उच्चारित ध्वनि देता है।

उर्दू में "दुकान" को "दुकां" और "मकान" को "मकां" कहना स्वाभाविक है क्योंकि उर्दू की ध्वनियों में अनुनासिक ध्वनि (नासिक्य प्रभाव) का प्रभाव अक्सर अनुस्वार (ं) के रूप में या "न" को हल्का उच्चारित करके दिया जाता है। यह उर्दू भाषा शैली का हिस्सा है। पर हिंदी में, संस्कृत और तत्सम शब्दों के प्रभाव के कारण, पूर्ण "न" या "ण" का उच्चारण अधिक स्वाभाविक और मानक माना जाता है। अनुस्वार (ं) केवल नासिक्य प्रभाव देता है, वर्ण का स्पष्ट उच्चारण नहीं करता।

इसलिए, "जॉक लकान" लिखना न केवल सही है बल्कि यह फ्रांसीसी उच्चारण के भी काफी करीब है। कुछ लोग इसे अंग्रेज़ी उच्चारण या अन्य प्रभावों के कारण "जैक्स लैकेन" या "जैक लैकेन" कह सकते हैं, और उर्दू की भाषा शैली के मुताबिक जॉक लकां भी कह सकते हैं । "लकां" कहना उर्दू प्रभाव या अनौपचारिक उच्चारण के कारण हो सकता है, लेकिन यह फ्रांसीसी मूल उच्चारण से मेल नहीं खाता। सटीकता के लिए "लकान" ही लिखा जाना चाहिए । 

दरअसल, विदेशी भाषाओं के नामों को हिंदी या किसी भी भाषा में अपनाने के लिए सिर्फ उनका मूल उच्चारण ही पर्याप्त नहीं है। मूल उच्चारण के अलावा, हिंदी भाषा या अन्य भाषा, जिसमें उसे आयातित करना है उसकी ध्वन्यात्मक प्रकृति, लिप्यंतरण की परंपरा, और समझने में सरलता जैसे पहलुओं को भी ध्यान में रखना आवश्यक होता है।

यूट्यूब के अनुसार तो Jacques Lacan का फ्रांसीसी उच्चारण "जैक लैकों" (या "झाक लाकॉ") जैसा है। फ्रेंच में "Jacques" का उच्चारण "झाक" के करीब है। "Lacan" का उच्चारण "लाकॉ" जैसा है, जिसमें "n" एक नासिक्य स्वर में बदल जाता है।

पर आगे का असल मामला इसके हिंदी या आयात की भाषा में ध्वन्यात्मक अनुकूलन और सहजता तथा सुगमता का हो जाता है । जहां तक हिंदी का सवाल है, उसकी ध्वनियों में "झाक" जैसी ध्वनि स्वाभाविक नहीं लगती। "जॉक" हिंदी-भाषियों के लिए अधिक सरल और स्पष्ट है। "लाकॉ" जैसे नासिक्य स्वर को भी पूरी तरह से हिंदी में लाना कठिन है। इसलिए हमने इसे "लकान" जैसा रूप दिया, जो हिंदी-भाषियों के लिए उच्चारण में सहज है। नामों को हिंदी में अपनाने के लिए जो विचारणीय पहलू हो सकते हैं, उनमें पहली बात है − भाषाई प्रकृति । हिंदी में उच्चारण के लिए एक स्पष्ट वर्णमाला और ध्वनि-समृद्धि है। सब विदेशी ध्वनियों को हिंदी में पूरी तरह लाना संभव नहीं होता है। जैसे, फ्रेंच के नासिक्य स्वर को हिंदी में अक्षर-आधारित ध्वनियों में रूपांतरित करना पड़ता है जो हूबहू संभव नहीं है ।

इसका दूसरा पहलू है सांस्कृतिक अनुकूलन का पहलू । इसके अनुसार नामों का ऐसा रूप चुना जाता है, जो हिंदी-भाषियों के लिए सांस्कृतिक रूप से स्वाभाविक और सहज रूप से उच्चारणीय हो। इसी आधार पर जर्मन "Karl Marx" को "कार्ल मार्क्स" लिखा जाता है, क्योंकि यह हिंदी की ध्वनि संरचना में फिट बैठता है।

और तीसरा महत्वपूर्ण पहलू है − लिप्यंतरण के मानकीकरण का पहलू । हिंदी में विदेशी नामों का लिप्यंतरण अक्सर अंग्रेज़ी के माध्यम से होता है, जो कभी-कभी मूल उच्चारण से थोड़ा अलग हो सकता है। इस सच से इंकार नहीं किया जा सकता है कि हिंदी में नामों को लिखते समय अक्सर अंग्रेज़ी की वर्तनी या ध्वनि का असर देखा जाता है। इस लिहाज से "Jacques" का अंग्रेज़ी प्रभाव "जॉक" है, जबकि "Lacan" को हिंदी में "लकान" रखा गया।

इसमें एक सामान्य समझ का पहलू भी कम महत्वपूर्ण नहीं है । हमेशा लिप्यंतरण ऐसा होना चाहिए, जो हिंदी-भाषी या आयातित भाषा के पाठकों के लिए नाम को समझने और पहचानने में मदद करे। अगर नाम को बिल्कुल मूल उच्चारण में रखा जाए, तो वह कई बार हिंदी में अजीब या कठिन लगता है। अंग्रेजी में तमाम नामों के लिप्यांतरण में हम जो ‘त्रुटियां’ देखते हैं, वे अकारण नहीं है ।  

इन सब आधारों पर हिंदी में Jacques Lacan की व्याख्या करने के लिए भी पहला पहलू है मूल उच्चारण के करीब रहना । इस लिहाज से भी हिंदी में "जॉक लकान" फ्रांसीसी उच्चारण का अनुकूलन है। यह "झाक लाकॉ" के बहुत करीब नहीं होने पर भी यथासंभव हिंदी के ध्वनि-तंत्र के अनुकूल है । फिर आती है भाषाई और सांस्कृतिक व्यावहारिकता की बात । हिंदी-भाषी "जॉक" और "लकान" को सरलता से पढ़ और उच्चारित कर सकते हैं। "झाक लाकॉ" हिंदी के लिए असहज और अनजान लगेगा। हिंदी में विदेशी नामों को लिप्यंतरित करने का चलन सरलता और पहचान के आधार पर ही होना चाहिए । यह हमेशा मूल उच्चारण की पूर्ण नकल नहीं करता। 

यह हिंदी लिप्यंतरण की परंपरा का पालन करता है, जो सरलता और पहचान को प्राथमिकता देती है। यदि पूर्ण फ्रांसीसी सटीकता चाहिए तो इसे "झाक लाकॉ" लिखना चाहिए, लेकिन हिंदी में यह रूप व्यावहारिक नहीं है। "जॉक लकान" इसलिए हिंदी और फ्रांसीसी दोनों के बीच का एक सही संतुलन है।

अब सवाल उठता है कि क्या लकां, लकॉ अथवा लकॉं जैसे शब्दों के प्रयोग की हिंदी या संस्कृत में कोई परंपरा ही नहीं है ? हमारे एक मित्र ने ऋग्वेद में महान के लिए प्रयुक्त महॉं शब्द का उल्लेख किया – 

“महाँ -ब्रह्मा च गिरो दधिरे समस्मिन् महाँश्च स्तोमो अधि वर्धदिन्द्रे ।। 6.38.3

इन्द्रो महाँ सिन्धुमाशयानं मायाविनं वृत्रमस्फुरन्नि...”

यह सही है कि संस्कृत में "महाँ" का प्रयोग निश्चित रूप से हुआ है, जैसा कि ऋग्वेद के इस उदाहरण से ही साफ है। पर गौर करने की बात यह है कि ऋग्वेद, सामवेद और अन्य वैदिक ग्रंथों में "महाँ" जैसे शब्द रूप छंद योजना, सौष्ठव, और ध्वनि-सौंदर्य के लिए ही प्रयुक्त हुए हैं। ऐसे प्रयोग वैदिक संस्कृत के एक विशेष लचीलेपन को दर्शाते हैं, जहाँ छंद और ध्वनि की सुंदरता को प्राथमिकता दी गई थी। "महाँ" का उपयोग छंद में मात्राओं और तालमेल को बनाए रखने के लिए किया गया था। छंदों में यह बदलाव ध्वनि के प्रवाह को बनाए रखने के लिए भी होता था। सौष्ठव भी एक कारण था। वैदिक ऋचाओं में शब्दों का लयात्मकता और गेयता के लिए चयन महत्वपूर्ण था ।

पर वैदिक संस्कृत और पाणिनीय संस्कृत (क्लासिकल संस्कृत) के बीच एक बड़ा अंतर यह है कि पाणिनि और अन्य व्याकरणाचार्यों ने भाषा के व्याकरणीय नियमों को मानकीकृत किया। "महाँ" एक छंद-सापेक्ष रूप है । उन्होंने "महान" को प्राथमिकता दी, क्योंकि यह व्याकरण और शब्द-रूपों में एकरूपता लाने के उद्देश्य से अधिक संगत था। संस्कृत में भाषाई शुद्धता और एकरूपता का आग्रह वैदिक काल के बाद बहुत बढ़ गया। इस आग्रह ने भाषा को स्थायित्व और एक संरचना दी, जिससे लिखित और औपचारिक उपयोग में एकरूपता आई।

"महाँ" जैसे वैकल्पिक रूप को गद्य, तर्क, और दर्शन की भाषा में इनकी "अनियमितता” के कारण ही अनुपयुक्त माना गया । भाषा की ध्वनि परंपरा और संस्कृति का निर्माण व्याकरण और उपयोग के सामंजस्य से होता है। संस्कृत में "महान" जैसे मानक रूप को प्राथमिकता देने का उद्देश्य भाषा की सुसंगतता और सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखना था। यह ध्वनि और संरचना के अनुशासन का हिस्सा है, जो संस्कृत भाषा की अद्वितीय विशेषता है। भाषा की मानकता और व्याकरणिक अनुशासन उसकी सांस्कृतिक और ध्वनि परंपरा का निर्माण करते हैं। इसकी बदौलत भी संस्कृत सहस्राब्दियों तक संरक्षित रह सकी। यह ‘एकरूपता का आग्रह’ ही संस्कृत भाषा की ध्वनि परंपरा और संस्कृति का निर्माण करता है।

बहरहाल, इस विस्तृत चर्चा के बाद भी हिंदी के बौद्धिकों का पीछा लकां छोड़ देगा, यह मानने का कोई कारण नहीं है । अवचेतन में बैठा ऐलिटिज्म उच्चारणों से भी अनायास ही व्यक्त होता है । 


गुरुवार, 21 नवंबर 2024

रूपक कैसे बनते हैं !

−अरुण माहेश्वरी




आज के ‘टेलिग्राफ’ में रविवार के खास पन्ने ‘इनसाइट’ में एक दिलचस्प रिपोर्ताज है – A House for Bygone (व्यतीत का घर) । इसकी लेखिका अनुसूया बसु ने कोलकाता के बालीगंज इलाके के गरियाहाट, फर्न रोड, बालीगंज गार्डेन्स आदि पर बने हुए कुछ पुराने घरों के नामों को देख कर उन्हें इस रिपोर्ताज का विषय बनाया है । 

मसलन् बालीगंज सर्कुलर रोड पर एक तिमंजिला पुराना मकान है जिसके साथ बड़े करीने से एक आम के पेड़ के साथ एक बगीचा और बरामदा है । इस मकान का नाम है – सुचारु । शादी के बाद से वहां रह रही परमिता गुप्ता ने अनुसूया को बताया कि यह मकान 1970 में उसके ससुर जिवांशु मोहन गुप्ता ने बनाया था । इसका नाम ‘सुचारु’ उन्होंने अपनी मां के नाम पर रखा था । मकान के बाहर के नाम-पट पर उनके ससुर की अपनी लिखावट में ही ‘सुचारु’ लिखा हुआ है । 

इसी सड़क पर आगे सुचारु की तरह ही एक मकान है ‘ब्रजनंदिनी’ । इस मकान में इतिहासकार वरुण डे रहते थे । इससे सटा हुआ हूबहू वैसा ही एक मकान है जिस पर कोई नाम नहीं है । वरुण डे की बेटी उर्मीला ने अनुसूया को बताया कि उनके दादा बसंत कुमार डे और चक्रवर्ती नाम के उनके एक मित्र ने मिल कर 20 कट्ठे की यह जमीन गौरीपुर के जमींदार ब्रजेन्द्र किशोर रायचौधरी से खरीदी थी । दोनों मित्रों ने इस जमीन पर एक जैसे दो घर बनाये और उन्होंने तय किया था कि वे इन दोनों के बीच कोई दीवार नहीं बनायेंगे। बसंत कुमार ने जमींदार ब्रजेन्द्रनाथ और नगेन्द्र नंदिनी के सम्मान में इस घर का नाम ब्रजनंदिनी रख दिया । 

उर्मीला ने अनुसूया को बताया कि कैसे उनका बचपन इस घर के आंगन में उत्पात मचाते हुए खेलते-कूदते बीता था । बाद में दूसरा घर बिक जाने से दो मकानों के बीच दीवार खड़ी हो गई है, पर नाम का पट सिर्फ एक मकान के साथ रह गया है। 

इसी प्रकार अनुसूया ने बेहाला में सुमन गांगुली के एक घर का जिक्र किया है जिसका नाम है – कींकर्तव्यविमूढ़ । गांगुली ने अनुसूया को बताया कि इस घर का यह विचित्र सा नाम उनकी पत्नी ने रखा था । यह घर उनके लिए शुभ भी नहीं रहा। पत्नी का देहांत हो गया, परिवार के सब लोग बिखर गए । अब वे इसे बेच देने की फिराक में है । इस मकान की देख-रेख करना मरीन इंजीनियर गांगुली के वश में नहीं है।

इसी संदर्भ में अनुसूया बताती है कि एक कंसलटेंट स्टेटिशियन महुआ सेन के  शांतिनिकेतन के घर का भी यही नाम है – कींकर्तव्यविमूढ़ । महुआ ने उसे बताया था कि घर बना लेने के बाद लोगों ने कहा कि वहां की जमीन काफी बालूई है । इसके कारण वह मकान कभी भी गिर सकता है । लेकिन मकान बन चुका था । अब उसके पास दूसरा कोई चारा नहीं था । इसीलिए उसने मकान का नाम रख दिया – कींकर्तव्यविमूढ़ । 

अनुसूया लिखती है कि महुआ की दादी की अपनी चीजों को एक अलग नाम देने की खास फितरत थी। वे अपने चश्मे को दृष्टिनंदन कहती थी, छाते को मालती । महुआ ने खुद जब कोलकाता के नागेर बाजार में अपना फ्लैट लिया तो दादी की परंपरा में ही उसने उसका नाम दिया – प्रत्युत्पन्नमति, अर्थात् हाजिर बुद्धि, फौरी विचार ।

इसी प्रकार अनुसूया ने इस रिपोर्ताज में और भी कई मकान के नामों की कहानी बताई है । अनुसूया लिखती है कि कोलकाता के पुराने इलाकों में मकानों का स्थापत्य अपने-अपने समय के, खत्म हो रही सभ्यताओं के साक्ष्य के रूप में मौजूद है । उनके नाम ऐसे पासवर्ड की तरह है जिनसे आप उनके पीछे के लंबे इतिहास और उन प्रभावों, विचारों और विचारधाराओं में प्रवेश कर सकते हैं जो गारा-पानी में ढल कर एक मकान और घर का रूप लिया करते हैं ।

महुआ का यह कथन हमें भाषा की निर्मितियों के नियमों की याद दिलाता है । संकेतक, संकेतित और संकेतन के अपने प्रसिद्ध सिद्धांत के संदर्भ में मनोविश्लेषक जॉक लकान ने कहा था कि रूपकों को तैयार करने का सबसे आसान उपाय है दो संकेतकों को एक साथ मिला दो । हम यहां यही देख रहे हैं कि कैसे मकान और उसका नाम, इन दो संकेतकों के विलय से एक रूपक तैयार हो रहा है, जो खुद में एक अलग ही कहानी का बखान किया करता है !

अन्यथा, Signifier/signified (S/s) के नियम के अनुसार संकेतक संकेतित पर छाया रहता है, जैसे तने पर पेड़ । तना नहीं, उस पर छाया पेड़ ही वृक्ष की पहचान हो जाता है।


10.11.2024



मंगलवार, 19 नवंबर 2024

भाषा विज्ञान और मनुष्य की भाषाई संरचना

 

-अरुण माहेश्वरी 



कल (10 नवंबर 2024) अनायास ही ‘टेलिग्राफ’ में प्रकाशित एक दिलचस्प रिपोर्ताज के संदर्भ में फेसबुक पर हमारी वाल पर जॉक लकान के संकेतन सिद्धांत की संक्षिप्त चर्चा हो गई ।* उसमें संरचनावादी विचारक फर्दिनांद सौस्योर के लेखन से निकले सूत्र S/s का भी जॉक लकान के हवाले से जिक्र आया जिसमें  S का अर्थ है Signifier (संकेतक), और s से मतलब है signified(संकेतित)। इस सूत्र में संकेतित (s) के सर पर एक पसरे हुए डंडे के अंतराल पर संकेतक (S) बैठा हुआ है । जॉक लकान ने इस सूत्र को आधुनिक भाषा विज्ञान का सबसे मूलभूत सूत्र कहा था । जैसे अभिनवगुप्त ने ‘तंत्रालोक’ में संकेत को ही परामर्श चिंतन, अर्थात् विचार का स्रोत कहा; कोरा शब्द तो परम ब्रह्म है जिसकी साधना (शब्द निष्ठा) को उन्होंने निरर्थक बताया; जगत की शंकाएँ (द्वैत) ही तर्क के द्वारा विमर्श का विषय बनती है । इसी प्रकार संकेतित भी शुद्ध रूप में स्वयं में ब्रह्म समान होता है, जो खुद किसी विमर्श का माध्यम नहीं बनता, उस पर लदा हुआ संकेतक ही किसी विमर्श को तैयार करता है । 1  

लकान कहते हैं कि “जैसे हर विज्ञान के मूल में किसी एक मूलभूत सूत्र की कलना (algorithm) काम करती है, वैसे ही S/s भाषा विज्ञान का मूलभूत सूत्र है –जिसकी कलना पर आधुनिक अर्थ में समूचा भाषा विज्ञान विकसित हुआ है । (emergence of the discipline of linguistics, as in the case of every science in modern sense, (it) consists in the constitutive movement of a algorithm that grounds it. The algorithm is : S/s.) 

इस प्रकार, उनके अनुसार, मूलतः इसी मूलभूत सूत्र से आधुनिक भाषा विज्ञान का जन्म हुआ है।2

यहां गौर करने लायक सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जॉक लकान ने इस सूत्र का प्रयोग मनोविश्लेषण के सिद्धांतों के भी मूलभूत सूत्र के रूप में किया, क्योंकि मनोविश्लेषण के इतिहास में वे ही पहले व्यक्ति थे जिन्होंने मनुष्य के अवचेतन की संरचना को भाषा की संरचना के सदृश्य देखा था । मनोविश्लेषण के इतिहास में उनके इस योगदान को  युगांतकारी माना जाता है । 



जॉक लकान का एक बहुत प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण लेख है – ‘फ्रायड के उपरांत अवचेतन अथवा विवेक में अक्षर का अवस्थान’ (The Instance of the letter in the unconscious or Reason since Freud) । इस लेख को उन्होंने 9 मई 1957 के दिन सोरबोन के देकार्त एंपीथियेटर में पैरिस के छात्र फेडरेशन (Federation des etudiants es lettres) के दर्शनशास्त्र के विद्यार्थियों से एक वार्ता में पेश किया था ।

अपनी इस वार्ता में लकान छात्रों से कहते हैं कि “उन्होंने इस वार्ता के निमंत्रण को महज इसलिये स्वीकारा क्योंकि उनके और छात्रों की रुचि के विषय, दोनों की एक साझा साहित्यिक पृष्ठभूमि है, जिसके प्रति इस आलेख के शीर्षक में ही मैंने अपना सम्मान व्यक्त किया है । फ्रायड हमेशा कहते थे कि विश्लेषकों के प्रशिक्षण के लिए उनकी साहित्यिक पृष्ठभूमि का होना नितांत जरूरी है । वे साहित्य के पुरातन विश्वविद्यालयों को इस काम के सबसे उपयुक्त स्थान मानते थे ।”3 

लकान ने इस संदर्भ के जरिये बता दिया था कि उनका वह लेख किन लोगों को संबोधित है, और किनको नहीं है । वे कहते हैं कि यह उन लोगों के लिए कत्तई नहीं है जो किसी भी कारणवश क्यों न हो, मनोविश्लेषण के क्षेत्र में कुछ झूठी पहचानों को लाभ उठाने की अनुमति देते हैं । लकान के अनुसार, यह एक बुरी आदत है और दिमाग पर इसका कुछ ऐसा असर पड़ता है कि इस क्षेत्र की असली पहचान ही महज एक और भटकाव की तरह प्रतीत होने लगती है । उन्होंने यह उम्मीद जताई कि यह मिथ्याचार कितनी ही कुशलता से क्यों न पेश किया जाए, पारखी नजरों से वह बच नहीं सकती है ।4 



इस प्रकार की एक छोटी सी भूमिका के साथ लकान इस लेख में ‘अक्षर’ का अर्थ बताते हुए अपने मूल वक्तव्य की ओर प्रस्थान करते हैं । वे कहते हैं कि “ मेरे लेख के शीर्षक से ही यह साफ है कि मनोविश्लेषणात्मक अनुभव अवचेतन में भाषा की पूरी संरचना को देखता है । जो लोग अवचेतन को मनुष्यों की मूल वृत्तियों की जगह मानते हैं कि लकान ने उनसे कहा कि उन्हें अपने इस सोच पर पुनर्विचार करना होगा ।”5 

बहरहाल, यहां मार्के की सबसे महत्वपूर्ण बात यही है कि जो बात भाषा की संरचना पर लागू होती है, लकान के अनुसार वही बात मनुष्य के अवचेतन की संरचना पर भी लागू होती है । 

फेसबुक पर अपनी पोस्ट में जब हमने ‘टेलिग्राफ’ में अनुसूया बसु के रिपोर्ताज के सिलसिले में दो संकेतकों के योग से रूपक के निर्माण की बात कही थी, तो हमारे विद्वान मित्र श्री राजेन्द्र चतुर्वेदी जी ने अनायास ही भारतीय काव्य शास्त्र के हवाले से ‘संकेतित’ और ‘संकेतक’ के लिए काव्य शास्त्र के ‘उपमेय’ और ‘उपमान’ पदों का जिक्र किया और उपमेय में अभेद उपमान के आरोपण से रूपकालंकार की सृष्टि के काव्य शास्त्र के सिद्धांत की बात की ।6 

राजेन्द्र रंजन जी के कथन के संदर्भ में ही हम कहना चाहेंगे कि काव्य शास्त्र में काव्यालंकार के संदर्भ के अलावा, हमारे आनंदवर्धन ने अपने ‘ध्वन्यालोक’ में काव्य की आत्मा के, जिससे काव्य का आस्वादन किया जाता है, दो भेद बताए हैं – वाच्यार्थ और प्रतीयमानार्थ । काव्यालंकार में उपमेय और उपमान और काव्य के आस्वादन में वाच्यार्थ और प्रतीयमानार्थ में भी संकेतित और संकेतक जैसी ही सदृश्यता दिखाई देती है जिनका उल्लेख भाषा विज्ञान के संदर्भ में लकान ने किया था । 

S/s के सूत्र में जैसे संकेतित संकेतक के तले होता है, उसी प्रकार आनंदवर्धन प्रतीयमानार्थ को ही ध्वनि स्वरूप ( ध्वनिस्वरूपे प्रतीयमानाख्ये निरूपयितव्ये ) कहते हैं, जिसका काव्य में वाच्यार्थ की भूमि पर निरूपण किया जाता है । “वाच्यार्थ की भूमि पर अतिरिक्त प्रतीयमान अर्थ का आलींगन किया जा सकता है ।”7 



आनंदवर्धन कहते हैं कि वाच्यार्थ और प्रतीयमानार्थ, इन दोनों प्रकार के अर्थों में जो ‘विशेषता’ होती है, वही अर्थ का ‘प्रतीयमान’ भाग है । इस प्रकार किसी भी अर्थ की विशेषता की कुंजी उसकी प्रतीयमानता में है, जिसे लकानियन मनोविश्लेषण के सिद्धांत में संकेतक का पर्याय कहा जा सकता है । हमेशा अर्थ की ‘विशेषता’ से ही विमर्श तैयार होते हैं ।

इस पूरे प्रसंग में जिस बात ने हमारा ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया वह यह है कि काव्य का अलंकार शास्त्र हो या काव्य के आस्वादन का ध्वनि सिद्धांत, (उपमेय, उपमान अथवा वाच्यार्थ, प्रतीयमानार्थ से जुड़ा) यह पूरा विवेचन मूलतः काव्य-आधारित होने के कारण सिर्फ एक प्रकार के विवक्षित पाठ (अभिप्रेत) से जुड़े हुए हैं । उन्हें यदि मनुष्य के मानस से जोड़ कर देखें तो वे उसके चेतन की भाषा के विषय कहलायेंगे । यद्यपि ‘ध्वन्यालोक’ के तृतीय उद्योत में आनंदवर्धन ने अविवक्षितवाच्य ध्वनि की भी बात की थी जो अनभिप्रेत कथन का कारक बनती है, और यह भी कहा था कि उसमें भी प्रतीति पूर्वक अर्थान्तर का प्रकाशन होने के कारण नियमानुसार एक क्रम होता है ।8  

जाहिर है कि इस अनभिप्रेत कथन की भाषा को मनुष्य के संदर्भ में सहज ही अवचेतन की भाषा से जोड़ कर देखा जा सकता है । लेकिन अलंकारवाद और आनंदवर्धन के ध्वनिवाद में भाषा को काव्य का विषय तो माना गया (अधिक से अधिक कह सकते हैं कि मनुष्य की अभिव्यक्ति का विषय), पर वह मानव प्रमाता की संरचना के प्रमुख संघटक तत्त्व के रूप में शायद ही कहीं विवेचित हुई है। मानव शरीर की तरह ही भाषा भी मानव प्रमाता के संघटन का एक अभिन्न जैविक तत्त्व है, हमारे यहां इस ओर ध्यान नहीं गया है । 

इसी वजह से हमें लगता है कि भारतीय भाषा चिंतन में काव्यादि नाना पाठों में भाषा के विशद और सूक्ष्म वर्गीकरण के तमाम अनोखे उदाहरण मौजूद होने के बावजूद, उनसे मनुष्य मात्र के चित्त की गति के सूक्ष्म अध्ययन के संकेत प्राप्त नहीं किए गए । शायद इसीलिए पाणिनी के शब्दानुशासन से लेकर काव्य शास्त्र में काव्यालंकार और ध्वनि सिद्धांत तक का पारंपरिक भारतीय भाषा चिंतन अपने खुद के भुवन की स्वरूपता के प्रति निष्ठा में अभूतपूर्व रूप से सिद्ध साबित होने पर भी, अभिनवगुप्त के आने के पहले तक उससे किसी प्रकार की सामान्य  मनोविश्लेषणात्मक धारा के विकास का कोई संकेत नहीं मिलता है, अर्थात् भाषा-चिंतन एक गहन मानवशास्त्रीय चिंतन का अंग है और उससे मनुष्य मात्र की आंतरिक संरचना का भी कोई संबंध है, उस दिशा में किसी ने कोई कदम नहीं बढ़ाया । 



इस अर्थ में, अभिनवगुप्त भारतीय चिंतन की परंपरा में अकेले व्यक्ति थे जिन्होंने भरतमुनि के नाट्य शास्त्र के गहन पारायण से जहां मनुष्य की आंगिक क्रियाओं के शास्त्र का एक गहन ज्ञान अर्जित किया; आनंदवर्धन के ध्वन्यालोक से भाषा संबंधी तमाम सूक्ष्मताओं, वक्रोक्तियों, वाच्यार्थ और प्रतीयमानार्थ, रस सिंद्धांत और विभाव-अनुभाव-संचारी भाव के साथ ही युग के स्थायी भाव की भूमिका आदि को आत्मसात किया; और इस प्रकार उन्होंने मनुष्य की आंगिक क्रियाओं के साथ ही उसकी भाषाई अभिव्यक्तियों की एक संशलिष्ट समझ हासिल की; वहीं उन्होंने उसे अपने ‘इश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी’, ‘परमार्थसार’, तथा ‘सिद्धित्रयी’ जैसे ग्रंथों में उत्पलदेव के ईश्वरप्रत्यभिज्ञादर्शन की पृष्ठभूमि में उतार कर शैव दर्शन की दीर्ध परंपरा को बिल्कुल नया आयाम दिया; और अंत में अपने ‘तंत्रालोक’ शीर्षक उस महान और बृहद ग्रंथ की रचना की जिसे हम मानव चित्त के अध्ययन की आधुनिक मनोविश्लेषण की धारा का सारी दुनिया में एक आधारभूत ग्रंथ कह सकते हैं । अभिनवगुप्त ने इस ‘तंत्रालोक’ में ज्ञान संबंधी दर्शनशास्त्रीय विमर्श से शुरू करके ज्ञान-इच्छा-क्रिया के उपायों से चित्त संबंधी विषयों के जरिए ‘विवेक’ अर्थात् मनुष्य के ‘स्वात्मपरामर्श’ की प्रक्रिया पर दीर्घ विमर्श के बीच से अपनी तंत्रविद्या को जिस प्रकार “महाजाल के प्रयोग के द्वारा समस्त अध्वाओं के मध्य से (प्रेत के) चित्त को खींच कर स्थित करने की, शरीर की प्राणशक्ति को प्रबुद्ध करने की विधि”9 के रूप में विकसित किया, इस विधि के नाना प्रयोगों का वर्णन किया, उसे आधुनिक मनोविश्लेषण के सिद्धांतों और उपचार के उपायों के एक आदिम ग्रंथ के रूप में देखना जरा भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा ।              

जब हमने विगत एक सदी से ज्यादा के विश्व राजनीति के अनुभवों,  मनुष्य के चित्त की अभावित गति के संधान में मार्क्सवादी राजनीति की कमियों से उपजी चिंताओं के संदर्भ में अपने ‘अथातो चित्त जिज्ञासा’ पर काम शुरू किया तो हमारा ध्यान आधुनिक मनोविश्लेषण के सिद्धांतों की ओर गया था। हमने पाया कि सिगमंड फ्रायड और जॉक लकान का मनोविश्लेषण का सिद्धांत मनुष्य को महज शरीर नहीं, शरीर के साथ ही भाषा की भी एक जैविक इकाई के रूप में देखता है । प्राणी जगत में भाषा-प्रदत्त विशिष्ट अर्थ से ही जीवन के तमाम विमर्शों का केंद्र मानव प्रमाता का गठन होता है ।  

हमने पाया कि जैसे मार्क्स ने अपने कामों के बीच से सामाजिक परिवर्तन के लक्षणों की पहचान की एक विधि तैयार की थी, वैसे ही फ्रायड और खास तौर पर जॉक लकान (जो अपने को फख्र के साथ फ्रायड का अनुयायी कहते हैं, यद्यपि उनकी अधिकांश स्थापनाएँ फ्रायड के सिद्धांतों के खंडन पर आधारित है ) ने मानव के व्यवहार के लक्षणों की पहचान के सिद्धांत को विकसित किया । और इसी सिलसिले में भाषा संबंधी विमर्श का एक बिल्कुल नया आयाम खुला जो भाषाओं के गठन के वैयाकरणीय और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से बिल्कुल अलग मनुष्य के जैविक गठन की समस्याओं पर केंद्रित है । यहां तक कि आज नोम चोमश्की के कामों से भाषा के सवाल को जैविक प्रणाली (biological system) से देखने (आभ्यांतरित ज्ञान को पाने की I-language, internalized language) का जो पहलू सामने आता है10

जिसमें वे इस विषय को मस्तिष्क की रासायनिक क्रियाओं के साथ जोड़ कर भी देखते हैं, उनमें किया गया तकनीकी विवेचन अनिवार्य रूप से ऐसे किसी भी विमर्श को नियतिवाद की ओर ले जाता है;  कहीं न कहीं उसकी मानव-केंद्रिकता कमजोर होती है । 

चोमश्की के यहां यह बात गौण हो जाती है कि जैसे मनुष्य का अवचेतन सिर्फ उसके अंतर की चीज नहीं है, वह मनुष्य की चेतना के पहले से सामाजिक मान्यताओं और निषेधों आदि के तौर पर किसी न किसी रूप में मौजूद रहती है, वैसे ही भाषा भी मनुष्य के अंतर-बाह्य की वस्तु है, मनुष्य तभी चेतन होता है जब उसका भाषा से साक्षात्कार होता है । जॉक लकान ने इसी सत्य पर तत्त्व मीमांसक दृष्टि से विचार करते हुए अपने मनोविश्लेषण के सिद्धांतों के जिस नये गैर-दार्शनिक दर्शन को तैयार किया, चोमश्की के कामों का कभी वैसा कोई अभीष्ट नहीं जान पड़ता है । उन्होंने भाषा को मनुष्य की जैविकता से जोड़ कर देखने पर भी मनुष्य को भाषा से अनिवार्यतः अभिन्न, ज्ञान-इच्छा-क्रिया की उसकी क्रियात्मकता के प्रमुख कारक के रूप में शायद नहीं देखा । 

बहरहाल, ऐसे तमाम संदर्भों के साथ ही हमने आधिभौतिक भारतीय चिंतन की परतों में उतरना शुरू किया और उसमें हुए भाषा चिंतन और काव्य शास्त्र की समृद्ध परंपरा को खंगाला । इसमें भाषा संबंधी विस्मयकारी विश्लेषणों का एक लंबा सिलसिला मिलने पर भी इसके केंद्र में मनुष्य तब तक नहीं आता है जब तक अभिनवगुप्त ने तंत्र की हजारों साल की दीर्घ भारतीय परंपरा को भाषा संबंधी चिंतन से नहीं  जोड़ा; जब तक परा-अपरा-परापरा, अद्वय-द्वय-द्वयाद्वय, भेद-भेदाभेद-अभेद के ज्ञान संबंधी त्रिक दर्शन के साथ शांभवोपाय, शाक्तोपाय और आणवोपाय की तरह के मनुष्य के आत्म विकास और उसमें स्वातंत्र्य की भूमिका के मानवशास्त्रीय पहलुओं को गहराई से प्रकाशित नहीं किया; जब तक अभिनवगुप्त ने स्वातंत्र्य को ही मोक्ष मान कर उसे ही मनुष्य के परम विकास के एक सर्वोच्च साधन के रूप में स्थापित नहीं किया । 

यही वजह है कि हमने भारत की प्राचीन चिंतन परंपरा में अभिनवगुप्त को जिस श्रेष्ठतम स्थान पर पाया वहाँ और किसी भी भारतीय चिंतक को नहीं देखते हैं । भारतीय चिंतन परंपरा में वे अद्वितीय और अतुलनीय है। इसीलिए जब माननीय राधावल्लभ त्रिपाठी ने चिंतक के बजाय अभिनवगुप्त के कवि रूप पर विचार को कहीं ज़्यादा महत्व देने की बात कही तो उससे यही संकेत मिला कि उन्होंने पूजा भाव से अभिनवगुप्त की भाषा के ‘अद्वैत’ को तो देखा, पर उसकी उस मानवशास्त्रीय ज़मीन पर उनकी नज़र नहीं पड़ी जिससे असल में उन्हें अद्वितीय बनाने वाले विमर्श की सृष्टि होती है। यह मामला सिर्फ़ राधावल्लभ जी का नहीं, अभिनवगुप्त पर विशेषज्ञता रखने वाले अन्य तमाम विद्वानों का भी समान रूप से है । 11

कहना न होगा, अभिनवगुप्त के ‘तंत्रालोक’ की उपेक्षा के चलते ही हमारे यहाँ भाषा संबंधी चिंतन की बेहद समृद्ध परंपरा मौजूद रहने के बावजूद मनोविश्लेषण की वैसी कोई आधुनिक धारा विकसित नहीं हुई जो पश्चिम में फ्रायड के बाद जॉक लकान के ज़रिए मनुष्य और भाषा के बीच के द्वंद्वात्मक संबंधों की समझ की एक सर्वथा नई धारा के रूप में आज दिखाई देती है और सामाजिक परिवर्तन में आधार (base) तथा अधिरचना (superstructure) की द्वंद्वात्मकता की तरह ही मानव प्राणी की क्रियात्मकता में चेतन और अवचेतन के संबंधों का एक नया सिद्धांत पेश करती है । 


संदर्भः 

*  https://chaturdik.blogspot.com/2024/11/blog-post_21.html?m=1

1. संङ्केतानादरे शब्दनिष्ठमामर्शनं पठिः ।

तदातरे तदार्थस्तु चिन्तेति परिचर्च्याताम् ।।

तदद्वयायां संवित्तावभ्यासोऽनुपयोगवान् ।

केवलं द्वैतमालिन्यशंङ्कनिर्मूलनाय सः ।।

द्वैतशङ्काश्र्च तर्केण तर्क्यन्त इति वर्णितम् ।

सत्तर्कसाधनायास्तु यमादेरप्युपायता ।। (तंत्रालोक, चतुर्थमाह्निकम्, 103-104-105)


2. Ecrits, page-497

3.Ecrits, page-494

4. वही, पृष्ठ 494)

5. Ecrits, page- 494-95

6. राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी

बहुत बढ़िया

भारत के काव्यशास्त्र में शब्द दूसरे हैं

उपमेय और अपमान

अभेद आरोप वहां भी हैं।


7.”तत्पृष्टेऽधिकप्रतीयमानांशोल्लिङ्गनात्” (ध्वन्यालोकः, संपादक शिवप्रसाद द्विवेदी, चौखंभा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, पृ.39

8. (तत्राविवक्षितवाच्यत्वादेव वाच्येन सह व्यङ्ग्यस्य क्रमप्रतीतिविचारो न कृतः) (ध्वन्यालोकः, संपादक शिवप्रसाद द्विवेदी, चौखंभा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, पृ.500) 

9. तंत्रालोक, वही, एकविंशमाह्निकम्, 25

10. देखें नोम चोमश्की की पुस्तकें − New Horizons in the study of Language and Mind, (2000), On Nature and Language ( 2002) और Language and Mind (2005


11. https://chaturdik.blogspot.com/2017/11/blog-post_12.html?m=1








   


शुक्रवार, 13 सितंबर 2024

कामरेड सीताराम येचुरी लाल सलाम !

 

(वाम-जनतांत्रिक राजनीति का एक बेहद आकर्षक व्यक्तित्व नहीं रहा)

अरुण माहेश्वरी

 



कामरेड सीताराम येचुरी हमारे बीच नहीं रहे । उनका इस प्रकार अचानक, चंद दिनों की बीमारी के बाद ही असमय चला जाना भारत में वामपंथी और जनतांत्रिक आंदोलन से जरा भी हमदर्दी रखने वाले व्यक्ति के लिए सचमुच किसी वज्रपात से कम नहीं कहलायेगा ।

भारत के वाम-जनतांत्रिक आंदोलन के लिए कामरेड सीताराम का क्या महत्व था उसे किसी दुखांत में सौंदर्य की भूमिका के बारे में प्रसिद्ध मनोविश्लेषक जॉक लकान के इस कथन से समझा जा सकता है कि “वह सौंदर्य ही दर्शकों को दुखांत में अंतर्निहित डर की गिरफ्त में जाने से बचाने की आड़ के रूप में काम करता है ।”(the ultimate barrier that forbids access to a fundamental horror)

वामपंथी छात्र राजनीति के शिखर से वामपंथी राजनीति की मुख्यधारा के सर्वोच्च शिखर तक जाने के अपने पचास साल से ज्यादा के राजनीतिक जीवन की नाना भूमिकाओं से कामरेड सीताराम की जो छवि तैयार हुई थी वह वाम-जनतांत्रिक राजनीति की एक ऐसी मजबूत और खूबसूरत शख्सियत की छवि थी जिसकी उपस्थिति किसी भी पर्यवेक्षक को इस राजनीति के दुर्दिन के डर से बचाती थी, उम्मीदों को सदा बनाए रखने की अहम् भूमिका अदा करती थी ।

सन् 1952 में जन्मे कामरेड सीताराम जब सिर्फ 32 साल की उम्र के थे, उन्हें सीपीआई(एम) की केद्रीय कमेटी का सदस्य चुन लिया गया था । चालीस साल की उम्र में वे पोलिट ब्यूरो के सदस्य बन गए । तभी सोवियत-समाजवादोत्तर काल में उभरे नये मूलगामी विचारधारात्मक प्रश्नों पर पार्टी के तपे-तपाए नेताओं के साथ कंधे से कंधा मिला कर पार्टी की वैचारिक एकसूत्रता को बनाए रखने की चुनौती का मुकाबला करने में एक जागरूक युवा प्रतिभा के रूप में उन्होंने उल्लेखनीय योगदान किया । सीपीआई(एम) के उस विचारधारात्मक दस्तावेज को पूरी दुनिया के कम्युनिस्ट आंदोलन का अनुमोदन मिला था । परवर्ती दिनों में कामरेड सीताराम ने दुनिया की कई कम्युनिस्ट पार्टियों के सम्मेलनों में शिरकत की और उनके अनुभवों से भारत के कम्युनिस्टों को परिचित करवाया ।

छात्र राजनीति में भी 1977-78 में उनका लगातार तीन बार जेएनयू के छात्र संघ के अध्यक्ष पद पर चुनाव आज भी छात्र नेता की जनप्रियता की एक किंवदंती की तरह याद किया जाता है । आपातकाल के दिनों में जेएनयू के प्रांगण में इंदिरा गांधी की उपस्थिति में उनसे विश्वविद्यालय के कुलपति पद से इस्तीफे की मांग करने वाले प्रस्ताव का पाठ करते हुए कामरेड सीताराम की तस्वीर भारत के जनतांत्रिक छात्र आंदोलन के इतिहास की आज भी सबसे यादगार तस्वीर बनी हुई है ।

परवर्ती काल में, कामरेड सीताराम सीपीआई(एम) के पोलिट ब्यूरो के उस क्रांतिकारी ‘युवा समूह’ से जुड़ गए जिसने 1996 में पार्टी की केंद्रीय कमेटी में बाकायदा मतदान करवा के ज्योति बसु को प्रधानमंत्री पद का दायित्व स्वीकारने से रोक दिया था । ज्योति बसु तभी से सार्वजनिक रूप में इस घटना को वामपंथ की ऐतिहासिक भूल कहने से चूकते नहीं थे ।

जाहिर है कि सत्ता की राजनीति करने पर भी 1996 के एक अहम् मुकाम पर सीपीआई(एम) ने सत्ता को नहीं चुना। परिणाम में उसे जो मिला, उसे ही अपना पसंदीदा चयन मान लेना उसकी मजबूरी हो गया।    

बहरहाल, सन् 1996 में ही एच डी देवगौड़ा के नेतृत्व की संयुक्त मोर्चा सरकार में कामरेड सीताराम ने सरकार के न्यूनतम साझा कार्यक्रम को तैयार करने वाली समन्वय समिति में विशेष भूमिका अदा की । सन् 2004 में बनी मनमोहन सिंह के नेतृत्व की यूपीए सरकार के संचालन में भी उनकी सक्रिय भूमिका रही । पर 2008 में अकस्मात् उस सरकार से समर्थन वापस लेने के फैसले से भी वे जुड़े रहे ।

समय की चुनौतियों के अनुसार जनतांत्रिक ताकतों के भीतर समन्वय कायम करने, वर्तमान के ‘इंडिया गठबंधन’ के निर्माण में भी कामरेड सीताराम अपने जीवन के अंतिम काल तक एक प्रमुख सहयोगी और सिद्धांतकार की जो भूमिका अदा करते रहे, उसे देश के सभी विपक्षी दल खुले मन से सराहते हैं ।   

कामरेड सीताराम 2005 से 2016 तक पश्चिम बंगाल से राज्य सभा के सदस्य रहे । राज्य सभा में उनके हस्तक्षेपों को आज भी हर कोई संसदीय राजनीति में उनकी अविस्मरणीय भूमिका के रूप में याद करता है।

सन् 2015 में कामरेड सीताराम सीपीआई(एम) के महासचिव चुने गए और मृत्यु की अंतिम घड़ी तक वे इस पद पर बने रहे ।

कामरेड सीताराम के पचास साल के राजनीतिक जीवन के इन अनेक रूपों ने ही उन्हें वाम-जनतांत्रिक राजनीति का एक सबसे आकर्षक और हरदिल अजीज नेता बना दिया था । उनके धैर्य, ज्ञान और सुचिंतित वक्तव्यों का तो हर कोई कायल था ।

इसीलिए हमने शुरू में ही उनकी निर्मिति को वाम-जनतांत्रिक राजनीति का ऐसा खूबसूरत चरित्र कहा है जो इस राजनीति के लिए सदा उम्मीदों को कायम रखता था । आज उनके न रहने से वाम-जनतांत्रिक राजनीति की जो भारी क्षति हुई है, उसका सचमुच सहज अनुमान नहीं लगाया जा सकता है ।

कामरेड सीताराम अपने पीछे पत्नी सीमा और एक बेटी और एक बेटा छोड़ गए हैं । हम कामरेड सीताराम की तमाम प्रिय स्मृतियों के प्रति अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनके सभी परिजनों के प्रति आंतरिक संवेदना प्रेषित करते हैं ।

लाल सलाम कामरेड सीताराम येचुरी !   


 
    

गुरुवार, 8 अगस्त 2024

हंसा जाई अकेला


(आज सुबह फेफड़ों की लंबी बीमारी के बाद कामरेड बुद्धदेव  भट्टाचार्य नहीं रहे ।मृत्यु के वक्त उनकी उम्र अस्सी साल थी। उनके परिजनों में उनके पीछे उनकी पत्नी मीरा भट्टाचार्य और बेटी सुचेतना हैं । कामरेड भट्टाचार्य की याद में यह विशेष विश्लेषणात्मक श्रद्धांजलि लेख : )

−अरुण माहेश्वरी


बुद्धदेव भट्टाचार्य नहीं रहे । बंगाल में वामपंथी राजनीति की किंवदंतियों की छीजती हुई श्रृंखला की जैसे एक अंतिम कड़ी नहीं रही । वामपंथी राजनीति के साथ बंगाल की ‘कला प्रेमी’ बाबू संस्कृति के योग से पैदा होने वाले रहस्यमय आकर्षण का जैसे अंतिम अवशेष नहीं रहा । इसीलिए वामपंथ के प्रति अश्रद्धा के बावजूद आज बंगाली भद्र जनों में बुद्धदेव के प्रति शोक के भाव में कोई कमी नहीं है । तृणमूल कांग्रेस के नेता भी शोकाकुल है !

ऐतिहासिक नजरिये से देखें तो पश्चिम बंगाल की वामपंथी राजनीति में बुद्धदेव भट्टाचार्य की भूमिका की तुलना सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी में मिखाइल गोर्वाचेव से की जा सकती है । सन् 2000 में ज्योति बसु ने अचानक राजनीति से संन्यास की घोषणा करके बुद्धदेव को मुख्यमंत्री पद सौंपा था । 2001 का विधानसभा चुनाव जीतने के बाद 2006 के चुनाव में बुद्धदेव के नेतृत्व में वामपंथ इतिहास में सबसे रेकर्ड मतों से विजयी हुआ । वाम मोर्चा को 296 सीटों की विधान सभा में 235 सीटें मिलीं और तृणमूल कांग्रेस को सिर्फ 30 ; कांग्रेस के मोर्चे को 29 और अन्य को 8 सीटें मिली थी। पर आगे, पाँच साल पूरे होते न होते सिंगूर और नंदीग्राम के मसलों को केंद्र में रख कर स्थिति यह हो गई कि 2011 में राज्य में वाम मोर्चा के 34 साल के शासन का अंत हो गया । अभी 2021 के चुनाव के बाद तो विधानसभा में वाममोर्चा की एक भी सीट नहीं बची है ।

इसीलिए, पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा के इस अवसान की तुलना सहज ही सोवियत संघ में समाजवाद के पराभव से की ही जा सकती है ।

यही वजह है कि बुद्धदेव का जाना सिर्फ एक राजनीतिक व्यक्ति की मृत्यु पर शोक का विषय नहीं हो सकता है । शोक के बजाय, वामपंथी राजनीति के बुद्धदेव फेनोमना को कहीं ज्यादा गहराई से समझने की जरूरत है । वाम शासन के पतन को उसके 34 साल के शासन की ही एक परिणति के साथ, कुछ न कुछ बुद्धदेव भट्टाचार्य के निजी व्यक्तित्व के आईने में भी झांक कर देखने की जरूरत है ।

राजनीति सिर्फ नीतियों का विषय नहीं है, नेताओं का विषय भी है । बुद्धदेव को हमने जितना देखा-समझा, उसकी छवि सहज ही हमारे विचार के लिए राजनीति में व्यक्तिवादी अहम्मन्यता की भूमिका का सवाल खड़ा कर देती है । यह एक यक्ष प्रश्न उठ खड़ा होता है आखिर क्यों उन्होंने ही अपने शासन के अंतिम सालों में वाममोर्चा के भारी बहुमत को दिखा कर ममता बनर्जी का तिरस्कार किया था, जब कि ज्योति बसु ने अपने लंबे शासन में विपक्ष के प्रति इस प्रकार के तिरस्कार का कभी भी कोई संकेत नहीं दिया ?

ज्योति बसु ने विपक्ष के खिलाफ हमेशा नीतिगत सवालों को अहमियत दी । बाबरी मस्जिद को ढहाने पर बीजेपी को असभ्य तक कहा और लगातार कहते चले गए । पर कोरी राजनीतिक, विधानसभा में संख्या तत्व की शक्ति को उन्होंने कभी कोई विशेष अहमियत नहीं दीं ।   

बुद्धदेव भट्टाचार्य की निजी पृष्ठभूमि पर नजर डाले तो पायेंगे कि वे बंगाल के सर्वप्रिय विद्रोही कवि सुकांत भट्टाचार्य के परिवार से आते थे । सुकांत उनके चाचा थे । बुद्धदेव में भी साहित्य के प्रति गहरी रुचि थी । उन्होंने खुद कई नाटक लिखे जिनमें उनका एक नाटक ‘दुःसमय’ काफ़ी चर्चित भी हुआ था। उनमें रवीन्द्रनाथ की प्रांजल भाषा का गहरा संस्कार और बांग्ला का सांस्कृतिक गर्व-बोध भी था । वे हिन्दी नहीं जानते − इसे निर्द्वंद्व भाव से कहते थे । साहित्य और सिनेमा की चर्चा उनका शगल था और देश-विदेश से जुड़े राजनीति के विषयों पर खास शैली में लिखा करते थे । जब वे राज्य के सूचना और संस्कृति मंत्री थे, कोलकाता के ‘नंदन’ प्रेक्षागृह में उनका एक निजी कक्ष था जहां नियमित सिनेमा देखा करते थे । एक राजनीतिज्ञ के बजाय खुद की बुद्धिजीवी की छवि उन्हें ज्यादा प्रिय थी । इसीलिए साहित्य और संस्कृति के जगत में भी उनकी अपनी बहुत तीखी पसंद-नापसंद हुआ करती थी ।

हमारे देखें, बुद्धदेव जैसे-जैसे सत्ता पदों के सोपानों पर चढ़ते गए, राजनीति में होने पर भी एक संभ्रांत व्यक्ति की विशिष्टता का भाव-बोध उसी अनुपात में उनमें बढ़ता गया। वे वाम मोर्चा सरकार में 1987 में मंत्री बने थे । 1993 में अचानक उन्हें अपने चारों ओर भ्रष्टाचार का दलदल दिखाई देने लगा, और वे विक्षिप्त से हो गए थे। मंत्री पद त्याग दिया, पर ज्योति बसु के सौजन्य से ही चंद महीनों में उनकी पुनर्बहाली हो गई।  

दरअसल, कामरेड  बुद्धदेव भट्टाचार्य  को ज्योति बसु की तरह अपने राजनीतिक जीवन में कभी कांग्रेस सरकारों के दमन का सामना नहीं करना पड़ा था । आजादी की लड़ाई की पैदाईश ज्योतिबसु जन आंदोलनों से तैयार हुए थे । आजादी के पहले ही राज्य की विधान सभा के सदस्य बन गए थे । कांग्रेस के काल में कई सालों तक जेल में रहे । इसीलिए एक ऊँचे परिवार का उच्च शिक्षित बेटा होने पर भी ज्योति बसु सत्ता के दंभ से कोसों दूर, अंतर की गहराई तक सहज, शांत, विनयी और दुनियादार व्यक्ति थे । 1994 में जब प्रधानमंत्री के पद की बात उठी तो वे पार्टी के बंद ढाँचे में दांव-पेंचों से बने नेताओं के सैद्धांतिक वारों से सहज ही मात खा गए ।

बुद्धदेव भट्टाचार्य भी पार्टी के अपने बंद ढाँचे के अंदर की गतिविधियों के बीच से वामपंथ के जय-जयकार के दिनों में निर्मित एक बुद्धिजीवी नेता थे । माना जाता है कि बुद्धिजीवी में चरित्र और ज्ञान के अहंकार का दोष राजनीति में रगड़ खा कर दूर हो जाता है । पर शुद्ध रूप में राजनीति और सत्ता का योग इसके बिल्कुल विपरीत प्रभाव का भी साबित हो सकता है। इसके उदाहरण सारी दुनिया में कम्युनिस्ट, गैर-कम्युनिस्ट, सभी प्रकार की राजनीति में भरे हुए हैं ।

बुद्धदेव की कार्यशैली से परिचित लोग जानते हैं कि सत्ताधारी बुद्धदेव का अपनी नौकरशाही पर अगाध भरोसा था । वे समग्र रूप में सत्ता की शक्ति को बखूबी समझते थे और इसीलिए एक बार सत्ता से हट कर उन्हीं ज्योति बसु के जरिए सत्ता में वापस लौटने में उन्होंने ज़रा भी देर नहीं की जिनसे उन्होंने खुली बगावत की थी। पार्टी के साधारण कार्यकर्ताओं से उनका व्यवहार बहुधा पीड़ादायक की हद तक जाने वाला नितांत निर्वैयक्तिक था । उनके साथ के कामरेडों के पास उनके ऐसे असहज कर देने वाले व्यवहार के अनेक अनुभव मौजूद हैं ।

‘क्रांति सबसे पहले अपनी ही संतानों को खाती है’ − बहुतेरे क्रांतिवीर ऐसे ही आप्त-कथन से अपने पर-पीड़क व्यवहार को सही और संगत ठहराया करते हैं । हमने ऐसे कई कामरेडों को देखा है जो उस वक्त चीन में थोक के भाव दी जा रही फाँसी की सजा की प्रशंसा में लिख रहे थे जिस वक्त भारत में फाँसी की सजा को खत्म कर देने का विमर्श अपने शिखर पर था । इस आचरण से यही साबित होता है कि क्रांति के परिवर्तनकारी सत्य के विपरीत सत्ता का सत्य आज्ञाकारी नागरिकों का समाज तैयार करने की ओर प्रेरित होता है।

बुद्धदेव ने 2006 में पश्चिम बंगाल में तीन चौथाई बहुमत की सरकार बना कर मानो सत्ता के इसी सत्य को पूरी तरह से आत्मसात कर लिया था। अब वे पूरी ताकत के साथ अपनी मर्जी से पूरे समाज को हांक कर अपनी कल्पना के नए साँचे में ढालने के यज्ञ में लग गए थे। तब तक 1991 शुरू हुए भारत के उदारीकरण को 15 साल बीत चुके थे । लाइसेंस राज के खत्म होने से औद्योगीकरण की जो नई संभावनाएँ पैदा हुई, ज्योति बसु के काल में उसके अनुरूप पश्चिम बंगाल की एक नई औद्योगिक नीति (1994) तैयार हुई । हल्दिया पेट्रोकेमिकल्स तथा बक्रेश्वर तापविद्युत परियोजना की स्थापना के सवाल ने पहले जिस प्रकार के केंद्र-विरोधी जन-आंदोलन का रूप ले लिया था, उसकी जगह अब सुचिंतित दृष्टि के साथ राज्य के क्रमिक औद्योगीकरण की दिशा में कदम उठाए जाने लगे ।

सन् 2000 में ज्योति बसु के हट जाने के बाद कामरेड बुद्धदेव ने कमान संभाली और वाम मोर्चा ने ‘भूमिसुधार की मजबूत जमीन पर औद्योगीकरण’ का नारा दिया। पर 2006 के बाद, बेलगाम सत्ता के जोम में भूमि सुधार की उपलब्धियों का पहलू एक झटके में पीछे छोड़ कर नौकरशाही को राज्य के कोने-कोने में औद्योगिक क्षेत्रों की स्थापना में जुट जाने का आदेश दे दिया गया । सभी जिला प्रशासकों में उद्योगों के लिए भूमि के अधिग्रहण की अंधी होड़ शुरू हो गई । उद्योग बैठाने वाला उद्योगपति आर्थिक कारणों से ही जहां सिर्फ अपनी जरूरत के मुताबिक जमीन खरीदता है, वहीं सरकारी अमलों के सामने वैसी कोई आर्थिक बाधा नहीं थी । जहां वास्तव में 50 एकड़ जमीन की जरूरत थी, वहां 500 एकड़ के अधिग्रहण की अधिसूचनाएं जारी की जाने लगी । एक अनुमान के अनुसार भूमि सुधार के कार्यक्रमों में जितनी जमीन भूमिहीनों के बीच बांटी गई थी, उससे भी ज्यादा जमीनों पर अब अधिग्रहण के खतरे की तलवार लटकने लगी ।

देखते-देखते, बुद्धदेव के इस नए दौर में एक झटके में भूमि सुधार के लाभों पर पानी फेर दिया गया । किसानों के बीच जमीन की रक्षा को लेकर एक नई व्यग्रता पैदा हो गई । इसी समय सिंगूर में टाटा के लिए जमीन के अधिग्रहण में हुई धींगा-मुश्ती के साथ ही नंदीग्राम में एक साथ हजारों एकड़ जमीन पर नोटिस के समाचार ने आग में घी का काम कर दिया । ममता बनर्जी ने सिंगुर में डेरा डाल लिया और नंदीग्राम में जमीन बचाने का व्यापक आंदोलन शुरू हो गया ।

यह बुद्धदेव की सरकार का ही काल था जब सीपीआई(एम) ने शुद्ध पेशी-शक्ति के बल पर सिंगूर और नंदीग्राम के आंदोलनों के मुकाबले का रास्ता चुना । फलतः, 2006 के बाद दो साल भी नहीं बीते, 2008 के पंचायत चुनावों में वाम मोर्चा को पहली बार भारी धक्का लगा । इसके साथ ही विपक्ष के लगातार हमलों के सामने वाम मोर्च असहाय दिखाई देने लगा । बुद्धदेव विधान सभा में अपने भारी बहुमत का हवाला देते रह गए, पर जमीन पर ममता बनर्जी वाम मोर्चा को अपदस्थ करती चली गई ।  

2011 के बाद से अब तक पूरा एक युग बीत चुका है । एक समय के महाशक्तिशाली बुद्धदेव को एक अकेले कोने में पड़े हुए बुद्धिजीवी की स्थिति में सिमटने में जरा सा भी वक्त नहीं लगा । आज हमें, उनकी इस अकेली अंतिम यात्रा के वक्त हमारे मार्कण्डेय जी की कहानी ‘हंसा जाई अकेला’ के उस लोकगीत की पंक्तियां याद आ रही है –

“हंसा जाई अकेला,

ई देहिया ना रही ।

मल ले, धो ले, नहा ले, खा ले

करना हो सो कर ले,

ई देहिया…”

 

इस कहानी का पात्र ‘दिव्यदृष्टिवान’ हंसा आज़ादी लेने की क़समें खाते-खाते आज़ादी मिलने की घड़ी में पागल हो चुका था । दो बार आगरा तक घूम आया था । मार्कण्डेय लिखते हैं − “उसके तमतमाए हुए चेहरे की नसें तन आती हैं और वह अपना बिगुल फूँकता हुआ, कभी धान के खेतों, कभी ईख और मकई के खेतों की मेढ़ों पर घूमता हुआ गाया करता है :

“हंसा जाई अकेला …।”

बहरहाल, पश्चिम बंगाल में वामपंथी आंदोलन के गौरवशाली दिनों की यादों के एक महत्वपूर्ण प्रतीक कामरेड बुद्धदेव भट्टाचार्य  की स्मृतियों को हमारा सलाम । हम उनकी पत्नी, बेटी और तमाम निकट के शुभाकांक्षियों के प्रति अपनी गहन संवेदना प्रेषित करते हैं ।