-अरुण माहेश्वरी
आज डी वाई चन्द्रचूड़ अपनी नई किताब के प्रचार के उत्साह में कुछ ऐसी बात बोलते जा रहे हैं, जिनसे अब उनके चरित्र पर पड़े लफ़्फ़ाज़ियों के सारे आवरण सार्वजनिक रूप से तार-तार हो कर गिर गए हैं । यह मनोविश्लेषण में ज़ुबान की फिसलन से एक कठिन ‘ज्ञानी’ के अहम् की बाधा के टूटने का एक ग़ज़ब का एक लोमहर्षक दृश्य है ! किसी भी ज़िद्दी से ज़िद्दी प्रमाता की गांठों को खोल कर देख पाने में ही तो किसी मनोविश्लेषक की सारी ऊर्जा नियोजित होती है ।
चंद्रचूड़ के सच की एक बहुत साफ पहचान हमने उसी वक्त कर ली थी जब उन्होंने धारा 370 पर एक रद्दी, संविधान-विरोधी फ़ैसला सुनाया था ।
उस फ़ैसले पर 16 दिसंबर 2023 को हमने अपने ब्लाग “चतुर्दिक” पर एक छोटी सी टिप्पणी लिखी थी कि भारत की न्यायपालिका के इतिहास में उन्होंने अपने लिए कौन से स्थान को सुरक्षित कर लिया है!
उसके बाद, 19 जनवरी 2024 में फिर अपने ब्लाग पर इस व्यक्ति का समग्र मनोविश्लेषण करते हुए हमने एक टिप्पणी लिखी — “क्या सीजेआई का ज्ञान ही उनका दुश्मन बन गया है ? “
और आज न्यूजलौन्ड्री पर श्रीनिवासन जैन के साथ उनके साक्षात्कार को सुनने के बाद फ़ेसबुक पर हमने सिर्फ एक पंक्ति लिखना मुनासिब समझा -
“पत्रकार श्रीनिवास जैन ने दिखा दिया है कि जस्टिस डी वाई चन्द्रचूड़ सिंह की खाल में गधे से बेहतर नहीं है ।”
हम यहां अपने “चतुर्दिक” ब्लाग पर लिखी गई पहले की दोनों टिप्पणियों को पेश कर रहे हैं और उनके लिंक भी कमेंट बाक्स में सभी मित्रों को मुहैय्या करा रहे हैं ।
हमारा मानना है कि चन्द्रचूड़ ने अपने को बेपर्द कर अपनी किताब का प्रचार नहीं, उसका गला घोंट दिया है । ऐसे संघी, बंद और अँधेरे दिमाग़ से क्या ही कोई किसी रोशनी की उम्मीद करेगा !
हमारे ब्लाग पर पूर्ववर्ती टिप्पणियाँ इस प्रकार हैः
शनिवार, 16 दिसंबर 2023
संवैधानिक इतिहास में हमारे वर्तमान सीजेआई का स्थान !
—अरुण माहेश्वरी
धारा 370 और इससे जुड़े अन्य प्रसंगों पर राय देते हुए सुप्रीम कोर्ट की पाँच जजों की संविधान पीठ ने 3:2 के फ़ैसले में कहा है कि धारा 370 एक अस्थायी प्रावधान था और जम्मू-कश्मीर की अपनी खुद की कोई आंतरिक सार्वभौमिकता नहीं है । इसके साथ ही यहाँ तक कह दिया है कि किसी भी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा कर उसके विभाजन की तरह के राज्य के स्वरूप को स्थायी तौर पर बिगाड़ देने वाले फैसलें क़ानून की दृष्टि से ग़लत नहीं है । फिर भी यह कहा गया है कि बचे-खुचे जम्मू-कश्मीर को यथाशीघ्र उसका राज्य का अधिकार मिलना चाहिए । इसके लिए भी तत्काल प्रभाव से कोई प्रकार का आदेश देने के बजाय सुप्रीम कोर्ट ने अगले साल के सितंबर महीने 30 तारीख़ तक का समय मुक़र्रर किया है । इस फ़ैसले का क़ानून के अनुसार क्या औचित्य है, सुप्रीम कोर्ट ने इसे रहस्य ही रहने दिया है, इसकी कोई व्याख्या नहीं की है । इसके राजनीतिक मायने बिल्कुल साफ़ है कि तब तक 2024 के चुनाव पूरे हो जाएँगे और यह काम नई सरकार की इच्छा पर निर्भर हो जायेगा । सुप्रीम कोर्ट ने अभी के लिए इस बारे में सरकार के सॉलिसिटर जेनरल के आश्वासन को ही पर्याप्त माना है । सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि राष्ट्रपति के आदेश से जम्मू-कश्मीर रो तोड़ कर लद्दाख को केंद्रशासित क्षेत्र बनाना क़ानूनन ग़लत नहीं है ।
इस प्रकार गहराई से देखें तो साफ़ है कि —
(1) संघवाद एक बुरी चीज़ है ।
(2) एक संविधान, एक राष्ट्र, एक धर्म, एक संस्कृति और एक भाषा ही भारत का अभीष्ट लक्ष्य है ।
(3) जनतंत्र और सत्ता का विकेंद्रीकरण एक सबसे बड़ी कमजोरी है ।
(4) एक मज़बूत देश के लिए ज़रूरी है एक दल का शासन और राज्य का एकीकृत रूप ।
(5) एक सार्वभौम राष्ट्र में किसी भी अन्य प्रकार की स्वायत्तता और सीमित सार्वभौमिकता का भी कोई स्थान नहीं हो सकता है ।
— भारतीय राज्य के बारे में आरएसएस पंथी तथाकथित राष्ट्रवादियों की ऐसी और कई उद्दंड, मूर्खता भरी बातों की छाप को धारा 370 पर सुप्रीम कोर्ट की इस राय में किसी न किसी रूप में इकट्ठा पाया जा सकता हैं।
बाबरी मस्जिद को ढहा कर अयोध्या की उस विवादित ज़मीन को मनमाने ढंग से राम मंदिर बनाने के लिए सौंपने के सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की तरह ही भारतीय राज्य के संघीय ढाँचे को ही ढहाने की दिशा में यह एक भयंकर फ़ैसला है । गौर करने की बात है कि इस फ़ैसले को लिखने में वर्तमान मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने प्रमुख भूमिका अदा की है जो राम मंदिर वाले फ़ैसले की पीठ में भी शामिल थे ।
सॉलिसिटर जनरल ने सुप्रीम कोर्ट को कह दिया कि कश्मीर में विधान सभा का चुनाव शीघ्र कराया जायेगा, और सुप्रीम कोर्ट ने उनके कथन को ही पत्थर की लकीर मान कर उसी के आधार पर इतना महत्वपूर्ण फ़ैसला लिख मारा, क्या कोई इस पर कभी यक़ीन कर सकता है ! पर इस मामले में बिलकुल यही हुआ है ।
सब जानते हैं कि जिस राज्य में राष्ट्रपति शासन होता है, उसमें चुनाव के प्रस्ताव को संसद के अनुमोदन की ज़रूरत होती है । पर हमारे आज के ज्ञानी सुप्रीम कोर्ट के अनुसार उसके लिए सॉलिसिटर जेनरल का आश्वासन ही काफ़ी है ! इससे लगता है जैसे सुप्रीम कोर्ट ने सॉलिसिटर जेनरल को ही भारत की संसद का मालिक मान लिया है !
हमारा सवाल है कि जो सीजेआई किसी वकील के कथन को, भले वह भारत का सॉलिसिटर जनरल ही क्यों न हो, भारत के संसद की राय मान कर फ़ैसला देने का बचकानपन कर सकता है, क्या वह किसी भी पैमाने से संवैधानिक मसलों पर विचार करने के योग्य हो सकता है ? धारा - 370 के इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के दुर्भाग्यपूर्ण फ़ैसले में यही साबित हुआ है ।
अनेक झूठे मामलों में फँसा कर जेलों में बंद विपक्ष के नेताओं, नागरिक अधिकारों के कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को बेल देने के बजाय जेलों में सड़ाने में आज का सुप्रीम कोर्ट सबसे अधिक तत्पर नज़र आता है । इसी प्रकार महाराष्ट्र की तरह की मोदी की अनैतिक राजनीतिक करतूतों से जुड़े मामलों पर फ़ैसलों की भी उसे कोई परवाह नहीं है । पर राजनीतिक महत्व के जटिल मामलों पर भी बेतुके ढंग से संविधान की व्यवस्थाओं को ताक पर रख कर फ़ैसले सुनाने में इस सुप्रीम कोर्ट को ज़्यादा हिचक नहीं होती है ।
धारा 370 पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से एक ही सत्य को चिल्ला-चिल्ला कर कहा गया है कि अदालतें राजसत्ता का अभिन्न अंग होती है । संसदीय जनतंत्र का यह एक खंभा है, पर अन्य से स्वतंत्र नहीं, उसका सहयोगी खंभा ।
वर्तमान सीजेआई ने अपने इस प्रकार के कई फ़ैसलों से भारत में तानाशाही के उदय का रास्ता जिस तरह साफ़ किया है उसके बाद क्या यह कहना उचित नबीं होगा कि चुनाव आयोग के चयन की प्रक्रिया से उन्हें मोदी ने ही जिस प्रकार अपमानित करके क़ानून के ज़रिए निकाल बाहर किया है वह उन्हें उनके कर्मों की ही एक उचित सजा है ।
हमारे सीजेआई के एक के बाद एक संविधान-विरोधी, अविवेकपूर्ण और फ़ालतू राष्ट्रवादी फ़ैसलों के समानांतर उनकी लंबी-चौड़ी भाषणबाजियों को देख कर सचमुच एक ही बात कहने की इच्छा होती है — ‘अध जल गगरी छलकत जाय’ ।
कहना न होगा, डी वाई चंद्रचूड़ ने भारत के संवैधानिक इतिहास में अपने लिए एक नागरिक स्वतंत्रता और जनतंत्र के विरोधी का स्थान सुरक्षित कर लिया है ।
दूसरी टिप्पणी:
शुक्रवार, 19 जनवरी 2024
क्या सीजेआई का ज्ञान ही उनका दुश्मन बन गया है ?
(सीजेआई चंद्रचूड़ पर एक मनोविश्लेषणात्मक टिप्पणी)
—अरुण माहेश्वरी
आज क़ानून संबंधी विमर्शों की जानकारी रखने वाला हर व्यक्ति यह जान चुका है कि हमारे सीजेआई डी वाई चंद्रचूड़ ने ही रामजन्मभूमि विवाद, धारा 370 जैसे भारत के संविधान के इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण विवादों पर राय को लिखने में प्रमुख भूमिका अदा की है । ये वे मुद्दे हैं, जिन पर वर्तमान शासक आरएसएस और बीजेपी की हिंदू राष्ट्र की वह पूरी विचारधारा टिकी हुई है जो संविधान के मूलभूत ढाँचे को परिभाषित करने वाले पंथ-निरपेक्ष और संघवाद के प्रमुख तत्वों के पूरी तरह से विरोध की विचारधारा है ।
इसके अलावा हर आदमी यह भी जानता है कि चंद्रचूड़ जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस रंजन गोगोई की तरह के भ्रष्ट और पदलोभी व्यक्ति नहीं हैं । ज्ञान की दृष्टि से अपेक्षाकृत ज़्यादा कुशाग्र और समृद्ध व्यक्ति के रूप में भी उनकी एक स्वीकृति रही है, क्योंकि हाईकोर्ट के जज के वक्त से ही अन्य न्यायाधीशों की तुलना में फ़ैसलों को लिखने के कौशल के मामले में वे पारंगत माने जाते हैं । वे जिस विश्वास के साथ संविधान में प्रदत्त नागरिक स्वतंत्रता की बात किया करते हैं, उसे संविधान के प्रति उनकी निष्ठा का भी एक संकेत समझा जाता है।
लेकिन जब एक ऐसा कथित रूप से ज्ञानी, तार्किक, और संविधान की मूल भावनाओं की क़सम खाने वाला मुख्य न्यायाधीश ही संविधान के मूलभूत ढाँचे को तहस-नहस करके एक धर्म-आधारित राज्य और संघीय ढाँचे की जगह धर्म-आधारित एकीकृत, तानाशाही राज्य की स्थापना की राजनीति का रास्ता साफ़ करने वाले संविधान-विरोधी फ़ैसलों में प्रमुख भूमिका अदा करता हुआ दिखाई दें, तो स्वाभाविक रूप में वह एक ऐसे विशिष्ट चरित्र के रूप में उभर कर आता है जिसकी मनोविश्लेषणात्मक व्याख्या से किसी भी ज्ञानी चरित्र में विक्षिप्तता की हद तक जाने वाले मनोरोग के कुछ सामान्य कारणों की सिनाख्त की जा सकती है ।
चंद्रचूड़ महोदय ने अपने फ़ैसलों से ही नहीं, चंद रोज़ पहले अपनी गुजरात यात्रा और मंदिरों के शिखर पर उड़ने वाले ध्वजों को न्याय के ध्वज बता कर भी अपने इन लक्षणों के संकेत दिए थे ।
यही वजह रही कि हाल में जब सुप्रीम कोर्ट से बिलकीस बानो के अपराधियों को फिर से जेल भेजने और मथुरा की ईदगाह मस्जिद में सर्वे कराने के इलाहाबाद हाईकोर्ट के बेतुके फ़ैसले पर रोक लगाने के महत्वपूर्ण और स्पष्ट फ़ैसले आए, तब हम यह कहने से खुद को रोक नहीं पाए कि सारी संभावित क़ानूनी पेचीदगियों को ख़ारिज करते हुए ये फ़ैसले इसीलिए संभव हुए क्योंकि इन फ़ैसलों पर सीजेआई चंद्रचूड़ की ‘विद्वता’ की कोई छाया नहीं पड़ पाई थी ।
बहरहाल, मनोविश्लेषण के सिद्धांतों में विवाद का हर प्रश्न स्वंय में एक प्रमाता (subject) के साथ ही एक संकेतक (signifier) की तरह भी होता है । इसमें सुप्रीम कोर्ट की भूमिका संविधान के परिप्रेक्ष्य में उस संकेतक की व्याख्या करने की भूमिका की होती है । अर्थात् उस मामले का जो पहलू अव्यक्त है पर वह प्रमाता के अवचेतन की भाँति उसमें अन्तर्निहित है, सुप्रीम कोर्ट की भूमिका उस अवचेतन को प्रस्तुत करने की होती है । मनोविश्लेषण में व्याख्या का अर्थ ही होता है अवचेतन को रखना ।
जैसे कोई विश्लेषक मनोरोग के संकेतों से उसके लक्षणों को पकड़ कर विश्लेषण के ज़रिए रोगी को उसकी बाधा से मुक्त करता है और उसे सामान्य जीवन में वापस लाता है, उसी प्रकार हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट की तरह की अदालतें भी, जो ट्रायल कोर्ट नहीं होतीं बल्कि नीचे की अदालतों और कार्यपालिका आदि के फ़ैसलों और क़ानूनी पेचीदगियों की व्याख्या करती हैं, विवाद के मसलों की क़ानूनी व्याख्याओं के ज़रिए उन्हें भारत के संविधान के द्वारा प्रस्तावित विधियों की संगति में स्थापित करती है । इस उपक्रम में ज़रूरत पड़ने पर वह प्रचलित विधियों की भी नये सिरे से व्याख्या करके उन्हें संविधान की मूलभूत भावना और उसके मूल ढाँचे के अनुरूप पुनर्गठित भी करती है । जो अन्याय समाज में प्रचलित है पर संविधान जिनकी अनुमति नहीं देता है, न्यायपालिका उन अन्यायों को दूर करने के लिए भी प्रभाव डालने की विधायी भूमिका अदा करती है।
इस प्रकार, कुल मिला कर, साधारण भाषा में, अंतिम निष्कर्ष में अदालत की भूमिका विवाद के मसले का संविधान-सम्मत हल ढूँढ कर क़ानून के शासन को क़ायम करना होता है ।
साधारण जीवन वैसे भी सामान्यतः तमाम मूलभूत नैतिकताओं के पालन के ज़रिए एक प्रकार के क़ानून के शासन के अधीन चला करता है । पर जब उसमें मूलभूत नैतिकताओं से, ‘जीओ और जीने दो’ के मूलभूत मानवीय व्यवहार से विचलन होता है, तो समाज प्रचलित मान्यताओं और उनके क़ानूनी प्रावधानों के ज़रिए उसे नियंत्रित करता है । जनतंत्र में दैनंदिन जीवन के इस काम का मूल दायित्व अदालत का होता है जो जन-प्रतिनिधियों के द्वारा बनाए गए क़ानूनों पर अमल को ही सुनिश्चित नहीं करती है, बल्कि संविधान के मूलभूत आदर्शों की कसौटी पर समय-समय बनाए जाने वाले क़ानूनों या क़ानून में संशोधनों की भी समीक्षा करती है।
मनुष्य अपने निजी जीवन में जिस प्रकार सामाजिक मान्यताओं और मर्यादाओं का पालन करते हुए जीने की कोशिश करता है, सिगमंड फ्रायड ने इसे आनंद सिद्धांत (pleasure principle) कहा था । जब कोई मनोरोगी विक्षिप्त होकर सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन करता है तब उसे पुनः मर्यादाओं के दायरे में लाने का काम मनोविश्लेषक का होता है, जो उसके सोच की व्याख्या से उसे सामान्य बनाता है । इसप्रकार, मनोविश्लेषण का काम यथार्थ की व्याख्या से आनंद सिद्धांत की सेवा करना होता है। महान मनोविश्लेषक जॉक लकान कहते हैं कि ‘यथार्थ सिद्धांत (reality principle) आनंद सिद्धांत की सेवा करता है ।’
मनोविश्लेषण के इसी सूत्र को यदि हम न्यायपालिका की व्याख्यामूलक भूमिका पर लागू करके देखें तो कहना होगा कि न्यायपालिका का काम विवाद के विषयों की व्याख्या के ज़रिए चीजों को संविधान के दायरे में स्थित रखने का होता है । न्यायपालिका की भूमिका संविधान और क़ानून के पालन के आनंद सिद्धांत की सेवा की भूमिका होती है ।
जैसा कि हमने पहले ही कहा , न्यायपालिका के सामने विवाद का हर प्रश्न स्वयं में एक संकेतक की तरह होता है । जॉक लकान कहते हैं कि किसी भी अकेले संकेतक का स्वयं में कोई मायने नहीं होता है । अकेला संकेतक ऐसे विरही की तरह होता है जो अपने होने के अर्थ की तलाश में अन्य संकेतक की बाट जोह रहा होता है, उसके लिए तड़पता है और यह अन्य संकेतक ज्ञान के क्षेत्र से आता है । ऐसे में अक्सर एक नियम की तरह ही वहां विवादी पक्ष की दलीलें उसे भटकाने के लिए पहले से मौजूद रहती हैं। उनकी भूमिका परोक्षतः विचार को भटकाने की, अर्थात् भ्रम पैदा करने की होती है । मज़े की बात यह है कि विचार, अर्थात् संकेतक की व्याख्याओं का प्रस्थान इसी विपरिसंकेत से हुआ करता है । इसे ही बिल्कुल सही कहा गया हैं — व्याख्या का मतिभ्रम (Interpretation of delusion)। हर व्याख्या में इस मतिभ्रम का ढाँचा अनिवार्यतः मौजूद रहता है ।
जॉक लकान ने ऐसी स्थिति में ही सावधानी बरतने की सलाह देते हुए कहा था कि जब विश्लेषक कोई व्याख्या करता है और किसी भी कारण या दबाव के चलते यह आशंका हो कि उससे विश्लेषण के बजाय उल्टे नये भ्रम पैदा होंगे, तब विश्लेषक के लिए यही उचित होता है कि वह एक बार के लिए चुप्पी साध ले । अर्थात्, यदि परिस्थितिवश न्यायाधीशों को संविधान-सम्मत उपाय से राय देने में बाधा महसूस हो रही हो, तो उनके लिए संविधान के प्रति अपनी निष्ठा पर बने रहने के लिए ही चुप्पी साध लेना ज़्यादा बेहतर होता है, बजाय इसके कि वह बढ़-चढ़ कर अपने खुद के ज्ञान का परिचय देने के लिए ही, खुद ही संविधान की सीमाओं का अतिक्रमण करने लगे और भ्रम निवारण के बजाय और भी नये भ्रम उत्पन्न करने लग जाए।
मनोविश्लेषण की भाषा में कहें तो इसे इस प्रकार कहा जाता है कि जब विश्लेषक के सामने विश्लेषण से नए भ्रम उत्पन्न होने की आशंका हो तब उसे मूल संकेतक S1 तक ही खुद को सीमित रखना चाहिए और अपने पांडित्य के अन्य संकेतक S2 , जो उसे सीमा का अतिक्रमण करके भटकने के लिए उकसाता है, पर लगाम लगानी चाहिए ।
कहना न होगा, हमारे सुप्रीम कोर्ट के सीजेआई डी वाई चंद्रचूड़ को भी आज उनका यह पांडित्य ही सता रहा है और उनमें वह अति-उत्साह पैदा कर रहा है जिसके कारण वे संविधान के मूल भाव और मूल ढाँचे का अक्सर अतिक्रमण करने के लिए मचल उठते हैं और आज के संविधान-विरोधी मोदी शासन के जाल में फँस जाते हैं । इसके चलते ही उनके अनेक फ़ैसले संविधान की रक्षा की क़सम खाते हुए भी संविधान पर प्राणघाती हमला साबित होते हैं । सीजेआई का यह अतिरिक्त ज्ञान ही उन्हें सिखाता है कि न्यायपालिका का कर्तव्य है शासन की मदद करना । पर जो शासन ही राज धर्म का पालन नहीं करता है, उसके प्रति न्यायपालिका का नज़रिया क्या होना चाहिए, यह तय करने में वे पूरी तरह से चूक जाते हैं ।
इस प्रकार, कहना न होगा, हमारे सीजेआई अपनी पूरी ईमानदारी और अपने अगाध ज्ञान के साथ बड़ी आसानी से बार-बार न्यायपालिका को एक परम दमनकारी और अनैतिक शासन के हाथ के औज़ार में बदल देने का भारी दोष कर बैठते हैं । उनका ज्ञान ही उन्हें एक निष्ठावान न्यायाधीश से अपेक्षित प्रचार-विमुखता के शील का भी पालन नहीं करने देता हैं । वे अक्सर बहुत ज़्यादा भाषणबाज़ी और प्रचार पाने के चक्कर में सार्वजनिक जीवन में ऐसे स्खलन का प्रदर्शन करते हैं, जिसकी एक निष्ठावान न्यायाधीश से उम्मीद नहीं की जाती है । वे गेरुआ वस्त्र धारण करके मंदिरों के ध्वज को भारतीय राज्य के तिरंगा ध्वज की तरह न्याय का ध्वज तक बताने से परहेज़ नहीं करते !
अंत में हम यही कहेंगे कि हमारे सीजेआई महोदय क़ानूनी व्याख्याओं के लिए संविधान के संकेतों तक ही अपने को सीमित रखें और अपने ज्ञान के प्रदर्शन के लोभ से बचें, इसी में हमारे राष्ट्र की भलाई है । उनका प्रदर्शनकारी ज्ञान अब शुद्ध रूप में फासिस्टों की, अर्थात् संविधान पर कुठाराघात करने के लिए आमादा शक्तियों की मदद कर रहा है । उस पर वे जितना लगाम लगायेंगे, उतना ही हमारे संविधान का भला होगा ।