शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

वाम मोर्चा सरकार के 34 साल



अरूण माहेश्वरी
(पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार के बारे में यह लेख सन् 2010 में लिखा गया था )

इसी 21 जून 2010 को पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार 33 साल पूरे करके 34वें साल में प्रवेश कर चुकी है।

पश्चिम बंगाल में अद्र्ध-फासिस्ट आतंक और सारे देश में आंतरिक आपातकाल और इनके खिलाफ संघर्ष की जिस पृष्ठभूमि में सन् 1977 में वाम मोर्चा सरकार का गठन हुआ था, उस समय जनता से यह वादा किया गया था कि जनता के जनतांत्रिक अधिकारों, उसकी स्वतंत्रताओं की पुनस्र्थापना की जायेगी, इन अधिकारों की रक्षा करते हुए इनका आगे और विस्तार किया जायेगा तथा आम लोगों के जीवन-संघर्षों में वाम मोर्चा सरकार उनके एक विश्वस्त साथी और प्रभावशाली हथियार की भूमिका अदा करेगी। इस वादे के साथ जब पहली वाम मोर्चा सरकार बनी तो एक आपात धर्म की तरह उसने जनता के जनवादी अधिकारों की पुनस्र्थापना के काम का बीड़ा उठाया और पहले पांच वर्षों के अंदर ही राज्य के राजनीतिक परिवेश की सूरत बदल दी गयी। हिंसा, अराजकता और आतंक के स्थान पर जनतंत्र, सुशासन और भय-मुक्त परिवेश कायम हुआ। आम जनता के जीवन संघर्षों के हथियार के रूप में गांवों मेंं भूमि-सुधार के जरिये जिस बुनियादी परिवर्तन का सूत्रपात किया गया वह आज भी सारी दुनिया में राजनीतिशास्त्र के विद्यार्थियों के अध्ययन का एक महत्वपूर्ण विषय बना हुआ है। उल्लेखनीय रूप में इस सरकार के इन 33 वर्षों के काल में पश्चिम बंगाल की कषि व्यवस्था को उसके सदियों के संकट से मुक्त कर दिया गया है।

पहली वाम मोर्चा सरकार

इक्कीस जून 1977 के दिन पहली वाम मोर्चा सरकार के मंत्रियों ने शपथ ली थी और इसके बाद ही राइटर्स बिल्डिंग ( राज्य के सचिवालय ) के सामने मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने ऐलान किया, वाम मोर्चा सरकार सिर्फ राइटर्स बिल्डिंग से नहीं चलेगी, यह आम लोगों और उनके जनसंगठनों के साथ नजदीकी संपर्क बना कर चलेगी ताकि उनकी प्रभावशाली ढंग से सेवा की जा सके। 22 जून को आकाशवाणी के कोलकाता केंद्र से दिये गये अपने भाषण में ज्योति बसु ने वाममोर्चा सरकार के कार्यों की दिशा को और ज्यादा स्पष्ट करते हुए कहा, पिछले कई वर्षों में इस राज्य की जनता की स्वतंत्रता और उनके अधिकारों पर व्यापक हमले किये गये। इन सबको छीन लेने की साजिश रची गयी थी। वाममोर्चा सरकार की ओर से हम आपको आश्वस्त करना चाहते हैं कि आम लोगों की स्वतंत्रता और उनके अधिकारों को फिर से स्थापित करने तथा उनकी रक्षा करने के काम को पूरी प्राथमिकता देंगे। कृषि,खाद्य, वस्त्र, आवास, परिवहन, बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य, और यहां तक कि पीने के पानी - पिछले वर्षों में तमाम क्षेत्रों में समस्याएं इकी होगयी है। व्यापक बेरोजगारी, बंद कारखाने, छंटाई, नियोजन की कमी, बिजली की कमी - ये सब समस्याएं बुरी तरह बढ़ गयी है। ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति का तो वर्णन भी नहीं किया जा सकता है। हम गंभीरता और आंतरिकता के साथ इन सभी समस्याओं से मुकाबला करेंगे। ...वाममोर्चा सरकार नौकरशाही नजरिये से नहीं चलेगी। हम आम लोगों और उनके संगठनों के सक्रिय सहयोग के जरिये ही काम करने की कोशिश करेंगे। यह सरकार दमन के जरिये जनतांत्रिक आंदोलन को नहीं तोड़गी। वाममोर्चा की यह हार्दिक इच्छा है कि जनता के जनवादी आंदोलन के लिये नयी दिशा का उन्मोचन हों।
ज्योति बसु ने ही पार्टी के बांग्ला साप्ताहिक मुखपत्र ‘देशहितैषी’ के 1977 के शारदीय विशेषांक में और विस्तार के साथ ठोस तथ्यों का हवाला देते हुए वाममोर्चा सरकार के कामों के बारे में एक लेख लिखा जिसका शीर्षक था: ‘जिस स्थिति में हमें काम करना पड़ रहा है’। इसमें राज्य में परिवहन और रास्तों की दुरावस्था का वर्णन करने के बाद ही विस्तार से ग्रामीण क्षेत्र की चर्चा की गयी है। कहा गया है कि , हमारे राज्य में कुल कृषि योग्य जमीन 1 करोड़ 36 लाख एकड़ है। एक हिसाब से देखा गया है कि कृषि योग्य कुल जमीन के सिर्फ 4 प्रतिशत हिस्से को 24 वर्षों बाद पुनर्वितरित करना संभव होपाया है। भूमिसुधार का मुख्य उद्देश्य यह था कि मुी भर गैर-किसान तबकों के पास जो भारी मात्रा में जमीन का संकेंद्रण हो रखा था, उस जमीन को सरकारी तौर पर भूमिहीन और गरीब किसानों के बीच बांट दिया जाए। इस हिसाब से जाहिर है कि पिछले दो दशकों से भी अधिक काल में भूमिसुधार के प्राथमिक लक्ष्य को भी पूरा नहीं किया गया है। दूसरी ओर तथ्यों को इका करने पर पता चलता है कि हमारे राज्य में लगभग 20 लाख परिवार भूमिहीन खेतमजदूरों के रूप में काम करते हैं और 15 लाख परिवार 0.5 हेक्टेयर से भी कम जमीन पर खेती करते हैं। इसप्रकार इन 35 लाख भूमिहीन और गरीब किसान परिवार की जमीन की जरूरत को स्वीकारना होगा। प्रत्येक परिवार को यदि एक एकड़ के हिसाब से भी जमीन दी जाए तो 35 लाख एकड़ जमीन की जरूरत पड़ेगी। इसकी जगह सिर्फ 6 लाख 25 हजार एकड़ जमीन वितरित की गयी है। जमीन की मांग और आपूर्ति पर तुलनात्मक रूप से विचार करने पर पता चलता है कि इन दोनों के बीच इतना अधिक फर्क है कि यह बात निर्विवादित रूप में प्रमाणित हो जाती है कि पिछले 24 वर्ष में पूर्व सरकार भूमिसुधार के क्षेत्र में पूरी तरह से विफल रही है। इसके साथ ही यदि हम यह देखे कि सिर्फ 4 प्रतिशत लोगों के पास कृषियोग्य जमीन का बड़ा हिस्सा (29.6 प्रतिशत) हैं, तब हम इस निष्कर्ष पर आसानी से पहंुच सकते हैं कि जमींदारी और भूमिसुधार संबंधी कानूनों के जरिये हमारे राज्य की ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था के ढांचे के पुनर्विन्यास की जो कोशिश की गयी थी वह वास्तव में विफल रही है। जाहिरा तौर पर भूमिसुधार के इन कदमों से दो परस्पर-विरोधी समस्याएं पैदा हुई है - एक ओर थोड़े से जमीन के मालिकों के पास अधिकांश जमीन का कब्जा है, दूसरी ओर लाखों भूमिहीन और गरीब किसानों की जमीन की मांग पूरी नहीं हुई है। इसके परिणामस्वरूप किसी भी कीमत पर एक टुकड़ा जमीन पाने के लिये भूमिहीन किसानों को जमीन के मालिकों पर पूरी तरह से निर्भर रहना पड़ता है। इतनी बड़ी भारी समस्या का कोई भी रातो-रात समाधान नहीं कर सकता है। जमीन के बड़े-बड़े मालिक गैर-कानूनी ढंग से हदबंदी से ज्यादा जो जमीन रखे हुए हैं, उस अतिरिक्त जमीन को खोज निकालना और उसे लाखों खेतमजदूरों, बंटाईदारों के बीच वितरित करना ही हमारा लक्ष्य और उद्देश्य है। लेकिन यह काम बहुत आसानी से नहीं होगा, यह भी सब जानते हैं। 25 वर्षों के काम को क्या कुछ महीनों में कर लेना संभव है?

ज्योति बसु का यही प्रश्न पहली वाममोर्चा सरकार के सामने सबसे प्रमुख चुनौती था। यहां मामला सिर्फ सवाल उठा कर हवा में छोड़ देने का नहीं था। यथार्थ की ठोस जमीन पर इस सवाल का सही उत्तर तलाश करना था, अर्थात चुनौती को स्वीकार कर उस पर अमल करने का था। वाम मोर्चा का किसी प्रकार के स्वत:स्फूर्त विकास, जिसे आम आर्थिक शब्दावली में चू कर पंहुचने वाले विकास के लाभ का सिद्धांत कहा जाता है, पर कभी कोई विश्वास नहीं रहा है। उसका यह मानना है कि आम लोग खुद अपने बुरे-भले के सबसे अच्छे निर्णायक होते हैं, वे अपनी समस्याओं और प्राथमिकताओं को खुद तय कर सकते हैं और कम से कम संसाधनों के भी समुचित उपयोग का रास्ता चुन सकते हैं। जरूरत है आम लोगों के वास्तविक सशक्तिकरण की। विकास के सभी कामों में आम गरीब लोगों को सीधे तौर पर भागीदार बनाये बिना उनके जीवन में सुधार लाना या उन्हें किसी प्रकार की राहत देना मुमकिन नहीं है। और इसी समझ के साथ, वाम मोर्चा सरकार के बनने के बाद, सत्ता के विकेंद्रकरण और आम गरीब जनता की भागीदारी को सुनिश्चित करने वाले प्रशासनिक तंत्र को एक सांस्थानिक रूप देने की प्रक्रिया का प्रारंभ हुआ। तेजी के साथ देहातों और शहरों में स्थानीय सरकारों का, स्वशासी स्थानीय निकायों का एक सांस्थानिक ढांचा तैयार करने के काम को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गयी।

कांग्रेस के लोग भी पंचायती राज की बातें किया करते थे, लेकिन यह सचाई है कि वाममोर्चा सरकार के पहले पश्चिम बंगाल में ऐसी स्थानीय स्वशासी संस्थाएं लगभग मरी हुई पड़ी थी। 1978 में राजनीतिक पार्टियों के आधार पर पंचायतों के चुनावों की घोषणा करके तथा 1967 और 1969 की संयुक्त मोर्चा सरकारों के काल में पश्चिम बंगाल के गांवों में जो नया आलोड़न पैदा हुआ था, उसके सूत्र को थाम कर गांव-गांव में जमीन के आंदोलन को एक नयी गति दी गयी। भारत में पहली बार किसी राज्य में पंचायतों के त्रि-स्तरीय चुनाव राजनीतिक पार्टियों के आधार पर लड़े गये। इसने राज्य में किसान आंदोलन को एक नया वेग प्रदान किया। पंचायत चुनावों में सीधे तौर पर एक ओर गरीब और भूमिहीन किसान दिखाई दे रहे थे और दूसरी ओर देहातों के निहित स्वार्थ के तबके लगे हुए थे। इसके साथ ही सरकार की ओर से भूमिहीनों के बीच सरकारी जमीन के वितरण और बाद में आपरेशन वर्गा ने यह साफ कर दिया कि सरकार का रुख किस ओर है। इसने गांव के गरीबों की अधिकार चेतना को और भी मजबूती प्रदान की। इससे पश्चिम बंगाल में सच्चे और मूलगामी भूमि सुधार की जिस नयी प्रक्रिया का प्रारंभ हुआ उसे हम पश्चिम बंगाल में एक बड़े बुनियादी परिवर्तन का प्रमुख कारक कह सकते हैं।

जनतंत्र का मूल अर्थ है सत्ता का विकेंद्रीकरण और इसके प्रारंभिक बिंदु को  सत्ता का वि-नौकरशाहीकरण कहा जा सकता है। पश्चिम बंगाल में प्रशासनिक सुधार के पहले कदम के तौर पर ही ग्रामीण विकास के सभी कार्यक्रमों पर अमल की जिम्मेदारी प्रखंड अधिकारियों के दफ्तरों से निकाल कर पंचायतों के जिम्मे दे दी गयी। फलत:, गांव के गरीब और सीमांत किसानों, कारीगरों, खेतमजदूरों, प्राथमिक स्कूल के शिक्षकों, छोटे दुकानदारों, महिलाओं और अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के बीच से गांव का नया नेतृत्व तैयार होने लगा।
शहरी विकास के लिये पहली बार 1980 में एक शहरी विकास रणनीति तैयार की गयी, जिसमें नगरपालिकाओं के सशक्तिकरण के जरिये विकास की सारी जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी गयी। राजनीतिक आधार पर ही नगरपालिकाओं के भी नियमित चुनाव शुरू हुए।
स्थानीय स्वशासी निकायों को बल पहुंचाने के लिये वित्तीय प्रणाली के विकेंद्रीकरण को प्राथमिकता के साथ अपनाया गया। स्थानीय निकायों को अपने संसाधनों को जुटाने के मामले में स्वायत्त बनाने के अलावा राज्य के राजस्व के एक हिस्से को सीधे तौर पर स्थानीय निकायों को सौंप देने की नीति अपनायी गयी। इस दिशा में 1979 की भावतोश दत्ता कमेटी और 1990 की मोहित भाचार्य कमेटी तथा फिर 1995 की सत्यब्रत सेन कमेटी की सिफारिशों की भारी भूमिका रही, जिनके चलते आज राज्य के कुल राजस्व का 16 प्रतिशत हिस्सा सीधे स्थानीय निकायों को अपनी योजनाओं को तैयार करने और उन पर अमल करने के लिये सौंप दिया जाता है।
इसीप्रकार विकेंद्रित योजना की अभिनव अवधारणा पर काम किया गया। राज्य स्तरीय योजना के अलावा जिला और प्रखंड स्तरीय योजना को भी सांस्थानिक रूप दिया गया और राज्य प्लानिंग बोर्ड के अतिरिक्त जिला प्लानिंग कमेटियों तथा प्रखंड प्लानिंग कमेटियों का गठन किया गया। आज तक इसे और अधिक प्रभावशाली बनाने के लिये नित नये प्रयोग चल रह हैं। क्षेत्रीय विषमता की तरह की समस्याओं से बचने के लिये क्षेत्रीय विकास प्राधिकरणों का गठन करने की नीति को अपनाया गया। आम प्रशासन और पुलिस प्रशासन में सुधार के लिये भी ठोस अध्ययन के आधार पर कई कदम उठाये गये। प्रशासनिक सुधार के लिये डा.अशोक मित्र की अघ्यक्षता में गठित प्रशासनिक सुधार कमेटी और पुलिस आयोग की सिफारिशें इन क्षेत्रों में काफी महत्वपूर्ण रही है। इनके अलावा समाज के कमजोर तबकों और अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिये, सांप्रदायिक सद्भाव को बनाये रखने और महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिये जो ठोस सांस्थानिक कदम उठाये गये, उनसे भी पश्चिम बंगाल में एक ऐसा समग्र प्रशासनिक तंत्र कायम हुआ है, जो आज पहले के किसी भी समय की अपेक्षा आम जनता की समस्याओं और उनकी स्वतंत्रता तथा उनके अधिकारों की रक्षा के प्रति कहीं ज्यादा संवेदनशील है।

वाममोर्चा सरकार को अपनी सीमाओं और सीमित संवैधानिक अधिकारों का हमेशा से पूरा अहसास रहा है। आम लोगों को भी वह इसके बारे में हमेशा सचेत करती रही है। इसीलिये सिर्फ सरकार के मुखापेक्षी रहने के बजाय, व्यापक जनता अपनी सांगठनिक शक्ति के बल पर अपने अधिकारों की रक्षा करें, इसपर पार्टी और सरकार दोनों ही लगातार बल देते रहे हैं। मजदूरों, कर्मचारियों, आम नागरिकों, महिलाओं, नौजवानों और छात्रों के तमाम संगठनों को सरकार की ओर से सक्रिय सहयोग दिया जाने लगा। सरकारी तंत्र समाज के गरीबों और मेहनतकशों के किसी भी आंदोलन के खिलाफ दमनकारी रुख नहीं अपनायेगा, वाममोर्चा की इस बुनियादी प्रतिश्रुति ने राज्य की जनता के जनवादी आंदोलन के विकास में बेहद सहयोगी भूमिका अदा की और आम लोगों ने अपने आंदोलनों के जरिये अपने जीवन में सुधार को हासिल भी किया। इस प्रकार राजनीतिक सदीच्छा के साथ ही प्रशासनिक व्यवहार के इस योग ने पश्चिम बंगाल के राजनीतिक-आर्थिक परिदृश्य को क्रमश: आम लोगों के पक्ष में बदलने में जो महत्वपूर्ण भूमिका अदा की उसकी नजीर भारत में और कही भी देखने को नहीं मिलती है। और यही राज है पश्चिम बंगाल में देखी जाने वाली बेनजीर राजनीतिक स्थिरता का, जो आज कृषि के बाद औद्योगिक क्षेत्र में भी इस राज्य के सर्वांगीण विकास और विकास के लाभों को व्यापक जनता तक पहुंचाने में मददगार साबित हो रही है।

सच्चा भूमि सुधार

पश्चिम बंगाल के कृषि संकट, खाद्य संकट और गांव के लोगों की भयानक दरिद्रता का अपना एक बड़ा ऐतिहासिक संदर्भ रहा है। अंग्रेजों के जमाने में ही बंगाल प्रेसिडेंसी में लार्ड कार्नवालिस के इस्तेमारी बंदोबस्त (1793) और उससे पैदा होने वाली जोतदारों की जमात ने गांव के लोगों के दरिद्रीकरण की प्रक्रिया को बेहद तेज कर दिया था। ब्रिटिश सरकार ने 1859 के रेंट एक्ट और 1885 के टिनेंसी एक्ट के जरिये छोटे किसानों के हितों की रक्षा की जो कार्रवाई की थी, उसका लाभ भी बिल्कुल उल्टे उन लोगों ने ही उठाया जो कुछ बेहतर स्थिति वाले ऐसे किसान थे जो खुद जमीन पर काम नहीं करते थे, बल्कि सिर्फ लगान वसूला करते थे। बंगाल के किसानों के दरिद्रीकरण में नील और पाट की तरह की मैनुफेक्चरिंग के काम में आने वाली और मूलत: निर्यात होने वाली नगद फसलों की भी काफी भूमिका रही क्योंकि अंतराष्ट्रीय बाजार में इन कच्चे मालों की तेजी-मंदी की मार को हमेशा किसी न किसी रूप में किसानों को सहना पड़ता था।
इस प्रक्रिया में 20वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों तक आते-आते बंगाल के ग्रामीण क्षेत्रों में एक ओर जहां बड़े-बड़े जमींदार थे जो महाजनी, गल्ले का कारोबार और इसी प्रकार के दूसरे धंधे भी किया करते थे और दूसरी ओर व्यापक गरीब किसान थे, जो अपनी फसल के बिक्री के लायक अधिकांश अंश को किसी न किसी लगान, ब्याज या किराया वसूलने वाले को देने के लिये मजबूर रहते थे। इन सबकी मार से गरीब किसान अपनी जमीन से हाथ धोकर जोतदार-महाजन-गल्ले के व्यापारियों की जमीन पर बंटाईदारों में तब्दील होने लगा। बंटाईदार अपने इन मालिकों के आदेश पर बेगार में गैर-कृषि के कामों को करने के लिये भी मजबूर होते थे और मालिक की जब मर्जी हो, उसे उसकी जमीन से बेदखल किया जा सकता था। इसप्रकार जिसे अकादमिक क्षेत्र में विकसानीकरण (depesantisation), बंगाल में उन दिनों कुछ ऐसा ही चल रहा था।
यही वह ऐतिहासिक पृष्ठभूमि थी जिसमें 20 के दशक से ही बंगाल में बंटाईदारों के आंदोलन जगह-जगह सर उठाने लगे। 1930 के जमाने से बंटाईदारों के हिंसक आंदोलनों की भी कई नजीरें मिलती है। फसल का कितना भाग जमीन के मालिक का होगा और कितना बंटाईदार का, इन आंदोलनों का यह एक सबसे प्रमुख मुद्दा हुआ करता था। सबसे पहले 1930 में मेदिनीपुर जिले के पांच स्थानों, गोपीनाथपुर, प्रतापदिघी, कांथी, घाटाल और वहां के सदर सब-डिविजन के खिराई में बंटाईदारों और सशस्त्र बलों के बीच सीधी लड़ाई हुई। 1931 में इसी जिले के कांथी, भगवानपुर, खेजुड़ी, नंदीग्राम और महिषादल में इन संघर्ष ने और गंभीर रूप ले लिया। 1939 में बड़े महाजनों ने आंदोलनकारी बंटाईदारों को सबक सीखाने के लिये जमीन को जुतवाने तक से इंकार कर दिया। बदले में बंटाईदारों ने खेती के लिये तैयार किये गये पौधों को नष्ट कर दिया और मवेशियों पर हमले किये।
इसीप्रकार 1939-40 में उत्तर बंगाल के दिनाजपुर और जलपाईगुड़ी जिलों में अधियार कहे जाने वाले बंटाईदारों ने अपनी फसल को खुद बाजार में बेचने और चढ़ते हुए बाजार का लाभ लेने की मांग पर आंदोलन किये। इन तमाम प्रकार के बंटाईदारों की लड़ाई 1946-47 के जमाने में अपने शीर्ष पर पहुंची जब किसान सभा और कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में बंटाईदारों ने फसल के तीन हिस्सों में से दो हिस्सों की मांग पर उत्तर बंगाल के दिनाजपुर, रंगपुर और जलपाईगुड़ी जिलों में और दक्षिण बंगाल के मेदिनीपुर और 24 परगना जिलों में व्यापक संघर्ष छेड़ा। इस लड़ाई में किसानों ने पुलिस और जमींदारों के दमन के सामने जो त्याग और बलिदान दिये, वे आज भी भारत के  किसान आंदोलन के इतिहास के सबसे स्वर्णिम पृष्ठों के तौर पर याद किये जाते हैं। इतिहास में यही लड़ाई तेभागा आंदोलन के नाम से प्रसिद्ध है।

बंगाल के इस मजबूत किसान आंदोलन का ही दबाव था कि आजादी के बाद बनी कांग्रेस सरकार को प्रदेश के रैय्यतवारी कानून में परिवर्तन करने के लिये बाध्य होना पड़ा। आजादी के बाद टिनैंसी कानून में पहला परिवर्तन 1950 में बर्गादार (बंटाईदार) कानून के जरिये हुआ। इसमें यह प्राविधान था कि बंटाईदार और जमीन के मालिक के बीच फसल के बंटवारे को लेकर किसी भी प्रकार का समझौता हो सकता है, लेकिन यदि किसी मामले में कोई विवाद पैदा हो जाये तो वैसी स्थिति में बंटाईदार को फसल का दो-तिहाई हिस्सा मिलेगा और जमीन के मालिक को एक-तिहाई। इसके अलावा यह प्राविधान भी था कि यदि जमीन के मालिक को खुद के जोतने के लिये जमीन की जरूरत हो तो वह बंटाईदार को बेदखल कर सकता था। इस कानून के तहत सरकार को यह अधिकार दिया गया कि वह विवाद के मामले में समझौते के लिये पंचायती करने वाले बोर्डों का गठन कर सकती है।
इसके बाद मई 1953 में वेस्ट बंगाल इस्टेट्स एक्वीजीशन एक्ट पारित किया गया। इसका मूल लक्ष्य राज्य और रैय्यतों के बीच से मध्यस्थों को हटाना था। इसमें इस प्रकार के मध्यस्थ जोतदारों को खुद के पास 25 एकड़ खास जमीन रखने की इजाजत दी गयी थी। इसमें सरकार को यह अधिकार दिया गया था कि वह किसी भी व्यक्ति द्वारा, जो खुद अपनी जमीन न जोतता हो, उसके पास यदि 33 एकड़ से ज्यादा जमीन हो तो उसकी खास जमीन पर अपना कब्जा कर सकती है।
इसी क्रम में 1955 का पश्चिम बंगाल भूमिसुधार कानून आया। इसमें 1950 के बर्गादार कानून को शामिल कर लिया गया था। 1955 से लेकर 1969 तक इस कानून में कई संशोधन हुए। इसमें बंटाईदारों के संदर्भ में मुख्य रूप से यह संशोधन किया गया कि यदि जमीन का मालिक जमीन की जुताई के लिये अपना हल, मवेशी, बीज और खाद देता है तो उसे फसल का 40 प्रतिशत हिस्सा दिया जायेगा। इसके अलावा धान की झड़ाई का काम बंटाईदार के घर में होगा या जमीन के मालिक के घर में, यह आपस में तय किया जायेगा। बंटाई की जमीन की फसल को यदि जमीन का मालिक जोर-जबर्दस्ती अपने घर में उठा कर ले जाता है तो बंटाईदार को जमीन के मालिक से अपने हिस्से की फसल अथवा उसका दाम वसूलने का अधिकार होगा। इसके साथ ही यह भी व्यवस्था की गयी थी कि यदि बंटाईदार द्वारा बंटाई पर ली गयी जमीन और उसकी खुद की जमीन का कुल योग जमीन के मालिक की कुल जमीन के दो-तिहाई से ज्यादा होगा तो जमीन का मालिक बंटाईदार को बेदखल कर सकता है। जमीन के संकेंद्रण को रोकने के लिये आवास की जमीन के अतिरिक्त प्रति व्यक्ति द्वार जमीन की मिल्कियत पर 25 एकड़ की अधिकतम सीमा तय कर दी गयी।
अनुभव इस बात का गवाह है कि जमीन के संकेंद्रण को खत्म करने के ये सारे कानूनी प्राविधान सिर्फ कागजी बने रह गये। इससे संकेंद्रण की प्रक्रिया पर रोक तो दूर की बात, उल्टे 1950 का कानून बनने के बाद से ही इस कानून की चंद कमजोरियों का लाभ उठा कर जमीन के मालिकों द्वारा बंटाईदारों को बेदखल करने का सिलसिला तेजी से चल पड़ा। तथ्य बताते हैं कि 1958 से 1967 के बीच सबसे बड़ी संख्या में बंटाईदारों को बेदखल किया गया। इस कानून के इस प्राविधान का कि कानून द्वारा तय की गयी हदबंदी की सीमा में जमीन होने पर खुद जुताई करने के लिये जमीन का मालिक कभी भी बंटाईदार को बेदखल कर सकता है, सबसे अधिक दुरुपयोग किया गया। हदबंदी कानून को लागू करने के मामले में भी कोई सफलता नहीं मिल पायी। जमींदारों और जोतदारों ने अपने परिवार के एक-एक सदस्य, अपने दोस्तों और नौकर-चाकरों तथा अस्तित्वहीन लोगों, कहते हैं कि यहां तक कि भेड़-बकरियों के नाम पर भी जमीन को बांट दिया। इसके अलावा बगीचों अथवा धार्मिक और धर्मादा संस्थाओं को कानून में दी गयी छूटों का भी भरपूर इस्तेमाल किया गया। इन सबके चलते भू-हदबंदी कानून लगभग एक मजाक सा बन गया था।
इस सचाई को सबसे पहले 1967 में संयुक्त मोर्चा सरकार के बनने और उसकी मदद से शुरू हुए बंटाईदारों और गरीब किसानों के जोरदार आंदोलन के जरिये सही रूप में सामने लाया गया। उस काल में किसान सभा के नेतृत्व में बड़े पैमाने पर जोतदारों की अतिरिक्त जमीन को खोज कर उस पर कब्जा करने का जो जबर्दस्त आंदोलन चला, उसकी हम पहले ही काफी विस्तार से चर्चा कर आये हैं। 1970 में 1955 के कानून में बंटाईदारों के हितों की रक्षा करने के लिये महत्वपूर्ण संशोधन किये गये। बंटाईदारों के बंटाई के अधिकार को विरासत में मिले अधिकार का दर्जा भी दिया गया, अर्थात किसी बंटाईदार के मर जाने पर उसका वारिस कानूनी तौर पर उस जमीन पर बंटाई के आधार पर खेती का काम कर सकता है। फसल में बंटाईदार के हिस्से को बढ़ा कर 75 फीसदी कर दिया गया, बशर्ते वह .षि के काम में लगने वाली सभी चीजों की खुद आपूर्ति करता हो, और यदि जमीन का मालिक श्रम के अलावा .षि में लगने वाली बाकी सभी चीजों की आपूर्ति करता हो तो बंटाईदार का अंश कुल उत्पादन का 50 प्रतिशत कर दिया गया। बंटाईदार जमीन के मालिक को उत्पादन का उसका हिस्सा देकर उससे एक रशीद ले लेगा। जब तक बंटाईदार जमीन के मालिक को उसका हिस्सा देता रहेगा, तब तक किसी भी बंटाईदार को बेदखल नहीं किया जा सकेगा।
इसीप्रकार 1971 के संशोधन के जरिये भू-हदबंदी को भी कम करके उसे प्रति परिवार के आधार पर कर दिया गया।
इन सबमें गौर करने लायक बात यह है कि कानून में संशोधनों के अतिरिक्त 1967 और 1969 की संयुक्तमोर्चा सरकारों के गठन के साथ ही पश्चिम बंगाल के गांवों में एक ऐसे व्यापक किसान आंदोलन ने रूप लेना शुरू कर दिया जो कानूनी प्राविधानों को वास्तव में अमल कराने का सबसे कारगर औजार साबित होने लगा। प्रशासन के साथ किसान आंदोलन के इस जुड़ाव ने ही पश्चिम बंगाल में मूलगामी भूमि-सुधार को कानून की किताबों से निकाल कर जीवन की ठोस सचाई का रूप दे दिया।

भूमि सुधार पर अमल की प्रक्रिया

इस संदर्भ में भारत सरकार के एक प्रमुख प्रशासनिक अधिकारी श्री देवव्रत बंदोपाध्याय के उस लेख का विस्तृत हवाला देना उपयोगी होगा जो उन्होंने पश्चिम बंगाल के भूमिसुधार के संदर्भ में ‘इकानामिक एंड पॉलिटिकल वीकली’ के 27 मई 2000 के अंक में लिखा था और जिसमें मूलत: सीपीआई(एम) के नेता तथा 1967 और 1969 की दोनों संयुक्त मोर्चा सरकार में भूमि और भूमि सुधार मंत्री हरे.ण कोनार और 1977 की पहली वाम मोर्चा सरकार के भूमि और भू-राजस्व मंत्री विनय चौधुरी का स्मरण किया गया था। देवव्रत बंदोपाध्याय को हरे.ण कोनार ने 1967 की पहली संयुक्त मोर्चा सरकार के समय में पश्चिम बंगाल के लैंड रेकर्ड एंड सर्वेज का निदेशक नियुक्त किया था। बाद में 1977 की पहली वाम मोर्चा सरकार के समय उन्हें भूमि सुधार आयुक्त बनाया गया और राज्य में भूमि सुधार के कामों की मुख्य जिम्मेदारी प्रशासनिक स्तर पर उन्हें सौंपी गयी। श्री बंदोपाध्याय ने अपने इस लेख का प्रारंभ ही इन पंक्तियों से किया है:
इतिहास का यह एक अनूठा व्यंग्य ही है कि पश्चिम बंगाल के भूमिसुधार के दो चरणों के प्रत्येक चरण मंव एक-एक दृढ़प्रतिज्ञ नेता उसे दिशा देने और उसका नेतृत्व करने के लिये उपस्थित था। एक थे हरे.ण कोनार और दूसरे थे विनय चौधुरी। कोई भी दूसरे दो व्यक्ति कुछ मायनों में इतने एक जैसे नहीं हो सकते है और कुछ मायनों में एक दूसरे से इतने भिन्न जितने   हरे.ण कोनार और विनय चौधुरी थे। दोनों अपने लक्ष्य के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध, ‘वैज्ञानिक’ समाजवाद के सिद्धांतों के प्रति गहरी आस्था रखने वाले, निजी जीवन में निस्पृह और काम के प्रति निष्ठावान व्यक्ति थे। व्यक्तित्व के लिहाज से कोनार जैसे किसी अंधड़ की तरह - चक्रावात की तरह - थे, जो अपने रास्ते की किसी भी बाधा को न स्वीकारते हुए समूचे विरोध के बीच से अपना रास्ता बना लेते थे। वे एक दृढ़ क्रांतिकारी थे जिसने कार्यनीतिगत कारणों से अस्थायी रूप में संसदीय रास्ते को अपनाया था। दूसरी ओर विनय चौधुरी एक पूरी तरह से भद्रजन, शांत, निरुद्विग्न, और कभी आपा न खोने वाले व्यक्ति थे, जो मतभेद रखने वालों के साथ बहस करना और तर्क से उन्हें मनाना पसंद करते थे, न कि हरे.ण कोनार की तरह तल्ख बातों से उन्हें निरुत्तर करना। कोनार का आतंकित करने वाला तेवर साठ के दशक के अंतिम वर्षों में पश्चिम बंगाल के समाज और राजनीति पर भूपतियों, की जकड़बंदी को तोड़ने तथा प्रशासन की जड़ता को खत्म करने के लिये जरूरी था। एक अन्य सामाजिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि में व्यापक ‘आपरेशन बर्गा’ की सफलता के लिये अधिकांश लोगों को अपने साथ लेकर चलने की जरूरत के मद्देनजर विनय चौधुरी का विनम्र गांधीवादी तरीका भी समान रूप से जरूरी था। दो भिन्न ऐतिहासिक परिस्थितियों में भूमिसुधार को जारी रखने में दोनों ने अपनी विशेष भूमिका अदा की।
का. कोनार की कार्य-पद्धति के बारे में टिप्पणी करते हुए देवव्रत बंदोपाध्याय ने लिखा है :  यद्यपि संयुक्त मोर्चा मतदाताओं के भारी समर्थन के साथ सत्ता में आया था, तथापि उसे भारतीय संविधान, स्थापित मूलभूत कानूनों, सरकारी कार्रवाई के बारे में न्यायपालिका की राय तथा चली आरही कानूनी और प्रशासनिक विधियों और व्यवहारों के कड़े मानदंडों की सीमा में सख्ती के साथ काम करना था। किसी भी स्थापित मानदंड पर खतरे का अर्थ था ऐसी केंद्रीय सरकार द्वारा तत्काल भंग कर दिया जाना जो दोस्ताना कत्तई नहीं थी।
श्री बंदोपाध्याय लिखते हैं कि हरे.ण कोनार ने दूसरों के खिलाफ तय किये गये नियमों के प्रयोग से ही उन्हें परास्त करने की कुशाग्रता का परिचय दिया। भारत के संविधान में संगठन बनाने और शांतिपूर्ण सभा-समावेश करने का मूलभूत अधिकार दिया हुआ था। इसके अलावा भारत के साक्ष्य कानून के अनुसार किसी भी दस्तावेजी प्रमाण को भारी मात्रा में मौखिक सबूत की ताकत के आधार पर खारिज किया जा सकता है। इसके अलावा भारत के फौजदारी कानून की धारा 110 में यह व्यवस्था है कि किसी भी व्यक्ति को जो बुरा आचरण करता है, उसे सही रास्ते पर लाने के लिये उस पर जनता का दबाव पैदा किया जा सकता है। इसमें ऐसा कही भी नहीं कहा गया है कि फौजदारी कानून की धाराओं का प्रयोग सिर्फ किसानों और मजदूरों के खिलाफ ही किया जा सकता है। यदि किसी भी स्थान पर खेतिहर मजदूर और बंटाईदार किसी भी उद्देश्य से शांतिपूर्ण तरीके से इकट्ठे होते हैं और जमींदारों द्वारा शांति में खलल पैदा की जाती है तो वैसी स्थिति में शांति को बनाये रखने के लिये फौजदारी कानून जमींदारों पर लागू होगा। कानून के इन सभी प्राविधानों को मिला कर ही व्यापक जनता की हिस्सेदारी के जरिये  कानूनी भूमि सुधार का का.कोनार का वह फार्मूला तैयार हुआ था जिसपर पहली संयुक्त मोर्चा सरकार के काल से शुरू हुए अमल ने पश्चिम बंगाल के गांवों में एक तूफान ला दिया। श्री बंदोपाध्याय ने कोनार के इस नुस्खे को एक साधारण, सख्त और उतना ही अभिनव बताया है।
श्री बंदोपाध्याय लिखते हैं कि कोनार ने किसानों द्वारा किसी की भी निजी संपत्ति पर जबरिया कब्जे की किसी भी नीति को कभी स्वी.ति नहीं दी, जबकि हर जगह जमींदार ‘बेनामी जमीन’ रखे हुए थे। वे जानते थे कि किसान प्र.ति से ही संरक्षणवादी होता है। उसकी मानसिकता में किसी की निजी संपत्ति को छूना पाप था। शोषण की प्रक्रिया में अपनी जमीन गंवा देने पर भी वे उस जमीन को अपनी निजी संपत्ति मानते थे। इसीलिये गैर-कानूनी तरीके से हथियाई गयी जमीन पर भी गैर-कानूनी ढंग से कब्जा करने को वे पाप और अनैतिक मानते थे। इसीलिये बदली हुई राजनीतिक परिस्थिति में यदि कोई उन्हें बेदखल करेगा तो उनमें अपने अधिकारों के लिये लड़ने का साहस और संकल्प नहीं होगा। इसीलिये कोनार ने अतिरिक्त जमीन को सरकार के कब्जे में लेने का कानूनी तरीका अपनाया। जमीन जब सरकारी होगयी तो फिर उसका क्या होगा, यह सरकार की नीति से जुड़ा मसला है, इसमें किसी की निजी संपत्ति के अधिकार का मामला नहीं आता है। इसप्रकार एक क्रांतिकारी किंतु प्र.त यथार्थवादी कोनार ने पश्चिम बंगाल में मूलभूत भूमि सुधार का अपना रास्ता तैयार किया।
अब रहा मामला तथ्यों को जानने का कि कितनी जमीन बेनामी और किस प्रकार से रखी हुई है और उसे किस प्रकार कब्जे में लेकर भूमिहीनों के बीच बांटा जाए। इसके लिये का. कोनार ने अपने विभाग को कुछ ठोस मामलों के अध्ययन के काम में लगाया। उनसे इस बारे में गहराई से जांच करने के लिये कहा गया कि गुप्त ढंग से किस प्रकार हदबंदी से अधिक जमीन को रखा गया है और कैसे जमींदारों से यह जमीन कानूनी ढंग से हासिल की जा सकती है। मंत्री के इस निर्देश पर 1967 में ही एक पुस्तिका प्रकाशित की गयी जिसका शीर्षक था :  पश्चिम बंगाल में भू हदबंदी के उल्लंघन पर एक प्रतिवेदन। इस पुस्तिका में किये गये विश्लेषण से समूची अतिरिक्त जमीन को सरकार के हाथ में लेने का आगे का जो तरीका उभर का सामने आया, वह श्री बंदोपाध्याय के अनुसार इस प्रकार था :
1.भू-हदबंदी से अतिरिक्त जमीन रखने वाले परिवारों या संदिग्ध परिवारों की सिनाख्त करना;
2.इन प्रत्येक परिवार के पास वास्तव अर्थ में जो जमीन है उसकी सिनाख्त करना और वे किस प्रकार के फर्जी कागजातों के जरिये उन्हें बेनामी कर रखे हैं, इसे खोजना;
3.उपयुक्त सबूतों को जुटा कर सभी अतिरिक्त जमीन पर सरकार का कब्जा करने के लिये अर्ध-न्यायिक प्रक्रिया को शुरू करना ताकि वे सबूत ऊंचे स्तर के प्रशासनिक पंचाटों अथवा कानूनी अदालतों में टिक सके;
4.अर्ध-न्यायिक प्रक्रिया के उपरांत सरकार द्वारा ले ली गयी जमीन पर कब्जा करना;
5.इस जमीन को कानून के अनुसार अथवा निर्धारित प्राथमिकता के अनुसार भूमिहीनों या गरीब किसानों के बीच बांटना;
6.पट्टे पर दी गयी ऐसी जमीन पर से गैर-कानूनी बेदखली को रोकने के लिये एक तरीका अपनाना;
7.पट्टे पर जमीन पाने वाले साधनविहीन किसानों को महाजनों के फंदे से बचाने के लिये कुछ ऋण वगैरह मुहैय्या करवाना।

उपरोक्त समूचे विवरण से जाहिर है कि बेनामी और अतिरिक्त जमीन के बारे में सही जानकारी के सबसे प्रामाणिक श्रोत स्थानीय खेत मजदूरों, बंटाईदारों और रैयतों के अलावा और कोई नहीं हो सकते थे, जो उन जमीनों की जुताई का काम किया करते थे। यही पर पश्चिम बंगाल में किसानों के सबसे बड़े संगठन किसान सभा की भूमिका प्रमुख होगयी। अतिरिक्त और बेनामी जमीन के बारे में सारे तथ्यों को जुटाने के काम में कामरेड कोनार ने किसान सभा को उतार दिया। सरकारी तंत्र द्वारा जमींदारों के फर्जी कागजातों की तुलना में खेत मजदूरों के मौखिक सबूतों को तरजीह दी जाने लगी। यह पूरी तरह से कानूनी था। यह देख कर जमींदारों के हौसले पस्त होने लगे। वे यह विश्वास ही नहीं कर सकते थे कि पुश्त दर पुश्त उनकी हाजिरी बजाने वाले खेत मजदूर और बंटाईदार इतना साहस जुटा लेंगे कि अदालत में खड़े हो कर उन्हीं के खिलाफ गवाही देने लगेंगे। इस दौर में किसान सभा के आंदोलन ने सदियों से दबे-कुचले लोगों को सिर उठा कर खड़े होने और सच पर अडिग रहने का अनोखा साहस प्रदान किया। इसप्रकार जो चीज एक चिंगारी के रूप में शुरू हुई थी, उसने देखते ही देखते पूरे पश्चिम बंगाल में जैसे एक दावानल का रूप ले लिया। हर रोज संगठित किसान आंदोलन की ओर से और स्वत:स्फूर्त ढंग से किसानों की ओर से भारी मात्रा में बेनामी जमीन के साक्ष्य पेश किये जाने लगे और देखते ही देखते, तीन साल से भी कम अवधि में पूरी तरह से कानूनी पद्धति का पालन करते हुए 10 लाख एकड़ अतिरिक्त जमीन सरकार के हाथ में आगयी जिसे बाद में कानून की अदालत में भी चुनौती नहीं दी जासकी। अकेली इस प्रक्रिया ने पश्चिम बंगाल में सामंती शक्तियों के आर्थिक और सामाजिक प्रभुत्व की रीढ़ को तोड़ दिया।
गांवों के शक्ति-संतुलन को बदलने के इस नये चरण में किसान सभा ने जिस मामले में ऐतिहासिक भूमिका अदा की वह थी सरकार द्वारा जमींदारों से हथियाई गयी जमीन को भूमिहीनों के बीच वितरण के मामले में। किसान सभा के झंडे तले भूमिहीनों को भूमि दिये जाने से अन्य राजनीतिक ताकतों के साथ ही एक सबसे करारा झटका नक्सलवादियों की तरह के अराजकतावादियों को लगा जो किसानों के संगठित आंदोलन के बजाय उन्हें अराजकतावाद की दिशा में ढकेल देना चाहते थे। संयुक्त मोर्चा सरकार द्वारा जमीन दिये जाने की इस पहलकदमी ने गांवों में वामपंथी आंदोलन और किसान सभा की जड़ों को बेहद मजबूत किया।

आपरेशन बर्गा

इक्कीस जून 1977 में जब पहली वाम मोर्चा सरकार का गठन हुआ, कामरेड विनय चौधुरी उसके भूमि और भूमि-सुधार मंत्री बने। हरे.ण कोनार की मृत्यु 23 जुलाई 1974 के दिन होगयी थी। प्रश्न था कि संयुक्त मोर्चा सरकारों के काल में भूमि-सुधार के जिन कामों को शुरू किया गया था, उन्हें आगे कैसे बढ़ाया जाए। बंटाईदारों के अधिकारों का मसला हमेशा से बंगाल के किसान आंदोलन का एक केंद्रीय विषय रहा है। इसे सच्चे भूमि सुधार का भी एक बुनियादी मसला कहा जा सकता है। पहले ही यह बताया जा चुका है कि भारत की आजादी के बाद सन् 1950 में पश्चिम बंगाल के टिनैंसी (रैय्यतवारी) कानून में जो पहला परिवर्तन किया गया वह बंटाईदारों के अधिकार संबंधी कानून के जरिये किया गया था। इसके बाद 1953 का वेस्ट बंगाल इस्टेट्स एक्वीजीशन एक्ट आया और फिर एक समग्र कानून भूमि सुधार कानून 1955 में बना जिसमें बंटाईदार संबंधी कानून को भी शामिल कर लिया गया था। इसके बाद लगातार कई वर्षों तक इस कानून में कई संशोधन हुए, लेकिन यह विडंबना यह थी कि बंटाईदारों के पक्ष में बनने वाले कानून बंटाईदारों के अधिकारों की रक्षा करने के बजाय उनकी और ज्यादा बेदखली के सबब बनते चले गये। 1958 से 1967 के बीच सबसे अधिक संख्या में बंटाईदारों को बेदखल किया गया।
1967 और 1969 की संयुक्त मोर्चा सरकारों ने भूमि सुधार के अपने कार्यक्रम के तहत सबसे अधिक बल इस बात पर दिया था कि गांव के गरीबों को जागृत और संगठित किया जाए और उनके मौखिक साक्ष्यों के आधार पर भारी मात्रा में जमींदारों की हदबंदी से अतिरिक्त जमीन की सिनाख्त करके उसे सरकार में न्यस्त किया जाए और उस सरकारी खास जमीन को संगठित किसान आंदोलन की मदद से भूमिहीनों के बीच वितरित किया जाए। इस पूरी प्रक्रिया ने जाहिरा तौर पर गांवों में सत्ता के संतुलन को बदलना शुरू कर दिया और एक ऐसी परिस्थिति तैयार की जिसमें क्रमश: गांव के गरीबों को प्रवंचित करना उतना आसान नहीं रह गया। सरकार से पट्टे पर मिली जमीन को 1971 से 1977 तक के दमनकारी काल में भी किसानों से कोई छीन नहीं सका।
इसी पृष्ठभूमि में 1977 में बनी वाम मोर्चा सरकार के भूमि सुधार मंत्रालय ने संयुक्त मोर्चा सरकारों के कामों के सूत्र को पकड़ते हुए जमींदार परिवारों की अतिरिक्त जमीन पर सरकारी कब्जा करने के साथ ही बंटाईदारों को बाकायदा सरकारी खातों में पंजी.त करने के दो कार्यक्रमों को अपनाया। बंटाईदारों के पंजीकरण के इस व्यापक अभियान को ही इतिहास में ‘आपरेशन बर्गा’ के नाम से जाना जाता है।
श्री देवब्रत बंदोपाध्याय ने पहली वाममोर्चा सरकार से लेकर 1996 में चौथी वाम मोर्चा सरकार तक लगातार 19 वर्षों तक भूमि अैर भूमि सुधार मंत्री रहे का. विनय चौधरी के नेतृत्व में चलाये गये इस ‘आपरेशन बर्गा’ के बारे में लिखा है कि इसमें वाममोर्चा की प्रमुख पार्टी सीपीआई(एम) ने पहले की तुलना में थोड़ी अलग प्रकार की कार्यनीति अपना कर काम किया था। उनके अनुसार यह काम काफी शांति के साथ कुछ इस प्रकार किया गया ताकि केंद्रीय सरकार को राज्य सरकार के खिलाफ किसी प्रकार की कार्रवाई करने का कोई मौका नहीं मिल सके। इसी सिलसिले में श्री बंदोपाध्याय ने यहां तक लिखा है कि वाम मोर्चा सरकार ने जनता की गोलबंदी की उस नीति को नहीं अपनाया, जिसे पहले सीपीआई(एम) ने बिल्कुल सचेत रूप में अपनाया था।
श्री बंदोपाध्याय का ‘जनता की गोलबंदी’ से तात्पर्य क्या रहा है, यह हम नहीं जानते। लेकिन एक बात दावे के साथ कही जा सकती है कि ‘आपरेशन बर्गा’ का समूचा अभियान कोई ऐसा अभियान नहीं था जो सिर्फ सरकारी दफ्तरों और कागजी कार्रवाइयों में शुरू होकर वहीं पर समाप्त हो गया हो। बंटाईदारों के पंजीकरण की बात पश्चिम बंगाल के लिये कोई नयी बात नहीं थी। सरकारी तौर पर पहले भी इसका प्राविधान था। फिर भी सामाजिक दबावों और जमींदारों द्वारा प्रतिशोध के भय से आम तौर पर बंटाईदार इससे दूर रहते थे। लेकिन 1978 के अंतिम दिनों से शुरू हुए ‘आपरेशन बर्गा’ की कहानी दूसरी थी। इस अभियान को सफल बनाने और बंटाईदारों को प्रेरित करके पंजीकरण के लिये आगे लाने के लिये पद्धति कुछ भी क्यों न अपनाई गयी हो, सच्चाई यह है अंततोगत्वा इस ‘आपरेशन बर्गा’ ने पश्चिम बंगाल के ग्रामीण क्षेत्र में अपने प्रकार के एक अभूतपूर्व आलोड़न को पैदा किया। आंदोलन के रूप समय-समय पर अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन 1978 से शुरू हुआ ‘आपरेशन बर्गा’ का अभियान सारत: 1967 और 1969 के जमींदारों की अतिरिक्त जमीन की सिनाख्त करके उसे सरकार में न्यस्त करने और सरकार के जरिये उसे भूमिहीनों में आबंटित करने के कानून-संगत और न्याय-संगत आंदोलन से भिन्न नहीं था।
1978 के अंतिम काल में जिस ‘आपरेशन बर्गा’ का प्रारंभ किया गया, उसमें बंटाईदारों की सामूहिक भागीदारी को ही सबसे अधिक प्रमुखता दी गयी। इसके चलते भू-लगान के अधिकारियों के गांव के गरीबों के प्रति परंपरागत तिरस्कार से पैदा होने वाली बाधा खत्म होगयी। अब कागज या दस्तावेजों के जरिये बंटाई को साबित करने की जरूरत नहीं रह गयी। खेत पर जाकर सामूहिक जांच के जरिये बंटाई के रेकर्ड तैयार किये जाने लगे। सार्वजनिक तौर पर कोई आसानी से झूठी गवाही नहीं देसकता था, इसीलिये बंटाई संबंधी सारे विवाद तेजी के साथ सुलझाये जाने लगे। इस नयी पद्धति ने बंटाईदारों को भय-मुक्त किया और जमींदारों द्वारा प्रतिशोध की कार्रवाई को भी रोकने का काम किया, क्योंकि जमींदारों को अब गांव के गरीबों के संगठित प्रतिरोध का डर दिखाई देने लगा था।
देखते ही देखते 1978 से 1981 के बीच के तीन वर्षों में इस तेज, पारदर्शी और सुरक्षित पद्धति के प्रयोग से 12 लाख से अधिक बंटाईदारों का पंजीकरण हुआ। इस प्रकार पहले तीन वर्षों में ही 65 से 70 प्रतिशत काम पूरा कर लिया गया। श्री बंदोपाध्याय के शब्दों में, यह विनय चौधरी की एक भारी उपलब्धि रही और इसमें उनके व्यक्तित्व की दृढ़ता और सौम्यता ने भी खास भूमिका अदा की। यह नहीं कहा जा सकता कि आपरेशन बर्गा का रास्ता कोई फूलों का रास्ता था। इसमें ढेरों कठिनाइयां थी, लेकिन विनय चौधरी ने होशियारी और निपुणता से सभी बाधाओं को दूर करके इसकी रफ्तार को कभी धीमा नहीं होने दिया।
आपरेशन बर्गा को कानून की अदालत में शुरू में अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। अक्सर न्यायाधीश दूसरे पक्ष की सुनवाई के बिना ही एक्स-पार्टी इंजेंक्शन दे दिया करते थे। उन दिनों इंजेंक्शनों की जैसे बारिस हुआ करती थी। लेकिन आईएलओ के 141वें कंवेशन को, जिसमें पंजीकरण की प्रक्रिया में देहाती मजदूरों की भागीदारी की बात कही गयी है, भारतीय संसद द्वारा स्वीकार लिये जाने के कारण अंतत: वे सारी आपत्तियां टिक नहीं पायी। इसप्रकार, इस कार्यक्रम में लाभार्थियों की प्रत्यक्ष भागीदारी की पद्धति को कानूनी स्वी.ति भी मिल गयी।
विनय चौधुरी के मंत्रित्व के 19 वर्षों के काल में ही भूमि सुधार कानून की अन्य कई कमजोरियों को दूर किया गया। 1981 में उसमें एक महत्वपूर्ण संशोधन हुआ और फिर 1986 में दूसरा। पहले के कानून में सिर्फ .षि की जमीन पर हद-बंदी थी। 1981 के संशोधन के जरिये हदबंदी को सभी प्रकार की जमीनों पर लागू कर दिया गया। अब कोई भी परिवार  .षि अथवा गैर-.षि सभी प्रकार की जमीन को मिला कर हदबंदी से ज्यादा अपने पास नहीं रख सकता है। हदबंदी से अतिरिक्त जमीन को उसे सरकार के सुपुर्द कर देना होगा। कानून में इस संशोधन से भी सरकार के हाथ में और लगभग 2 लाख एकड़ अतिरिक्त जमीन आयी, जिसे भूमिहीनों के बीच बांट दिया गया। 1981 के संशोधन को राष्ट्रपति की ओर से 1986 में स्वी.ति मिली। इस स्वी.ति के साथ ही राष्ट्रपति ने संशोधित कानून में कुछ सुधार के सुझाव दिये थे जिन्हें 1986 के संशोधन के जरिये भूमि सुधार कानून में शामिल कर लिया गया।
श्री बंदोपाध्याय ने अपने निबंध के अंतिम हिस्से में सही कहा है कि पश्चिम बंगाल में भूमि सुधार के इन तमाम कदमों से पश्चिम बंगाल में .षि के क्षेत्र में लगभग एक सदी (1881 से 1981) से चली आरही जड़ता टूटी और 1983 के बाद से पश्चिम बंगाल में .षि उत्पादन में तेजी के साथ लगातार वृद्धि का सिलसिला शुरू होगया। श्री बंदोपाध्याय ने इस बात की पुष्टि के लिये 1998 के 3 अक्तूबर के ईपीडब्लू के अंक में मधुरा स्वामिनाथन के सूत्र का हवाला देते हुए बताया है कि 1950-60 के दशक के दौरान राज्य में धान के उत्पादन की दर में जहां सिर्फ 1 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी, 1960-70 के दशक में 2.28 प्रतिशत की तथा 1970-80 के दशक में 1.22 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी, वहीं 1980-90 के दशक में 6.41 प्रतिशत की और 1990-95 के दशक में 5.03 प्रतिशत की वृद्धि हुई। यह सिलसिला आज भी जारी है। पिछली सदी के अंतिम वर्षों में ही पश्चिम बंगाल .षि उत्पादन में वृद्धि के मामले में भारत के 17 राज्यों में अव्वल स्थान पर आगया था, जहां वह आज भी बना हुआ है। पश्चिम बंगाल में भारत के कुल क्षेत्रफल की 2 प्रतिशत जमीन है, जबकि भारत की कुल आबादी की 8 प्रतिशत आबादी। इसके बावजूद आज यह राज्य खाद्यान्नों के उत्पादन के मामले में आत्म निर्भर है।
तथ्यों से जाहिर है कि अकेले आपरेशन बर्गा से बंटाईदारों के हाथ की जमीन से होने वाले उत्पादन में 17 से 18 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। सरकार द्वारा न्यस्त और आबंटित की गयी अतिरिक्त जमीन राज्य की कुल खेती योग्य जमीन का 8 प्रतिशत हिस्सा है। बंटाईदार लगभग 18 से 22 प्रतिशत खेती योग्य जमीन को जोतते हैं। इसप्रकार, भूमि सुधार के इन दो कार्यक्रमों से ऐसी करीब 26 से 30 प्रतिशत जमीन, जो जमींदारों के पास रहने के कारण जुताई के लिहाज से काफी उपेक्षित रह जाती थी, अब उस पर पूरी मेहनत और लगन के साथ जुताई की जाने लगी। इन पर पहले से बहुत ज्यादा फसल पैदा की जाने लगी। .षि-उत्पादन पर दो चरणों के भूमि सुधार से पड़े सकारात्मक असर के तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता।
श्री बंदोपाध्याय के निबंध के अंतिम शब्द हैं: इस उल्लेखनीय उपलब्धि का श्रेय हरे.ण कोनार और विनय चौधुरी दोनों को जाता है। आज भी ग्रामीण पश्चिम बंगाल में गरीबी है। लेकिन अब वह अश्लील और जघन्य दुर्दशा नहीं दिखाई देती है। यह एक बड़ी उपलब्धि है।

एक समग्र आकलन

पश्चिम बंगाल में भूमि सुधार से जुड़े आंदोलनों और सरकारी कार्रवाइयों का इतिहास इस बात का गवाह है कि भूमि सुधार की यह प्रक्रिया कोई आसान प्रक्रिया नहीं रही है। जैसा कि हमने पहले ही कहा है, इसका रास्ता फूलों का नहीं, बल्कि कांटों से भरा हुआ रास्ता था। इसके लिये सभी राजनीतिक, सामाजिक और कानूनी स्तरों पर तीव्र विरोध और एक हद तक प्रतिरोध का भी सामना करना पड़ा था। तथापि, यह सच है कि भूमि सुधार की इस प्रक्रिया में एक बड़ी भूमिका पार्टी और किसान आंदोलन के साथ ही पहले संयुक्त मोर्चा सरकारों और बाद में वाम मोर्चा सरकारों के कार्यकाल में भूमि और भूमि सुधार से जुड़े सरकारी विभाग ने भी निभाई थी। इसीलिये पश्चिम बंगाल के भूमि सुधार को गैर-संसदीय संघर्षों के साथ संसदीय कार्रवाइयों और प्रशासनिक कदमों की एक संश्लिष्ट प्रक्रिया कहा जा सकता है। लंबे अर्से से चले आरहे कांग्रेस के शासन में प्रशासनिक अधिकारियों का गांवों के सामंती और प्रभुत्वशाली तबकों के साथ एक प्रकार का जैविक संबंध विकसित होगया था। उनका स्वाभाविक रूझान सामंती तत्वों के साथ होता था और उन्हें गांव के गरीबों के पक्ष में संवेदनशील बनाना अथवा उनके जरिये सामंती ताकतों के खिलाफ कार्रवाई कराना लगभग असंभव सा था। संयुक्त मोर्चा सरकारों और वाम मोर्चा सरकारों के काल में व्यापक जन-आंदोलनों के साथ ही मंत्रियों के स्तर पर लगातार दबावों के जरिये इस असंभव काम को कुछ हद तक संभव बनाया गया।
शासन यदि कोई तलवार है तो वह कभी भी गरीबों तथा वंचितों के खिलाफ नहीं उठेगी, बल्कि उसका वार हमेशा शोषकों और अत्याचारियों के खिलाफ होगा - सच्चे कल्याणकारी राज्य के इस मंत्र को पार्टी के साथ सघन संपर्क रख कर काम करने वाले मंत्रियों के जरिये साधा गया। प्रखंड स्तर से लेकर जिला और राज्य के स्तर तक प्रशासन को भूमि सुधार के वामपंथी और न्यायसंगत कार्यक्रम के साथ प्रतिबद्ध किया गया। विभिन्न सरकारी हलकों के बीच समन्वय कायम करने के लिये सभी स्तरों पर प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन, खास तौर पर नीचे के स्तर के प्रशासनिक अधिकारियों के प्रशिक्षण पर खासा जोर दिया गया। राजस्व विभाग की ओर से हर वर्ष किसानों को लेकर स्थानीय स्तरों पर कार्यशालाओं का आयोजन किया जाने लगा। कहना न होगा कि सरकार की ओर से इन तमाम पहलकदमियों ने खास तौर पर ‘आपरेशन बर्गा’ की सफलता में बहुत ही अहम भूमिका अदा की।

कामरेड ज्योति बसु ने 1982 में पश्चिम बंगाल के तीन दशकों के संघर्ष के अनुभवों पर अपने एक लेख में लिखा था कि  हम राजनीतिक तौर पर कितने ही मजबूत क्यों न हो, अपनी ताकत और प्रभाव के आकलन के बारे में किसी भी प्रकार के अतिरेक से बचना समान रूप से महत्वपूर्ण है। ...हमारे सरकार में होने पर भी पूंजीवादी-सामंती वर्गीय शासन बरकरार है...मौजूदा ढांचे में बेरोजगारी, महंगाई, गैर-बराबरी और वर्गीय शोषण की तरह की बुनियादी समस्याओं का अंत नहीं हो सकता। इसीलिये, वाम मोर्चा सरकार के रहने के बावजूद, वर्ग-आधारित संघर्षों की जरूरत बनी रहती है। (पिपुल्स डेमोक्रेसी, 3 जनवरी 1982)
यहां 1989 में अखिल भारतीय किसान सभा की एक सभा में किसान सभा के अध्यक्ष कामरेड हरकिशन सिंह सुरजीत ने वाम मोर्चा द्वारा शासित पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में भूमि सुधार के बारे में जो आकलन किया था, उसके एक अंश को यहां उद्धृत करना उपयोगी होगा। इसमें कामरेड सुरजीत कहते हैं : हमारा अनुभव यह बताता है कि वाममोर्चा के राज्यों, पश्चिम बंगाल और केरल में भी सामान्य तौर पर भूमि सुधार और खास तौर पर बंटाईदारों के पंजीकरण में सफलता का सीधा संबंध भूमि सुधार और भूमि रेकर्ड विभागों के अधिकारियों की शक्ति, जिला मजीस्ट्रेटों और कुछ अन्य संबद्ध अधिकारियों से है। पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा सरकार ने ऐसी पहली बैठक 1978 के जून महीने में की। इस बैठक में आपरेशन बर्गा पर फौरी कार्रवाई का एक खाका तैयार कर लिया गया। जिन जिलों को अभी भी खास बर्गा पंजीकरण कार्यक्रम में शामिल किया जाना था, वहां अधिकारियों और अन्य लोगों के दस्ते तैयार कर लिये गये। प्रखंड स्तर के इन दस्तों को यह निर्देश दिया गया कि वे अपने कार्य के हर चरण में किसाना संगठनों को शामिल करें। इसके लिये इन दस्तों को ऐसे समय और ऐसे स्थानों पर जन-सभाएं करने के लिये कहा गया ताकि उनमें बड़ी संख्या में गरीब किसान और खेत मजदूर शामिल हो सके। इस प्रकार भूमि सुधार के कार्यक्रम पर अमल की शुरूआत की गयी।
शुरू में जिस रफ्तार से भूमि सुधार के इस कार्यक्रम पर अमल हुआ, वह वाम मोर्चा सरकार की उम्मीद से कम थी। इसका एक प्रमुख कारण 1978 की अभूतपूर्व बाढ़ थी। इसीलिये 1980 के सितंबर महीने में हुई तीसरी सभा में तय किया गया कि बंटाईदारों के पंजीकरण की दर को तेज करने के लिये ‘पंचायती राज की संस्थाओं और खेत मजदूरों के संगठनों’ को पूरी तरह से शामिल करना जरूरी है। यह भी तय किया गया कि आवेदन पत्रों अथवा पंजीकरण के लिये तैयार की गयी बंटाईदारों की सूची को लेने के लिये शाम के वक्त बैठकें की जाए और आवेदनों के मिलने के बाद उनपर उपयुक्त जांच शुरू की जाए।
जैसी कि शुरू में ही आशंका की गयी थी, पंजीकरण की विधि पर कानूनी विवाद पैदा होगया। 28 मई 1979 के दिन कोलकाता हाईकोर्ट के न्यायाधीश सव्यसाची मुखर्जी ने इस बिनाह पर कि जमीन के मालिकों को पहले नोटिश नहीं दी गयी थी, भूमि राजस्व विभाग द्वारा बंटाई के बारे में जारी किये गये प्रमाण-पत्रों को खारिज कर दिया। लेकिन आपरेशन बर्गा की वैधता पर कोई सवाल नहीं उठाया गया। इसी कारण से तीसरी सभा में उन क्षेत्रों में, जिन क्षेत्रों में भूमि सुधार का काम शुरू किया गया, किसान आंदोलन छेड़ने का निर्णय लिया गया।
इस आकलन से ही जाहिर है कि बहुत सुचिन्तित तरीके से आपरेशन बर्गा, और भूमि सुधार की कार्रवाइयों की सफलता को सुनिश्चित करने के लिये उनके साथ व्यापक किसान आंदोलन को भी जोड़ा गया। परिणामत: 1988-1989 तक पंजी.त बंटाईदारों की संख्या 14 लाख पर पंहुच गयी और सरकार द्वारा ले ली गयी अतिरिक्त भूमि 11 लाख एकड़ होगयी। इनके अलावा 32000 बंटाईदारों के मामले ऐसे थे, जिन पर हाईकोर्ट में मुकदमा चल रहा था। भूमि सुधार की इस महत्वपूर्ण सफलता के साथ ही गांव के अढ़ाई लाख गरीब परिवारों को घर बनाने के लिये सरकार की ओर से मुफ्त जमीन दी गयी।
वाम मोर्चा सरकार की इन भूमि सुधार की कार्रवाइयों का कुल मिला कर सामाजिक परिणाम क्या निकला, इसे पश्चिम बंगाल में भूमि सुधार के बारे में कई प्रकार के सर्वेक्षण करने वाले गवेषक जॉन हैरिस ने जिस प्रकार एक-एक करके गिनाया है, उसे यहां रखा जा सकता है। जॉन हैरिस के अनुसार इसका पहला परिणाम यह निकला कि बंगाल में पुराने प्रकार की बंटाईदारी प्रथा का महत्व लगभग समाप्त होगया। बड़ी संख्या में गरीब किसान और खेतमजदूरों को छोटी अवधि के लिये लीज पर जमीन दी जाने लगी, जिसका वे गन्ने, आलू और अपेक्षा.त अधिक मूल्य की सब्जियों की फसल के लिये इस्तेमाल करने लगे। बाद में जाकर, बोरो धान की फसल और ज्यादा महत्वपूर्ण होगयी।
दूसरा, लीज पर ली हुई जमीन पर खेतिहर मजदूरों और गरीब किसानों द्वारा सिंचाई के लिये जमीन के नीचे के पानी के प्रयोग के चलते उनके जीवन में सुधार आया। सस्ती दरों पर बिजली उपलब्ध होने के कारण जमीन के नीचे के पानी से सिंचाई के काम को बढ़ावा मिला।
तीसरा, 1991 तक आते-आते फसल पर लिये जाने वाले कर्ज अथवा अग्रिम की मात्रा 1982 की तुलना में काफी कम होगयी। किसानों द्वारा महाजनों के आगे नगद कर्ज के लिये हाथ पसारना अब अतीत की बात होगयी थी। इसकी मूल वजह किसानों के जीवन में आये सुधार के अलावा और कुछ नहीं थी।
चौथा, गांवों में पारंपरिक सामंती परिवारों का रुतबा खत्म होगया। इसकी मुख्य वजह यह रही कि इन तमाम वर्षों में गांवों में समानतापूर्ण तरीके से किया गया जमीन का बंटवारा था। 1982 में जो परिवार भूमिहीन थे, अब उनके पास जमीन खरीदने की ताकत आगयी थी।  
हैरिस ने भूमि-सुधार के इन परिणामों का आकलन करते हुए कहा है कि पश्चिम बंगाल में अन्य किसी भी जगह की तुलना में कहीं अधिक जंगल में भूमि-सुधार का जमीन की मिल्कियत के विन्यास पर कोई बहुत बुनियादी प्रभाव नहीं पड़ा। लेकिन इसने गरीबों, अनुसूचित जाति के परिवारों के, जिन्हें इसका लाभ मिला, जीवन-यापन में योगदान किया। (जॉन हैरिस, ‘व्हाट इज हैपनिंग इन रूरल वेस्ट बेंगोल? एग्रेरियन रिफाम्र्स, ग्रोथ एंड डिस्ट्रीब्युशन‘, ईपीडब्लू, 12 जून 1993, पृ: 1239-1241)
हैरिस ने अपने इसी लेख में आगे अपनी इस राय के विपरीत कुछ ऐसे निष्कर्ष भी दिये है, जो उनके खास प्रकार के वर्गीय रूझान को जाहिर करते हैं। मसलन्, उन्होंने .षि उत्पादन में वृद्धि का श्रेय सिर्फ आधुनिक तकनीक के प्रयोग को देने की कोशिश की है। यह कमोबेश वैसा ही नजरिया है, जो उत्तरी भारत में किये गये ‘हरित क्रांति’ के प्रयोगों को .षि उत्पादन में गतिरोध को तोड़ने का एक मात्र उपाय मानते हैं। हैरिस के इस निष्कर्ष के विपरीत सचाई यह है कि आज ‘हरित क्रांति’ के क्षेत्रों में .षि उत्पादन में फिर से गतिरोध कायम होगया है, जबकि पश्चिम बंगाल में उत्पादन में विकास की दर लगातार बढ़ रही है। इसकी सिर्फ यही वजह है कि ‘हरित क्रांति’ के क्षेत्रों में गांवों में सामंती संबंधों को जरा भी आंच नहीं आयी है, जबकि पश्चिम बंगाल में स्थिति बिल्कुल भिन्न है। बिना भूमि सुधार के, सिर्फ सिंचाई की आधुनिक तकनीकों, बीजों और खाद के बल पर .षि उत्पादन में इस प्रकार के वृद्धि को हासिल नहीं किया जा सकता था, जैसी पश्चिम बंगाल में हासिल की गयी है। यह तथ्य है कि पश्चिम बंगाल की तुलना में उत्तर प्रदेश, बिहार और उड़ीसा मेंं .षि विकास पर ज्यादा खर्च किया जाता है, लेकिन इन राज्यों की तुलना में पश्चिम बंगाल में .षि के क्षेत्र में कहीं ज्यादा उत्पादन होता है और वह लगातार बढ़ रहा है।
पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा सरकार जिस प्रकार की राजनीतिक प्रतिकूलताआें और सीमाओं में काम करती रही है, उसे देखते हुए भूमि सुधार के क्षेत्र में यहां जो उपलब्धियां हासिल की गयी, वह निश्चित तौर पर बेहद महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय है। किसी पूंजीवादी संघ के अंग राज्य में भूमि सुधार की तरह के मूलभूत विषयों पर काम करना वैसा ही है जैसे आग से खेलना। भूमि सुधार किसी भी पूंजीवादी-सामंती समाज में संपत्ति की तरह के मूलभूत माने जाने वाले अधिकार पर प्रहार करने के समान होता है। इसीलिये इस बारे में काफी सावधानी बरतने की जरूरत होती है। तथापि, पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार ने इस क्षेत्र में जो कर दिखाया है और इसके आज जो सामाजिक परिणाम देखने को मिल रहे है, वह किसी बुनियादी परिवर्तन से कम नहीं है। इसके चलते पश्चिम बंगाल के गांवों में मजदूरी की दर बढ़ी, गांवों के गरीबों का शहरों की ओर होने वाले पलायन पर एक हद तक रोक लगी, खेती के काम में अन्य राज्यों में जहां स्त्रियों की संख्या बढ़ रही है और पुरुषों की संख्या कम हो रही है, वहीं पश्चिम बंगाल में पुरुष मजदूरों की संख्या में वृद्धि हुई। लीटेन की तरह के विद्वानों ने इस संदर्भ में कहा है कि देश के दूसरे हिस्सों में जहां किसानी की ओर लोगों का रूझान कम हो रहा है, वहीं पश्चिम बंगाल में फिर से किसानीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई है। .षि क्षेत्र के उत्थान और विकास के लाभों के व्यापक पैमाने पर वितरण के लिहाज पश्चिम बंगाल के  गांवों में हो रहे ये तमाम परिवर्तन बेहद महत्वपूर्ण कहे जायेंगे। आगे हम देखेंगे कि कैसे भूमि सुधार के इन कदमों से उठ खड़े हुए पश्चिम बंगाल के गरीब किसानों और खेत मजदूरों के आगे और सशक्तीकरण में यहां की पंचायती राज की संस्थाओं ने कितनी बड़ी भूमिका अदा की हैं और आज भी कर रही हैं।

पंचायती राज और सत्ता का विकेंद्रीकरण

आजादी के बाद ही देश के कर्णधारों ने यह तय किया था कि राष्ट्रीय अर्थ-व्यवस्था के तीव्र विकास के लिये जरूरी है कि उत्पादन की शक्तियों को साम्राज्यवादी और सामंती, अद्र्ध-सामंती जंजीरों से मुक्त किया जाए। संविधान में जमींदारी उन्मूलन को राष्ट्र्रीय नीति के एक प्रमुख लक्ष्य के तौर पर स्वीकारा गया था। आजादी के पहले तक ग्रामीण भारत में जमीन की मिल्कियत के बारे में किये गये अध्ययनों से पता चलता है कि यहां खेती की जमीन की मिल्कियत मुख्य रूप में तीन प्रकार की थी - जमींदारी, रैय्यतवारी, और महालवारी। गैर-सरकारी जमीन की 57 प्रतिशत जमीन जमींदारी में थी, 38 प्रतिशत रैय्यतवारी में और 5 प्रतिशत महालवारी में। इन प्राचीन उत्पादन संबंधों का कुल परिणाम एक ओर जहां गांव के किसानों की दरिद्रता के रूप में सामने आया तो दूसरी ओर कृषि उत्पादन में गतिरोध के रूप में। इसीलिये गांव की किसान जनता को अद्र्ध-सामंती उत्पादन व्यवस्था से मुक्त करने और कृषि उत्पादन को बढ़ाने - इन दोनों के लिये कृषि संबंधों का पूरी तरह से पुनर्विन्यास करना जरूरी था। (डिस्ट्रीब्यूसन आफ लैंडहोल्डिंग्स इन रूरल इंडिया, 1953-54 टू 1981-82, इम्पलीकेशन्स फार लैंड रिफाम्र्स, एच.आर.शर्मा, ईपीडब्लू, 24 सितंबर, 1994)
शर्मा ने अपने इसी लेख में बताया है कि किसप्रकार आजादी के ठीक बाद नीति नियंताओं ने वांछित लक्ष्यों को हासिल करने के लिये व्यापक कृषि सुधार पर काम शुरू किया। एक झटके में इतने सारे कृषि संबंधी कानून पारित किये गये, जो दूसरे किसी भी देश के इतिहास में देखने को नहीं मिलता है। इसमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण कानून जमींदारी प्रथा के उन्मूलन के बारे में था। इसके अलावा हदबंदी कानूनों के जरिये जमीन की मिल्कियत के बारे में जो कानून बनाये गये, वे भी उल्लेखनीय थे। शोधकर्ता कृषि क्षेत्र संबंधी इन कानूनों को दो चरणों में बांटते हैं, 1972 के पहले के कानून और 1972 के बाद के कानून। ये दोनों चरणों के कानून अपने लक्ष्य को किस हद तक हासिल कर पायें, इसके बारे में कई विद्धानों (जोशी 1995; अप्पू 1975; बंदोपाध्याय 1986; शर्मा 1992) ने और साथ ही योजना आयोग की तरह की सरकारी एजेंशियों ने भी अध्ययन किया है। इसके अलावा भारत में जमीन के मालिकाने के बदलते हुए स्वरूप पर भी कई अध्ययन हुए हैं। इन सभी अध्ययनों की अपनी कुछ दृष्टिकोणगत कमजोरियों के बावजूद इनमें संकलित तथ्यों से यह जाहिर होता है कि भारत के गांवों में आजादी के बाद जमीन के संकेंद्रण में जो भी बदलाव आयें, उनसे गांव के गरीबों की स्थिति में बहुत ज्यादा सुधार नही हो पाया।
आजादी के बाद कांग्रेस के नेतृत्व में जो सरकार कायम हुई उसने सामंतवाद के खात्मे के बजाय क्रमश: ऐसी नीतियां अपनायी जिनसे सामंती जमींदारों का पूंजीवादी जमींदारों में रूपांतरण हो। इस प्रकार भारत का पूंजीवादी विकास का रास्ता सामंती ताकतों के साथ सहयोग और समझौते के आधार पर तैयार किया गया। परिणामत:, 1951 में भारत की आबादी में खेत मजदूरों की संख्या जहां 14.2 प्रतिशत थी, वह 1961 में बढ़ कर 15.75 प्रतिशत, 1971 में 25.75 प्रतिशत होगयी। 1981 की जनगणना में खेतमजदूरों की श्रेणी में आने के लिये यह शर्त रखी गयी कि साल में कम से कम 183 दिन दूसरे के खेत पर काम करने पर ही किसी व्यक्ति को खेत मजदूर माना जायेगा। इसके चलते खेत मजदूरों की संख्या में थोड़ी कमी आयी, लेकिन पहले के मानदंड के आधार पर ही यदि देखा जाए तो 1981 में खेतमजदूरों की संख्या भारत की आबादी का 35 प्रतिशत हिस्सा हो चुकी थी। 1981 की जनगणना के अनुसार ही गांवों के 55 प्रतिशत लोग गरीबी की सीमारेखा के नीचे वास कर रहे थे।
इसके अतिरिक्त इससे यह भी जाहिर हुआ कि 1951 में 2 एकड़ तक की जमीन की मिल्कियत वाले किसानों की संख्या आबादी का 34.5 प्रतिशत थी, तो 1971 में अढ़ाई एकड़ जमीन के मालिकों की संख्या 60 प्रतिशत होगयी। जबकि इसी काल में 2 से 5 एकड़ तक जमीन के मालिकों की संख्या 36.2 प्रतिशत से कम होकर 22.3 प्रतिशत होगयी, 5 से 10 एकड़ जमीन के मालिकों की संख्या 20 प्रतिशत से कम होकर 13 प्रतिशत होगयी।
इसप्रकार, उपरोक्त तथ्यों से साफ है कि 1981 तक अधिकांश किसान अढ़ाई एकड़ से नीचे की जमीन के मालिकों की हैसियत पर आगये थे। गांव की आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा खेत मजदूरों और गरीब किसानों का है और तथ्य बताते हैं कि आजादी के लगभग 25 वर्ष बाद भी इनकी दशा में सुधार के बजाय इनकी दरिद्रता लगातार बढ़ती चली गयी। केंद्र सरकार ने जमींदारी उन्मूलन के लिये जमींदारी अधिग्रहण कानून (Estate Acquisition Act) के तहत जमींदारों को 100 करोड़ रुपये की क्षतिपूर्ति दी। इसके बावजूद, गांवों में जमींदारों के रुतबे में कोई कमी नहीं आयी। पश्चिम बंगाल में तो स्थिति यह थी कि 1967 में संयुक्त मोर्चा सरकार के बनने के पहले जमींदारी उन्मूलन कानून के तहत सरकार के हाथ में जो अतिरिक्त जमीन लगी थी, उसमें से जमीन का एक टुकड़ा भी भूमिहीनों और गरीबों के बीच नहीं बांटा गया था।

यही थी भारत में जमींदारी उन्मूलन की सचाई। अब जहां तक गांवों के समग्र विकास संबंधी योजनाओं का सवाल है, इस बारे में भी एक सही दृष्टिकोण हासिल करने का अपना इतिहास है। सभी जानते हैं कि हमारे देश में 50 और 60 के दशक तक विकास के बारे में जो अवधारणा थी उसमें यह माना जाता था कि यदि समग्र रूप से उत्पादन में वृद्धि होगी तो स्वत: गरीबों को भी विकास के लाभ मिलने लगेंगे। लेकिन 60 के दशक के अंत तक आते-आते इस प्रकार के Trickle Down (चू कर नीचे जाने के) सिद्धांत का दिवालियापन साफ दिखाई देने लगा था। विकास के इस पथ से आर्थिक अभिवृद्धि का लाभ समाज के गरीबों और वंचितों तक पंहुचने के बजाय, उल्टे देखा यह गया कि गरीबों और अमीरों के बीच फर्क की खाई चौड़ी होने लगी। गांवों के बारे में 50 के दशक में सामुदायिक विकास की जो योजनाएं बनायी गयी, उनका हश्र भी सबके सामने था। ये योजनाएं गांव के गरीबों में किसी प्रकार के उत्साह और आलोड़न को पैदा करने में पूरी तरह से विफल रही थी।
इसी पृष्ठभूमि में 1952 में संसद में बलवंतराय मेहता के नेतृत्व में एक संसदीय कमेटी का गठन सिर्फ इस बात के अध्ययन के लिये किया गया था कि आखिर क्या वजह है जिसके कारण भारत सरकार की सामुदायिक विकास योजनाओं के प्रति गांव के लोगों में किसी प्रकार का कोई उत्साह नहीं दिखाई देता है? यथार्थ स्थितियों के अध्ययन के उपरांत इस कमेटी ने गौर किया कि भारत के गांवों में ऐसी कोई प्रणाली काम नहीं कर रही है, जो गांव के आम लोगों को ग्रामीण विकास की योजनाओं के साथ जोड़ सके और उनके प्रति उनमें उत्साह पैदा कर सके। सरकारी योजनाओं को जनता तक ले जाने का एकमात्र तंत्र औपनिवेशिक दिनों के बदनाम प्रशासनिक तंत्र के अलावा और कुछ नहीं है जिसपर गांव के आम लोगों का कोई विश्वास नहीं है। इसी सिलसिले में बलवंतराय मेहता कमेटी ने ग्रामीण विकास के सभी कामों में आम लोगों की भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिये राज्यों में राज्य सरकार के बाद त्रि-स्तरीय पंचायतों के गठन की सिफारिश की जिससे चुने हुए प्रतिनिधियों के जरिये आम लोगों को सरकार की सामुदायिक विकास योजना में शामिल किया जा सकेगा। त्रि-स्तरीय पंचायतों के गठन का यह सुझाव भारत में सत्ता के जनतांत्रिक विकेंद्रीकरण की दिशा में भी सुझाया गया अपने किस्म का पहला कदम था।
मेहता कमेटी की सिफारिश पर सबसे पहले राजस्थान और फिर आंध्र प्रदेश में कुछ प्रयोग किये गये, और बाद में बाकी राज्यों में भी पंचायतों का गठन हुआ। लेकिन परवर्ती दिनों में सिर्फ गुजरात और महाराष्ट्र को छोड़ कर बाकी पूरे देश में बहुत जल्द ही यह प्रणाली ध्वस्त होगयी। कांग्रेस शासित राज्य सरकारों की न पंचायतों का सशक्त करने, उन्हें जरूरी कोष मुहैय्या कराने में कोई दिलचस्पी थी और न ही उन्होंने पंचायतों का नियमित चुनाव कराने में कोई तत्परता दिखाई। इसके बारे में बिल्कुल सही कहा जाता है कि पंचायती राज की संस्थाएं गांवों में अपनी जड़ें जमाती, इसके पहले ही उनकी हत्या कर दी गयी। इस प्रणाली में फिर से जान फूंकी गयी 60 के दशक के मध्य में, जब अशोक मेहता कमेटी ने त्रि-स्तरीय पंचायती राज को फिर से चंगा करने की जोरदार सिफारिश की और उसी के आधार पर 1978 में पश्चिम बंगाल में पंचायतों का गठन हुआ। इसके बाद कर्नाटक, आंध्रप्रदेश और 80 के मध्य में केरल में त्रि-स्तरीय पंचायतें बनी।

70 के दशक के अंत में पंचायती संस्थाओं के निर्माण की पृष्ठभूमि में 70 के दशक का विकास संबंधी वह समूचा विमर्श भी काम कर रहा था जिसमें ‘आर्थिक अभिवृद्धि के साथ पुनर्वितरण’ तथा ‘सामाजिक न्याय के साथ अभिवृद्धि’ की बातें की जाने लगी थी। विकास की प्रक्रिया में जनता की भागीदारी की बात तब विकास संबंधी सभी विमर्शों के केंद्र में आगयी थी। इसने ग्रामीण विकास की पूरी अवधारणा को और ज्यादा व्यापक स्वरूप प्रदान किया। लेकिन तब भी ग्रामीण विकास के मूल में समूचे सामाजिक-आर्थिक ढांचे की भूमिका का सवाल इस विमर्श के बाहर था। तब भी यह बात विचारकों के जेहन के बाहर थी कि गांवों का सामाजिक-आर्थिक ढांचा ही विकास के सभी लाभों के अन्यायपूर्ण वितरण का कारक बनता है।

60 के दशक में देश में जो भयावह खाद्य संकट था, उसे देखते हुए खास-खास जगहों को चुन कर, जहां उपजाऊ जमीन के साथ ही सिंचाई की अच्छी व्यवस्था थी, सघन कृषि कार्यक्रमों के जरिये पूरी तरह से उत्पादन-केंद्रित कार्यक्रम अपनाये गये। ये कार्यक्रम देश के विभिन्न जिलों में चलाये गये। इनमें सफलता भी मिली। इन्हें ही पंजाब और हरयाणा की हरित क्रांति कहा जाता है। लेकिन बहुत जल्द ही यह भी देखा गया कि इस हरित क्रांति की बदौलत एक प्रकार का क्षेत्रीय असंतुलन पैदा हुआ है और विकास का लाभ गरीबों की दुर्दशा को कम नहीं कर पाया है। उल्टे कई जगहों पर पाया गया कि इससे व्यापक जनता की दरिद्रता और बढ़ गयी है।
विकास संबंधी इन तमाम अनुभवों और समूचे विमर्श, अशोक मेहता कमेटी की सिफारिशों और  त्रि-स्तरीय पंचायतों के गठन पर दिये गये बल तथा विकास के लाभों को गांव के गरीबों तक ले जाने में गांवों के सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने की भूमिका के बारे में एक समझ के तहत ही जब 21 जून 1977 को पहली वाम मोर्चा सरकार बनी तो एक साल के अंदर ही 4 जून 1978 के दिन पश्चिम बंगाल में त्रि-स्तरीय पंचायत चुनाव कराये गये। इस समय तक सत्ता का विकेंद्रीकरण समय की पुकार बन चुका था। आंतरिक आपातकाल और सत्ता के चरम केंद्रीकरण के अनुभवों ने केंद्र में जनता पार्टी की सरकार के प्रमुख लक्ष्यों में सत्ता के विकेंद्रकरण की बात को रखा था। 1977 में वाम मोर्चा सरकार के बनने के बाद 1978 में जो पंचायत चुनाव हुए, उसके पहले पश्चिम बंगाल में पंचायतों के चुनाव 15 वर्ष पहले हुए थे। इस पूरे काल में इंदिरा गांधी के तानाशाही रूझान के चलते केंद्र सरकार सारे आर्थिक, प्रशासनिक और संवैधानिक अधिकारों को केंद्रीभूत कर रही थी और जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, किसी भी कांग्रेसी राज्य सरकार की सत्ता के विकेंद्रीकरण में कोई दिलचस्पी नहीं थी। यहां तक कि ग्रामीण विकास के कामों के लिये भी केंद्र से सीधे जिलों तक कोष पंहुचाने और केंद्र के कार्यक्रमों पर अमल करने के लिये देहातों में नौकरशाही का एक विशाल ताना-बाना तैयार कर लिया गया। पंचायतों को पूरी तरह से दरकिनार करके नौकरशाही के जरिये गांवों के विकास संबंधी कार्यक्रमों पर अमल की नीति ने पंचायती संस्थाओं को पूरी तरह से अप्रासंगिक सा बना दिया था। गरीबी दूर करने के केंद्र सरकार के कथित लक्ष्य-केंद्रित कार्यक्रमों में सीधे गरीब परिवारों तक आमदनी के साधन पंहुचा कर उन्हें गरीबी की सीमा-रेखा से ऊपर लाने की बात की जाने लगी। छठी पंचवर्षीय योजना में एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम (आईआरडीपी) सीधे तौर पर लक्षित समुदायों की समस्याओं में केंद्र द्वारा हस्तक्षेप के कार्यक्रम थे। इन पर अमल के लिये जिला ग्रामीण विकास एजेंंसी (डीआरडीए) की तरह के निकायों का गठन किया गया। केंद्र की स्कीमों पर अमल के लिये इस दौरान रातो-रात असंख्य सोसाईटियों, निगमों का पंजीकरण होने लगा। इस प्रकार इंदिरा गांधी के इस दौर में ग्रामीण विकास के समूचे कार्यक्रम का नौकरशाहीकरण कर दिया गया और पंचायती संस्थाओं को अपनी मौत मरने के लिये छोड़ दिया गया।  

परिस्थितियों की इसी पृष्ठभूमि में तानाशाही शासन की विकल्प नीति पर चलते हुए पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार ने पंचायत चुनावों के जरिये सत्ता के विकेंद्रीकरण का निर्णय लिया। 1977 के चुनाव के वक्त ही वाम मोर्चा के घोषणा-पत्र में यह वादा किया गया था कि यथाशीघ्र पंचायतों के चुनाव कराये जायेंगे और देहाती क्षेत्रों में विकास के सभी कामों की जिम्मेदारी पंचायतों को सौंपी जायेगी। 1978 के पंचायत चुनावों के वक्त वाम मोर्चा का नारा था ‘निहित स्वार्थों के केंद्रों को ध्वस्त करो’ (कायेमी स्वार्थेर घुघुर बासा के घ्वंस कोरो)। पंचायत चुनाव में वाम मोर्चा की भारी जीत के बाद ही घोषणा-पत्र में किये गये वादों के मुताबिक वाम मोर्चा सरकार ने गांवों के विकास की जिम्मेदारी और इसके लिये जरूरी संसाधानों को गांव के लोगों को ही सौंप देने की दिशा में ठोस कदम उठायें। भूमि-सुधार, कृषि-विकास, शिक्षा और संस्कृति, जन-स्वास्थ्य, लघु और कुटीर उद्योग, सहकार, सड़कों तथा यातायात के अनेक कामों को पंचायतों के सुपुर्द कर दिया गया जिससे गांव के लोगों में एक नया उत्साह और उद्दीपन पैदा हुआ; एक नयी प्रकार की सामाजिक चेतना का विकास होना शुरू हुआ। पंचायतें गांवों में निहित स्वार्थों के खिलाफ संघर्ष का मंच बन गयी।
वाम मोर्चा सरकार के काल में पहले पंचायत चुनाव के ठीक पांच वर्ष बाद ही 1983 में दूसरा पंचायत चुनाव हुआ। इस चुनाव के परिणामों की समीक्षा करते हुए सीपीआई(एम) की पश्चिम बंगाल राज्य कमेटी के 16वें राज्य सम्मेलन (29 नवंबर - 2 दिसंबर 1985, टालीगंज, कोलकाता) की राजनीतिक-सांगठनिक रिपोर्ट में कहा गया है कि 3305 ग्राम पंचायतों, 339 पंचायत समितियों और 15 जिला परिषदों को लेकर गठित त्रि-स्तरीय पंचायतों पर अतीत में पश्चिम बंगाल में और अभी कांग्रेस शासित विभिन्न राज्यों में गांव के निहित स्वार्थ के प्रतिनिधियों का कब्जा था और आज है। लेकिन पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा के शासन में इसमें परिवर्तन हुआ है। एक सर्वेक्षण में यह पाया गया है कि यहां के लगभग 55 हजार निर्वाचित सदस्यों में 85 प्रतिशत ऐसे हैं, जिनके पास या तो कोई जमीन नहीं है, या 5 एकड़ से कम जमीन है। अकेले इस तथ्य से गांवों में वर्गीय संतुलन में आये परिवर्तन को देखा जा सकता है।
उपरोक्त विश्लेषण से ही जाहिर है कि पश्चिम बंगाल में पंचायतों के जरिये गांवों के सामाजिक-आर्थिक ढांचे में ऐसे बुनियादी परिवर्तन हुए जिनके चलते ग्रामीण विकास के लाभों का गांव की गरीब किसान जनता तक पंहुचना संभव हो पाया है। ग्रामीण विकास से तात्पर्य यदि गांव की गरीब और वंचित जनता की आर्थिक और सामाजिक हालत में सुधार है, तो 1978 के पहले पंचायत चुनावों के बाद से ही वाम मोर्चा के शासन में पंचायतें इसके एक कारगर हथियार का रूप ले चुकी थी। ऊपर से, भूमि सुधार के सरकारी कार्यक्रम के साथ राज्य के किसान आंदोलन के गहरे संबंध और गांव के गरीबों की बदलती हुई आर्थिक स्थिति ने वह आर्थिक बुनियाद तैयार कर दी थी, जिस पर गरीबों की सामाजिक स्थिति में भी परिवर्तन संभव हो पाया।


गांवों का बदलता संतुलन

जहां तक भूमि सुधार और आपरेशन बर्गा और उसके साथ ही कृषि में आधुनिक तकनीक, रसायनिक खाद तथा नये बीजों से कृषि-उत्पादन में हुई वृद्धि का सवाल है, हम यहां सबसे पहले 26 मार्च 1994 के इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली में अनामित्रा साहा और मधुरा स्वामीनाथन के उस निबंध की ओर ध्यान दिलाना चाहेंगे जिसमें इन दोनों विद्वानों ने 80 के दशक में पश्चिम बंगाल में कृषि में अभिवृद्धि के विषय की जांच की है। अपने इस अध्ययन की भूमिका में उन्होंने लिखा है कि यद्यपि पश्चिम बंगाल के पास कृषि के लिये काफी प्राकृतिक संसाधन है, तथापि पूर्वी और उत्तर-पूर्वी भारत के अन्य राज्यों की तरह वर्षों तक पश्चिम बंगाल में कृषि की अग्रगति धीमी रही और अखिल भारतीय औसत से काफी पीछे। 1969-70 से 1981-82 के दौरान पश्चिम बंगाल में खाद्यान्नों के उत्पादन में सालाना वृद्धि की दर 0.6 प्रतिशत रही जबकि राष्ट्रीय औसत 2.2 प्रतिशत (CMIE) का था। 1980 के दशक के प्रारंभ में पश्चिम बंगाल में चावल का उत्पादन दो प्रमुख चावल उत्पादक राज्यों, पंजाब और आंध्रप्रदेश की तुलना में काफी कम था। (पश्चिम बंगाल में औसत चावल उत्पादन प्रति हेक्टेयर 1422 किलोग्राम था, पंजाब में 2736 किलोग्राम और आंध्र प्रदेश में 1947 किलोग्राम।)
 80 के दशक में परिस्थिति बदल गयी। कृषि में अभिवृद्धि की दर तेज हुई: 1980-81 की कीमतों को आधार मानने पर कृषि से होने वाला राज्य का घरेलू उत्पाद (स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट, एसडीपी) 1980-81 के 2477.64 करोड़ रुपये से बढ़ कर 1990-91 में 3948.8 करोड़ रुपये होगया, अर्थात 6.1 प्रतिशत की दर से सालाना अभिवृद्धि हुई। ...खाद्यान्नों के उत्पादन में अभिवृद्धि की दर सालाना 6.5 प्रतिशत थी, जो भारत के 17 प्रमुख राज्यों में सबसे ऊंची है।
...इस असाधारण परिवर्तन के कारणों को विद्वानों द्वारा जांचना अभी बाकी है। 1977 में पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा सरकार के शासन में आने के बाद जो दो प्रमुख परिवर्तन हुए, वे हैं सीमित भूमि सुधार पर अमल और त्रि-स्तरीय पंचायत व्यवस्था के रूप में नयी जनतांत्रिक संस्थाओं की स्थापना।
इसी बात को पश्चिम बंगाल में कृषि उत्पादन के क्षेत्र में हुई असाधारण वृद्धि के तमाम तथ्यों की जांच करने के उपरांत इस अध्ययन के उपसंहार में लगभग दोहराते हुए कहा गया है कि  पश्चिम बंगाल में कृषि उत्पादन की उपलब्धि में आया यह परिवर्तन भूमि सुधार के उल्लेखनीय कार्यक्रम और पश्चिम बंगाल के देहातों में नयी जनतांत्रिक पंचायती संस्थाओं की स्थापना के बाद हुआ है। उत्पादन से संबंधित गतिविधियों में पंचायतें सक्रिय हैं। पंचायतें जल प्रबंधन के काम में शामिल हैं; देहाती मजदूरों को उथले ट्यूबवेल (shallow tubewells) बैठाने, नालियां तैयार करने और विभिन्न प्रकार के सिंचाई से जुड़े कामों में लगाया गया। खबर है कि पंचायतें इस बात को भी सुनिश्चित करती है कि किसानों को कृषि के लिये बिजली मिलें और वे ग्रामीण कर्जों को दिलाने में भी सहायक होती हैं। पंचायतें छोटे किसानों को कृषि में लगने वाली सामग्रियां मुहैय्या कराती है। पंचायती व्यवस्था के जरिये लाभ पाने के पूरे ढांचे में जो परिवर्तन आये हैं और आपरेशन बर्गा द्वारा छोटे किसानों को मिली सुरक्षा से आये परिवर्तनों का अध्ययन अभी बाकी है। इन परिवर्तनों के साथ कृषि उत्पादन में बढ़ोतरी के संबंध को भी जानना बाकी है।
बहरहाल, दूसरा तथ्य यह भी है कि 80 के दशक के दौरान ही राज्य में प्रति व्यक्ति खाद्यान्नों की खपत में भारत के अन्य राज्यों की तुलना में सबसे अधिक बढ़ोतरी हुई है। यह अकेला तथ्य पश्चिम बंगाल के आम लोगों की जिंदगी में आने वाली खुशहाली की कहानी कहता है।
इसीप्रकार पंचायतों के जरिये चलाये गये रोजगार पैदा करने वाले कार्यक्रमों से स्थानीय लोगों को काफी लाभ पहुंचा है। जवाहर रोजगार योजना की तरह की स्कीमों के जरिये सुनियोजित ढंग से ऐसी परिसंपत्तियों का निर्माण किया गया हैं, जिनसे गांव के लोगों को लंबे अर्से तक लाभ मिल सके। देहातों का आर्थिक परिदृश्य पहले की तुलना में तेजी से बदला है। 1980 में देहाती उद्यमों में जहां रोजगार की संख्या 22.24 लाख थी, वह 1991 तक 63 प्रतिशत बढ़ कर 36.47 लाख होगयी। ग्रामीण उद्यमों की संख्या 71 प्रतिशत बढ़ कर 10.44 लाख से 18.88 लाख होगयी। इसके चलते देहातों के कुल मजदूरों में खेतिहर मजदूरों का हिस्सा 1981 में जहां 25.2 प्रतिशत था, वह 1991 में घट कर 24.5 प्रतिशत होगया। गौर करने लायक बात है कि इसी काल में पूरे देश के पैमाने पर देहाती श्रम शक्ति में खेतिहर मजदूरों का हिस्सा बढ़ा था। यह 24.9 प्रतिशत से बढ़ कर 26.2 प्रतिशत होगया था। इसीप्रकार खेतिहर मजदूरों की दैनिक मजूरी में इस दौरान 71 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
आज देश के विभिन्न राज्यों में किसानों द्वारा आत्म-हत्या की खबरें सुनने को मिलती है। इसके मूल में किसानों पर बढ़ता हुआ कर्ज का बोझ है। पश्चिम बंगाल में किसान के द्वारा आत्म हत्या की अब तक एक भी घटना सुनने को नहीं मिली है। इसकी प्रमुख वजह यह है कि पश्चिम बंगाल के किसानों पर भारत के दूसरे हिस्सों की तुलना में सबसे कम कर्ज है। खुद केंद्रीय श्रम मंत्रालय ने इस तथ्य को स्वीकारा है और इसका श्रेय यहां के भूमि सुधार के कार्यक्रम को दिया है। पश्चिम बंगाल के गांवों में महाजनों द्वारा दिये जाने वाले कर्ज की मात्रा में गिरावट आयी है। 1977-78 तक देहातों के कुल कर्ज का लगभग 26 प्रतिशत महाजनों से आता था, वह 1993 में कुल देहाती कर्ज का सिर्फ 12 प्रतिशत रह गया। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के तथ्यों के अनुसार 80 के दशक में भारत के 18 सबसे बड़े राज्यों में पश्चिम बंगाल में सबसे अधिक तेजी के साथ गरीबी की दर में गिरावट आयी है। इन तमाम तथ्यों के गभीतार्थों को पश्चिम बंगाल के गांवों में भूमि सुधार, आपरेशन बर्गा और पंचायती राज के चलते बदले हुए शक्ति-संतुलन के साथ जोड़ कर ही सही रूप में समझा जा सकता है।
पहली वाम मोर्चा सरकार के गठन के आठ वर्ष बाद 1983 में कोलकाता के टालीगंज में हुए सीपीआई(एम) के 15वें राज्य सम्मेलन की राजनीतिक-सांगठनिक रिपोर्ट में वाम मोर्चा सरकार के शासन में राज्य के ग्रामीण क्षे़त्रों के सामाजिक-आर्थिक स्वरूप में किस प्रकार के परिवर्तन आने शुरू होगये, इसका एक सजीव चित्र मिलता है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि  1977 में वाम मोर्चा सरकार के गठन के बाद खेत मजदूरों को रोजगार देने, उनकी मजूरी बढ़ाने और आवास की जमीन मुहैय्या कराने, बंटाईदारों की बेदखली को रोकने, बंटाई के भाग को कानूनी तौर पर तय करने तथा बैंकों के जरिये कर्ज दिलाने की तरह के विभिन्न क्षेत्रों में वाम मोर्चा सरकार ने कदम उठाये है और उन सबपर ठोस रूप में अमल कराने के लिये पिछले आठ वर्षों में जो लगातार लड़ाइयां लड़नी पड़ी हैं, उनके कारण खेत मजदूरों और गरीब किसानों का आत्म-विश्वास बढ़ा है, किसान संगठन काफी व्यापक और शक्तिशाली हुआ है। खेतमजदूरों और गरीब किसानों को आधार बना कर किसान सभा की नींव तैयार की गयी है। पिछले आठ वर्षों में खेतमजदूरों की मजूरी कम से कम दुगुनी होगयी है। ‘काम के बदले अनाज’ और ‘ग्रामीण रोजगार प्रकल्पों’ के जरिये पिछले आठ वर्षों में 26 करोड़ 76 लाख श्रम दिवस पैदा हुए। प्राय: दो लाख भूमिहीन खेतमजदूरों, मछुआरों और कारीगरों को आवास की जमीन मिली है। प्राय: 16 लाख पेदारों के बीच 8 लाख एकड़ से भी ज्यादा जमीन वितरित की गयी है। प्राय: 40 लाख किसान परिवारों को लगान से मुक्त किया गया है। किसान इन अवसरों का लाभ उठा सके इसके लिये आंदोलन खड़ा करने की जरूरत है। कृषि उत्पादों के मूल्य जब गिर जाते हैं तब वाम मोर्चा सरकार उसे रोकने की हर संभव कोशिश करती है। इन सबसे किसानों की मूलभूत समस्याओं का समाधान न होने पर भी उनमें एक विकल्प रास्ते की चेतना पैदा हो रही है। वे धीरे-धीरे इस विकल्प पथ में आने वाले अवरोधों को कुछ-कुछ समझ रहे हैं। जिस समय देश की समग्र अर्थ-व्यवस्था का संकट गहराता जा रहा है, उस समय एक अंग राज्य की सीमित राजनीतिक शक्ति और आर्थिक सामथ्र्य के साथ बहुत ज्यादा कुछ भी नहीं किया जा सकता है। फिर भी, उल्लेखनीय है कि इस परिस्थिति में भी 1976-77 में पश्चिम बंगाल में जहां 74.5 लाख टन खाद्यान्नों का उत्पादन हुआ था, वहीं 1984-85 में यह बढ़ कर 90 लाख टन होगया है। इसी काल में आलू का उत्पादन 16.5 लाख टन से बढ़ कर 30 लाख टन होगया। पाट का उत्पादन 34.7 लाख गांठ से बढ़ कर 45 लाख गांठ होगया। इसके अलावा तिलहनों के उत्पादन में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। सिंचित क्षेत्र की मात्रा 25 प्रतिशत से बढ़ कर 35 प्रतिशत होगयी। इनकी वजह से प्रति वर्ष रोजगार मिलने की संभावना बढ़ी है। सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि 1979 से 1982 के लंबे तीन वर्षों के बीच लगातार भारी सूखा पड़ने पर भी किसी की भी भूख से मृत्यु नहीं हुई। असहाय लोग शहरों में आकर जमा भी नहीं हुए। पूरे भारत में जहां प्रति व्यक्ति आमदनी 749 रुपया है, वहीं पश्चिम बंगाल में 801 रुपया है।
इसी रिपोर्ट के उस अंश में जहां पार्टी के विभिन्न जन-संगठनों की रिपोर्ट को संकलित किया गया है, उसमें किसान मोर्चे की रिपोर्ट में विस्तार के साथ यह बताया गया है कि किस प्रकार इस दौरान सूखे का मुकाबला करने और जखीरेबाज सूखे की परिस्थितियों का लाभ उठा कर राज्य के आम लोगों पर कहर बरपा न कर सके, इसके लिये पार्टी और किसान सभा ने राज्य भर में किसानों और खेतमजदूरों के आंदोलन चलाये, केंद्र से राज्य को खाद्यान्न की सहायता मिलें, खेत मजदूरों और गरीब किसानों के रोजगार के लिये एनआरईपी के तहत आपूर्ति को बढ़ाने तथा मजूरी के एक हिस्से के रूप में अनाज देने की तरह की मांगों पर राज्य भर में प्रचार आंदोलन चलाये गये। इसी प्रकार इसमें आलू पैदा करने वाले किसानों, पान की खेती करने वाले किसानों, पाट पैदा करने वाले किसानों और चटकल के मजदूरों के साथ पाट-उत्पादक किसानों के संयुक्त कन्वेंशन के जरिये उनके सामने आने वाली समस्याओं के समाधान की कोशिशों का भी ब्यौरा दिया गया है।
वाम मोर्चा सरकार के कामों के साथ ही किसान आंदोलन के इन जैविक संबंधों से पूरे पश्चिम बंगाल में प्रादेशिक कृषक सभा का संगठन कितनी तेजी से फैला, वह हर वर्ष तेजी से बढ़ती उसकी सदस्य-संख्या से जाहिर होता है। पार्टी के 15वें राज्य सम्मेलन(1983) में यह 55 लाख 82 हजार 625 पर पंहुच गयी थी जो 1988 में हुए सोलहवें राज्य सम्मेलन के वक्त बढ़ कर 78 लाख 96 हजार 326 होगयी। 1998 में सीपीआई(एम) के 19वें राज्य सम्मेलन ( 27-30 अगस्त, हावड़ा) के समय यह संख्या एक करोड़ 55 हजार 121 होगयी, 2002 में हुए 20वें राज्य सम्मेलन (22-25 फरवरी, कोलकाता) के वक्त यह संख्या एक करोड़ 11 लाख 29 हजार 955 थी और 2005 में हुए 21वें राज्य सम्मेलन (9-12 फरवरी, कमरही, उत्तर 24 परगना) के वक्त 1 करोड़ 32 लाख 78 हजार 998 तक पंहुच गयी। 21वें सम्मेलन में पेश की गयी जन-संगठनों की रिपोर्ट में किसान मोर्चे के बारे में जो ब्यौरा दिया गया है, उसमें बताया गया है कि विगत तीन वर्षों में पश्चिमबंग कृषक सभा का लक्ष्य यह था कि ग्रामीण आबादी के 60 प्रतिशत हिस्से को व्यापक प्रचार अभियान के जरिये कृषक सभा के साथ जोड़ना होगा। इसीमें कहा गया है कि कुछ जिलों में तो सदस्यता अभियान इस प्रकार चलाया गया जैसे कि यह कोई चुनावी प्रचार का अभियान हो। हांलाकि सभी जिलों में ग्रामीण आबादी के 60 प्रतिशत को शामिल करना संभव नहीं हो पाया है। इस मामले में जिले-जिले में असमानता रही है। लेकिन यह अकेला तथ्य इस अभियान की सफलता की कहानी कहता है कि बद्र्धमान की तरह के जिले में ग्रामीण आबादी का 70 प्रतिशत कृषक सभा के साथ जोड़ लिया गया।
वाम मोर्चा सरकार के शासन के प्रारंभिक वर्षों में भूमि सुधार और आपरेशन बर्गा के जरिये पश्चिम बंगाल के देहाती इलाकों में जो भारी परिवर्तन आए, इसका विस्तृत वर्णन हम आगे कर चुके हैं। उसके बाद से अब तक काफी समय बीत चुका है। वाम मोर्चा सरकार को 33 वर्ष पूरे होगये हैं। इसीलिये अब न  भूमि सुधार का आंदोलन पुराने रूप में जारी रह सकता है और न ही बंटाईदारों के अधिकारों का प्रश्न उतना ज्वलंत रह गया है। सन् 2005 में सीपीआई(एम) के 21वें राज्य सम्मेलन की रिपोर्ट में भूमि के प्रश्न पर जो बात कही गयी है, उसे इस प्रसंग में यहां उद्धृत किया जा सकता है। इसमें कहा गया है:
किसान आंदोलन का मुख्य नारा है मूलभूत भूमि सुधार। लेकिन मौजूदा व्यवस्था में यह एक प्रचारात्मक नारा है। इस विषय पर वास्तविक नारा है: हदबंदी कानून के दायरे में भूमि सुधार। किसान आंदोलन की सक्रियता और वाम मोर्चा सरकार की कोशिशों से इस काम में काफी प्रगति हासिल करना संभव हुआ है। आज राज्य की कृषि-योग्य जमीन का 73 प्रतिशत छोटे और गरीब किसानों के पास है। इनके साथ बंटाईदारों के खेती के अधिकार का हिसाब करने पर 92 प्रतिशत खेत (1 शतक से 5 एकड़ तक के खेत) छोटे और गरीब किसानों के पास हैं। सिर्फ 8 प्रतिशत खेत (5 एकड़ से अधिक और 12 एकड़ से नीचे के) धनी किसानों और दूसरों के पास हैं। आज की स्थिति में भूमिसुधार आंदोलन से पहले के दिनों की तरह आलोड़न पैदा नहीं होता है और इसमें किसी प्रकार की तीव्रता लाना संभव भी नहीं है। जिन तमाम स्थानों पर अब भी कुछ खास (सरकारी) जमीन और उसके आबंटन की संभावना है, वहां किसान आंदोलन और प्रशासनिक पहलकदमी से जमीन के आबंटन का काम चल रहा है। लेकिन इस सवाल पर क्रमश: सीमाएं बढ़ रही है और वह अनिवार्य है।
भूमि सुधार आंदोलन और काल के नियम से ही परिवारों के बंटने के कारण जमीन की मिल्कियत बहुत छोटे-छोटे खंडों में बंटती जा रही है। आज पूंजीवादी वैश्वीकरण और देश भर में निजीकरण की जो प्रक्रिया चल रही है, उसके प्रकोप के सामने इन अति-क्षुद्र भूखंडों के मालिकों के टिके रहने का सवाल किसान मोर्चे के समक्ष आ गया है। इन छोटे खेतों को अच्छी तरह से उत्पादन के लायक बनाये रखने के लिये इनके मालिकों को परस्पर सहयोग आधार पर इकट्ठा करके किसान समूहों के गठन की तरह के किसी उत्पादनशील संगठन को तैयार करने के विषय पर भी किसान मंच पर विचार करके निर्णय लेना होगा।
उपरोक्त विश्लेषण से ही जाहिर है कि पिछले 33 वर्षों में किसानों के सबसे बड़े वामपंथी संगठन पश्चिमबंग कृषक सभा को भूमि सुधार और आपरेशन बर्गा के तूफानी आंदोलन से शुरू करके अनेक प्रकार के अनुभवों से गुजरना पड़ रहा है। अपने अनुभवों के आधार पर ही वह ग्रामीण क्षेत्र के नये उभरते हुए यथार्थ की पहचान कर रहा है और भावी दिनों में किसान आंदोलन का क्या नया स्वरूप होगा, इसे भी साफ तौर पर देख पा रहा है। सिर्फ जमीन के सवाल पर ही नहीं, बंटाईदारों के प्रश्न पर भी वामपंथी आंदोलन जिन नयी समस्याओं का सामना कर रहा है, इसका भी एक चित्र इसी रिपोर्ट में आगे मिलता है। बंटाईदारों के बारे में इसमें कहा गया है:
राज्य में 15 लाख बंटाईदारों के हाथ में 11 लाख एकड़ से भी अधिक जमीन पर खेती के अधिकार को बंटाईदारों के पंजीकरण के जरिये सुनिश्चित किया गया है। खेती का अधिकार सुनिश्चित होने से बंटाईदारों के बीच जो उत्साह पैदा हुआ और उससे उत्पादन में जो वृद्धि हुई वह साफ दिखाई देती है। लेकिन थोड़ी तादाद में होने पर भी कुछ बंटाईदारों में, जो गांव में नहीं रहने वाले मालिकों के बंटाईदार है, इसप्रकार का अवसरवादी रूझान देखा गया है कि वे खेती करने के अधिकार को अपनी मिल्कियत का अधिकार मान बैठते हैं और मालिक को मिलने वाले फसल के हिस्से को नहीं देते हैं। किसान मोर्चे को ऐसे रूझानों के खिलाफ भी लड़ना होगा।
इसीप्रकार इसमें कृषि की जमीन में पूंजी के प्रवेश अथवा गांवों में नये-नये कामों के अवसर पैदा होने की वजह से बंटाईदारों द्वारा ही जमीन को छोड़ने या मालिक द्वारा जमीन की बिक्री किये जाने पर बंटाईदार के हितों की रक्षा करने की तरह के सवालों पर भी गंभीरता से विचार किया गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि भूमि सुधार और आपरेशन बर्गा के जरिये पश्चिम बंगाल के गांवों में शुरू हुआ परिवर्तन नयी परिस्थितियों की नयी समस्याओं से भी जूझ रहा है और राज्य के समग्र विकास को मूलत: गरीब जनता के हितों के साथ जोड़ कर तमाम निर्णयों को प्रभावित भी कर रहा है। सरकार द्वारा किसी भी ऐसी जमीन का अधिग्रहण किये जाने पर जिस पर बंटाईदार हो, क्षतिपूर्ति की राशि में बंटाईदार के हिस्से को सुनिश्चित किया गया है। पश्चिम बंगाल में परिवर्तन की एक समग्र समझ कायम करने के लिये इन सभी पक्षों को ध्यान में रखने की जरूरत है।

सहभागी जनतंत्र और नयी चुनौतियां

जैसा कि इस पूरे विमर्श से साफ है, पश्चिम बंगाल में भूमि सुधार की पूरी प्रक्रिया संघर्षमूलक, आंदोलनात्मक और साथ ही वैद्यानिक और प्रशासनिक कार्रवाइयों का एक समन्वित रूप रही है। जाहिर है कि इसी क्रम पश्चिम बंगाल के देहातों के सामाजिक और राजनीतिक जीवन में एक ऐसे समग्र सांस्थानिक ढांचे का निर्माण हुआ है, जो इस परिवर्तन को जीवन की ठोस और स्वाभाविक सचाई का रूप देता है। गांव के गरीबों के अंदर से गांव का एक नया नेतृत्व तैयार हुआ है। गांवों की व्यापक गरीब जनता के हितों को केंद्र में रख कर और पंचायतों की तरह की सभी सहभागिता वाली संस्थाओं को गरीबों के दरवाजे तक पंहुचा कर जो सांस्थानिक ढांचा निर्मित किया गया है, उसे व्यापक अर्थों में सहभागी जनतंत्र (Participatory Democracy) का बुनियादी सांस्थानिक ढांचा कहा जा सकता है।

उदाहरण के तौर पर हम यहां भूमि सुधार कानून और पंचायती राज की संस्थाओं में किये गये वैद्यानिक परिवर्तनों के इतिहास पर नजर डाल सकते हैं। अब तक की समूची चर्चा से यह साफ है कि पश्चिम बंगाल में भूमि सुधार संबंधी कानूनों पर अमल की गंभीर और ईमानदारीपूर्ण कोशिशें सन् 67 के बाद से ही शुरू हुई थी जब संयुक्त मोर्चा सरकारों में वामपंथियों की मजबूत मौजूदगी थी। तभी वास्तव में गांव के लोगों में भूमि-सुधार के बारे में एक जबर्दस्त जागरूकता पैदा हो पायी थी। गांव के भूमिहीनों में एक नयी आशा और संघर्ष की चेतना पैदा हुई थी। लेकिन जिन्हें भूमि सुधार की दिशा में सरकार के ठोस और टिकाऊ कदम कहे जा सकते हैं, उनका श्रीगणेश 1977 की वाम मोर्चा सरकार के बनने के बाद ही हुआ। पश्चिम बंगाल के गांवों में सामंतों के प्रभुत्व को तोड़ना, भूमिहीनों को जमीन मुहैय्या कराना, बंटाईदारों के बंटाई के अधिकार को सुरक्षा प्रदान करना, उत्पादन के पूर्व-पूंजीवादी संबंधों को खत्म करके कृषि के क्षेत्र में उत्पादक शक्तियों को उनमुक्त करना, गांव के लोगों की क्रय-शक्ति को बढ़ाना, ग्रामीण बाजार का विकास करना जो औद्योगिक विकास के लिये आधार का काम कर सके और गांवों में साक्षरता, शिक्षा तथा जन-स्वास्थ्य का विकास और समाज के कमजोर तबकों, खास तौर पर औरतों और दलितों का सशक्तिकरण करना - ये सब कुछ ऐसे लक्ष्य रहे हैं, जिन्हें साधने की दिशा में ही 1977 के बाद पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार ने राज्य के कृषि क्षेत्र में काम शुरू किया।
राज्य के मौजूदा भूमि सुधार और पंचायत मंत्री सूर्यकांत मिश्र और विकास रावल ने अपने एक संयुक्त आलेख ‘समकालीन पश्चिम बंगाल में कृषि संबंध‘ में बताया है कि वाम मोर्चा के भूमि सुधार संबंधी कदमों के मुख्यत: दो लक्ष्य रहे हैं - पहला, जमीन की मिल्कियत के स्वरूप को बदला जाए, और दूसरा, जमीन का नये सिरे से आबंटन किया जाए। जमीन की मिल्कियत में सुधार के लिये 1977 में पश्चिम बंगाल भूमि सुधार संशोधन कानून लाया गया। इसी संशोधन के जरिये उस समूचे आंदोलन का कानूनी आधार तैयार हुआ जिसे ‘आपरेशन बर्गा’ कहा जाता है। इस संशोधन कानून में बंटाईदारों की सिनाख्त की एक स्पष्ट पद्धति को तैयार किया गया और बंटाईदारों की बेदखली को रोकने के बारे में सख्त कानूनी प्राविधान बनाये गये। इसमें यह व्यवस्था की गयी कि किसी की जमीन बंटाई पर नहीं उठायी गयी है, बल्कि उसे जमीन का मालिक खुद जोतता है, इस बात को साबित करने की जिम्मेदारी जमीन के मालिक की होगी, न कि बंटाईदार की। इस कानून के उपरांत जन सभाएं आयोजित की गयी और पंचायतों तथा किसानों के जन-संगठनों की मदद से बंटाईदारों को लामबंद करके भूमि संबंधी खातों में उन्हें अपना नाम दर्ज कराने के लिये प्रेरित किया गया। देखते ही देखते 14 लाख बंटाईदारों ने अपने नामों का पंजीकरण करा लिया और उन्हें बंटाई पर मिली जमीन को जोतने का स्थायी वारिसाना अधिकार मिल गया। इन 14 लाख परिवारों में 4 लाख 25 हजार परिवार दलितों के थे और 1 लाख 70 हजार परिवार अनूसूचित जनजाति के। आज पंजीकृत बंटाईदार 11 लाख एकड़ जमीन की जुताई करते हैं।
अब हम आते हैं भूमि सुधार के दूसरे महत्वपूर्ण पहलू गरीब और भूमिहीनों के बीच जमीन के आबंटन पर। संयुक्त मोर्चा सरकारों और वाम मोर्चा सरकार के काल में हदबंदी से अतिरिक्त और बेनामी जमीन की सिनाख्त करके उसे सरकार के हाथ में लेने के बारे में हम पहले काफी चर्चा कर चुके हैं। 1953 के पश्चिम बंगाल संपदा अधिग्रहण कानून और 1955 के पश्चिम बंगाल भूमि सुधार कानून के तहत 13 लाख 70 हजार एकड़ अतिरिक्त और बेनामी जमीन का राज्य सरकार ने अधिग्रहण किया। यह पूरे देश में हदबंदी कानून के तहत अधिग्रहीत की गयी कुल जमीन का 18 प्रतिशत था। यहां यह उल्लेख किया जा सकता है कि पश्चिम बंगाल में पूरे भारत की कृषि भूमि का सिर्फ लगभग साढ़े तीन प्रतिशत है। राज्य सरकार द्वारा इस प्रकार अधिग्रहित की गयी जमीन में से 10 लाख 4 हजार एकड़ जमीन को 25 लाख भूमिहीन और गरीब परिवारों के बीच बांटा गया। इन 25 लाख परिवारों में 9 लाख 25 हजार परिवार अनुसूचित जाति के है और 4 लाख 95 हजार परिवार अनुसूचित जनजाति के। इसप्रकार सरकार द्वारा आबंटित की गयी जमीन से लाभान्वित होने वाले परिवारों में से 55 प्रतिशत परिवार अनूसूचित जाति और जनजाति के परिवार हैं। खेती की जमीन के अलावा 5 लाख गरीब परिवारों को घर बनाने की जमीन मुहैय्या करायी गयी। गौर करने लायक एक बात और है कि देश भर में पश्चिम बंगाल में ही जमीन के पे महिलाओं के नाम से दिये गये। सवा चार लाख पे या तो पति-पत्नी दोनों को या सिर्फ महिला के नाम पर दिये गये है।
भूमि सुधार के मसले पर किये गये सांस्थानिक परिवर्तनों में 1997 में गठित भूमि सुधार पंचाट का भी जिक्र किया जा सकता है। इस पंचाट के जरिये अब भूमि संबंधी विवाद का समाधान होता है। पहले सामंती तत्व अक्सर अपनी अतिरिक्त जमीन को बचाने अथवा बंटाईदार के अधिकार संबंधी विवाद को लेकर दीवानी अदालतों से इंजेंक्शन ले लिया करते थे। एक हिसाब के अनुसार लगभग 1,95,000 एकड़ जमीन पर दीवानी अदालतों से इंजेंक्शन लिये गये थे जिन्हें निपटाने में दशकों का समय लग गया। अब ऐसे मामले भूमि सुधार पंचाट के जरिये काफी तेजी से निपटा दिये जा रहे हैं। इस पंचाट ने सन् 2000 से काम करना शुरू किया था। पंचाट ने अपने कार्य-काल के पहले दो वर्षों में जमीन संबंधी 4845 मामलों का निपटारा किया है, जिनसे लगभग 13373 एकड़ जमीन को इंजेंक्शन से मुक्त कराया जा सका। (देखे, एग्रेरियन स्टडीज, संपादन: वी. के. रामचंद्रन, मधुर स्वामिनाथन, पृ: 333)। भूमि सुधारों और जमीन की मिल्कियत के बारे में बनाये गये इस पंचाट के कानून में 2005 में एक संशोधन किया गया ताकि कोलकाता ठीका और अन्य टिनेंसी कानूनों की अलग हैसियत को खत्म किया जा सके। कोलकाता ठीका टिनेंसी कानून से जुड़े विषयों को भी इसी भूमिसुधार पंचाट के तहत ले आया जाए।
सूर्यकांत मिश्र और विकास रावल के इसी उपरोक्त लेख में जिसे ‘एग्रेरियन स्टडीज’ पुस्तक में संकलित किया गया है, बताया गया है कि किस प्रकार तमाम आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद 1993 से 1999 के बीच भूमि सुधार कानूनों के तहत 95000 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया गया और 94000 एकड़ जमीन को भूमिसुधार कार्यक्रमों के जरिये आबंटित किया गया। इस काल में पूरे देश में जितनी जमीन का अधिग्रहण किया गया, उसका 42 प्रतिशत सिर्फ पश्चिम बंगाल में किया गया था।
जहां तक पंचायतों का प्रश्न है, 1978 में त्रि-स्तरीय पंचायतों के गठन, नियमित पंचायत चुनाव, पंचायतों में गांव के गरीबों का सर्वाधिक प्रतिनिधित्व की बात हम पहले ही विस्तार से बता चुके हैं। संविधान में 73वें संशोधन के उपरांत पंचायतों की एक तिहाई सीटें और इन संस्थाओं के एक तिहाई अध्यक्ष पद महिलाओं के लिये आरक्षित कर दिये गये। और अंत में, 1990 के दशक के अंतिम समय में ग्राम संसद के गठन ने पंचायतों को वास्तविक अर्थों में सहभागी जनतंत्र के सबसे कारगर मंच का रूप दे दिया है। इसके तहत हर गांव में साल में कम से कम दो बार ग्राम संसद की बैठक होती है। मिश्रा और रावल के इसी लेख में बताया गया है कि नवंबर 1999 तक इका किये गये आंकड़ों के अनुसार राज्य के 99 प्रतिशत वार्डों में ग्राम संसद की बैठकें हुई और इनमें 16 प्रतिशत मतदाताओं ने हिस्सा लिया। ग्राम संसदों ने विकेंद्रित योजना की अवधारणा को अमली जामा पहनाया।
डा. सूर्य मिश्र ने 1991 के अपने एक लेख में वाम मोर्चा सरकार द्वारा ग्रामीण क्षेत्र में किये गये सांस्थानिक परिवर्तनों को ‘दो टांगों पर चलने’ की नीति बताया था। इसे वास्तव में विकास की दोतरफा रणनीति कहा जा सकता है: भूमि सुधार को लागू करो और स्थानीय स्वशासी संस्थाओं के रूप में जनतांत्रिक संस्थाओं की स्थापना करो। उनके अनुसार इस रणनीति के दोनो पहलू एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और इन दोनों के लिये दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति की जरूरत है। भूमि सुधार पर अमल के लिये एक सुसंगठित किसान आंदोलन और स्थानीय स्वशासी संस्थाओं में जनता की भागीदारी की एक प्रणाली का काफी महत्व है। वाम मोर्चा सरकार का अनुभव इस बात का गवाह है कि यह काम सिर्फ मौजूदा नौकरशाही के भरोसे नहीं किया जा सकता है। सचाई यह है कि नौकरशाही अपने आप में इस काम में सबसे बड़ी बाधा है। इस पूरी प्रक्रिया में जन-संगठनों और जनतांत्रिक ढंग से चुनी गयी स्थानीय स्वशासी संस्थाओं को बिना शामिल किये इसे कभी भी प्रभावशाली ढंग से अमल में नहीं लाया जा सकता था। भूमि सुधार की प्रक्रिया में शामिल होकर ये स्थानीय स्वशासी संस्थाएं खुद भी काफी मजबूत हुई हैं और ये ऐतिहासिक तौर पर उत्पीडि़त वर्गों और जातियों के संघर्ष के मंच का रूप ले पायी हैं। (देखे, उपरोक्त, पृ: 335)
जहां तक गांवों में किये गये इन सांस्थानिक परिवर्तनों से गांवों के उत्पादन संबंधों पर आये प्रभाव का सवाल है, इस बारे में भी डा. मिश्र और रावल के विश्लेषण पर यहां गौर किया जा सकता है। ‘मौजूदा पश्चिम बंगाल में कृषि संबंध’ उपशीर्षक के तहत किये गये अपने विश्लेषण में वे बताते हैं कि आज के पश्चिम बंगाल के कृषि ढांचे की विशेषता यह है कि इसमें बहुत छोटे आकार की जोत के परिवार हैं जो अक्सर काफी बिखरे हुए हैं और उनका ऐसे देहाती संपत्तिवानों के साथ सह-अस्तित्व है जो नाना प्रकार के आर्थिक धंधों में लगे हुए हैं। भूमि-सुधार के बाद के काल में किसान जनता के भूमि आधार का काफी विस्तार हुआ है। इसके बावजूद जमीन पर आबादी का जो भारी दबाव है वह बड़ी संख्या में भूमिहीन खेतमजदूरों की फौज को बनाये रखे हुए है। कृषि में पूंजीवादी उत्पादन का विकास आज भी अधूरा और असमान है।
इसी सिलसिले में इन लेखक द्वय का यह मानना है कि ग्रामीण पश्चिम बंगाल में भूमि सुधार के बाद के काल में उत्पादन संबंधों में परिवर्तन हुआ है। उत्पादन के वाणिज्यीकरण और पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के बढ़ने के साथ कृषि उत्पादन में तेजी से अभिवृद्धि हुई है। लेकिन इसके साथ ही कृषि संबंधों और प्रक्रियाओं में विविध रूपों में पूर्व पूंजीवादी अवशेष बचे हुए हैं। आपरेशन बर्गा के जरिये बंटाईदारी को वैद्य और सुरक्षित कर दिये जाने के बावजूद उसका काफी प्रचलन है। अनौपचारिक महाजनी व्यापक रूप से बरकरार है तथा देहाती परिवारों के कर्ज में सांस्थानिक सूत्रों से लिये गये कर्ज का परिमाण तुलनात्मक रूप से कम है।
कृषि क्षेत्र की इस परिस्थिति का और भी खुलासा करते हुए वे बताते हैं कि पश्चिम बंगाल के देहातों में आज 72 प्रतिशत के करीब जमीन गरीब और छोटे किसानों के पास है, जो मुख्यत: अपने जीवन के लिये खेती करते हैं, बाजार के लिये नहीं। 50 और 60 के दशक में ऐसे परिवार ही खाद्यान्नों की कमी के सबसे अधिक शिकार हुए थे और अनाज की तस्करी के काम में लगे हुए थे। भूमि सुधार के बाद के काल में जब इन्हें थोड़ी जमीन मिली तब उनकी प्रमुख चिंता अपने परिवार के लिये खाद्य की सुरक्षा को सुनिश्चित करना होगया। इसीलिये वे अपनी खपत के लिये उत्पादन करते हैं, बाजार के लिये नहीं। यद्यपि आलू, सब्जियों, चाय आदि के उत्पादन में कुछ वाणिज्यीकरण हुआ है, फिर भी खुद की खपत के लिये उत्पादन आज भी किसानों के इस तबके के लिये कृषि उत्पाद के इस्तेमाल का सबसे अधिक महत्वपूर्ण रूप बना हुआ है। इसी प्रकार पश्चिम बंगाल में जाति व्यवस्था का जिक्र करते हुए इन्होंने बताया है कि यहां जातिगत भेदभाव उतना प्रकट रूप में नहीं है, लेकिन विभिन्न जाति समूहों के बीच सामाजिक-आर्थिक असमानता बनी हुई है। (देखे, उपरोक्त, पृ: 338)
कहने की जरूरत नहीं कि ये वे चंद पहलू हैं, जिनसे पश्चिम बंगाल में आगे और परिवर्तन के कार्यक्रम को को आने वाले समय में टकराना है।

नयी ग्रामीण वर्गीय संरचना
ग्रामीण क्षेत्रों की वर्गीय संरचना के सबसे प्रमुख घटकों में एक है-खेतमजदूर। पश्चिम बंगाल में भूमि सुधार कार्यक्रम से सबसे अधिक लाभान्वित होने वाला वर्ग भी यही है। लगभग 15 लाख भूमिहीन खेतमजदूरों के परिवार को भूमि सुधार और जमीन के आबंटन के तहत जमीन मिली है। इससे इन परिवारों को खाद्य सुरक्षा मिली है, जो इनके जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना कही जा सकती है। 1981 से 1991 के जिस काल में सारे देश में खेतमजदूरों की संख्या में वृद्धि की दर 2.35 प्रतिशत थी, वहीं इस दौरान पश्चिम बंगाल में यह दर 1.75 प्रतिशत रही।
डा. सूर्यकांत मिश्र और विकास रावल ने अपने आलेख में आगे यह भी बताया है कि भूमि सुधार के बाद के काल में कृषि के क्षेत्र में तेज विकास के कारण कृषि में रोजगार की जो मांग बढ़ी है, उसका लाभ भी खेतमजदूरों को मिला है। 70 के दशक में खेतिहर मजदूरों की मजूरी का आंदोलन बड़े रूप में चलाया गया था। पश्चिमबंग प्रादेशिक कृषक सभा के हिसाब के अनुसार अकेले 1974-75 में कृषक सभा ने राज्य के 6000 गांवों में कृषि मजूरी के सवाल पर संघर्ष चलाये थे। वाम मोर्चा की सरकार के बनने के बाद पूरा बल इस बात पर दिया गया कि कृषि के क्षेत्र में न्यूनतम मजूरी के कानून को लागू किया जाए। नतीजतन 80 के दशक में पश्चिम बंगाल में कृषि मजदूरी में खासी वृद्धि हुई। विकास रावल और मधूर स्वामीनाथन द्वारा 1998 में भारत में कृषि मजदूरी के बारे में तैयार की गयी तालिका के अनुसार भारत के सभी राज्यों की तुलना में 1979-80 से 1992-93 के बीच पश्चिम बंगाल में पुरुष खेत मजदूर की वास्तविक औसत दैनिक मजदूरी सबसे अधिक तेजी से बढ़ी है। इसकी राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण द्वारा रोजगार और बेरोजगारी के बारे में तैयार किये गये आंकड़ों से भी पुष्टि होती है। इन आंकड़ों के अनुसार 1977-78 से 1987-88 के दौरान पश्चिम बंगाल में कृषि मजदूरी तीन गुना होगयी। इसीप्रकार 1996 में एक और अध्ययन से यह पता चलता है कि ग्रामीण पश्चिम बंगाल में पुरुषों और महिलाओं के बीच मजदूरी में बहुत ज्यादा फर्क नहीं है।
जाहिर है कि मजदूरी में हुई इस वृद्धि का सीधा संबंध कृषि उत्पादन में वृद्धि और साथ ही खेतमजदूरों के संगठित आंदोलन से है। इसके लिये खेतमजदूरों को हड़तालें तक करनी पड़ी। आजकल मजदूरी का सवाल सामूहिक सौदेबाजी के जरिये तय किया जाता है, जिसमें पंचायत और जनसंगठनों की एक प्रमुख भूमिका होती है।

डा. मिश्र और रावल ने ही बताया है कि कृषि में हुए इस विकास के कारण ही भूमि सुधार के बाद के काल में रोजगारों में वृद्धि हुई है। ग्रामीण रोजगार सर्वेक्षण के आंकड़ों से भी इसका पता चलता है। नीचे की तालिका से जाहिर है कि 1983 और 1987-88 के बीच सिवाय भूमिहीन परिवारों की महिलाओं को छोड़ कर पश्चिम बंगाल में ग्रामीण मजदूरों की सभी श्रेणियों के लिये पूरे भारत की तुलना में सवैतनिक रोजगार के दिनों में काफी ज्यादा बढ़ोतरी हुई है।






पश्चिम बंगाल और भारत में एक वर्ष में ग्रामीण मजदूरों के सवैतनिक रोजगार के औसत दिन 
1983 और  1987-88
                                                     
                                                 पश्चिम बंगाल                                                 भारत                                                                                  1983  1987-88    परिवर्तन                             1983     1987-88   परिवर्तन
पुरुष
भूमि सहित                               201       228         27                                      198        199                 1
भूमिहीन                                   238       254         16                                      250        250                 0

महिलाएं
भूमि सहित                               248       212         64                                      162        160                -2
भूमिहीन                                   225       219        -6                                        208        215                7

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स्रोत : ग्रामीण मजदूरों के प्रश्न

अस्सी के दशक में पश्चिम बंगाल के गांवों में मजदूरी और रोजगार में काफी वृद्धि हुई, लेकिन 90 के दशक में वृद्धि की वही गति जारी नहीं रह पायी। इस दौरान इनमें एक प्रकार का गतिरोध देखा गया जिसके कई कारण रहे हैं। इसकी मुख्य वजह कृषि में वृद्धि की दर में आयी कमी रही जिसके कारण किसानों का बोझ भी बढ़ा है। यहीं पर लेखक द्वय डा. अमिय कुमार बागची के एक अवलोकन का उल्लेख किया है जिसमें उन्होंने बताया है कि 90 के दशक के उत्तराद्र्ध में कृषि में मजदूरी में जो थोड़ी गिरावट देखी गयी, उसकी एक वजह यह भी है कि इस दौरान भारी मात्रा में बगल के उन राज्यों से प्रवासी मजदूरों का प्रवेश हुआ है, जहां पश्चिम बंगाल के स्तर का आर्थिक विकास नहीं हो पाया है। फिर भी डा. मिश्र और रावल ने कहा है कि इस रूझान से उत्पादन के पूंजीवादी संबंधों की प्रक्रिया में अपेक्षाकृत स्थिरता और कृषि सामग्रियों की कीमतों में गिरावट का कितना पता चलता है, यह बात जेरे बहस है।
यह सही है कि प्रवासी मजदूरों के प्रवेश से पड़ने वाले प्रभाव पर निश्चयात्मक रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। आज भारत के विभिन्न प्रांतों में काम के लिये लोगों के आने-जाने का सिलसिला अनवरत रूप से जारी है। इस तथ्य की जांच की जानी बाकी है कि पश्चिम बंगाल के गांवों से कितने लोग अन्य राज्यों में काम के लिये जाते हैं और कितने लोग अन्य राज्यों से पश्चिम बंगाल में काम के लिये आते हैं।
बहरहाल, कुल मिला कर सचाई यही है कि भूमि सुधार के चलते पश्चिम बंगाल में खेत मजदूरों की आमदनी और उनकी सामाजिक हैसियत में भी अच्छी खासी वृद्धि हुई है।

बंटाईदार

भूमि सुधार से दूसरे जिस तबके को सबसे बड़ा लाभ मिला वे हैं बंटाईदार। 15 लाख के करीब बंटाईदारों का आपरेशन बर्गा के दौरान पंजीकरण किया गया। किसान संगठनों का मानना है कि पश्चिम बंगाल के 80फीसदी बंटाईदारों का पंजीकरण हो गया है। अन्य तमाम प्रकार के सर्वेक्षण भी इस बात की पुष्टि करते हैं। बंटाईदारों के पंजीकरण और जमीन पर उन्हें वारिसाना हक मिलने के कारण बंटाईदारों के लिये वस्तुत: उत्पादन संबंध ही बदल गये हैं। बेदखली अथवा बेदखली का खतरा अब अतीत की बात हो चुकी है। भूमि सुधार के कारण गांवों के बदले हुए राजनीतिक परिवेश में अब गैर-पंजीकृत बंटाईदारों की बेदखली तक की कोई कल्पना नहीं कर सकता है।
डा. मिश्र और रावल ने इस बारे में बताया है कि बंटाईदारों की सौदेबाजी की बढ़ी हुई क्षमता के कारण भूमि सुधार के बाद के काल में जमीन की मिल्कियत में साफ परिवर्तन होने लगा है। बहुत से बंटाईदारों ने इस बीच जमीनें खरीदी है। कई अध्ययनों से यह पता चलता है कि कुछ मामलों में तो जमींदारों ने बंटाईदार को अपनी जमीन का एक हिस्सा मुफ्त लिख दिया है ताकि वह बाकी हिस्से पर अपने बंटाई के हक का दावा न करे।
इसके अलावा, खास तौर पर सिंचित फसल के मामले में यह देखने को मिला है कि जमींदार और बंटाईदार के बीच फसल के बदले निश्चित राशि देने का करार हो जाता है। इसप्रकार, सिंचित फसल जिस पर लागत ज्यादा आती है, गरीब और जोखिम से बचने की मानसिकता वाला किसान जमीन के मालिक के साथ जोखिम को बांट कर अपने बोझ को हल्का करता है। निश्चित कीमत अदा करने के इस प्रकार के बढ़ते हुए करारों से बंटाईदारों की बढ़ी हुई सौदेबाजी की ताकत, विकसित सिंचाई सुविधाओं के कारण जुताई में कम जोखिम और बंटाईदारों की जोखिम उठाने की बढ़ी हुई ताकत का अंदाज मिलता है।

गरीब, छोटे और मंझोले किसान

भूमि सुधार कानून में कहा गया है कि जिस किसी परिवार के पास एक एकड़ से कम जमीन है, वह इतनी जमीन पाने का हकदार है ताकि उसके पास एक एकड़ जमीन हो जाए। कानून की इस व्यवस्था का सीधा लाभ पश्चिम बंगाल के गरीब किसानों को मिला है। इसके अलावा गांवों के बदले हुए राजनीतिक माहौल में बहुत से लोगों ने अपनी अतिरिक्त जमीन को सस्ती दरों पर ही क्यों न हो, बेच देने में ही बुद्धिमानी समझी। छोटे और गरीब किसानों ने इसप्रकार की जमीन को खरीदा है।
इसप्रकार जाहिर है कि भूमि सुधार के प्रभाव को समग्रता में देखा जाना चाहिए। पूर्व पूंजीवादी जंजीरों पर जितने हमले किये गये, उन्हें जितना कमजोर बनाया गया, उत्पादक शक्तियों का उसी अनुपात में विकास हुआ। (देखे वही, पृष्ठ 343) भूमि सुधार के लाभ ग्रामीण समाज के विभिन्न तबकों को मिले हैं। जो जिले सबसे अधिक पिछड़े हुए थे, उनमें भी कृषि में भारी अभिवृद्धि हुई तथा सिंचाई में भी काफी विकास हुआ। खेत मजदूरों, बंटाईदारों, गरीब और छोटे किसानों और किसानों के ऊंचे तबके के लोगों और गैर-कृषि कार्यों में लगे हुए गांव के लोग भी इससे किसी न किसी रूप में लाभान्वित हुए हैं। गरीब और छोटे किसान अपनी जमीन पर पहले की तुलना कहीं ज्यादा सघन काम करके अधिक फसल पैदा कर रहे हैं। तथ्य बताते हैं कि सिंचाई के लिये पानी की खरीददारी की ज्यादा मांग गरीब और छोटे किसानों की ओर से आरही है। कई स्थानों पर उन्होंने खुद के ट्यूबवेल बैठा लिये हैं। भूमिसुधार के बाद के काल में कृषि के विकास के लिये सरकार की ओर से जो सहयोगी कार्यक्रम चलाये गये हैं, उनसे इसी तबके को सबसे ज्यादा लाभ हुआ है। वाम मोर्चा सरकार ने बीजों और खाद का एक मिनिकिट तैयार करके वितरित किया था। यह किट काफी लोकप्रिय हुआ। अकेले 2000-2001 में ऐसे 38 लाख मिनिकिट बांटे गये। इसीप्रकार इस दौरान सरकार की ओर से गरीब और छोटे किसानों को मिला कर साझा ट्यूबवेल बैठाने को भी प्रोत्साहित किया गया। किसानों ने सिंचाई के लिये सहकारिताओं का भी कई जगहों पर गठन किया है। छोटी-छोटी जमीन को मिला कर साझा ट्रैक्टर आदि के प्रयोग की घटनाएं भी काफी देखने को मिल रही है, जिससे पता चलता है कि जमीन की छोटी-छोटी मिल्कियत के बावजूद कृषि में आधुनिक तकनीक के प्रयोग के रास्ते ढूंढ लिये जा रहे हैं।

नव-धनाढ्य

भूमि-सुधार ने गांव के संपन्न तबकों को कई रूपों में प्रभावित किया है। एक ओर खेतिहर मजदूरों और किसानों के बीच आयी जागृति और पंचायतों पर उनके दबदबे के कारण इन तबकों की सामाजिक और राजनीतिक हैसियत पहले जैसी नहीं रही है। लेकिन दूसरी ओर, यह मानने का कोई कारण नहीं है कि वे आर्थिक दृष्टि से भी शक्तिशाली नहीं रह गये हैं। उनके पास जो भी जमीन बची रह गयी, उसकी कीमत बढ़ जाने से उन्हें आर्थिक बल मिला है, इसके अलावा मजबूरीवश ही क्यों न हो, इन तबकों ने अपनी पूंजी के नियोजन के परंपरागत रूपों को छोड़ कर पूंजीवादी निवेश का रास्ता पकड़ा है। इसके चलते इनका कुछ हद तक अद्र्ध-सामंती जमींदारों की जगह पूंजीवादी जमींदारों में रूपांतरण हुआ है। वे गांवों में विभिन्न प्रकार के धंधों में लग गये हैं। ऐसे एक ही परिवार के पांच भाइयों में एक खेती का काम देख रहा है, तो दूसरा ट्यूबवेल लगा कर पानी बेच रहा है, तीसरा जुताई की मशीन को भाड़े पर लगा रहा है, तो चौथा कृषि सामग्रियों की तिजारत में लगा हुआ है, पांचवा बस वगैरह खरीद कर चला रहा है। इन्हीं में से कुछ किसी नौकरी पर लगे होते हैं। इसप्रकार इन तबकों का जमीन का आधार कमजोर हो जाने पर भी कोई यह नहीं कह सकता है कि समग्र रूप में उनकी आर्थिक हैसियत कम हो गयी है। इसी के आधार पर यह कहा जा सकता है कि गांवों में समग्र रूप से विषमता में कोई ज्यादा गिरावट नहीं आयी है।

कृषि में अभिवृद्धि के कारण कृषि संबंधी कारोबार बढ़ा है जिसका लाभ मुख्य रूप से इन्हीं तबकों को मिल रहा है। कृषि में सबसे पहले ट्रैक्टर और पावर टिलर का प्रयोग करने वाला तबका भी यही रहा है और इन्होंने ही सबसे पहले ट्यूबवेल लगायें। इसप्रकार प्रकारांतर से इनके जरिये कृषि में अभिवृद्धि भी संभव हुई है। पहले के जमींदार को यह पता भी नहीं होता था कि उसकी जमीन कहा है, वे महाजनी का काम पूरी निर्दयता से करते थे। उनकी तुलना में यह तबका कहीं ज्यादा शिक्षित और चालाक है। यह अब पूंजीवादी किसान की भांति दिखाई देता है। लेकिन इसके काम के तौर-तरीकों में भी पूर्व-पूंजीवादी शोषण के रूपों को देखा जा सकता है।
मोटे तौर पर यही है, गांवों में विभिन्न वर्गों की संरचना पर भूमि सुधार के कार्यक्रमों के प्रभाव की एक रूपरेखा।

गा्रमीण क्षेत्र की भावी चुनौतियां

भूमि सुधार और आपरेशन बर्गा ही ग्रामीण क्षेत्रों में परिवर्तन का अंत नहीं है। सवाल यह है कि इनके आगे क्या? जमीन पर आज भी बना हुआ भारी दबाव और भूमिहीनों की बड़ी तादाद यह बताने के लिये काफी है कि अभी और बहुत कुछ किया जाना बाकी है। आज का दौर आर्थिक उदारतावाद का दौर है। राज्यों की अर्थ-व्यवस्था और आम लोगों की जिंदगी पर इसका भारी असर पड़ रहा है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। 90 के दशक में देश के सभी राज्यों की आर्थिक हालत खस्ता होगयी है। पश्चिम बंगाल भी इसका अपवाद नहीं है। खास तौर पर कृषि पण्यों के वाणिज्य के मामले में बरती जारही उदारता की नीति का सीधा प्रभाव ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था पर अब क्रमश: साफ दिखाई देने लगा है। वाम मोर्चा को भूमि सुधार और आपरेशन बर्गा के जरिये गांवों के जनजीवन पर पड़े सकारात्मक प्रभावों की रक्षा करते हुए यह देखने की जरूरत है कि कैसे इन प्रतिकूल स्थितियों में भी गांव के लोगों के जीवन स्तर को लगातार उठाया जाए। ढांचागत सेवाओं के विकास, रोजगार, गरीबी निवारण, निरक्षरता के अंत, स्कूलों में भर्ती, जन-स्वास्थ्य सेवाएं आदि ऐसे तमाम क्षेत्र हैं, जिन पर काफी तेजी से काम करने की जरूरत है।
आज विकास की नयी मांगें भूमि-संबंधी नीतियों के बारे में भी नये ढंग से विचार के दबाव डाल रही है। पूरे देश के पैमाने पर भूमि सुधार का कार्यक्रम अब लगभग ताक पर रख दिया गया है। जहां पहले ही ईमानदारी से भूमि सुधार के कार्यक्रम पर अमल नहीं किया गया, वहां अब भूमि हदबंदी कानून को ही खत्म कर दिया जारहा है। खास तौर पर शहरी भूमि की हदबंदी का कानून तो पश्चिम बंगाल तथा और एकाध राज्य को छोड़ कर सभी राज्यों में खत्म कर दिया गया है। माना जा रहा है कि यह हदबंदी कानून शहरीकरण और औद्योगीकरण के रास्ते की एक बड़ी बाधा बन चुका है। गांवों में भी इस बात पर दबाव दिया जा रहा है कि कृषि उद्योगों के विकास के लिये यह जरूरी है कि हदबंदी कानून में ढीलाई दी जाए। कृषि के क्षेत्र में पनप रहे पूंजीवाद ने यदि उत्पादन को बढ़ाया है तो जमीन के संकेंद्रण को भी बढ़ावा दिया है।
इसकी तुलना में पश्चिम बंगाल में आधुनिक फार्मिंग की तरह का कोई रूझान दिखाई नहीं देता है। कुछ हद तक उत्पादन के औजारों का आधुनिकीकरण हुआ है, गहरे ट्यूबवेल्स से सिंचाई आम तौर पर दिखाई देती है। कुछ स्थानों पर ट्रैक्टर और जुताई के छोटे किंतु आधुनिक मिनि ट्रैक्टरों का व्यापक प्रयोग किया जा रहा है। लेकिन यह सब बड़े जमींदारों द्वारा नहीं बल्कि किसानों के आपसी सहकार द्वारा अथावा किसी व्यवसायी से किराये पर लेकर प्रयुक्त किये जा रहे हैंं। नये-नये अधिक उपज वाले बीजों के वितरण में पंचायतें प्रमुख भूमिका अदा कर रही है। इन सबकी वजह से छोटे और गरीब किसानों तथा बंटाईदारों के जीवन में जो परिवर्तन आये हैं, उन पर हम पहले ही चर्चा कर चुके हैंं।
आज जरूरी है कि गरीबों की जिंदगी में आये सुधारों और लाभों पर बिना आंच आये उत्पादन में वृद्धि का सिलसिला आगे भी जारी रहे, बेरोजगारी कम हो तथा समग्र रूप में राज्य के विकास की प्रक्रिया जारी रहे। देश के दूसरे कई हिस्सों में आज जिसप्रकार बड़ी-बड़ी कृषि प्रसंस्करण से जुड़ी कंपनियों के द्वारा खुद जमीन खरीद कर खुद खेती करवाने का रूझान दिखाई देरहा है, उसका दबाव पश्चिम बंगाल पर भी है। कृषि उत्पादन में पिछले तमाम वर्षों में जो अभूतपूर्व वृद्धि हुई है, इसके चलते कृषि प्रसंस्करण से जुड़े उद्योगों का विकास किसानों की एक बुनियादी जरूरत का रूप ले चुका है। कोल्ड स्टोरेेज तथा कृषि प्रसंस्करण के अभाव में किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है। खास तौर पर फलों, साग-सब्जियों, आलू आदि के उत्पादन में पिछले वर्षों में जबर्दस्त वृद्धि हुई है। इससे किसानों की जिंदगी में और समृद्धि आये, इसके लिये जरूरी है कि किसान बाजार में अपने उत्पाद का उचित मूल्य हासिल कर पाये। यह तभी संभव है जब इन फसलों को सुरक्षित रखा जा सकेगा और मंडियों में इनके थोक खरीदार मौजूद होंगे। इसीलिये जरूरी है कि गांवों में कृषि प्रसंस्करण उद्योगों को प्रसारित किया जाए।
आज भी पश्चिम बंगाल में 30 लाख के करीब भूमिहीन खेतिहर मजदूर है। इसीलिये जमीन पाने की उनकी हसरत समान रूप से बनी हुई है। लेकिन अब उतनी अतिरिक्त जमीन दिखाई नहीं देती है, जिसे सरकार लेकर भूमिहीन किसानों के बीच बांट दें। इसीलिये गैर-कृषि कार्यों में रोजगारों में काफी वृद्धि के बावजूद जमीन पर दबाव बना हुआ है। मौजूदा वाममोर्चा सरकार इसी दिशा पर ध्यान दे रही है।
दूसरा 90 के दशक में ही खेतमजदूरों की मजूरी में जो वृद्धि हुई थी, उसमें बाद के वर्षों में बहुत ज्यादा फर्क नहीं आया है। इसके अलावा पश्चिम बंगाल के देहातों में काम में महिलाओं की भागीदारी की दर कम है। 1991 की जनगणना के अनुसार भारत के दूसरे हिस्सों में गांवों में श्रम में महिलाओं की भागीदारी की दर जहां 26.67 प्रतिशत थी, वहीं पश्चिम बंगाल में यह दर 13.07 प्रतिशत थी। 1993-94 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण में यह दर अखिल भारतीय स्तर पर 32.8 प्रतिशत थी, जबकि पश्चिम बंगाल में 18.5 प्रतिशत। इसीलिये जरूरी है कि ऐसे प्रकार के कामों का सृजन किया जाए जिनसे गांवों में श्रम में महिलाओं की भागीदारी का प्रतिशत बढ़ सके। इस दिशा में पिछले कुछ वर्षों से स्वसहायता समूहों और स्वरोजगार की स्कीमों से काफी बड़े पैमाने पर काम हो रहा है। अभी ऐसे स्वसहायता समूहों की संख्या तीन लाख 40 हजार से भी ज्यादा कूती जा रही है। इन समूहों में गांवों की महिलाएं बड़े पैमाने पर काम कर रही है। तथ्यों के अनुसार राज्य के ऐसे स्वसहायता समूहों में से 90 प्रतिशत का संचालन सिर्फ महिलाएं ही कर रही है। अभी यह हिसाब आना बाकी है कि इनसे पश्चिम बंगाल के देहातों में श्रम में महिलाओं की भागीदारी अपेक्षित रूप में बढ़ पा रही है, अथवा नहीं। लेकिन वामपंथी आंदोलन के लिये यह निश्चित तौर पर चुनौती का एक विषय है।
इसके अलावा भूमिहीन खेतमजदूरों के संदर्भ में वामपंथी आंदोलन के सामने जो बड़ी चुनौतियां हैं, उनमें प्रौढ़ शिक्षा, बच्चों को स्कूल भेजना, तथा जन-स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराना प्रमुख है। वंचना के इन रूपों से बचा कर गांवों के इस तबके की जिंदगी में और भी परिवर्तन किये जा सकते हैं।
अब हम आते हैं किसानों की मांगों पर। भारत का किसान आज वैश्वीकरण और उदारीकरण की नयी चुनौती से जूझ रहा है। इसका सीधा असर कृषि के काम में लगने वाली गैर-कृषि सामग्रियों, संस्थागत कर्जों, ढांचागत सुविधाओं और किसानों को उसकी फसल के लिये मिलने वाली कीमतों से है।
आज यह वास्तविकता है कि पूरे देश में ग्रामीण क्षेत्रों को भारत के वित्तीय संस्थानों ने अपना उपनिवेश बना रखा है। भारत के गांव वित्तीय संस्थाओं के लिये धन की निकासी के क्षेत्र बने हुए हैं। खास तौर पर वाणिज्यिक बैंकों का गांवों में कर्ज-जमा अनुपात इस कदर बिगड़ा हुआ है कि इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। गांवों से जितना रुपया बंटोरा जाता है, उसका आधा भी गांवों में नियोजित नहीं किया जाता। इसमें पश्चिम बंगाल की स्थिति तो और भी बदतर है। यहां हम सभी अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों के भारत के गांवों में, खास तौर पर पश्चिम बंगाल में कर्ज-जमा प्रतिशत के आंकड़ों से पता चलता है कि पश्चिम बंगाल में यह अनुपात अखिल भारतीय स्तर से कितना कम है।
इन तथ्यों से ही यह साफ है कि पश्चिम बंगाल के गांवों को अधिक से अधिक सांस्थानिक ऋणों को मुहैय्या कराना एक बड़ी चुनौती है। विकास रावल ने अपने एक अध्ययन में बताया है कि पश्चिम बंगाल में 1993-94 के वक्त प्रति हेक्टेयर अल्पावधि और दीर्घावधि ऋण सिर्फ 118.1 रुपया था जबकि उसी समय यह अखिल भारतीय स्तर पर 320.8 रुपये था। निम्न तालिका से ही यह साफ है कि सन् 2000 में कर्ज-जमा अनुपात पश्चिम बंगाल में इतना कम होगया कि यहां के गांवों से उगाहे गये धन का सिर्फ 24 प्रतिशत हिस्सा ही कर्ज के रूप में गांवों में फिर से निवेश किया गया।
ग्रामीण क्षेत्रों में सांस्थानिक ऋणों का अभाव जाहिरा तौर पर वहां कर्ज देने वाले दूसरे प्रकार के श्रोतों की प्रमुखता को बनाये रखने में सहायक होता है। भूमि सुधार के कारण पुराने प्रकार की महाजनी भले ही खत्म होगयी हो, लेकिन अब उसके स्थान पर नये प्रकार की महाजनी दिखाई देने लगी है। डा.सूर्य मिश्र और विकास रावल के अनुसार किसानों और व्यापारियों के बीच कर्ज से जुड़े हुए लेन-देन बढ़ने लगे है। उन्होंने इस बात को भी लक्षित किया है कि शिक्षक, तथा दूसरे वेतनभोगी तबके सूद पर रुपये लगाने के काम में दिखाई देते हैं। इनके द्वारा दिये जाने वाले कर्ज पर सूद की दर बहुत ज्यादा होती है। इसप्रकार का कर्ज एक-दो महीने की, कभी-कभी तो सिर्फ हफ्तों की अल्प अवधि के लिये होता है, जिसे जल्द ही वापस वसूल लिया जाता है।
ग्रामीण क्षेत्रों के प्रति वाणिज्यिक बैंकों की इस उदासीनता का प्रतिकार ग्रामीण सहकारी बैंकों के पूरे जाल के विस्तार के जरिये ही संभव है। राज्य सरकार ने सहकारिताओं में सार्विक सदस्यता (universal membership)की एक नयी प्रणाली शुरू की है। भूमि सुधार के परवर्ती समय में इन सहकारिताओं के प्रबंधन में साफ परिवर्तन दिखाई देता है। गांव के गरीब और छोटे किसानों का प्रतिनिधित्व सहकारिताओं में किसी भी समय की तुलना में बहुत ज्यादा है और यह सच है कि सहकारी बैंकों का दो तिहाई से ज्यादा ऋण अब छोटे और गरीब किसानों को ही जाता है।
किसानों की इसी समस्या के निदान का हाल में जो दूसरा तरीका अपनाया गया है, वह है स्वयं सहायता समूहों के गठन का। आज के दिन पश्चिम बंगाल में साढ़े तीन लाख से अधिक स्वयंसहायता समूहों का गठन किया जा चुका है। इन समूहों की बचत की राशि करोड़ों तक चली गयी है और प्रति महीने इसमें करोड़ों के अनुपात में वृद्धि होरही है। इन समूहों की गतिविधियों के चलते गांव के गरीबों को अपनी रोज-मर्रे की छोटी-मोटी जरूरतों के लिये किसी कर्जदाता का मूंह नहीं जोहना पड़ता है। इनसे किसी भी परिवार को एक प्रकार की फौरी राहत जरूर मिल जाती है। इन समूहों की गतिविधियों की तुलना किसी भी रूप में वाणिज्यिक बैंकों के कामों से नहीं की जा सकती है, लेकिन अल्प अवधि के लिये छोटे-छोटे कर्ज देने का जो काम वाणिज्यिक बैंकों के लिये संभव नहीं है, वह काम इन स्वयंसहायता समूहों द्वारा पूरा हो जाता है। पश्चिम बंगाल में जिला ग्रामीण विकास प्राधिकरण (डीआरडीए) का जिला परिषद में विलय कर दिया गया है। जिला परिषद और सहकारी बैंकें किसानों के जन-संगठनों के सहयोग से इस प्रकार के स्वयं सहायता समूहों का गठन करते हैं। गौर करने लायक तथ्य यह है कि इन स्वयंसहायता समूहों में 80 प्रतिशत से ज्यादा सदस्यता गांवों के गरीब परिवारों की महिलाओं की है। इनके अलावा नाबार्ड की एक और स्कीम के तहत भी महिलाओं और पुरुषों के मिले-जुले स्वयंसहायता समूहों का गठन किया जा रहा है।
दूसरा उल्लेखनीय परिवर्तन फसल के स्वरूप में परिवर्तन से जुड़ा हुआ दिखाई देता है। इधर के वर्षों में खाद्यान्नों के उत्पादन के अतिरिक्त दूसरी नगद फसलों के उत्पादन का रूझान बढ़ रहा है। उत्तरी बंगाल में पहले की तुलना में चाय बगानों की संख्या बढ़ी है। दक्षिण बंगाल में मछली पालन का काम बढ़ा है, और इसके बगल की जमीन पर पल्पवुड के पेड़ उगाये गये हैं। नगद फसलों के उत्पादन में वृद्धि इन फसलों के विपणन की भी एक विकसित प्रणाली की मांग पेश करती है, जिस पर आने वाले समय में ध्यान देने की जरूरत है।
गांवों में उत्पादनशीलता में वृद्धि को लगातार बनाये रखने के लिये जरूरी है कि सिंचाई आदि में निवेश में ज्यादा से ज्यादा वृद्धि की जाए। लेकिन आज के नवउदारवादी दौर में राज्यों की निवेश की शक्ति लगातार कम होती जारही है और ग्रामीण निवेश के अनुपात पर दबाव बना हुआ है। इसीलिये यह जरूरी है कि किसानों में राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के खिलाफ राजनीतिक चेतना पैदा करके एक व्यापक राजनीतिक आंदोलन तैयार किया जाए। कृषि के क्षेत्र में वाम मोर्चा के सामने यह भी एक बड़ी चुनौती है।


आगे के नये काम

जमीन पर गैर-कृषि कारणों से बढ़ते हुए दबाव, खास तौर पर शहरों के आस-पास की जमीन के बढ़ते हुए बेहिसाब दाम और शहरीकरण के लिये जमीन की बढ़ती हुई मांगों की वजह से आज के किसान आंदोलन के सामने कुछ अलग प्रकार की नयी समस्याएं और चुनौतियां खड़ी होगयी है। इसमें जिस तबके का अस्तित्व सबसे अधिक प्रभावित हो रहा है, वह है बंटाईदारों का। एक नया रूझान यह देखा जा रहा है कि जमीन के मालिक अब अक्सर इस फिराक में रहते हैं कि उनकी जमीन पर जो बंटाईदार पंजीकृत है, उसे जमीन का 25 अथवा 30 प्रतिशत हिस्सा पूरी तरह से सौंप कर बाकी जमीन को उनके अधिकार से मुक्त करा लिया जाए। बंटाईदार भी इस प्रकार के समझौते के लिये तत्पर रहता है, क्योंकि वैसी स्थिति में जमीन के एक हिस्से पर उसकी पूरी मिल्कियत कायम हो जाती है और वह भी उस हिस्से को बाजार दरों पर बेच सकता है। हालत यह है कि बंटाईदार ऐसी जमीन को बेच कर इतने रुपये पा जाता है कि उन रुपयों पर सिर्फ ब्याज कमाने पर ही उसकी आमदनी बंटाई में जमीन की जुताई करने से कहीं ज्यादा हो जाती है।
शुरू के दिनों में किसान सभा बंटाईदारों और जमींदारों के बीच इस प्रकार के किसी भी समझौते को प्रश्रय नहीं देती थी, क्योंकि उसकी धारणा थी कि इससे अन्ततोगत्वा बंटाईदार पूरी तरह से बेदखल हो जायेंगे। लेकिन नयी परिस्थितियों के नये दबाव इधर इस बात की ओर ज्यादा ध्यान देने के लिये मजबूर कर रहे हैं कि इस प्रकार के समझौते में कैसे बंटाईदारों के हितों की सबसे अच्छे तरीके से रक्षा की जाए। अतीत में किसान आंदोलन की ओर से कुछ इस प्रकार की मांग भी उठी थी कि बंटाईदारों को ही जमीन का मालिक घोषित कर दिया जाए। लेकिन आज की वर्गीय परिस्थितियों में यह मुमकिन नहीं था। इसके अलावा बंटाई पर जमीन उठाने वाले काफी लोग ऐसे भी हैं जिनके पास बहुत ज्यादा मात्रा में जमीन नहीं है। इसीलिये अब बंटाईदार और जमीन के मालिक के बीच जितन संभव हो, न्यायपूर्ण समझौते पर किसान संगठन बल देता है।
जहां तक बंटाई में लगायी गयी जमीन को बेचने का सवाल है, आज के कानून के अनुसार न कोई ऐसी जमीन को बंटाईदार से मुक्त करा सकता है, और न ही उसे बेच सकता है। यहां तक कि यदि बंटाईदार भी स्वेच्छा से अपना अधिकार छोड़ता है, तो कानून के अनुसार राजस्व अधिकारी उसके स्थान पर किसी दूसरे बंटाईदार की नियुक्ति कर देगा। सूर्य मिश्र और विकास रावल के अनुसार इसी बीच एक प्रस्ताव आया था कि कानून में कुछ इस प्रकार का परिवर्तन किया जाए ताकि यदि कोई जमीन बंटाईदार को दे दी जाती है, तो बंटाईदार उस जमीन को कभी भी बेच नहीं सकता है। लेकिन उन्होंने ही इस बात पर शक जाहिर किया है कि इस प्रकार का कोई भी कानून बनाया जाना मुमकिन है या नहीं।
इसीप्रकार, जमीन में बंटाईदार के हिस्से को बढ़ाने की बात भी उठी है। इसे बढ़ा कर आधा-आधा कर देने का प्रस्ताव आया है। लेकिन इन विद्वान द्वय ने ही कहा है कि यह चीज देहातों में तो संभव है, लेकिन शहरों के निकट के क्षेत्रों में नहीं। सरकार ने एक भूमि बैंक निगम के गठन पर भी विचार किया था, जिससे यदि किसी बंटाईदार को जमीन खरीदने के लिये रुपयों की जरूरत हो तो यह भूमि बैंक उसे वह राशि मुहैय्या करा सकता है। इससे यदि कोई छोटी जमीन का मालिक अपनी वास्तविक जरूरतों के कारण जमीन बेचना चाहता हो, तो वह आसानी से अपने ही बंटाईदार को वह जमीन बेच सकता है। लेकिन सरकार की यह योजना इसलिये खटाई में पड़ गयी क्योंकि कोई भी वित्तीय संस्था इस प्रकार के भूमि बैंक निगम के गठन के लिये सामने नहीं आयी।
बहरहाल, यह तय है कि जब तक बंटाई की जमीन की मिल्कियत के बारे में किसी प्रकार का अंतिम कानून नहीं बनता है, किसान सभा की भरसक कोशिश यही करती रहेगी कि इसप्रकार की जमीन के मामले में जमीन के मालिक के साथ जब भी कोई समझौता हो तो उसमें बंटाईदार का पक्ष किसी भी रूप में कमजोर न पड़ने पाये। मूल बात यह है कि आज की बदली हुई परिस्थिति, जमीन पर बढ़ते हुए नये प्रकार के दबाव की पृष्ठभूमि में राज्य के किसान आंदोलन और सरकार के सामने बंटाईदार के हितों की रक्षा की यह नयी चुनौती है।
खेत मजदूरों, छोटे और गरीब किसानों और बंटाईदारों के अलावा गांव के दूसरे जिस तबके के प्रति राज्य सरकार और किसान आंदोलन को अपना दृष्टिकोण कायम करना है, उनमें प्रमख गांव का वह धनाढ्य हिस्सा है, जिसके बारे में हम पहले गांवों की वर्गीय संरचना के संदर्भ में चर्चा कर आये हैं।
इस नये तबके के प्रति वामपंथ का क्या रूझान हो, इसके बारे में काफी गंभीरता से सोचने की जरूरत पड़ रही है। इसमें यदि सावधानी नहीं बरती गयी तो यह तबका कभी भी समूचे किसान आंदोलन को पटरी से उतारने का सबब बन सकता है। जनता की एकता के नाम पर कभी भी किसान आंदोलन इस नव-धनाढ्य का पिछलग्गू बन सकता है। इसीप्रकार, इन तबकों के प्रति संकीर्णतावादी रूझान इन्हें गांवों में वामपंथ-विरोधी राजनीति के नये शक्तिशाली केंद्र के रूप में उभरने का मौका भी दे सकते हैं।
सूर्य मिश्र और विकास रावल ने इस प्रसंग में कहा है कि इस उभरते हुए नये वर्ग के प्रति सही दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। आज के चरण में उन्हें न तो वर्ग शत्रु समझा जाना चाहिये और नहीं उनके समक्ष समर्पण करना चाहिये। बल्कि, साम्राज्यवाद और साम्राज्यवाद के साथ सांठ-गांठ करने वाले समाज के तबकों के खिलाफ संघर्ष में इस नये वर्ग के साथ मेहनतकश अवाम को एक प्रकार का कार्यनीतिगत वर्गीय गठबंधन कायम करना चाहिये। इन तबकों को राजनीतिक तौर पर निरपेक्ष बनाये रखने की भी जरूरत है, ताकि वह मेहनतकशों के खिलाफ इका न हो सके। व्यापार और दूसरे प्रकार की सेबाजी में लगे रहने वाला यह तबका मुनाफा बंटोरने के किसी भी अवसर को गंवाता नहीं है, तथापि आज के वैश्वीकरण के दौर में इनकी परिस्थिति पर भी प्रतिकूल असर निश्चित तौर पर पड़ेगा और देरसबेर इनके भ्रम भी दूर होंगे। किसी भी हालत में, वैश्वीकरण के इस दौर में ऐसे छोटे व्यापारी तबकों की सेबाजी की संभावना भी काफी सीमित ही रहेगी।
इन तबकों की दूसरी महत्वपूर्ण भूमिका गांवों में गैर-कृषि कामों के लिये निवेश की जरूरतों को पूरा करने में हो सकती है। गांवों में निवेश के मामले में राज्य की शक्ति जिस प्रकार कम होती जा रही है, उसे देखते हुए गांवों के कुटीर और लघु उद्योगों के लिये जरूरी पूंजी की जुगत इन वर्गों के माध्यम से की जा सकती है। इससे कृषि वाणिज्य के लिये अपने खुद के खेत खरीदने पर बहु-राष्ट्रीय निगमों के दबाव का भी कुछ हद तक मुकाबला किया जा सकता है।
इसप्रकार, कुल मिला कर इन सभी नयी समस्याओं और चुनौतियों के बावजूद, यदि हम पश्चिम बंगाल के ग्रामीण क्षेत्र में वामपंथी आंदोलन और वाम मोर्चा सरकार की उपलब्धियों पर एक विहंगम दृष्टि डाले तो निश्चित तौर पर यह कह सकते हैं कि विगत 30 वर्षों में पश्चिम बंगाल के गांवों में वर्गीय शक्तियों का संतुलन जिस प्रकार बदला है, उसे एक मौन क्रांति की संज्ञा दी जा सकती है। ग्रामीण विकास की सारी नीतियों के केंद्र में आज गांव के मेहनतकशों की जिंदगी में सुधार प्रमुख है और इसके लिये पंचायतों और किसान संगठनों के जरिये जरूरी संस्थागत ढांचा भी निर्मित हो गया है। भूमि सुधार और पंचायती राज, इन दोनों ने यहां की ग्रामीण जिंदगी के यथार्थ को इस कदर बदल दिया है कि सदियों के कृषि संकट से जर्जर राज्य के अकाल, भुखमरी और दरिद्रता के दृश्यों ने लगभग किन्हीं विस्मृत अनुभवों का रूप ले लिया है। हमने गांवों की इस मौन क्रांति के एक-एक पहलू पर काफी विस्तार से विचार किया है। बंगाल के इतिहास, उसके कृषि संकट, आजादी की लड़ाई और उसमें वामपंथ की भूमिका, कम्युनिस्ट पार्टी और किसान आंदोलन, कम्युनिस्ट पार्टी के विस्तार के साथ बढ़ता हुआ जन-आंदोलन, संयुक्त मोर्चा सरकारों का गठन और कृषि क्षेत्र में उनके द्वारा की गयी नयी पहलकदमी, वाम मोर्चा सरकार का गठन, भूमि सुधार, आपरेशन बर्गा और पंचायतों के जरिये सत्ता का विकेंद्रीकरण, इन सबसे बदलती हुई गांवों की वर्गीय संरचना और आगे की नयी चुनौतियां - इन सब विषयों पर हमने अब तक प्रकाश डालने की कोशिश की है। अब नयी चुनौतियों में सबसे अंतिम सवाल राज्य के औद्योगीकरण से जुड़ा हुआ है, और उसमें भी जमीन का पहलू काफी महत्व के साथ उभर कर सामने आया है। भूमि हदबंदी कानूनों ने भूमि सुधार को संभव बनाया। लेकिन अब उद्योगों के लिये जरूरी जमीन के मामले में यही कानून किंचित बाधक दिखाई दे रहे हैं। भारत के दूसरे तमाम राज्यों से शहरी भूमि हदबंदी कानून हटा दिये गये है, लेकिन पश्चिम बंगाल में आज भी वह जस का तस पड़ा हुआ है। इससे नये उद्योगों के निर्माण के लिये जरूरी जमीन का एक नया मसला उठ खड़ा हुआ है। आने वाले समय में भी, जब तक पूर्व-पूंजीवादी संबंधों से पूरी तरह निजात नहीं पा ली जाती, कृषि का प्रश्न हमारे समाज का एक मूल प्रश्न बना रहेगा। जनता की जनवादी क्रांति के पूरा हो जाने के बाद भी कृषि प्रश्न के समाधान का कोई आसान रास्ता नहीं है। इसके लिये आगे भी लगातार संघर्ष जारी रहेगा। वामपंथी किसान आंदोलन को इसके लिये आगे भी काफी त्याग-बलिदान करने होंगे। लेकिन उद्योगों के निर्माण के पहलू की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है।
इस नयी चुनौती से आगे कैसे निपटा जायेगा, इसके लिये जरूरी है कि हम शहरी क्षेत्रों में भी वामपंथी आंदोलन के इतिहास और वाममोर्चा सरकार की उद्योग नीति की तरह के विषयों पर दृष्टिपात करें। तभी हम पश्चिम बंगाल में परिवर्तन के पूरे परिदृश्य को मूर्त कर पायेंगे।

शहरी और औद्योगिक क्षेत्र

इसप्रकार, यदि कृषि क्षेत्र के कार्यों को  हम संक्षेप में दोहराये तो राज्य के किसान नेता विनय कोनार के शब्दों में कह सकते हैं, सारी दुनिया में प्रति किलोमीटर आबादी का घनत्व जहां 47 है और भारत में 223 है, वहीं पश्चिम बंगाल में यह 948 है। प्रति व्यक्ति जमीन की मात्रा सिर्फ 16 शतक (10 कट्ठा से भी कम) है। इसके बावजूद संविधान के ढांचे में जितना संभव है, उतना भूमिसुधार किया गया है। 22000 करोड़ रुपये कीमत की 13 लाख एकड़ जमीन को जमींदारों के हाथ से छीन कर 28 लाख गरीबों को सौंपी गयी है, 11 लाख एकड़ जमीन पर बंटाईदारों के जुताई के अधिकार को स्वी.ति दी गयी है, 10 लाख गृहहीन लोगों को घर बनाने की जमीन दी गयी है, और भी देने की कोशिश की जा रही है। इन लाभान्वित लोगों में से अधिकांश अनुसूचित जाति और जनजाति तथा गरीब अल्पसंख्यक समुदाय के लोग है। उनकी गरीबी कम हुई है, सम्मान बढ़ा है। भूमिसुधार और पंचायत ने शोषित, उपेक्षित लोगों को सिर उठाने का अधिकार दिया है, हजारों हजारों महिलाओं को घर की चारदिवारी से बाहर सामाजिक क्षेत्र में उतारा है। सिंचाई की व्यवस्था 30 प्रतिशत से बढ़ कर 70 प्रतिशत होगयी है। विभिन्न प्रकार की फसलों का उत्पादन तीन से पांच गुना बढ़ गया है। इस मामले में देश भर में हम पहली पंक्ति में हैं। चावल, पाट, सब्जी, अनारस, मांस, मछली, हंस, वन - इन सभी क्षेत्रों में हम अव्वल हैं। अन्य जैव संपदा में हम आगे आने वाले हैं। गांवों में सड़कों वगैरह का काफी प्रसार हुआ है। विभिन्न द्वीपों के निवासी इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि उनतक संचार व्यवस्था का इतना विकास हो जायेगा, वहां बिजली भी पहुंच जायेगी। इसके कारण गांवों में रोजगार बढ़े हैं। 1991 में वहां गैर-.षि कार्यों में लगे मजदूरों की संख्या 40 लाख थी, 2001 में वह 73 लाख होगयी है। परिणामस्वरूप गांवों में गरीबी कम हुई है, क्रयशक्ति बढ़ी है, बाजार-हाट और बढ़े हैं, औद्योगिक सामग्रियों का बाजार तैयार हुआ है।
लेकिन यह सब कहने का अर्थ यह नहीं है कि राज्य की वामपंथी राजनीति ने शहरी जीवन, संगठित और असंगठित मजदूरों तथा मध्य वर्ग के लोगों के जीवन को प्रभावित नहीं किया है। ‘67-‘69 की संयुक्त मोर्चा सरकारों के तूफानी दौर के बाद ‘72 से ‘77 के भयानक अनुभवों की जिस पृष्ठभूमि में 1977 में राज्य में वाम मोर्चा सरकार का गठन हुआ, उसके बाद से अब तक के इन 30 वर्षों के अनुभवों के आधार पर कोई अनायास ही कह सकता है : ‘हम लाये हैं तूफान से कश्ती निकाल के’। तूफान में डूबती किसी कश्ती को बचाकर लाने का क्या अर्थ होता है, इसे कोई भी आसानी से समझ सकता है।
वाम मोर्चा सरकार को विरासत में सिवाय अराजकता के और कुछ नहीं मिला था। किसान मोर्चे अर्थात कृषि क्षेत्र की चर्चा हम कर चुके हैं। मजदूर मोर्चे पर हालत यह थी कि जब 1972 के बंदूक की नोक पर लूट लिये गये चुनाव के बाद सिद्धार्थ शंकर राय की सरकार बनी तो उसने सबसे पहला काम मजदूरों के ट्रेडयूनियन अधिकारों को कुचलने का किया। जोर-जबर्दस्ती वामपंथी ट्रेडयूनियनों पर कब्जा किया जाने लगा। देखते-देखते 360 वामपंथी ट्रेडयूनियनों पर कांग्रेस ने कब्जा कर लिया। 40 हजार से ज्यादा मजदूरों को उनके घरों से उजाड़ दिया गया। जबर्दस्ती उन्हें काम पर जाने से रोका गया। यहां तक कि मालिकों के साथ मिल कर कई स्थानों पर खदेड़ दिये गये मजदूरों पर नोटिश जारी करवा के उन्हें काम से निकाल कर उनके स्थान पर कांग्रेसी गुंडों की बहाली कर दी गयी। हालत इस कदर बदतर होगयी थी कि 1974 में राज्य श्रम सलाहकार बोर्ड की एक बैठक में जब वामपंथी ट्रेडयूनियनों ने संयुक्त रूप से अपने घरों से खदेड़ दिये गये मजदूरों की नौकरी की रक्षा की बात उठायी तो वहां पश्चिम बंगाल सरकार इस पीड़ादायी सच से इंकार नहीं कर पायी। 19 अक्तूबर 1974 की उस बैठक में आईएनटीयूसी के प्रतिनिधि भी वामपंथी ट्रेडयूनियनों की बात का विरोध नहीं कर पाये थे। उस बैठक में सरकारी तौर पर यह निर्णय लिया गया था कि अपने नियंत्रण के बाहर के कारणों से जबरिया अनुपस्थिति के लिये जिन मजदूरों को बर्खास्तगी अथवा नौकरी के अंत का नोटिश दिया गया है, उनके नाम नहीं काटे जाने चाहिये और उन्हें अपने कामों पर फिर से बहाल कर दिया जाना चाहिये तथा उनकी नौकरी की समाप्ति और बर्खास्तगी का यदि उन्हें कोई नोटिश दिया गया है तो उन्हें वापस ले लिया जाना चाहिये।
सलाहकार बोर्ड के इस बाकायदा निर्णय के बावजूद मालिकों ने तब उस पर अमल करने से इंकार कर दिया था। इस निर्णय पर तभी अमल किया जा सका जब 1977 में वाम मोर्चा सरकार का गठन हुआ। संयुक्त मोर्चा सरकारों की तरह ही वाम मोर्चा सरकार ने यह साफ ऐलान कर दिया था कि सरकार यदि कोई तलवार है तो वह कभी भी मजदूरों और उनके संघर्षों के खिलाफ नहीं उठेगी, ट्रेडयूनियन आंदोलनों को कुचलने के लिये कभी पुलिस का प्रयोग नहीं किया जायेगा। 1977 से अब तक राज्य में श्रम कानून मंि जो भी परिवर्तन किये गये उन सबमें मजदूर वर्ग के हितों को प्राथमिकता दी गयी। मजदूरों की प्रतिनिधिमूलक ट्रेडयूनियनों के चयन के लिये मजदूरों के गुप्त मतदान से ट्रेडयूनियनों के चुनाव की तरह की जनतांत्रिक प्रक्रियाओं को सांस्थानिक रूप देकर मजदूर वर्ग की एकता को मजबूत किया गया।
इन सबके परिणाम स्वरूप ट्रेडयूनियन आंदोलनों में मजदूरों की सौदेबाजी की ताकत में भारी वृद्धि हुई और देखते ही देखते विभिन्न उद्योगों में मजदूरों की मजूरी में वृद्धि हुई। मजदूर वर्ग के अधिकारों की रक्षा के प्रति वाम मोर्चा की सजगता का ही परिणाम है कि आज पश्चिम बंगाल में कोई भी उस प्रकार की घटना की कल्पना भी नहीं कर सकता जो पिछले दिनों हरयाणा के गुड़गांव में जापानी मोटरसाइकिल कंपनी होंडा की फैक्टरी में घटी थी।
यह वाम मोर्चा सरकार की उपस्थिति का ही परिणाम है कि आज पश्चिम बंगाल अनुसूचित जाति और जनजातियों के खिलाफ किये जाने वाले जुल्मों और अपराधों से पूरी तरह मुक्त राज्य दिखाई देता है। इस तबके का जो सशक्तीकरण भूमि सुधार और आपरेशन बर्गा की तरह के कार्यक्रमों से हुआ है, उस ओर हम पहले ही इशारा कर चुके हैं। कमोबेश यही बात राज्य में महिलाओं के संदर्भ में भी कही जा सकती है। बंगाल के नवजागरण की परंपरा से पुष्ट यहां के वामपंथी आंदोलन ने सामान्य रूप से जिस सामाजिक वातावरण का निर्माण किया है, वह समाज के सभी कमजोर तबकों को बल पंहुचाता है। यहीं पर सबसे पहले सरकार द्वारा महिलाओं को जमीन के पे दिये गये। कई स्थानों पर पुरुषों और महिलाओं को संयुक्त रूप से पे बांटे गये। ऊपर से, बिल्कुल हाल के वर्षों में स्वयं सहायता समूहों के गठन के जरिये राज्य के कोने-कोने में महिलाओं का जिस प्रकार आर्थिक सशक्तीकरण होरहा है, उससे इस तबके में एक नयी आशा का संचार हुआ है। तथ्य बताते हैं कि राज्य के पिछले 2006 के विधान सभा चुनावों महिलाओं ने अभूतपूर्व उत्साह के साथ शिरकत की थी और वाम मोर्चा के प्रति अपना समर्थन जाहिर किया था।
जीवन के दूसरे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में एक है शिक्षा का क्षेत्र। जब वाम मोर्चा सरकार बनी तब इस क्षेत्र में पूर्ण अराजकत छायी हुई थी। परीक्षाओं के नाम पर सामूहिक नकल आम बात होगयी थी। परीक्षा परिणामों का कोई अतापता नहीं होता था। कुछ मामलों में तो परीक्षा फल आने में साल-साल भर की देर हो जाया करती थी। वाम मोर्चा ने सत्ता में आने के साथ ही इस अराजकता पर रोक लगायी।
वाममोर्चा जब सत्ता पर आया उस समय साक्षरता की दर 40 प्रतिशत के नीचे थी। अभी वह 75 प्रतिशत है। महिलाओं में साक्षरता 25 प्रतिशत से बढ़ कर 65 प्रतिशत होगयी है। पिछले 29 वर्षों में आबादी में एक तिहाई की वृद्धि हुई है, लेकिन सरकारी प्राथमिक स्कूलों में छात्रों की संख्या 55 लाख से बढ़ कर एक करोड़ 15 लाख होगयी है। माध्यमिक परीक्षा में बैठने वाले छात्रों की संख्या 2 लाख से लगभग चार गुना बढ़ कर आठ लाख हो गयी है, उच्च माध्यमिक परीक्षाओं में बैठने वाले छात्रों की संख्या 58 हजार से बढ़ कर 4 लाख 15 हजार (लगभग 7 गुना) होगयी है। सहज ही समझा जा सकता है कि पढ़ाई को बीच में ही छोड़ देने वालों की संख्याकम हुई है।
इसी प्रकार, स्वास्थ्य और औद्योगिक विकास के क्षेत्र में हुए कामों को संक्षेप में रखने के लिये हम पुन: विनय कोनार के कथन को ही उद्धृत करना चाहेंगे: साम्राज्यवादियों के दबाव में पेटेंट कानून को बदल कर दवाओं के दाम गगनचंुबी कर दिये गये हैं। करोड़पतियों के धन के सामने सरकार को डाक्टर मिलना कठिन होता है। इसके बावजूद अस्पतालों और स्वास्थ्य केंद्रों का विस्तार हुआ है और अब लगभग 70 प्रतिशत लोगों को अस्पताल की सुविधाएं मिलती है। शिशुमृत्यु, कुपोषण कम हुए हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में नल के जरिये शुद्ध पानी पाना लोगों की कल्पना के बाहर था, जो इस दौरान हुआ है।... औद्योगिक क्षेत्र में किसी समय आगे बढ़ा हुआ पश्चिम बंगाल कांग्रेस शासन के अंत में देश में पीछे की पंक्ति में चला गया था। वाममोर्चा सरकार की कोशिशों के बावजूद पहले 17 वर्षों में कुटीर उद्योग के अलावा बड़े उद्योगों के मामले में विशेष अग्रगति हासिल नहीं की जा सकी। क्योंकि महसूल समीकरण नीति और केंद्र की लाइसेंस नीति की बाधाएं थी। हल्दिया पेट्रोकेमिकल्स 12 साल पिछड़ गया, बक्रेश्वर बिजली प्रकल्प के लिये लंबा आंदोलन चलाना पड़ा था। लेकिन अब स्थिति बदल गयी है। यहां बाजार है, दक्ष और सचेत मजदूर है, यहां मंत्रियों को कट मनि या घूस नहीं देनी पड़ती है, चीन सहित पूर्वी एशिया के देशों के साथ संपर्क का रास्ता है, इसीलिये सारे देश में संकट के बावजूद यहां नया निवेश तेजी से बढ़ रहा है। वृद्धि की दर के मामले में हम अव्वल है, उद्योग में हम सामने की पंक्ति में आगय... उद्योग हो रहे हैं और होंगे। क्योंकि .षि के आधार पर उद्योग में ही हमारा भविष्य है।

1977 में वाम मोर्चा सरकार के गठन के वक्त पश्चिम बंगाल बिजली के भारी संकट में डूबा हुआ था। राज्य के इस बिजली संकट की अपनी अलग एक ऐसी कहानी रही है, जिसे बुर्जआ शासकों के चरम गैर-जिम्मेदाराना रवैये के तौर पर पेश किया जा सकता है। इस संकट को सम्हालने में वाममोर्चा सरकार को शुरू में काफी वर्ष लगे थे। वर्गीय घृणा से भरे हुए तमाम पूंजीवादी अखबार तथ्यों को छिपाते हुए उस संकट के लिये वाम मोर्चा को ही जिम्मेदार बताने से नहीं चूकते थे। तब इन अखबारों के पृष्ठों पर ज्योति बसु को अंधकार बसु कहा जाता था। वही पश्चिम बंगाल आज बिजली के उत्पादन में देश में सबसे पहली पंक्ति में है। आज राज्य में 7600 मेगावाट बिजली के उत्पादन की क्षमता है। और अभी जिन बिजली प्रकल्पों पर काम चल रहा है, उनसे आगामी तीन वर्षों में 2400 मेगावाट की उत्पादन क्षमता और बढ़ेगी। गांवों तक बिजली पहुंचाने का काम तेजी से जारी है। वाम मोर्चा सरकार का नया लक्ष्य है - हर गांव को रोशनी।
इसप्रकार, .षि, उद्योग, ढांचागत सुविधाओं - तीनों मामलों में ही विकास ने पश्चिम बंगाल को आर्थिक लिहाज से देश के एक शक्तिशाली राज्य में बदल दिया है। पश्चिम बंगाल में सकल घरेलू उत्पादन में वृद्धि की दर राष्ट्रीय औसत से अधिक है।

यह सच है कि आज उदारतावादी नीतियों पर चल रही केंद्र सरकार सुनियोजित ढंग से सार्वजनिक उद्योगों को बर्बाद कर रही है। पश्चिम बंगाल के भी 21 केंद्रीय सार्वजनिक उद्योगों को बंद कर दिया गया है। एनडीए के शासनकाल में तो विनिवेश मंत्रालय भी खोला गया था। वामपंथियों के दबाव से युपीए सरकार ने इस मंत्रालय को हटा लिया, लेकिन विनिवेश की कोशिशों से वह बाज नहीं आ रही है। यूपीए अपने खुद के घोषित कार्यक्रम के विपरीत जाकर लाभदायी संस्थानों को बेचने की कोशिश कर रही है। केंद्र सरकार निजीकरण तथा सभी जगहों में विदेशी पंूजी को खुली छूट देने में लगी हुई है। घरेलू उद्योगों का विकास बंद हो गया है।
लेकिन इसके बावजूद इधर के घटनाक्रम के आधार पर कहा जा सकता है कि पश्चिम बंगाल औद्योगिक विकास के मामले में उठ खड़ा हुआ है। आज यहां निजी निवेश भी हो रहा है। 1994 में वाममोर्चा सरकार ने एक नयी औद्यागिक नीति तैयार की थी। तभी से राज्य के तीव्र औद्योगीकरण की जो कोशिशें शुरू हुई, उसके परिणाम अब साफ दिखाई देने लगे हैं। अब पश्चिम बंगाल में औद्योगिक सुविधाओं की बात को सभी स्वीकार रहे हैं। आज सूचना तकनीक के क्षेत्र में निवेश का अन्यतम केंद्र पश्चिम बंगाल है। राज्य में सूचना तकनीक में वृद्धि की दर 88 प्रतिशत है जो राष्ट्रीय दर से दुगनी है। सूचना तकनीक और उससे जुड़ी सहयोगी सेवा की 235 इकाइयां निर्मित हो चुकी हैं। सूचना तकनीक, शिक्षा, सहायक सेवाओं के तीव्र विकास से रोजगारों में वृद्धि हुई है। 2010 मेंं सूचना तकनीक में प्राय: 4 लाख रोजगार पैदा होने का अनुमान है।

उद्योग में निवेश की दृष्टि से देखें तो इस्पात और लौह उत्पादन का क्षेत्र निवेश का सबसे बड़ा क्षेत्र साबित हुआ है। इधर के पांच वर्षों में इस क्षेत्र के 234 कारखानों में 8391 करोड़ रुपये का निवेश हुआ है। पेट्रो-केमिकल्स की 67 इकाइयों में 9892 करोड़ रुपये का निवेश हुआ हैै। टैक्सटाइल की 79 इकाइयों मे 1435 करोड़ रुपये का निवेश हुआ है।

केवल बड़े उद्योगों में ही नहीं, पश्चिम बंगाल में औद्योगिक विकास की एक खासियत यहां छोटे और मंझोले उद्योगों का विकास है। 1992-1993 में पंजीकृत लघु और कुटीर उद्योगों की संख्या 19 लाख थी और इनमें लगे हुए लोगों की संख्या 44 लाख थी। 2004 में इनकी संख्या बढ़कर 27 लाख हो गयी और इनमें काम कर रहे लोगों की संख्या 60 लाख है।
जिलों-जिलों में औद्योगिक नगर तैयार हो रहे हैं। बांकुड़ा, कूचबिहार, जलपाईगुड़ी, सिलिगुड़ी, मालदा, पश्चिम मेदनीपुर, दक्षिण 24 परगना, हुगली, हावड़ा में औद्योगिक पार्क निर्मित हो रहे हैं। राज्य के प्रयासों से उद्योग-आधारित नगर तैयार हो रहे हैं-मसलन, चमड़ा, फाउन्डरी, रबर, वस्त्र, केमिकल्स,जूट आदि उद्योग। पश्चिम बंगाल एक मात्र ऐसा राज्य है जहां बंद कल-कारखानों के मजदूरों के प्रति अपनी जिम्मेदारी को स्वीकार कर राज्य सरकार ने मासिक भत्ते की प्रणाली शुरू की है। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिये भविष्य निधि की व्यवस्था शुरू की गयी है।
पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा की लगातार सातवीं जीत के बाद आज यहां एक भिन्न प्रकार का माहौल दिखाई दे रहा है। हर जगह नया र्निमाण, नयी संभावना दिखती है। सड़कों का नेटवर्क, उत्तर-दक्षिण कॉरीडोर, पूरब-पश्चिम कॉरीडोर, लाजिस्टिक हब, टर्मिनल, उपनगर, आवास प्रकल्प। ‘पूरब की ओर देखो’ नीति के चलते पश्चिम बंगाल की ओर सबका ध्यान है।
कुल मिला कर यही कहा जा सकता है कि कृषि क्षेत्र में भारी परिवर्तनों ने वह आधारशिला तैयार कर दी है, जिसपर विश्व की मौजूदा परिस्थितियों और प्रतिकूल राष्ट्रीय नीतियों के बावजूद पश्चिम बंगाल विकास की दिशा में एक नयी छलांग लगाने के लिये तैयार दिखाई देता है। राज्य की मेहनतकश जनता की जिंदगी में सुधार की दिशा में ये तमाम गतिविधियां भी निश्चित तौर पर भारी योगदान करेगी, ऐसी उम्मीद की जा सकती है।

नये राजनीतिक प्रश्न

इन सबसे जुड़ा हुआ है राज्य के औद्योगीकरण का मुद्दा। इस मुद्दे पर माकपा और वाममोर्चा जितना अधिक मुखर है, उसके सभी प्रकार के आलोचक उतने ही ज्यादा खामोश। यह सच है कि विगत दस वर्षों से भी ज्यादा काल में पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार ने अपने एजेंडे को किंचित बदला है। भूमि सुधार और उसके लाभों को संजोया गया है। फलत: कृषि उत्पादन में रेकर्ड वृद्धि और उसके लाभों के न्यायोचित वितरण की ऐसी उपलब्धियां हुई है जो देश भर में अपने प्रकार का एक ही उदाहरण है। लेकिन सवाल उठा कि भूमि सुधार के आगे क्या? भूमि सुधार, आपरेशन बर्गा, और पंचायती राज ने पश्चिम बंगाल में भारत के किसी भी दूसरे राज्य की तुलना में कहीं ज्यादा तेज गति से गरीबी को कम किया। 1973-74 में जहां पश्चिम बंगाल में सबसे अधिक लोग, 73 प्रतिशत गरीबी की सीमा के अंदर वास करते थे, उनकी संख्या तेजी से घट कर 1999-2000 में 32 प्रतिशत होगयी और बाद के वर्षों में भी इसमें लगातार कमी आ रही है। गांव के भूमिहीन गरीबों को थोड़ी जमीन, पंचायतों के जरिये थोड़ी सत्ता और संगठन के जरिये थोड़ा सामाजिक सम्मान दिला कर पश्चिम बंगाल को उसके सदियों के कृषि संकट से तो मुक्त कर दिया गया। लेकिन इन सबके बावजूद, जीवन तो यही पर आकर ठहर नहीं गया।
बंगाल सिर्फ एक कृषि प्रधान राज्य नहीं रहा है। भारत के प्रमुख औद्योगिक राज्यों की अग्रिम पंक्ति में इसका स्थान है। आजादी के पहले तक उद्योगों में इसका देश में पहला स्थान था। लेकिन परवर्ती दिनों में नाना कारणों से उसका यह स्थान नहीं रहा। इसके ऐतिहासिक कारण रहे हैं, जिनमें देश के विषम विकास के बजाय अपेक्षाकृत समानतापूर्ण विकास के रास्ते के तर्कों की भी अपनी खासी भूमिका रही है। लाइसेंस राज और महसूल समीकरण की नीति ने जहां बंगाल की भौगोलिक तौर पर अनुकूल स्थिति के लाभ को उससे छीन लिया, वहीं मंझोले और बड़े उद्योगों की स्थापना के लिये लाइसेंस देने के केंद्र सरकार के अधिकार ने औद्योगीकरण को शुद्ध सत्ता की राजनीति का खेल बना कर रख दिया। इसके अलावा खास तौर पर 1967 के बाद से वामपंथी आंदोलन के तेजी से बढ़ते प्रभाव का भी परिणाम था कि पूंजीपतियों ने अपनी वर्गीय शत्रुता के चलते बंगाल से पूंजी निकाल कर अन्य स्थानों पर निवेश शुरू कर दिया।
ये सारी बातें तथ्यों से प्रमाणित है। इन पर कई किताबें प्रकाशित हो चुकी है। रणजीत राय की ‘एगोनी आफ वेस्ट बंगाल’ ने तो एक समय अच्छा-खासा हंगामा मचाया था। यह अकारण नहीं था कि केंद्र-राज्य संबंधों के पुनर्विन्यास की मांग के लिये चले पूरे आंदोलन का नेतृत्व देश के वामपंथ, खासतौर पर माकपा ने ही दिया था जिसके चलते सरकारिया आयोग का गठन हुआ।

कहने का तात्पर्य यह कि औद्योगिक विकास की तमाम संभावनाओं के रहते हुए भी इसके प्रति आंख मूंदे रखना कहां की बुद्धिमानी है? 1991 में देश में एक नया परिवर्तन आया। उदारतावादी अर्थनीति ने कुछ बातें पूरी तरह से तय कर दी। पहली यह कि अब देश के औद्योगीकरण का निदेशन राष्ट्रीयकृत क्षेत्र नहीं करेगा। दूसरी यह कि प्रतिद्वंद्विता ही इस नये युग का मूल मंत्र होगा। महसूल समीकरण और लाइसेंस प्रणाली का अंत करके इस प्रतिद्वंद्विता के लिये मैदान को समतल बना दिया गया। ऐसे में औद्योगीकरण को आगे ले जाने के लिये सिर्फ केंद्र सरकार का मूंह तकना और संघर्ष अथवा निवेदनों के जरिये उससे कुछ हासिल करने की उम्मीद करना कोरे वितंडा के अलावा और कुछ नहीं हो सकता था। सिर्फ सरकारी संसाधनों और जन-आंदोलनों के बूते हल्दिया पेट्रोकेमिकल्स और बक्रेश्वर ताप विद्युत प्रकल्प की स्थापना में कितना समय और कैसी कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है, वाम मोर्चा सरकार इसका प्रत्यक्ष अनुभव कर चुकी थी। तथ्य और नाना प्रकार के अध्ययन बताते हैं कि 1980 से 1997-1998 के बीच भी, जब बंगाल में भारत के दूसरे किसी भी हिस्से की अपेक्षा कही ज्यादा राजनीतिक स्थिरता और शांति थी, देश के औद्योगिक उत्पादन, देश के कुल निर्यात आदि में पश्चिम बंगाल के योगदान में किस प्रकार लगातार गिरावट होती गयी और संगठित क्षेत्र में रोजगारों में भी किस प्रकार की कमी हुई। हड़तालों की तुलना में मालिकों द्वारा तालाबंदी से श्रम दिवसों का कहीं ज्यादा नुकसान हो रहा था। (देखिये इकोनामिक एंड पालिटिकल वीकली के 12 अक्तूबर 2002 के अंक में अभिजीत बनर्जी और अन्य आठ जनों का विशेष लेख स्ट्रेटजी फार इकोनामिक रिफार्म इन वेस्ट बंगाल) इसी बीच सेवा क्षेत्र और सूचना तकनीक के विस्तार का एक नया राष्ट्रीय परिदृश्य साफ दिखाई देने लगा था। शिक्षा का स्वरूप तेजी से बदल रहा था। ढांचागत सुविधाओं अर्थात सड़क, बिजली, रेलवे, बंदरगाह, टेलिफोन, राजस्व आदि के मामले में जो पश्चिम बंगाल 1971-72 में देश में चौथे स्थान पर था, वह 1997-98 में 14वें स्थान पर चला गया। जिस समय दिल्ली और देश के अन्य शहरों में प्रवासियों की संख्या में विस्फोट हो रहा था, उस समय कोलकाता में आने वालों की संख्या गिर रही थी। इसी दौरान वाम मोर्चा सरकार को अभूतपूर्व वित्तीय संकट का भी सामना करना पड़ा जब सिर्फ अपने कर्मचारियों को तनख्वाह देने के लिये पीयरलेस की तरह के एक निजी वाणिज्यिक संसथान से कर्ज लेना पड़ा था। क्या वाम मोर्चा सरकार इन सभी नये संकेतों, अनुभवों, चुनौतियों और परिवर्तनों के प्रति निर्विकार बनी रहती? यहां तक कि कृषि के क्षेत्र की उपलब्यियों को बनाये रखने के लिये एक संपूर्ण नयी आर्थिक नीति की जरूरत थी। इसके बारे में भी इसी बीच कई अध्ययन प्रकाश में आ चुके है जिनमें एक बहुचर्चित मैकेंजी रिपोर्ट भी है।
ऊपर हमने अभिजीत बनर्जी और अन्य आठ जनों के ईपीडब्लू के जिस विशेष लेख की चर्चा की है, उसमें इन्हीं परिस्थितियों के संदर्भ में शिक्षा के क्षेत्र में बहुत ही बुनियादी सुधार की मांग करते हुए यह निष्कर्ष दिया गया था कि पश्चिम बंगाल को उच्च तकनीक के क्षेत्र के बारे में अब ज्यादा नहीं सोचना चाहिए क्योंकि इस मामले में काफी विलंब होचुका है और देश में बैंगलोर, हैदराबाद, दिल्ली की तरह के शहरों में उच्च-तकनीक के ऐसे केंद्र विकसित हो चुके हैं जिनकी प्रतिद्वंद्विता के सामने पश्चिम बंगाल की नवजात कोशिशें शायद ही टिक पायेगी। इसीप्रकार हल्दिया पेट्रोकेमिकल्स के हवाले से बताया गया है कि राज्य में कोई भी बड़ा उद्यम इसलिये नहीं टिक सकता है क्योंकि इसे चलाने के लिये जरूरी प्रबंधकीय दक्षता का यहां सख्त अभाव है। इसीलिये उनका सुझाव था कि पश्चिम बंगाल में आर्थिक सुधार के लिये चीन के अनुभवों का अनुसरण करते हुए उच्च तकनीक के बजाय निम्न तकनीक पर आधारित छोटे कस्बों और गांवों में स्थित श्रम सघन लघु उद्योगों पर बल देने की जरूरत है तथा कृषि क्षेत्र में ढांचागत सुविधाओं के विस्तार, विपणन के आधुनिकीकरण और ठेके पर कृषि के रास्ते को अपनाया जाना चाहिए।  

बहरहाल, ऐसे ही तमाम प्रकार के अध्ययनों, शोधों और अनुभवों के आधार पर 1994 में वाममोर्चा सरकार ने एक नयी औद्योगिक नीति का दस्तावेज तैयार किया। उस पर व्यापक बहस हुई और उसे राज्य की विधान सभा से भी सर्वसम्मति से पारित कराया गया। और, कहना न होगा कि तब से लेकर आज तक, वस्तुत: उसी नीति के दायरे में पश्चिम बंगाल के औद्योगीकरण की सारी मुहिम चल रही है।
इसीबीच, भारत के आर्थिक विकास की नीतियों में एक और नया मोड़ आया। इसे उदारतावादी नीतियों का दूसरा चरण कहा जासकता है जिसका सीधा संबंध डब्लूटीओ और वैश्वीकरण की परिस्थितियों से है। डब्लूटीओ की शर्तों के तहत निर्यात के लिये दी जाने वाली तमाम अनुपूर्तियों को एक निश्चित समय सीमा के अंदर समाप्त करना है। पहले से ही चीन की तरह की सस्ते श्रम पर पनप रही अर्थ-व्यवस्था की चुनौतियों के सामने अपने को निहायत असमर्थ पा रहे भारतीय उद्योग ने आगे की इन नयी परिस्थितियों में अपने विनाश का रूदन शुरू कर दिया। मांग उठने लगी कि भारतीय उद्योग को प्रतिद्वंद्विता में टिकने की शक्ति दी जाए; उसे पूंजी के व्यापक संचार तथा उच्च तकनीक से चुस्त-दुरुस्त करते हुए श्रेष्ठ प्रबंधकीय दक्षता के आधार पर विकसित किया जाए; ‘कर्म-संस्कृति’ का एक नया परिवेश तैयार किया जाए। भारत सरकार ने इस नयी चुनौती से निपटने का अपना एक वर्गीय समाधान तैयार किया और ‘चीन’ का हवाला देकर तमाम श्रम कानूनों और बहु-स्तरीय करों से मुक्त विशेष आर्थिक क्षेत्रों (एसईजेड) के विकास का एक पूरा खाका तैयार कर लिया। इसप्रकार, एक ऐसी परिकल्पना सामने आयी जिसमें आने वाले समय में सारे आधुनिक उद्योगों का अनिवार्य तौर पर स्थानांतरण किया जायेगा। भले ही इसे एक प्रकार की नयी जमींदारी व्यवस्था का श्रीगणेश करना क्यों न कहा जाए, सचाई यह है कि इससे भारत के औद्योगिक क्षेत्र में एक नयी हलचल और प्रतिद्वंद्विता के एक नये तत्व का प्रवेश हुआ है। भारत के संघीय ढांचे में किसी भी राज्य सरकार के बूते में यह नहीं है कि वह केंद्र द्वारा प्रतिपादित किसी ऐसी भारी परिवर्तनकारी नयी परिकल्पना के प्रति उदासीन रह सके। राज्य के विकास और जनता के जीवन में सुधार की राज्य सरकार की बुनियादी प्रतिबद्धताएं ही उसे इन नये प्रकल्पों की संभावनाओं को टटोल कर देखने के लिये बाध्य करती है।
पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार भी अपने तमाम विचारधारात्मक आग्रहों और आपत्तियों के बावजूद इस नये घटना-विकास को अनदेखा नहीं कर सकती है। न वह विभिन्न राज्यों के बीच उद्योगों को दी जानी रियायतों की होड़ को अपनी आंखों से ओझल कर सकती है। मेहनतकशों के हित मेहनत करने की संभावनाओं को बनाये रख कर ही साधे जा सकते है, अनुद्यौगीकरण से पैदा होने वाली बेरोजगारी के जरिये नहीं।
यही वह समूचा परिप्रेक्ष्य है जिसमें पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार 1994 के अपने औद्योगीकरण के प्रस्ताव पर अमल कर रही है और उसी क्रम आज कुछ नये प्रकार की समस्याएं भी पैदा हुई है। चरम अराजकतावादी ताकतों ने सर उठाया है। शायद ही किसी को यह समझाने की जरूरत है कि उद्योग हवा में नहीं, जमीन पर ही खड़े किये जासकते हैं। लेकिन यह जमीन कैसी हो, इसका सवाल निश्चित तौर पर उठाया जा सकता है। खेती की उर्वर जमीन के बजाय, बंजर जमीन पर उद्योग स्थापित किया जाए, यह तो सबके लिये काम्य है। लेकिन उद्योगों की स्थापना के लिये जमीन के अतिरिक्त और भी अनेक प्रकार के उपादानों जरूरी है। इनमें कच्चा माल, पानी, ऊर्जा तथा ढांचागत सुविधाएं आदि-आदि कई चीजें है। फिर पश्चिम बंगाल की मुसीबत यह है कि यहां अनुर्वर जमीन का नहीं के बराबर है। राज्य सरकार ने इसीबीच पश्चिम बंगाल में भूमि की स्थिति के बारे में बाकायदा एक पुस्तिका तैयार करके सारे तथ्य प्रसारित किये हैं। ऐसी दशा में या तो यह निर्णय लेना होगा कि राज्य के औद्योगीकरण का रास्ता ही न अपनाया जाए, जैसा कि कई पंडितों ने सुझाया भी है कि अभी औद्योगीकरण की इतनी क्या जल्दी है, जबकि कृषि के ही आधुनिकीकरण की अपार संभावनाएं बनी हुई है! औद्योगीकरण और कृषि का आधुनिकीकरण कैसे एक दूसरे के विरोधी है, इस गुत्थी को समझने के बजाय फिलहाल इसी बात को रेखांकित करना चाहेंगे कि औद्योगीकरण पश्चिम बंगाल की राज्य सरकार का लंबे अर्से पहले लिया गया एक सुचिंतित फैसला है, किसी एक मुख्यमंत्री के मस्तिष्क की खब्त मात्र नहीं है।

जहां तक रोजगार की संभावना पर कृषि और उद्योग के बीच तुलना का सवाल है, यह भी कोरा वितंडा ही है। कितनी जमीन पर कृषि में कितने लोग लगते है और कितनी पैदावार होती है और कितनी जमीन पर उद्योग में कितने लोग काम करते है और कितना उत्पादन होता है, इसे आंकड़ों से समझाने की जरूरत नहीं है।
दरअसल इस समूचे प्रसंग में सबसे महत्वपूर्ण मानवीय मसला विस्थापन का मसला है। खुद वाम मोर्चा सरकार ने भी इसपर यथेष्ट संवेदनशीलता का ही परिचय दिया है। जिस सरकार की बुनियादी प्रतिश्रुतियों में सबसे प्रमुख गरीबी और प्रतिकूल परिस्थितियों में पिस रही जनता को राहत प्रदान करना है, वह नौकरशाही की संवेदनशून्यता के सारे बोझ के बावजूद इस बारे में सजग रही है, इसमें कोई शक नहीं है। सिंगुर में जिसप्रकार से किसानों की सम्मति के आधार पर उनसे जमीन लेने की पेशकश की गयी, किसानों को अधिक से अधिक मुआवजा देने, बंटाईदारों और खेतमजदूरों तक के हितों की रक्षा करने और सर्वोपरि जमीन गंवाने वालों के पुनर्वास को लेकर शुरू से जिस प्रकार की सक्रियता दिखाई गयी, वही भारत की अन्य राज्य सरकारों से वाम मोर्चा सरकार की भिन्नता को बताने के लिये काफी है।

इसके बावजूद सिंगुर को एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनने से नहीं रोका जा सका, यह पश्चिम बंगाल के राजनीतिक परिवेश की अपनी खास कहानी है। बंगाल अपने नवजागरण और वामपंथी आंदोलन के इतिहास के कारण प्रगतिशील विचारों का केंद्र रहा है तो इसे नहीं भूलना चाहिए कि यही नवजागरण विरोधी कर हिंदू विचारों और परवर्ती दिनों में हिंदू महासभा का भी जन्म स्थान रहा है। कहने का तात्पर्य यह कि यह शुरू से तीव्र विचारधारात्मक संघर्षों की भूमि रही है, इसीलिये यदि यहां जबर्दस्त कम्युनिस्ट आंदोलन दिखाई देता है, तो उसी अनुपात में तीव्र कम्युनिस्ट-विरोधी शक्तियां भी मौजूद है। बंगाल आज इसी तीव्र राजनीतिक और विचारधारात्मक संघर्ष के मंच बना हुआ है। यहीं पर भारत की मेहनतकश जनता और जनतंत्र का भविष्य भी काफी हद तक निश्चित होने वाला है।

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