रविवार, 2 फ़रवरी 2014

राहुल गांधी का बहुचर्चित साक्षात्कार

राहुल गांधी का बहुचर्चित साक्षात्कार आज भी अपनी पूरी संरचना में सोचने के लिये विवश कर रहा है।

हमारी पहली टिप्पणी थी - राजनीति-चर्चा का एक नया मुहावरा, व्यवस्था-संबंधी मूल और गहरे प्रश्नों पर एक जरूरी, लेकिन आज के भागम-भाग के दौर में अजीब सा संकेंद्रण।

एक ओर धाराप्रवाह, अनर्गल भाषणबाजियों का शोर और दूसरी ओर हकलाहटों में गुंथी खामोशी, मौन। किसी भी सार्थक वार्ता (communication) के संप्रेषण के लिये जरूरी शोर के बीच मौन का वृत्त। शब्दों की सही गूंज-अनुगूंज के लिये जरूरी प्रेक्षागृहों में पसरा मौन। गड्ड-मड्ड संभाषण के बजाय दीर्घ विरामों का मौन। मौन किसी अघटन, अनिश्चय का, अस्वीकार और सहमति का ।

पता नहीं क्यों, हमें लगता है, कोरा शोर कोई काम का नहीं है। आदमी कोई पशु नहीं कि उसे कोई भी टेर ले जायेगा। बात बोलेगी। लोगों की बात-चीत ही निर्णायक है।

इसके अलावा कोरे शोर से कोई भारत की सबसे बड़ी शासक पार्टी के अस्तित्व को गायब कर देगा, ऐसी हैसियत तो हमें किसी की नहीं लगती।

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