बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

हम भी इक अपनी हवा बांधते हैं : प्रसंग ‘वर्गीय राजनीति’


अरुण माहेश्वरी

जनसत्ता के 22 फरवरी 2014 के अंक में प्रभात पटनायक का लेख प्रकाशित हुआ है - नव उदारवाद से उपजी चुनौतियां। अनुमानत:, हाल में जनवादी लेखक संघ के कथित राष्ट्रीय सम्मेलन में दिये गये उद्घाटन भाषण का सार-संक्षेप, क्योंकि लेख की अंतिम पंक्ति है - ‘‘विचारों के इस संघर्ष में लेखकों की केंद्रीय भूमिका है।’’

यह सिर्फ एक अनुमान भर है, मुमकिन है इस लेख में उठाये गये विषयों को उन्होंने अपने भाषण में छुआ भी न हो। चूंकि यह लेखक खुद उस सम्मेलन में मौजूद नहीं था और अब तक कहीं भी उनके भाषण की कोई कायदे की रिपोर्ट उसे पढ़ने को नहीं मिली है, इसीलिये सिर्फ लेख की आखिरी पंक्ति के बल पर किया गया यह अनुमान सचाई से बिल्कुल परे भी हो सकता है।

बहरहाल, इस लेख का विषय है शासन की आर्थिक नीतियां और भारत के मजदूरों की वास्तविक स्थिति; खास तौर पर मजदूर वर्ग की बदल रही संरचना; संगठित क्षेत्र में रोजगार में कटौती, पूर्ण रोजगार के बजाय ठेका प्रणाली, आउटसोर्सिंग, निजीकरण आदि से श्रमबाजार के लचीलेपन के कारण काम पर लगे मजदूरों और बेरोजगारों की रिजर्व फौज के बीच के फर्क का मिट जाना और फलत: मजदूरों की हड़ताल करने, सौदेबाजी करने की ताकत का कम होना। प्रभात कहते हैं, इस परिस्थिति ने वर्ग-आधारित (वर्गीय राजनीति), जिसे दूसरे शब्दों में कहा जाए तो वामपंथी या कम्युनिस्ट राजनीति को कमजोर किया है और उसके बदले किसिम-किसिम की पहचान पर आधारित राजनीति (identity politics) के लिये जगह बनायी है। ‘पहचान पर आधारित राजनीति’ में एक ओर जहां दलितों-महिलाओं आदि के प्रतिरोध आंदोलन है, तो दूसरी ओर जातियों, खास-खास समुदायों के लिये आरक्षण की सौदेबाजी के आंदोलन हैं और तीसरी ओर पहचान की फासीवादी (सांप्रदायिक) राजनीति भी है। वर्गीय राजनीति की कमजोरी के कारण पहचान की प्रतिरोधवादी राजनीति में भी प्रगतिशीलता के तत्व कमजोर हुए हैं। कुल मिला कर, पहचान की राजनीति जनता के एक हिस्से को दूसरे से लड़ा कर व्यवस्था को ही बल पहुंचाने का कारक बनती है, व्यवस्था में परिवर्तन के विचार कमजोर पड़ते हैं।

यहीं पर प्रभात सवाल करते हैं, इस परिस्थिति में प्रगतिशील ताकतें क्या करें? और, जवाब में वे मार्क्स की ‘बदलाव के एजेंट’ के रूप में सर्वहारा के बारे में अति-परिचित, कतिपय हलकों द्वारा ‘आप्त कथन’ बना दी गयी बात का स्मरण करते हुए कहते हैं, वह ‘‘सिर्फ इतिहास को आगे नहीं ले जाता बल्कि खुद इतिहास के फंदे से मानव जाति को निकालने की सूरत भी बनाता है।’’ और इसी आधार पर वे ‘वर्गीय राजनीति’ के अब तक कुछ उपेक्षित क्षेत्रों में काम करने की सलाह देते हैं - ‘‘मजदूरों को संगठित करने के नये क्षेत्रों की ओर बढ़ा जाए, मसलन, अब तक असंगठित रहे मजदूरों और घरेलू कामगारों को संगठित करना, बल्कि वर्गीय राजनीति के लिये नए किस्म के हस्तक्षेप भी किया जाएं।’’

इसके बाद ही लेख के अंत में प्रभात कहते हैं- ‘‘ सबसे अधिक जिस चीज की जरूरत है, वह है नव उदारवाद के वैचारिक वर्चस्व को स्वीकार न करना। लोकतंत्र पर नव उदारवाद के हमले को रोकने और लोकतंत्र की हिफाजत से आगे समाजवाद के संघर्ष तक जाने के लिये नव उदारवादी वर्चस्व को नकारना और नव उदारवादी विचारों के खिलाफ प्रति-वर्चस्व गढ़ने का प्रयास करना एक शर्त है। विचारों के इस संघर्ष में लेखकों की केंद्रीय भूमिका है।’’

प्रभात पटनायक के इस ‘प्रति-वर्चस्व’ को तैयार करने के पूरे आख्यान में बुनियादी तौर पर सबसे अधिक गौर करने की बात यह है कि वे ये सारी बातें एक ऐसे देश के संदर्भ में कह रहे थे, जिस देश में आज भी 65 प्रतिशत से ज्यादा आबादी कृषि-निर्भर है। भारत में जिस ‘वर्गीय राजनीति’(वामपंथी या कम्युनिस्ट राजनीति) को वे मजदूर वर्ग की संरचना में बदलाव या उसकी हड़ताल करने अथवा सौदेबाजी की ताकत के कम होने की वजह से कमजोर होता हुआ बता रहे हैं, उसने भारत के राजनीतिक इतिहास में शायद ही कभी सिर्फ मजदूर वर्ग की शक्ति के बूते अपनी स्थिति को मजबूत किया होगा, क्योंकि शुद्ध संख्या की दृष्टि से ही भारत में संगठित मजदूरों की संख्या कुल आबादी में इतनी नगण्य रही है कि सिर्फ उसके बल पर यहां कभी किसी राजनीतिक शक्ति का विकसित होना संभव नहीं रहा है। भारत में वामपंथी राजनीति का अब तक जो भी विस्तार हुआ है, कहना न होगा, उसका सीधा संबंध कृषि क्रांति के मुद्दों से अथवा संवैधानिक और जनतांत्रिक अधिकारों से रहा है।

लेकिन चूंकि, वामपंथी सामान्य बुद्धि (common sense) में ‘वर्गीय राजनीति’ अर्थात कम्युनिस्ट राजनीति का मतलब माना जाता है - मजदूर वर्ग की राजनीति, इसीलिये  प्रभात पटनायक ने अन्य पक्षों को नजरंदाज करते हुए और साथ ही भारत सहित सारी दुनिया में उपलब्ध मजदूर वर्ग और समाजवाद संबंधी विपुल ऐतिहासिक तथ्यों की आलोचनात्मक दृष्टि से बिना कोई जांच-पड़ताल किये इसी ‘सामान्य बुद्धि’ की बातों को दोहरा कर कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी के अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली।

मार्क्सवाद, कम्युनिज्म, समाजवाद, पूंजीवाद, मजदूर वर्ग, वर्गीय चेतना और वर्गीय राजनीति आदि से क्या तात्पर्य है और इनका परस्पर क्या संबंध है - आज किसी भी प्रकृत बुद्धिजीवी के लिये यह विषय कोरे विश्वास या आस्था की तरह की चीज नहीं हो सकते हैं कि जिनके बारे में कुछ ‘आप्त वचनों’ की तरह की उक्तियों को दोहरा भर देने से काम चल सकता है।

1848 में कम्युनिस्ट घोषणापत्र के प्रकाशन के बाद के इन लगभग 165 सालों में सारी दुनिया की नदियों से बेहिसाब पानी बह चुका है। मार्क्सवाद तो एक दार्शनिक पद्धति है, लेकिन वर्गीय चेतना, वर्गीय राजनीति, कम्युनिस्ट राजनीति और समाजवाद का अपना एक अच्छा-खासा इतिहास तैयार हो चुका है। उन देशों में भी जहां की 90 फीसदी से ज्यादा आबादी मजदूर वर्ग की है लेकिन जहां समाजवाद का कोई स्थान नहीं बन पाया है, और उन देशों में भी जहां ‘समाजवादी शासन’ के अंतर्गत ही वास्तव अर्थों में संगठित मजदूर वर्ग का पदार्पण हुआ है।

मार्क्सवाद के अप्रतिम इतिहासकार ऐरिक हाब्सवाम (1917-2012) की अंतिम पुस्तक है - How to change the world : Marx and Marxism 1840-2011। इस पुस्तक का आखिरी अध्याय है - Marx and Labour (मार्क्स और श्रमिक)। इस अंतिम अध्याय में हाब्सवाम ने मजदूर वर्ग और कम्युनिस्ट राजनीति तथा समाजवाद से जुड़ी ऐसी ही तमाम बातों को उनकी ऐतिहासिकता में समझने और विश्लेषित करने की कोशिश की है, जो ऐसे विषयों पर किसी भी मार्क्सवादी बुद्धिजीवी के यथार्थपरक दृष्टिकोण और आलोचनात्मक विवेक को बनाये रखने के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है।

हाब्सवाम ने अपनी पुस्तक के इस अंतिम अध्याय के बारे में लिखा है कि ‘‘यह उचित है कि मार्क्सवाद के इतिहास के अध्ययन का समापन मजदूर वर्ग के संगठित आंदोलन के बारे में एक निबंध से हो। मार्क्स की दृष्टि में सर्वहारा ‘पूंजीवाद की कब्र खोदने वाला सामाजिक रूपांतरण का अनिवार्य तत्व था।’’

हाब्सवाम बताते हैं कि बीसवीं सदी में मजदूर वर्ग के अधिकांश आंदोलन और पार्टियों ने अपने को मार्क्स के सपनों से जोड़ा था और मार्क्सवादियों ने भी इन मजदूर आंदोलनों और पार्टियों को अपनी राजनीतिक गतिविधियों के क्षेत्र के रूप में चुन लिया था। इस तथ्य के बावजूद, हाब्सवाम का साफ मत है कि मार्क्सवाद और मजदूर आंदोलन के बीच के ‘जटिल और परिवर्तनशील संबंधों’ को समझने के लिये जरूरी है कि इन्हें परस्पर स्वतंत्र रूप में देखा जाए। ‘‘ये कत्तई एक और अभिन्न नहीं है।’’

इस कथन के साथ ही हाब्सवाम दुनिया में मजदूर आंदोलन के इतिहास का यथार्थपरक विवेचन शुरू करते हैं। उदाहरण दे-देकर बताते हैं कि कैसे 19वीं सदी के अंत के समय से ही यूरोपीय सरकारों ने संगठित और मजबूत मजदूर आंदोलन के अस्तित्व को स्वीकृति देना शुरू किया। मजदूरों की स्थिति और श्रमिकों के साथ विवादों को सुलझाने के लिये कानूनी प्राविधान तैयार होने लगे। यहां तक कि मजदूर वर्ग के प्रतिनिधि यूरोपीय सरकारों में भी शामिल होने लगे।

वे लिखते हैं कि सन् 1899 में फ्रांस की सरकार में जब जाने-माने समाजवादी एलेग्जेंडर मित्तरां को वाणिज्य मंत्री बनाया गया, मजदूरों की राजनीतिक पार्टियों में, खास तौर पर समाजवादी पार्टियों में संकटजनक खलबली मच गयी थी। हाब्सवाम के अनुसार, उस समय तक, और उसके बाद भी लंबे अर्से तक समाजवादी यह विश्वास ही नहीं कर सकते थे कि बिना क्रांति के अथवा ‘आम हड़ताल के जरिये पूंजीवाद को बिना परास्त किये’ किसी समाजवादी पार्टी के लिये किसी सरकार में शामिल होना संभव होगा। (भारत में तो आज, सवा सौ साल बाद भी कतिपय वामपंथी इस संशय से मुक्त नहीं होपाये हैं।)

हाब्सवाम लिखते हैं कि ‘‘विचारधारात्मक स्तर पर इसी संकट ने बीसवीं सदी में मजदूरों के राजनीतिक इतिहास का श्रीगणेश किया।’’

हाब्सवाम का सवाल है कि आखिर क्यों यूरोपीय सरकारों ने श्रमिकों को गंभीरता से लेना शुरू किया? उस समय तक तो यूरोप में मजदूरों की स्थिति बेहद कमजोर थी। ‘‘ब्रिटेन और फ्रांस में 15 से 20 प्रतिशत, जर्मनी में उससे भी कम। दूसरी जगह भी मजदूर बड़ी राजनीतिक ताकत नहीं थे।’’ इसका कारण दर्शाते हुए हाब्सवाम इन देशों में संसदीय जनतंत्र के उदय की ओर इशारा करते हैं और कहते हैं कि मजदूर  कमजोर होने पर भी यह नजर आने लगा था कि मजदूरों की पार्टियां बड़ी चुनावी ताकतें बन सकती हैं। 1914 के पहले ही स्कैंडिनेविया के देशों तथा और भी कई जगहों पर यह बात साफ हो चुकी थी।

इसके अतिरिक्त यूरोपीय सरकारों के लिये चिंता की एक और बात मजदूरों की बढ़ती हुई ‘वर्गीय चेतना’ भी थी। हाब्सवाम विंस्टन चर्चिल को उद्धृत करते हैं : ‘‘यदि कंजरवेटिव और लिबरलों की दो दलीय प्रणाली टूटती है तो ब्रिटिश राजनीति खुली वर्ग राजनीति बन जायेगी अर्थात वर्ग हित-संघर्ष से आच्छादित राजनीति।‘‘ हाब्सवाम के शब्दों में, ‘‘ वर्ग संघर्ष की राजनीति से बचना एक सामान्य समस्या बन गया था।’’
एडवर्ड बर्न्सटीन

फ्रांस में जब मित्तरां को सरकार में शामिल किया गया तभी पहली बार मजदूर वर्ग की पार्टी के सामने यह सवाल उठा कि शासन के साथ उसका क्या संबंध हो। उन्हीं दिनों मार्क्स-एंगेल्स के अत्यंत करीबी, खास तौर पर एंगेल्स के प्रिय एडुअर्ड बर्न्सटीन का प्रसिद्ध घोषणापत्र Des Sozialismus und Die Aufgaben Der Soziakldemorkratie (Evolutionary Socialim : a criticism and affirmation) प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने मार्क्स के कम्युनिस्ट घोषणापत्र तक के लेखन को अपरिपक्व और परवर्ती लेखन को परिपक्व बताते हुए यह स्थापना दी थी कि ‘‘जनतांत्रिक समाजों में वैद्यानिक सुधारों के जरिये समाजवाद लाया जा सकता है।’’

इसके साथ ही समाजवादी आंदोलन में यह बुनियादी सवाल उठ खड़ा हुआ - क्रांति या सुधार? जब पूंजीवाद के पतन की उम्मीद नहीं, तब मजदूर वर्ग का ऐतिहासिक कर्त्तव्य क्या है?

बर्नस्टीन को तो कम्युनिस्ट इंटरनेशनल ने एक सिरे से खारिज कर दिया क्योंकि उसने ‘इंटरनेशनल’ के औचित्य पर ही सवाल उठा दिया था। इसीप्रकार, मित्तरां प्रसंग को भी ‘एक व्यक्ति की विचलन’ बता कर संभाल लिया गया। लेकिन हाब्सवाम कहते हैं कि उस समय की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टियों ने बर्न्सटीन की एक बात को जरूर मान लिया कि पूंजीवाद के अंतर्गत ही उन्हें मजदूर वर्ग की स्थिति में सुधार के लिये काम करना होगा। हाब्सवाम के शब्दों में, ‘‘सन् 1900 के बाद से प्रमुख पूंजीवादी देशों में मार्क्सवादी मजदूर आंदोलन पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष नहीं, बल्कि सहयोग के रास्ते पर काम करते रहे।’’

इसी बिंदु पर हाब्सवाम एक बहुत गहरी बात कहते हैं कि श्रमिक और समाजवाद जितने भी एक और अविभाज्य क्यों न दिखाई दें, आंदोलन के स्तर पर वे कत्तई एक नहीं है। ‘‘मित्तरां और बर्न्सटीन समाजवाद के लिये संकट थे, मजदूर आंदोलन के लिये नहीं।’’ समाजवाद पूंजीवाद को स्थानापन्न करने वाली एक भिन्न आर्थिक प्रणाली की परियोजना है, लेकिन मजदूर आंदोलन या वर्ग चेतना कोई परियोजना नहीं, बल्कि ‘‘सामाजिक उत्पादन के एक निश्चित चरण में मजूरी के बदले काम पर लगे लोगों की विशेषता है।’’

हाब्सवाम कहते हैं कि अमेरिकी इतिहास में मजदूर आंदोलन की एक अहम भूमिका रही है। आज भी डेमोक्रेटिक पार्टी में उसे देखा जा सकता है। लेकिन सवाल है कि ‘‘अमेरिका में समाजवाद क्यों नहीं है? ...एक विचारधारा अथवा राजनीतिक आंदोलन के रूप में वहां समाजवाद अनुपस्थित और गैर-महत्वपूर्ण है। ब्रिटेन में लिब लैब श्रमिक आंदोलन राजनीतिक समर्थन के लिये लिबरल पार्टी का मूंह जोहता था, महायुद्ध के काल तक उसके साथ उसने अपने संबंध नहीं तोड़े। अर्जेंटिना में काफी समय से कुंठित समाजवादियों और कम्युनिस्टों के लिये यह समझना मुश्किल रहा कि आखिर क्यों 1940 के दशक में विकसित हुआ उस देश का स्वतंत्र और रेडिकल मजदूर आंदोलन उस विचार (पेरोनवाद) से जुड़ गया जिसकी निष्ठा एक लोकप्रिय सैनिक जैनरल में थी।’’

इसी सिलसिले में हाब्सवाम ने पोलैंड में ‘सोलिडरिटी’ के समाजवाद-विरोधी मजदूर आंदोलन, विभिन्न राष्ट्रवादों, धर्मों और दूसरी विचारधाराओं से जुड़े श्रमिक आंदोलनों का विस्तार से उल्लेख किया है। भारत में हम इसे आसानी से कम्युनिस्ट पार्टियों से लेकर कांग्रेस, भाजपा, शिवसेना और यहां तक कि दत्ता सामंत आदि की तरह के कई व्यक्तियों के साथ जुड़े श्रमिक संगठनों और आंदोलनों के इतिहास से भी जोड़ कर देख सकते हैं।

हाब्सवाम बताते हैं कि कम्युनिस्ट धोषणापत्र के प्रकाशन से लेकर 1970 के काल तक मजदूर आंदोलन के साथ समाजवाद का एक गहरा रिश्ता दिखाई देता है। इससे मजदूर आंदोलन और समाजवादी आंदोलन, दोनों ही लाभान्वित भी हुए हैं। लेकिन, हाब्सवाम का अभियोग है कि समाजवादी व्यवस्था के सच, Socialism as it exists ने ही इस रिश्ते को तोड़ने में सबसे बड़ी भूमिका अदा की।

‘‘रूस में बोल्शेविक सर्वहारा के नाम पर सत्ता में आए और उनकी पंचवर्षीय योजनाओं ने बड़ा औद्योगिक मजदूर वर्ग पैदा किया। लेकिन जैसा कि हम सब जानते हैं, उन्होंने मजदूर आंदोलन को खत्म कर दिया।...कम्युनिस्ट दुनिया में मजदूर वर्ग का इतिहास लिखना संभव है... मजदूर आंदोलनों का इतिहास नहीं। 1980 के दशक में पोलैंड में सोलिडेरिटी इसका सबसे बड़ा अपवाद है।’’

‘‘सोवियत संघ की तरह ही चीन और वियतनाम में भारी औद्योगीकरण की परिणति स्वतंत्र मजदूर संगठनों के रूप में नहीं हुई है।’’

दरअसल, मार्क्सवादी सिद्धांतकार मजदूर वर्ग और मार्क्सवाद को कभी भी नैसर्गिक तौर पर एक और अविभाज्य नहीं मानते हैं। उनका विश्वास हैं कि मजदूर खुद से समाजवाद का निर्माण नहीं करते बल्कि समाजवाद के विचार को उनमें बाहर से ले जाना पड़ता है। हाब्सवाम कहते हैं कि अमेरिकी, फ्रांसीसी और औद्योगिक क्रांतियों ने पश्चिम के बौद्धिक परिदृश्य में इस बोध को स्थापित किया था कि एक अलग और बेहतर समाज बनाना संभव है - प्रतिद्वंद्विता के बजाय सामुदायिक सहयोग पर टिका न्यायपूर्ण समाज। इस बौद्धिक परिदृश्य में समाजवाद को स्थापित करने के लिये समाजवादी राजनीतिक पार्टी ने बाहर से प्रवेश किया। ‘‘श्रमिकों के संघ उनके जीवन के अनुभवों से स्वत: पैदा हो जाते हैं, लेकिन पार्टियां नहीं।’’
हाब्सवाम कहते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में मार्क्स-एंगेल्स ने वैसी ही एक पार्टी के निर्माण की पेशकश की थी। वह सिर्फ मजदूरों को संबोधित पार्टी नहीं थी; सामान्य रूप से समाज की आधुनिक संरचना को साधने के लिये थी। हाब्सवाम कहते हैं कि उनके बाद यूरोप में सर्वत्र ऐसी पार्टियां बनी, सत्ता पर आयीं और समाजों की आधुनिक संरचना के विकास में अपनी भूमिका अदा की। ‘‘लेकिन यह बात निराधार साबित हुई कि सर्वहारा ऐतिहासिक तौर पर अनिवार्यत: सच्चा क्रांतिकारी है।’’

‘‘इतिहास ने हमें यह भी सिखाया कि क्रांतियां घटनाओं का इतना जटिल समुच्चय है कि उन्हें किसी खास वर्गीय संरचना का प्रतिरूप नहीं माना जा सकता है।’’

हाब्सवाम कहते हैं कि इतिहास की इस सीख को यदि ग्रहण कर लिया गया होता तो वामपंथी सिद्धांतकार और इतिहासकार उस बेहिसाब मेहनत और समय को जाया करने से बच जाते जो उन्होंने यह साबित करने में खर्च की कि अधिकांश श्रमिक पार्टियां क्यों अपनी क्रांतिकारी भूमिका अदा करने से चूक गयीं।’’

हाब्सवाम के अनुसार जब उन पिछड़े हुए देशों में, जहां क्रांति कोरा शब्दाडंबर नहीं, बल्कि एक वास्तविक संभावना जान पड़ती है, मार्क्सवादियों को बुर्जुआ पूंजीवादी विकास ही आगे का एकमात्र पथ दिखाई देता है, तब विकसित पूंजीवादी देशों में तो मजदूरों और फलती-फूलती अर्थ-व्यवस्था का सहजीवन नितांत स्वाभाविक है। ‘‘पेट्रोग्राड की सोवियत क्रांति ने अपने को बर्लिन में स्थापित नहीं किया, और अब तो साफ है कि उसकी उम्मीद भी करना गैर-यथार्थवादी होता।’’

पूंजीवाद और मजदूर वर्ग के सहजीवन के इस लंबे आख्यान में हाब्सवाम बीसवीं सदी में ‘70 के दशक को एक नये मोड़ का सूचक बताते हैं। वे कहते हैं कि इसके बाद की सामाजिक परिघटना यह है कि कायिक मजदूरों की संख्या कम होती गयी और इसके साथ ही मजदूरों की ‘वर्गीय चेतना’ भी कमजोर हुई। ‘‘समृद्ध उपभोक्ता समाजों में धन की जबरदस्त वृद्धि से मजदूर वर्ग भी लाभान्वित हुए और साथ ही उस स्वयं सिद्ध विश्वास की हानि हुई कि मजदूर वर्ग के जीवन में वास्तविक सुधार आपसी भाईचारे और सामूहिक कार्रवाई के जरिये ही मुमकिन है।’’

प्रभात पटनायक ने अपने लेख में ‘श्रम बाजार के लचीलेपन’ की जिस पदावली का प्रयोग किया है, हाब्सवाम इसे ‘70 के बाद की परिस्थितियों का परिणाम बताते हैं जब ‘‘पूर्ण रोजगार का स्थान श्रम बाजार के लचीलेपन और ‘बेरोजगारी की प्राकृतिक दर’ के सिद्धांत ने ले लिया।’’ यह रेगन-थैचर के ‘बाजार की पूर्ण-स्वायत्तता’ का दौर था। किसी समय कम्युनिज्म के भय ने पूर्ण रोजगार और सामाजिक सुरक्षा के प्रति अमेरिका सहित सभी पश्चिमी सरकारों को जिसप्रकार वचनबद्ध किया था, बर्लिन की दीवार के गिरने के बाद उसमें कमजोरी दिखाई देने लगी।

‘70 के बाद का यह दौर सन् 2008 के भयावह आर्थिक संकट तक जारी रहा। 1973 से 2008 के बीच के काल में बर्नस्टीन का सुधारवाद परित्यक्त हुआ और नरम-गरम, सभी प्रकार के कम्युनिस्टों की साख इस हद तक गिर गयी कि पश्चिम में कम्युनिज्म कोई राजनीतिक शक्ति ही नहीं रह गया। सन् 2008 में परिस्थिति में फिर एक बदलाव आया। जिन सरकारों ने बाकायदा निजीकरण और अवनियमीकरण के जरिये बाजार का डंका पिटवाया था और नव उदारवाद की आधारशिला रखवाई थी, उन्हीं सरकारों को मुसीबत में फंस चुकी अर्थ-व्यवस्था के उद्धारकर्ता की भूमिका अदा करनी पड़ी।

सन् 2008 के बाद की महा-संकट की परिस्थितियों में सिद्धांतत: मजदूर आंदोलन के पुनरोदय की संभावना होने पर भी, हाब्सवाम को व्यवहार में यह मुमकिन नहीं लगा था। वे याद दिलाते हैं कि 1929-33 की महामंदी का एक राजनीतिक परिणाम यह हुआ था कि सर्वत्र मजदूर आंदोलन और वाम का संबंध-विच्छेद होगया। उस समय, फिर भी, सोवियत संघ की संकट-मुक्त अर्थ-व्यवस्था का उदाहरण मौजूद था। आज स्थिति यह है कि पारंपरिक समाजवाद में विश्वासी बौद्धिक आज के संकट से निजात की दूसरे लोगों की तुलना में न कोई बेहतर समझ रखते हैं और न ही उनके पास सोवियत संघ जैसा दिखाने लायक कोई उदाहरण है। पर्यावरण, शांति की तरह के रेडिकल विषय मजदूरों के लिये प्रासंगिक नहीं है, ये मूलत: मध्यवर्ग पर आधारित है। जैसे सन् 2008 में भारत में ‘न्यूक्लियर संधि’ का मुद्दा था। मजदूर आंदोलन पूंजीवाद का विरोधी है, लेकिन पूंजीवाद के बारे में और उसके स्थान पर वे क्या लाना चाहते हैं, उसके मामले में भी उनकी धारणा स्पष्ट नहीं है। संभावना-विहीन तीव्र असंतोष सिर्फ मीडिया के लिये महत्वपूर्ण हो सकता है। अराजक मजदूर संघवाद का इतिहास में कोई साक्ष्य नहीं मिलता।

जो भूमंडलीकरण बिना कोई विकल्प प्रदान किये जीवन और मानव संबंधों के पुराने तरीकों को नष्ट कर रहा है, हाब्सवाम कहते हैं, उससे कतिपय देशों में रेडिकल दक्षिणपंथ के रूझान का खतरा बढ़ जाता है, हांलाकि लातिन अमेरिका में ऐसा कोई खतरा नहीं है। लेकिन अमेरिका के बारे में हाब्सवाम का कहना था कि वहां इस आर्थिक संकट से ‘29 की महामंदी के बाद के एफ डी रूजवेल्ट की तरह का वामपंथ की दिशा में अपेक्षाकृत परिवर्तन आ सकता है।

इसप्रकार, इस पूरे इतिहास-विवेचन के अंत में हाब्सवाम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि 2008 ने साफ कर दिया है कि पूंजीवाद उत्तर नहीं, बल्कि सवाल है। पूंजीवाद को अजर-अमर घोषित करने वाला ‘इतिहास के अंत’ का सोच अस्वीकृत हुआ है। और साथ ही 1980 के दशक के बाद से यह भी साफ हुआ है कि समाजवादियों, मार्क्सवादियों या दूसरे किसी के पास भी पूंजीवाद के उनके परंपरागत विकल्प का कोई औचित्य नहीं रह गया है, कम से कम तब तक जब तक ‘समाजवाद’ से अपने आशय पर वे पुनर्विचार नहीं करते और इस मान्यता को त्याग नहीं देते कि कायिक श्रम करने वाला मजदूर ही सामाजिक रूपांतरण का प्रमुख कारक होगा। ‘‘जो आज है वह चल नहीं सकता, लेकिन कल क्या होगा, कोई नहीं जानता।’’

हाब्सवाम इसी बिन्दु पर लेख का अंत करते हुए कहते हैं, ऐसी स्थिति में इस रोग के सबसे बड़े डाक्टर, मार्क्स की शरण में जाने की जरूरत है। यह सभी संबद्ध लोगों के हित में है। उसने 1848 में दिखा दिया था कि यह पूंजीवादी भूमंडलीकरण कहां ले जायेगा। उसने पूंजीवाद में आवधिक संकटों (periodical crisis) की बात कही थी। आज का संकट लगभग वैसा ही है। असंभव मुनाफे की तलाश में यह असीमित और अधिकाधिक हाइ-टेक आर्थिक विकास भूमंडलीय धन तो पैदा करता है, लेकिन उत्पादन में गौण बना दिये जारहे मानव श्रम और विश्व के प्राकृतिक संसाधनों की कीमत पर। इक्कीसवीं सदी की इस समस्या का निदान आर्थिक और राजनीतिक उदारवाद के पास नहीं है। न अकेले दम पर और न दोनों मिल कर।

हाब्सवाम की इस पुस्तक के अंतिम अध्याय की आखिरी पंक्ति है - ‘‘एक बार फिर मार्क्स को गंभीरता से लेने का समय आगया है।’’

हाब्सवाम के जरिये वर्तमान समय के इस दीर्घ राजनीतिक विमर्श के बाद, अब शायद यह बताने की जरूरत नहीं है कि प्रभात पटनायक की तरह के सिद्धांतवेत्ताओं की कथित ‘वर्गीय राजनीति’ और ‘वर्गीय चेतना’ वाली पदावली कितनी अनैतिहासिक, निरर्थक और खोखली है। वे लेखकों से नव-उदारवाद का प्रति-वर्चस्व कायम करने का आह्वान करते हैं, लेकिन किस बूते? इतिहास को झुठला कर, उससे कोई सीख न लेकर, अर्थहीन थोथी बातों से?

इस मायने में आज के वामपंथी नेता कहीं ज्यादा विवेकवान प्रतीत होते हैं जो किसी सैद्धांतिकी के निर्माण के पचड़ों से अधिक से अधिक दूर दिखाई देते हैं। वे रोजमर्रे की राजनीति की व्यवहारिक सांगठनिक जरूरतों में ज्यादा मुब्तिला हैं और कभी कलम उठाते भी हैं तो पत्रकारों की तरह सिर्फ अपने दैनंदिन राजनीति के हितों को साधने के लिये। एक संवैधानिक जनतंत्र में समाज की आधुनिक संरचना के निर्माण-कार्य में जनता के अधिकतम हिस्सों के बीच अपने प्रभाव के विस्तार की कोशिश के लिये किसी सैद्धांतिक अनुमोदन की जरूरत नहीं है! फिर भले संगठित मजदूर हो या असंगठित मजदूर। ‘प्रति वर्चस्व’ से मतलब कोई ‘वर्गीय तात्पर्य’ के बजाय  शुद्ध प्रभाव-विस्तार ही है तो कुछ कहना नहीं है। इस काम में सभी पार्टियां अपने प्रचार-तंत्र के साथ उतरी हुई है। कम्युनिस्ट पार्टियां भी अपने जन-संगठन के अधीन आये लेखकों से इतनी सी उम्मीद रखे तो क्या हर्ज है! लेकिन, बाकी बातें?

आह का किसने असर देखा है
हम भी इक अपनी हवा बांधते हैं।

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