गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

नामवर सिंह : हिंदी के श्रेष्ठतम सर्वहारा बुद्धिजीवी की निर्माण-कथा



कल ही एक सांस में काशीनाथ सिंह के नामवर सिंह से जुड़े संस्मरणों की किताब ‘घर का जोगी जोगड़ा’ पढ़ गया। सारी रात भारी अवसाद से भरी बेचैनी में गुजरी। 

ग्राम्शी याद आते रहे - ‘‘यदि हमारा लक्ष्य एक ऐसे सामाजिक समूह से, जिसने पारंपरिक तौर पर सही मानस विकसित न किया हो, बौद्धिकों की एक नयी जमात को तैयार करना है जिसमें सर्वोच्च स्तर की विशेषज्ञता (specialisation) की क्षमता के लोग भी शामिल हो, तो हमें अभूतपूर्व कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। ’’
(If our aim is to produce a new stratum of intellectuals, including those capable of highest degree of specialisation from a social group which has not traditionally developed the appropriate attitudes, then we have unprecedented difficulties to overcome)

इस किताब का पहला संस्करण 2008 में ही आगया था और पहली आवृत्ति 2012 में हुई, लेकिन हमने इसे पढ़ा छ: साल बाद, 2014 में। 

मन को डरा दे ऐसी ’अभूतपूर्व कठिनाई’। नामवर के निर्माण की यह कहानी उसीका एक मूर्त रूप है, हिंदी के अपने खास संदर्भों में। मुख्यधारा के विचारों को उसीके मंचों पर कहीं ज्यादा तैयारियों के साथ चुनौती देने की सर्वहारा के बुद्धिजीवी की कठिनाई; बौद्धिक कार्यों के संदर्भ में गैर-पारंपरिक समुदाय से आने वाले बुद्धिजीवी के निर्माण की कठिनाई; तमाम अकादमिक संस्थानों के शीर्ष पर बैठे पुरातनपंथी सोच के पंडितों के बेहिसाब षड़यंत्रों से जूझते रहने की कठिनाई। 

बनारस के पास के एक अनजान से जियनपुर गांव के क्षत्रिय किसान के पहली पीढ़ी के स्कूल मास्टर का बड़ा बेटा। पिता की अपने बेटे से सिर्फ इतनी सी आशा कि बेटा मिडिल पास करके गांव के आस-पास की ही किसी स्कूल में मास्टर बन जाए। अभी हाई स्कूल में था तभी पिता ने जबर्दस्ती शादी करा दी। बेटे के विरोध को जवानी का जोश मान कर, इस उम्मीद में कि ‘बीवी आयेगी तो सब ठीक हो जायेगा’। बीवी से पहला बेटा और बीस साल बाद एक बेटी हुई, लेकिन जिसे दांपत्य कहते हैं, वह कभी भी संभव नहीं हुआ। बनारस विश्वविद्यालय में अध्यापक हो जाने पर भी, साथ रहने बीवी नहीं, मां आई। और बनारस के लोलार्क कुंड में किराये का मकान, काशीनाथ सिंह के शब्दों में - ‘‘मुझे कभी-कभी लगता है, वह देश के कोने-कोने में नगर-नगर घूम कर वही कमरा ढूंढ रहे हैं - वही बारिश में टपकता रिसता कमरा, ठंड में कठुआया कांपता कमरा, ऊमस में पसीने से नहाया कमरा। 
‘‘यह कमरा भौजी की सौत था।’’

नामवर कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े हुए थे, लोकसभा का चुनाव भी लड़े थे। लेकिन उनकी असली चुनौती थी - काशी के सनातनी पंडित। नामवर अपभ्रंश के विद्वान -- भला अपभ्रंश का भी कोई विद्वान होता है! एक ओर मार्क्सवाद और साथ में अपभ्रंश। करेला और नीम चढ़ा। काशीनाथ के शब्दों में इन चुनौतियों ने ‘‘और चाहे जो किया हो - न किया हो; घर को किताबों-पत्रिकाओं का गोदाम तो बना ही दिया।’’
अर्थात दांपत्य किया ‘किताबों-पत्रिकाओं के गोदाम’ से। ‘भौजी की सौत’ किताबों-पत्रिकाओं का गोदाम!
हिंदी के इस मार्क्सवादी बुद्धिजीवी की जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा हिंदी विभागाध्यक्षों की ईर्ष्याओं, उनकी साजिशों, बेबात नौकरी से बर्खास्तगी के दंशों को सहते हुई गुजरी। लेकिन जिस ‘गोदाम’ से उन्होंने असल में शादी की, उसकी पैदाइशों ने नामवर की आवाज को महानगरों से लेकर कस्बाई शहरों और गांवों तक में फैला दिया। एक ‘तंग’ जिंदगी की अनोखी, गहन और विस्तृत गूंज-अनुगूंज।

लेकिन पिता प्रसिद्धी के शिखर पर पहुंच चुके बेटे के बारे में कहते हैं -‘‘भगवान न करे कि किसी दुश्मन को भी वैसी जिन्दगी जीनी पड़े जैसी वे जी रहे हैं।’’ 

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