अरुण माहेश्वरी
केदारनाथ सिंह को ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा हुई। इसके चार दिन बाद ही फेसबुक पर हमने एक टिप्पणी लगाई थी - ‘केदारनाथ सिंह पर क्षण भर’। उनकी रचनाओं से अब तक जो प्रभाव लेता रहा, उसीके आधार पर वह एक बेबाक टिप्पणी थी। स्वाभाविक तौर पर फेसबुक पर ही उसकी अच्छी खासी प्रतिक्रिया हुई। फिर भी कुछ मित्रों ने दबे स्वरों में ही यह आग्रह भी किया कि हमें केदार जी को एक बार फिर से पढ़ना चाहिए।
हांलाकि हमारी टिप्पणी पर किसी भी कोने से कोई उग्र प्रतिवाद भरी टिप्पणी नहीं आई थी। लेकिन, उसके समर्थन में भी किसी ने कोई गंभीर बात नहीं जोड़ी। लोगों ने पढ़ कर पसंद किया, लेकिन उससे आगे बढ़ कर ज्यादा विस्तार से कुछ कहने की किसी ने जोहमत नहीं उठाई।
हम जानते हैं कि हिन्दी के एक कवि को ज्ञानपीठ मिलने के उत्सव के मौके पर हमारी टिप्पणी कुछ ज्यादा तीखी, और बाज हलकों से उकसावे से भरी भी कही जा सकती थी। वह कुछ इसप्रकार थी -
‘‘आज केदारनाथ सिंह के बारे में सोच रहा था। चंद रोज पहले ही उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा की गयी है। हो सकता है कुछ के लिये यह केदार जी को मिले अब तक के अनेक पुरस्कारों की सूची में यह एक और पुरस्कार का योग भर हो। लेकिन ज्ञानपीठ की मर्यादा तो आज भारतीय ‘नोबेल’ जैसी है। इसलिये इसका मिलना खुद में कोई साधारण बात नहीं कही जायेगी। यह अकेला तथ्य ही उन्हें वर्तमान हिन्दी कविता के शीर्ष पर स्थापित करने और हिन्दी भाषी समाज को एक नया रतन प्राप्त होने के सुख से आप्लूत करने के लिये काफी होना चाहिए।
‘‘लेकिन हमें यह सवाल बार-बार परेशान कर रहा है कि केदार जी हिन्दी के कवि क्यों और कैसे हैं? क्या सिर्फ इसलिये कि उन्होंने अपने लेखन के लिये हिन्दी भाषा का प्रयोग किया है? अपने हर बिम्ब में किसी अजनबी, भूगोल-इतिहास से परे, अश्वहीन, चुपचाप, दुबके हुए एकाकी आदमी की कविता; पूरी तरह से असम्पृक्त, विच्छिन्न, मौन, आत्म-केन्द्रित, अनाम शहर की अनाम गली के कूएं में रहती चुप्पी में फंसा या अनाम गांव की अनाम नदी के किनारे एकटक बैठा ‘झुम्मन मियां’। बनारस में भी ऐसा कि एक टांग पर खड़ा दूसरी टांग से बेखबर - जिसने गंगा को देखा है, जीया नहीं है।’’
इसके साथ ही हमने यह जोड़ा कि ‘‘रवीन्द्रनाथ के जीवनीकार प्रभात मुखोपाध्याय ने अपने पचीस साल खपा कर उनकी एक-एक रचना को उनके जीवनानुभवों से जोड़ कर दिखाया। उस जीवनी को रवीन्द्रनाथ के साथ ही उनके समय का एक पूरा इतिहास भी कहा जा सकता है। वह अपने देश-काल में पूरी तरह से रचे-बसे कवि की जीवनी थी। लेकिन केदार जी तो देश-काल की हर ठोस स्थानिकता से मुक्त है। देश और समाज का इतिहास तो दूर की बात, उनकी रचनाओं से तो शायद यह भी पता लगाना मुश्किल होगा कि वे किस देश के वासी है। इस अर्थ में सचमुच केदार जी आज के ‘सीमा-विहीन’ (borderless) विश्व के नागरिक, स्थानिकता की हर संकीर्णता से मुक्त सार्वदेशिक मानवीय अनुभूतियों के कवि हैं। हर प्रकार के आत्मेतर जुड़ाव-लगाव से मुक्त, आत्म के विराट, विपुल और अनंत संसार के प्राणी।
‘‘हिन्दी के कवि केदार जी सचमुच रामविलास शर्मा की हिन्दी जातीयता की काट का एक साक्षात उदाहरण है। जातीयता इतिहास-भूगोल से जुड़ा सच होता है, और केदारजी का साहित्य मुख्यत: उसके ही अस्वीकार का साहित्य है। साहित्य संस्थानों में बैठे ‘असीम के साधकों’ का सचमुच एक आदर्श कवि।’’
जाहिर है कि यह टिप्पणी कविता में अनुभूतियों की स्थानिकता और सार्वदेशिकता, अनुभवों की लौकिकता और अलौकिकता, सम्पृक्ति की विशिष्टता और साधारणता, रचना में इतिहास तथा भूगोल की उपादेयता से जुड़े ऐसे अनेक सवाल उठाती थी, जो गहरी छान-बीन की अपेक्षा रखते हैं और उस टिप्पणी से किसी न किसी कोने से तीव्र प्रतिवाद अथवा जबर्दस्त समर्थन की आवाज उठना हम स्वाभाविक समझते थे। लेकिन, इस मामले में दिखाई दी खामोशी स्वयं में हमारे साहित्य जगत की स्थिति पर, उसमें छायी उदासीनता और बौद्धिक आलस्य की सामान्य स्थिति को बताती है। फिर भी, चंद मित्रों की दबे स्वरों में उठी, ’केदार जी को फिर से पढ़ने’ के आग्रह सम्मान करते हुए ही, हमने एक बार के लिये उस टिप्पणी को फेसबुक से हटा लिया - इस निश्चय के साथ कि केदारजी की कविताओं को पढ़ कर एक पाठक के नाते अपनी अनुभूतियों को एक बार फिर टटोल कर देखूंगा कि कहीं हम रचना को समझने-ग्रहण करने के मामले में कुछ बुनियादी गल्तियां तो नहीं कर रहे हैं !
सौभाग्य से, इसीबीच मुझे केदारजी की उच्छवसित प्रशंसा करती हुई उदय प्रकाश की एक टिप्पणी पढ़ने को मिल गयी - ‘आखिर जीवन ही वाक्यार्थ है’। इसे ‘वाणीप्रकाशन समाचार’ में उनके संकलन ‘ईश्वर की आंख’ से लेकर पुनर्मुद्रित किया गया है। ‘ईश्वर की आंख’ संकलन हमारे पास है, उसमें संकलित टिप्पणियों को हमने पढ़ा भी था, लेकिन वह काफी पहले की बात थी। समय के इस लंबे अंतराल में उन सम्मोहक टिप्पणियों का प्रभाव शायद कुछ क्षीण होगया है और हमें यह याद भी नहीं था कि उसमें उदयप्रकाश की केदार जी पर भी एक टिप्पणी संकलित थी।
बहरहाल, अब ‘वाणीप्रकाशन समाचार’ में उसे ध्यान से पढ़ा और कहना न होगा, आश्चर्यजनक रूप से अपनी टिप्पणी में हमने केदारजी के बारे में जो तमाम बातें कही थी, - ‘सीमा-विहीन’ (borderless) विश्व के नागरिक, स्थानिकता की हर संकीर्णता से मुक्त सार्वदेशिक मानवीय अनुभूतियों के कवि’’ - और इसी आधार पर ‘उन्हें हर प्रकार के आत्मेतर जुड़ाव-लगाव से मुक्त, आत्म के विराट, विपुल और अनंत संसार का प्राणी, किसी भी जातीय अस्मिता की एक साक्षात काट’, उदय प्रकाश ने भी अपनी टिप्पणी में हूबहू उन्हीं बातों को अपने अंदाज में, लेकिन बिल्कुल भिन्न आशय के साथ कहा है। उनकी शब्दावली में - ‘स्थानिकता का संहारक’, ‘अनहद’ स्पेस का निवासी, उत्कट अनुभवों का द्रष्टा, अलौकिक की मूर्च्छना के मेटा-संसार का कवि।
उदयपकाश ने अपनी इस टिप्पणी में मुक्तिबोध का भी उल्लेख किया है और लिखा है कि ‘‘मुक्तिबोध की कविताएं अनुभव और विचारों के जिस उत्कट तनाव का दबाव पाठ के दौरान चेतना में पैदा करती है, उसमें हमारी इन्द्रियों का संवेदनात्मक अभिज्ञान अवसन्न-सा हो जाता हैं। उनकी कविताएं पाठक की ऐन्द्रिक संवेदना को ‘डीप फ्रीज’ की अवस्था में रखते हुए उसे मस्तिष्क और स्नायुओं की उन उत्पीडि़त गुहाओं में ले जाती हैं, जहां हम अपने संसार की विकट प्रतिछवियां देखते हैं।’’ उदयप्रकाश केदार जी के अनुभवों की तरह ही मुक्तिबोध के अनुभव को भी ‘अद्वितीय’ बताते हैं। ‘‘ केदारनाथ सिंह की कविताएं पाठ की प्रक्रिया में ऐन्द्रिक संवेदनाओं को निरंतर प्रदीप्त करती हुई, एक अति-इन्द्रिय विवेक के साथ अन्तत: उसी लोक में पहुंचा देती हैं।’’
उदय प्रकाश कहते हैं - ‘एक ही स्वर्ग या एक ही नरक’। लेकिन दोनों में समान क्योंकि दोनों ही ‘अद्वितीय’ !
कुल मिला कर, उदय प्रकाश के अनुसार अनुभूति की यह ‘अद्वितीयता’ ही वह चीज है जो दो बिल्कुल विपरीत छोरो पर खड़े दिखाई देने वाले केदारनाथ सिंह और मुक्तिबोध, दोनों को ही हमारे समय के अति-महत्वपूर्ण कवि का स्थान और गरिमा प्रदान करती है।
दरअसल, आधुनिक जीवन के संदर्भों में ऐसी ‘अद्वितीयता’, अलौकिक के सम्मोहन की चर्चा मात्र से ही हमारा ध्यान मार्क्सवादी विमर्श के उस समूचे प्रसंग की ओर चला जाता है जहां मार्क्स ने पण्य (माल) की जड़पूजा और उसके रहस्य (commodity fetishism) को लेकर चर्चा की है। ‘पूंजी’ के इससे जुड़े अंश में वे लिखते हैं - ‘‘पहली दृष्टि में तो पण्य एक बहुत ही मामूली सी आसानी से समझ में आने वाली चीज मालूम होती है, लेकिन गहराई में जाएं तो एक ऐसी अजीब से वस्तु जो अपने में न जाने कितनी आधिभौतिक सूक्ष्मताओं और धर्मशास्त्रीय बारीकियों को समेटे हुए है।’’
अपनी किताब ‘एक और ब्रह्मांड’ में मार्क्स के इसी कथन को उद्धृत करते हुए माल के बारे में इस लेखक ने जोड़ा था - ‘‘ईश्वर की तरह ही मनुष्य समाज की सृष्टि फिर भी मनुष्यों से स्वतंत्र मान लिया गया एक सर्व-व्यापी शाश्वत, अनादि सत्य।’’
गौर करें, मार्क्स द्वारा प्रयुक्त पदों - ‘आधिभौतिक सूक्ष्मताओं’ और ‘धर्मशास्त्रीय बारीकियों’ (metaphysical subtleties and theological niceties) को। मार्क्स इसी अंश में यह भी बताते हैं कि वैसे तो आदमी की जरूरतों को पूरा करने के कारण हर चीज का एक उपयोग मूल्य होता है और मानव श्रम के उत्पाद के नाते उसमें रहस्य की तरह की कोई चीज नहीं होती। लेकिन कोई भी चीज जब पण्य का रूप ले लेती है तो आश्चर्यजनक रूप से वह मानो किसी इंद्रियातीत वस्तु ( something transcendent) में बदल जाती है। मार्क्स के शब्दों में -‘‘ तब वह न सिर्फ अपने पैरों के बल खड़ी होती है, बल्कि दूसरे तमाम पण्यों के संदर्भ में सिर के बल खड़ी हो जाती है और अपने काठ के दिमाग से ऐसे-ऐसे अजीबोगरीब विचार निकालती है कि उनके सामने मृतात्माओं को बुलाने वाली प्रेत विद्या (’table-turning’ ) भी मात खा जाती है।
आइये, मार्क्स के इसी सूत्र को थाम कर हम यहां ‘स्मृतियों’ के बारे में चर्चा करते हैं। किसी भी रचनात्मक लेखन में उसकी केन्द्रीय भूमिका होती है। लेखक की तमाम जीवनानुभूतियां, अतीत में तब्दील होते हर क्षण का आभ्यांतरीकरण, स्मृतियां ही पुनर्जीवित होकर रचना में ढला करती है। स्मृतियां अर्थात आभ्यांतरित अतीत और इतिहास। कहा जा सकता है - रचना जगत का मूल पदार्थ। वाल्टर बेंजामिन के बारे में सब जानते हैं कि अपने अंतिम दिनों के लेखन में, खास तौर पर साहित्यिक आलोचना में उन्होंने ‘स्मृति तत्व’ (Eingedenken) का ही सबसे अधिक प्रयोग किया था। जैसे, उनका कहना था कि ‘‘रचना में ‘स्मृति’ के आयामों को भाष्य-टीका पद्धति से व्याख्यायित नहीं किया जा सकता, न इसे गैर-धर्मशास्त्रीय नजरिये से ही समझा जा सकता है।’’
बेंजामिन का यह कथन वैसा ही है जैसा मार्क्स पण्य के बारे में कहते हैं कि ‘‘मनुष्य के श्रम से पैदा होने वाली वस्तुएं पण्य ऐसी सामाजिक वस्तुएं बन जाती हैं जिनके गुण इंद्रियगम्य भी है और इंद्रियातीत भी।’’ इसी आधार पर, मार्क्स ने कहा था कि ‘‘यदि इसकी (पण्य की) उपमा खोजनी है, तो हमें धार्मिक दुनिया के कुहासे से ढंके क्षेत्रों में प्रवेश करना होगा। उस दुनिया में मानव-मस्तिष्क से उत्पन्न कल्पनाएं स्वतंत्र और जीवित प्राणियों जैसी प्रतीत होती है, जो आपस में और मनुष्य जाति के साथ भी संबंध स्थापित करती रहती है। पण्यों की दुनिया में मनुष्यों के हाथों से उत्पन्न होने वाली वस्तुएं भी यही करती हैं।’’ अपनी कृति ‘पवित्र परिवार’ में मार्क्स इसी सूत्र को ‘विचारों’ के क्षेत्र पर लागू करते हुए कहते हैं - जीवन में जैसे कायिक श्रम का कायांतर मशीन में होता है, वैसे ही आलोचना में विचार में होता है।
जीवन के यथार्थ का इन्द्रियातीत स्मृतियों में आभ्यांतरण और फिर रचना में उन स्मृतियों का पुनर्जीवन - अब आसानी से समझा जा सकता है, क्यों बेंजामिन इस पूरे प्रसंग को गैर-धर्मशास्त्रीय नजरिये से देखने से मना करते हैं, क्योंकि अन्यथा इसके रहस्य को, इस अनुभव के अनोखेपन को देख पाना असंभव सा होगा !
इसके अलावा, बेंजामिन और एक चीज पर जोर देते हैं - इतिहास अर्थात अतीत अर्थात स्मृतियों को किसी समग्र ढांचे में देखने के बजाय टुकड़ों-टुकड़ों में देखा जाना चाहिये। जैसे स्वप्नों की व्याख्या के संदर्भ में फ्रायड का कहना था कि इसके लिये पूरे सपने को नहीं, उसके मूल तत्व के अंशों को देखना चाहिए।
‘स्मृतियों’ को किसी ऐतिहासिक निरंतरता की समग्रता में, युग के पूरे परिप्रेक्ष्य में देखने के बजाय टुकड़ा-टुकड़ा अतीत के रूप में देखने की बात करके बेंजामिन रचनाकार के मूल तत्व को पहचानने की, रचना की व्याख्या की एक पद्धति की ओर संकेत करते हैं। कहना न होगा, स्मृतियों के बारे में बेंजामिन के इन कथन से कविता और उसके बिंबों की भाषा की बेहद उपयोगी कुंजी को पाया जा सकता है।
मगर फिर भी यह प्रश्न शेष रह जाता है कि ‘स्मृतियों’ के धर्मशास्त्रीय आयामों, रहस्यात्मक और अलौकिक आयामों को देखने का यह नजरिया ऐतिहासिक भौतिकवाद के लिये कैसे किसी काम का हो सकता है ? जैसे पण्य का रहस्यमय इन्द्रियातीत रूपांतरण और पूंजी के आत्म-विस्तार की कहानी किसी न किसी प्रकार से ब्रह्मांड के अविराम विस्तार की एक रहस्यमयी स्थिति को प्रतिबिंबित करते प्रतीत होते हैं, उसी प्रकार स्मृतियों के मामले में भी एक प्रकार का धर्मशास्त्रीय, रहस्यवादी प्रकार का दृष्टिकोण क्या रचनात्मक परिघटना के बारे में किसी समग्र वैज्ञानिक सोच और पद्धति के लिये मददगार हो सकता है ?
कहना न होगा, इस प्रश्न के जवाब का सूत्र भी हमें मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवादी चिंतन से ही मिलता है। मार्क्स ने यह कहने के बावजूद कि ‘पण्यों की दुनिया में प्रवेश के लिये हमें धार्मिक दुनिया के कुहासे से ढंके क्षेत्रों में प्रवेश करना होगा’, अंत में यह भी बताया कि पूंजी की दुनिया का यह कथित निरंतर विस्तारवान खोल अपने अन्तर्विरोधों के कारण ही अंत में फट जायेगा। अर्थात, सच के संधान में उनकी नजर इतिहास के नैरंतर्य पर नहीं, उसकी धर्मशास्त्रीय सनातनता और अनश्वरता पर नहीं, बल्कि उसमें पड़ने वाले विध्न और दरार पर थी, खोल के फटने और उसे फाड़ने के प्रयत्नों पर थी। प्रशांत, प्रवहमान सनातनता और निरंतरता की टूटती कडि़यों में ही उन्हें मानव की मुक्ति के तमाम प्रयत्नों की गाथाएं दिखाई दी थी। मार्क्स ने ‘पूंजी’ में पूंजीवादी समाज के ऐतिहासिक विकास का जो आख्यान पेश किया था, उसे देखते हुए ग्राम्शी ने रूस की नवंबर क्रांति को मार्क्स की ‘पूंजी’ के खिलाफ क्रांति कहा, और सच कहा जाएं तो यही गाम्शी का नवंबर क्रांति के बारे में मार्क्सवाद-सम्मत विश्लेषण था, ऐतिहासिक भौतिकवादी विश्लेषण।
बहरहाल, स्मृतियों के संदर्भ में, बेंजामिन ने इतिहास की निरंतरता को, इतिहासवाद को अपने में खोखला और बंद ढांचा बताया था। उनके अनुसार, ऐतिहासिक निरंतरता या इतिहासवाद विजेताओं तक सीमित, बंद, सरलरेखीय, घटनाओं का अबाध प्रवाह और उसका आख्यान है; इतिहास की सनातनता ‘प्रगति’ की एक ऐसी बंद और गुंथी हुई गाथा है जिसमें शासकों की अभी तक की कहानी कही जाती है। इतिहास के इस ढांचे में विफल और पराजित प्रयत्नों का कोई स्थान नहीं होता। इसीलिये बेंजामिन मानते थे कि टुकड़ों-टुकड़ों में आभ्यांतरित अतीत की स्मृतियां खोखले अविरल, सरलरेखीय इतिहास की तुलना में कहीं ज्यादा भरी-पूरी और ठोस होती है। इन टुकड़ा-टुकड़ा स्मृतियों में ही उत्पीडि़त जनों की आशा-आकांक्षाओं, उनकी अनुभूतियों, उनके सपनों और उनके कर्मोद्दम का ठोस यथार्थ निहित होता है। उनका कहना था कि मनुष्य नहीं, संघर्षरत मनुष्य, उत्पीडि़त इंसान समस्त मानवीय संवेदनाओं और ज्ञान का खजाना है। निरंतरता में विध्न ही ऐतिहासिक भौतिकवाद है और इन अन्तरालों के केन्द्र में उत्पीडि़त, संघर्षरत, कर्मरत इंसान है। जो सनातन प्रवहमान इतिहास आदमी के प्रयत्नों की विफलताओं को स्थान नहीं देता वह अंदर से खोखला होता है।
स्मृति, इतिहास, धर्मशास्त्र, अनुभव की अलौकिकता से जुड़े इस विमर्श के संदर्भ में अब यदि हम पुन: अपने मूल विषय, केदारनाथ सिंह पर आते हैं तो मुझे लगता है, हमने उनपर अपनी टिप्पणी में जो बातें कही और उदयप्रकाश ने उनके संदर्भ में जिसप्रकार मुक्तिबोध को याद किया, उन सब बातों का मर्म आईने की तरह साफ दिखाई देने लगेगा। केदार जी के बारे में हम दो विरोधी कोणों से एक ही बात को पुष्ट करते हुए दिखाई देने लगेंगे।
प्रभुत्वशालियों का इतिहासकार महान उपलब्धियों का सकारात्मक आख्यान कहता है। लेकिन ऐतिहासिक भौतिकवाद इस आख्यान से एक सतर्क दूरी रखता है। निश्चित तौर पर वह उत्पीडि़त, संघर्षशील और कर्मरत मनुष्य के जिस सांस्कृतिक खजाने की पड़ताल करता है, उसकी जड़ें ऐसी तमाम चीजों में होती है जिनके बारे में बिना किसी आतंक या विक्षोभ के सोचा ही नहीं जा सकता है। इसमें अनिवार्य तौर पर तनाव, दुख, डर और यातना होते हैं। बेंजामिन कहते हैं कि ‘‘सभ्यता का ऐसा कोई दस्तावेज नहीं है जो साथ ही साथ बर्बरता का भी दस्तावेज न हो।’’ और इसी मानदंड पर हम देखते हैं कि उदयप्रकाश ने बिल्कुल सही मुक्तिबोध की चर्चा करते हुए लिखा है - ‘‘मुक्तिबोध की कविताएं अनुभव और विचारों के जिस उत्कट तनाव का दबाव पाठ के दौरान चेतना में पैदा करती है, उसमें हमारी इन्द्रियों का संवेदनात्मक अभिज्ञान अवसन्न-सा हो जाता हैं। उनकी कविताएं पाठक की ऐन्द्रिक संवेदना को ‘डीप फ्रीज’ की अवस्था में रखते हुए उसे मस्तिष्क और स्नायुओं की उन उत्पीडि़त गुहाओं में ले जाती हैं, जहां हम अपने संसार की विकट प्रतिछवियां देखते हैं।’’ उदयप्रकाश के शब्दों में यह एक नरक है।
ठीक इसके विपरीत, केदार जी का लेखन अपनी ‘अद्वितीयता’ में एक ‘स्वर्ग’ है। वह स्वर्ग है आत्मलीनता का, इसीलिये सरलरेखीय इतिहास की भांति खोखला भी है, जिसमें विफल प्रयत्नों का, संघर्षशील उत्पीडि़त आदमी के ठोस अनुभवों का, उनके जीवन के हाहाकार, और कठोर परिश्रम का प्रवेश निषिद्ध है।
‘गांव आने पर’ किसान का यह बेटा गांव वालों से मिल कर सोचता है :
‘‘क्या करूँ मैं?
क्या करूँ, क्या करूँ कि लगे
कि मैं इन्हीं में से हूँ
इन्हीं का हूँ
कि यही है मेरे लोग
जिनका मैं दम भरता हूँ कविता में
और यही यही जो मुझे कभी नहीं पढ़ेंगे
छू लूँ किसी को?
लिपट जाऊँ किसी से
मिलूँ
पर किस तरह मिलूँ
कि बस मैं ही मिलूँ
और दिल्ली न आए बीच में’’
इस कविता का अंत होता है दिल्ली-बिल्ली के अनुप्रास पर टिकी निछक कौतुक भरी पंक्तियों से -
‘‘क्या है कोई उपाय
कि आदमी सही साबुत निकल जाए गली से
और बिल्ली न आए बीच में’’ (‘गांव आने पर’ कविता से)
दिल्ली का प्रोफेसर ‘ठेठ देहाती कार्यकर्ता’ के गंवारू अतिक्रमण पर नि:संकोच अपनी झुंझलाहट जाहिर करता है, उसकी उपस्थिति भर को किसी भूकंप से कम विध्वंसक नहीं मानता और उसके चले जाने पर शुक्र मनाता है :
‘‘वह साइकिल दनदनाता चला आता है/...मैं झुंझला उठता हूं/...परेशान होजाता हूं/...उसकी भूकम्प सी चुप्पी/मुझे अस्तव्यस्त कर देती है/...वह उठता है/ और दरवाजों को ठेलकर/चला जाता है बाहर/मेरी उम्मीद/उसका पीछा नहीं करती’’। (एक ठेठ देहाती कार्यकर्ता के प्रति)
देखिये ‘पानी में घिरे हुए लोग’ कविता में बाढ़-पीडि़तों की स्थिति के सुरम्य चित्र, जिनका अंत इन महीन, ठंडी पंक्तियों से होता है:
‘‘फिर उस मद्धिम रोशनी में
पानी की आंखों में
आंखे डाले हुए
वे रात भर खड़े रहते हैं
पानी के सामने
पानी की तरफ
पानी के खिलाफ
सिर्फ उनके अन्दर
अरार की तरह
हर बार कुछ टूटता है
हर बार पानी में कुछ गिरता है
छपाक्...छपाक्’’
जो भी हो, उदयप्रकाश केदारनाथ सिंह और मुक्तिबोध के इन दोनों विपरीत ध्रुवों को जिस एक धुरी पर एक साथ रखते हैं, वह है ‘अद्वितीयता’ की धुरी। अद्वितीयता - उनके अनुसार, रचना का व्याकरण। लेकिन यह व्याकरण ही तो इतिहास का वह बंद रूप है जिससे एकसूत्रता, नियम और विधि-विधान, कर्मकांडों और भक्ति की अलौकिकता को साधा जाता है। वे साफ कहते भी है कि ‘‘रचना एक अकर्म है, जैसे लिखना एक अकर्मक क्रिया।’’ व्याकरण-सम्मत लेखन की तरफदारी और अकर्मकता की झंडाबरदारी - बिल्कुल सही और उचित संगति है! मगर, संगीत के उस्तादों का क्षेत्र तो रागों के बंधे हुए घेरे के बाहर माना जाता है। पवित्रताओं की रक्षा तो सामुदायिक धार्मिक दायित्व है। और ऐसी सामुदायिक क्रियाशीलता अक्सर कर्मकांडों के निजी रोमांच में तब्दील होती है जबकि श्रेष्ठ रचना का स्थान इस वृत्त से बाहर होकर भी सामाजिक स्थितियों में उत्पन्न गतिरोधों के अधिक नजदीक होता है। व्याकरण की संपूर्णता के वृत्त में है खोखलापन और उसके बाहर है सामाजिक गतिरोध का ठोस सच। केदार जी के रूपक में ही ‘टूटा हुआ ट्रक‘ - ‘‘अगर इस समय वो वहां न होता/तो मेरे लिए कितना मुश्किल था पहचानना/ कि यह मेरा शहर है/ और ये मेरे लोग/ और वो वो/ मेरा घर’’।
उदयप्रकाश अपनी टिप्पणी के शुरू में ही केदारजी की कविताओं की अद्वितीयता को बताने के लिये उनकी अलौकिकता की उस सिद्धी का उल्लेख करते हैं जिसमें रचनाकार ‘‘ किसी उदास गिरगिट से बात कर सकता है, कौंए से पौराणिक आख्यान सुनते हुए उसे किसी महाकाव्य में बदल सकता है, गरुड़ से स्वर्ग के रहस्य पूछ सकता है’’।
केदारजी की कविताओं में ऐसे कई अनोखे कहे जा सके, वैसे प्रसंग आते हैं। जैसे उनके संकलन ‘उत्तर कबीर’ की पहली कविता ‘पोस्टकार्ड’ की पंक्तियां हैं -
‘‘इसपर लिखा जा सकता है कुछ भी
बस, एक ही शर्त है
कि जो लिखा जाय
पोस्टकार्ड की स्वरलिपि में
लिखा जाय
पोस्टकार्ड की स्वरलिपि
कबूतरों की स्वरलिपि है
असल में यह कबूतरों की किसी भूली हुई
प्रजाति का है
उससे टूट कर गिरा हुआ
एक पुरातन डैना’’
उनकी रचनाओं से ऐसे और भी अनेक असंभव, अलौकिक जगत के बिंब छितरे हुए हैं।
इस पूरे प्रसंग में अनायास ही हमें बांग्ला के सुकुमार राय और उनके एब्सर्ड कहे जाने वाले लेखन की याद आ रही है। उनकी रचनाओं के एक संकलन का शीर्षक ही है - आबोल ताबोल (अंट शंट)। सत्यजीत राय ने अपने पिता की इन रचनाओं का एक अंग्रेजी संकलन तैयार किया था, जिसका शीर्षक था - Nonsense Rhymes। कहते हैं कि रवीन्द्रनाथ ने भी सुकुमार राय से प्रेरित होकर ऐसी ही कुछ नानसेंस रचनाओं की कोशिश की थी, लेकिन उन्होंने जल्द ही हथियार डाल दिये। उन्होंने कहा - ‘‘मैं और कुछ भी लिख सकता हूं लेकिन सुकुमार राय जैसा कभी नहीं लिख सकता।’’
रवीन्द्रनाथ ने यह कह कर सुकुमार राय को अस्वीकारा नहीं था। बल्कि उल्टे, यथार्थ के विद्रुपीकरण की उनकी अद्भुत प्रतिभा को खुले मन से स्वीकृति दी थी। सुकुमार राय के प्रति रवीन्द्रनाथ की यह स्वीकृति और आग्रहशीलता का भाव लगभग वैसा ही था जैसा जीवन की अंतिम घडि़यों में उनका आग्रह मिट्टी से जुड़े आदमी के संघर्षों की कथा कहने वाले कवि की तलाश का था।
सुकुमार राय की एक क्लासिक रचना है - ‘ह ज ब र ल’ जिसका हिंदी में लाल्टू जी ने ‘ह य ब र ल’ शीर्षक से अनुवाद किया है। मैं यहां उसके कुछ अंश को उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं। इसकी शुरूआत इस प्रकार है :
‘‘बड़ी गर्मी है। पेड़ की छाया में मजे से लेटी हुई हूं, फिर भी पसीने से परेशान हो गई हूं। घास पर रुमाल रखा था, जैसे ही पसीना पोंछने के लिए उसे उठाने गई, रूमाल ने कहा, ‘‘म्याऊँ!’’
कैसी आफत है! रुमाल म्याऊँ क्यों कहता है?
आंख खुली और देखा तो पाया कि रुमाल अब रुमाल नहीं, एक मोटा सा गाढ़े लाल रंग का बिल्ला मूँछे फैलाए टुकुर टुकुर मेरी ओर देख रहा है।
मैं बोली, ‘‘अरे यार! था रुमाल, बन गया बिड़ाल।’’
बिल्ला झट से बोल पड़ा, ‘‘इसमें क्या परेशानी है? जो अंडा था, उससे क्वांक वांक बत्तख बना। ऐसा तो हमेशा होता रहता है।’’
मैंने जरा सोचकर कहा, ‘‘तो अब तुम्हें किस नाम से पुकारूँ? तुम तो असल में बिल्ले नहीं हो, तुम तो रुमाल हो।’’
बिल्ला बोला, ‘‘बिल्ला कह सकती हो, रुमाल भी कह सकती हो, चंद्रबिंदु भी कह सकती हो।’’
मैं बोली, ‘‘चंद्रबिंदु क्यों?’’
बिल्ले ने सुनकर कहा, ‘‘यह भी नहीं जाना ?’’ कहकर एक आंख मींचे खी खी कर भद्दी सी हंसी हंसने लगा। मैं बड़ा अटपटा महसूस करने लगी। लगा जैसे इस ‘‘चंद्रबिंदु’’ का मतलब मुझे समझना चाहिए था। इसीलिए घबराकर जल्दबाजी में कह दिया, ‘‘ओ हाँ हाँ, समझ गई।’’
बिल्ले ने खुश होकर कहा, ‘‘हाँ, यह तो साफ बात है - चंद्रबिंदु का च, बिल्ले का श और रुमाल का मा मिल कर बने चश्मा। क्यों, ठीक है न?’’
मुझे कुछ भी समझ न आया, पर डर था कि कहीं बिल्ला फिर से अपनी भद्दी हँसी न हँस पड़े। इसलिए उसकी हाँ में हाँ मिलाती गई।’’...
‘‘धत्, मेरी उम्र है आठ साल तीन महीने, और यह कहता है सैंतीस।’’
बुड्ढे ने थोड़ी देर बाद जाने क्या सोचकर पूछा, ‘‘तो बढ़ती की है या घटती की?’’
मैं बोली, ‘‘मतलब?’’
बुड्ढा बोला, ‘‘मैंने कहा उम्र बढ़ रही है या कम हो रही है?’’
मैं बोली,‘‘उम्र कम कैसे होगी?’’
बुड्ढा बोला, ‘‘तो क्या केवल बढ़ती ही रहेगी? तब तो मेरी छुट्टी होगई होती। ...चालीस साल पूरे होते ही हम उम्र का चक्का घुमा देते हैं। फिर इकतालीस, बयालीस नहीं - उनतालीस, अड़तीस, सैंतीस - इस तरह उम्र कम होती रहती है। मेरी उम्र कितनी बार चढ़ी और कितनी बार उतरी।’’...
‘‘उस पशु ने कहा, ‘‘क्यों हंस रहा था सुनोगी ? मान लो धरती चपटी होती और सारा पानी फैल कर जमीन पर आ जाता और जमीन की मिट्टी सब घुल कर चप चप कीचड़ हो जाती और लोग सभी उसमें धपा धप फिसल फिसल गिरते रहते तो ...हो, हो, हा, हा -’’
मनुष्य, बिल्ला, कौंवा, उल्लू, बकरा, चमगादड़ आदि आदि को लेकर लिखा गया यह एक अनोखा वृत्तांत है। इसमें उल्लू जज की कुर्सी पर बैठा है तो मगरमच्छ वकील है। और, सब कुछ उटपटांग ! अंट शंट!
मगर, मजे की बात है कि इस नानसेंस में भी एक भारी सेंस था। यहां इनके उल्लेख का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि यथार्थ का ऐसा विद्रूपीकरण अद्वितीयता की सिद्ध अलौकिकता से बहुत ज्यादा मानीखेज है। यह इतिहास के, व्याकरण के, सिद्धता के बंद ढांचे के बाहर का प्रयत्न है। आत्म से बाहर के व्यापक संसार का सच और उसका विद्रूप है। उदयप्रकाश की शब्दावली में यह भी एक ‘अतिन्द्रिय वाक् चेष्टा’ है। लेकिन शासकों के उस व्याकरण की सीमाओं का अतिक्रमण करती हुई ‘वाक् चेष्टा’ जो उदयप्रकाश की शब्दावली में सभी ‘प्रकट विपर्यासों को व्यर्थ’ करके सार्वजनीयता की जमीन तैयार करती है।
उदयप्रकाश ने केदारजी की प्रशंसा में जिस सनातनपंथी सार्वजनीयता का प्रभामंडल तैयार किया है, जो ‘’प्रकट विपर्यासों को व्यर्थ करने वाले व्याकरण’’ पर टिका है, जो स्थानिकता में जन्म लेकर उसी में मर-खप जाने वाली आलोचना की उस बेकार भाषा को दुत्कारता है जिसकी ‘‘जहां निर्मिति होती है, ठीक वहीं उसका विखंडन और विसर्जन भी होता है’’, केदार जी की रचनाओं के हमारे विश्लेषण का सार भी बिल्कुल यही है। फर्क सिर्फ इतना है कि उदयप्रकाश जिस चीज का जश्न मना रहे है, हम उसी का विरोध करते हैं, उसे तंतहीन और खोखला मानते हैं। उदयप्रकाश जिस चीज के लिये उन्हें राजसिंहासन पर बैठा रहे हैं, उसी के लिये हम उन्हें अभियुक्त के कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। मुक्तिबोध की ‘संसार की विकट प्रतिछवियों’ में हम मनुष्य के संघर्षों का भरपूर सौन्दर्य देखते हैं और केदारजी के ‘अति-इन्द्रिय विवेक’ में हमें आत्म-मुग्धता की खोखली तन्मयता दिखाई देती है।
हम समझते हैं, रचना के अलौकिक अनुभवों के संदर्भ में ऊपर की गयी इतनी लंबी इतिहास और स्मृति-चर्चा की प्रासंगिकता अब कहीं ज्यादा साफ होगयी होगी। यही सच है कि अतीत का, स्मृतियों का ढांचा जितना खुला होता है, उत्पीडि़तों की मुक्ति की आकांक्षा के लिये उतना ही स्थान बचा रहता है। व्यापक जन-समुदाय उस रचनात्मक प्रयत्न के साथ उतना ही गहरा लगाव भी महसूस करता है। वह सम्पृक्ति की भाषा होती है। इसे दूसरे शब्दों में कहें तो अतीत में भविष्य के जितने अधिक आयाम निहित होते हैं, मुक्तिकामी इंसान उतना ही अधिक उसे अपनाता है। इसीलिये ‘स्थानिकता के संहार के साथ अनहद स्पेस के अलौकिक के जादू की मूर्च्छना में तो ‘उत्पीडि़त प्राणी की आह, हृदयहीन विश्व का हृदय’ भी नहीं होते, जैसा कि मार्क्स ने धर्म के बारे में कहा था। यहां तो शुद्ध अफीम का नशा ही नशा है। धर्म को एक कोरा भ्रम मानने वाले मार्क्स कहते हैं कि ‘‘जीवन में भ्रमों का नाश उस वक्त तक नहीं किया जा सकता जब तक कि मानव जीवन की उन परिस्थितियों को नहीं बदला जाता जिन्हें भ्रमों की जरूरत होती है।’’ स्थानिकता का संहार वैसे ही आदमी के अस्तित्व का लोप है, ऊपर से अनहद की मूर्च्छना ! भ्रम के भी अधिष्ठान के लिये कोई जगह ही नहीं बचती। रह जाता है एक प्रकार का कोरा कर्मकांडी रोमांच, जिसमें जीवन की परिस्थिति में बदलाव के किसी भी प्रयत्न का स्थान कहां !
जाहिर है, ऐसी शून्यता में ही जादूगर के सम्मोहनीकरण के मंच पर आईनों के प्रतिबिंबों से तैयार किये गये अदृश्य, पारदर्शी खोखर में छिपे बैठे सनातनता के खिलाड़ी की डोर से चालित है उदयप्रकाश के केदारनाथ सिंह - ‘जायंट व्हील’ में बैठे हुए डरे हुए बच्चे पर हिन्दी कविता की धरती पर चलने वाले किसी परमात्मा के अलौकिक वरद् हस्त की तरह!
अब बताइयें, वे नहीं तो और कौन होंगे असीम-संधानी ‘साहित्याधिकारियों’ की सर्वकाल की पहली पसंद, साहित्य-पुरस्कारों का सबसे उत्तम पात्र - निष्पाप, निरापद, अहिंस्र, विनत, निष्पृह, असंपृक्त, बिल्कुल ठंडा ! इसीलिये उनकी झोली में ढेर सारे दूसरे पुरस्कारों की तरह ही ज्ञानपीठ पुरस्कार का टपकना, किसी भी प्राकृतिक घटना जैसा ही एक सार्वदेशिक, पूर्व-निर्धारित सच है !
बहरहाल, इतनी सारी चर्चा के बावजूद इस प्रसंग को हम यहीं पर, किसी बंद किताब की तरह खत्म करना नहीं चाहते। हम नहीं चाहते कि इतिहास और स्मृतियों के जिस बंद और सनातन ढांचे पर हमने ऊपर इतनी तोहमतें लगाई हैं, रचना को देखने-परखने का वैसा ही फिर कोई और एक बंद ढांचा तैयार हो, वह भले ही ऐतिहासिक भौतिकवाद के नाम पर ही क्यों न हो! इसमें कोई शक नहीं है कि इतिहास की सनातनता में डाले जाने वाले विघ्न में ही मनुष्यता की तमाम संभावनाएं निहित है। सालों पहले इसी लेखक ने उदयप्रकाश के पक्ष में राजेन्द्र यादव को लिखे अपने पत्र में काल के सरल रेखीय सीधे प्रवाह और उसके वर्तुल प्रवाह के बीच फर्क करते हुए वर्तुल प्रवाह में फिर-फिर लौटते संघर्षरत आदमी की स्थिति को पहचानने की बात कही थी। फिर भी, इस विषय में हमारे किंचित संशय की भी ठोस वजहें हैं। स्मृति, इतिहास, अतीत और रचनात्मक उपक्रम की हमारी उपरोक्त चर्चा के केंद्र का एक बड़ा पहलू है – मार्क्स का यह कथन कि ‘यह खोल फट जायेगा’। पण्य के रहस्यमय जगत में पूंजी के अविराम आत्म-विस्तार से बन रहा खोल फट जायेगा। लेकिन, अभी के विश्व इतिहास की मूल समस्या यही है कि यह खोल फट नहीं रहा है। हमने अपनी किताब ‘एक और ब्रह्मांड’ के बिल्कुल अंत में एक टिप्पणी की है - ‘‘पूंजी के द्वंद्वात्मक विवेचन की दीर्घ यात्रा के अंत में जैसे थक कर ही मार्क्स ने कहा था कि इस ब्रह्मांड का खोल फट जायेगा। लेकिन खोल को फाड़ना तो दूर, उसकी रूमानी कल्पनाओं का भी आज तो टोटा पड़ रहा है।’’
यह भी अपने में एक बहुत बड़ा और विकट सत्य है। इसीलिये केदारजी की तरह की सारहीन, कर्मकांडी सार्वजनियता और सार्वदेशिकता की, ‘इतिहास के अंत’ की तरह की उक्तियों की गूंज-अनुगूंज बार-बार सुनाई देगी। फिर भी, इस पूरे व्यापार में निहित सबसे बड़ी दर्शनशास्त्रीय समस्या यह है कि जो ऐतिहासिक भौतिकवाद अपनी सेवा में धर्मशास्त्रीय रहस्यवाद का इस्तेमाल करता है, उसके इस खेल में कौन किसके हाथ का कठपुतला बन रहा है, यह तय कर पाना मुश्किल दिखाई देने लगता है। क्या ऐतिहासिक भौतिकवाद की ओट में ही उस धर्मशास्त्रीय रहस्यवाद को अपना खेल खेलने का मौका नहीं मिल रहा है, जो अन्यथा आज के समय में अपने असली रूप में सामने आने से शर्माता है। आशा है हमारे संकेत साफ हैं।
इसीलिये सम्मोहनों के हर मायावी खेल पर पैनी निगाह जरूर रखी जानी चाहिए। अन्यथा जगत प्रतीति के मिथ्यात्व में विपर्यासों का खतरा सबसे ज्यादा है। स्वयं ऐतिहासिक भौतिकवाद के नैरंतर्य का बंद ढांचा!
अंत में और एक बात से हम अपनी इस टिप्पणी को खत्म करेंगे। हमने इस पूरे लेख में अपनी बात कहने के लिये उदयप्रकाश की टिप्पणी को आधार बनाया है। केदार जी पर उदयप्रकाश की टिप्पणी की सच्चाई को हम समझ सकते हैं। हममे से अधिकांश लेखक अक्सर मित्रों और परिचितों को लेकर इसीप्रकार उच्छवसित सा कुछ करते रहते हैं। लेकिन सच कहा जाए तो उदयप्रकाश की अपनी पहचान इसप्रकार की, अखबारी स्तंभों के लिये लिखी जाने वाली टिप्पणियों में नहीं, उनकी कहानियों और कविताओं में हैं। हमें यह कहने में जरा भी हिचक नहीं है कि उदयप्रकाश का लेखक उसी प्रकार केदारनाथ सिंह का बिल्कुल विपरीत ध्रुव है जैसे मुक्तिबोध है, जिसकी चर्चा हमने ऊपर की है। इति।
(यह लेख 'लहक ' पत्रिका के अगले अंक में प्रकाशित होगा )
केदारनाथ सिंह को ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा हुई। इसके चार दिन बाद ही फेसबुक पर हमने एक टिप्पणी लगाई थी - ‘केदारनाथ सिंह पर क्षण भर’। उनकी रचनाओं से अब तक जो प्रभाव लेता रहा, उसीके आधार पर वह एक बेबाक टिप्पणी थी। स्वाभाविक तौर पर फेसबुक पर ही उसकी अच्छी खासी प्रतिक्रिया हुई। फिर भी कुछ मित्रों ने दबे स्वरों में ही यह आग्रह भी किया कि हमें केदार जी को एक बार फिर से पढ़ना चाहिए।
हांलाकि हमारी टिप्पणी पर किसी भी कोने से कोई उग्र प्रतिवाद भरी टिप्पणी नहीं आई थी। लेकिन, उसके समर्थन में भी किसी ने कोई गंभीर बात नहीं जोड़ी। लोगों ने पढ़ कर पसंद किया, लेकिन उससे आगे बढ़ कर ज्यादा विस्तार से कुछ कहने की किसी ने जोहमत नहीं उठाई।
हम जानते हैं कि हिन्दी के एक कवि को ज्ञानपीठ मिलने के उत्सव के मौके पर हमारी टिप्पणी कुछ ज्यादा तीखी, और बाज हलकों से उकसावे से भरी भी कही जा सकती थी। वह कुछ इसप्रकार थी -
‘‘आज केदारनाथ सिंह के बारे में सोच रहा था। चंद रोज पहले ही उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा की गयी है। हो सकता है कुछ के लिये यह केदार जी को मिले अब तक के अनेक पुरस्कारों की सूची में यह एक और पुरस्कार का योग भर हो। लेकिन ज्ञानपीठ की मर्यादा तो आज भारतीय ‘नोबेल’ जैसी है। इसलिये इसका मिलना खुद में कोई साधारण बात नहीं कही जायेगी। यह अकेला तथ्य ही उन्हें वर्तमान हिन्दी कविता के शीर्ष पर स्थापित करने और हिन्दी भाषी समाज को एक नया रतन प्राप्त होने के सुख से आप्लूत करने के लिये काफी होना चाहिए।
‘‘लेकिन हमें यह सवाल बार-बार परेशान कर रहा है कि केदार जी हिन्दी के कवि क्यों और कैसे हैं? क्या सिर्फ इसलिये कि उन्होंने अपने लेखन के लिये हिन्दी भाषा का प्रयोग किया है? अपने हर बिम्ब में किसी अजनबी, भूगोल-इतिहास से परे, अश्वहीन, चुपचाप, दुबके हुए एकाकी आदमी की कविता; पूरी तरह से असम्पृक्त, विच्छिन्न, मौन, आत्म-केन्द्रित, अनाम शहर की अनाम गली के कूएं में रहती चुप्पी में फंसा या अनाम गांव की अनाम नदी के किनारे एकटक बैठा ‘झुम्मन मियां’। बनारस में भी ऐसा कि एक टांग पर खड़ा दूसरी टांग से बेखबर - जिसने गंगा को देखा है, जीया नहीं है।’’
इसके साथ ही हमने यह जोड़ा कि ‘‘रवीन्द्रनाथ के जीवनीकार प्रभात मुखोपाध्याय ने अपने पचीस साल खपा कर उनकी एक-एक रचना को उनके जीवनानुभवों से जोड़ कर दिखाया। उस जीवनी को रवीन्द्रनाथ के साथ ही उनके समय का एक पूरा इतिहास भी कहा जा सकता है। वह अपने देश-काल में पूरी तरह से रचे-बसे कवि की जीवनी थी। लेकिन केदार जी तो देश-काल की हर ठोस स्थानिकता से मुक्त है। देश और समाज का इतिहास तो दूर की बात, उनकी रचनाओं से तो शायद यह भी पता लगाना मुश्किल होगा कि वे किस देश के वासी है। इस अर्थ में सचमुच केदार जी आज के ‘सीमा-विहीन’ (borderless) विश्व के नागरिक, स्थानिकता की हर संकीर्णता से मुक्त सार्वदेशिक मानवीय अनुभूतियों के कवि हैं। हर प्रकार के आत्मेतर जुड़ाव-लगाव से मुक्त, आत्म के विराट, विपुल और अनंत संसार के प्राणी।
‘‘हिन्दी के कवि केदार जी सचमुच रामविलास शर्मा की हिन्दी जातीयता की काट का एक साक्षात उदाहरण है। जातीयता इतिहास-भूगोल से जुड़ा सच होता है, और केदारजी का साहित्य मुख्यत: उसके ही अस्वीकार का साहित्य है। साहित्य संस्थानों में बैठे ‘असीम के साधकों’ का सचमुच एक आदर्श कवि।’’
जाहिर है कि यह टिप्पणी कविता में अनुभूतियों की स्थानिकता और सार्वदेशिकता, अनुभवों की लौकिकता और अलौकिकता, सम्पृक्ति की विशिष्टता और साधारणता, रचना में इतिहास तथा भूगोल की उपादेयता से जुड़े ऐसे अनेक सवाल उठाती थी, जो गहरी छान-बीन की अपेक्षा रखते हैं और उस टिप्पणी से किसी न किसी कोने से तीव्र प्रतिवाद अथवा जबर्दस्त समर्थन की आवाज उठना हम स्वाभाविक समझते थे। लेकिन, इस मामले में दिखाई दी खामोशी स्वयं में हमारे साहित्य जगत की स्थिति पर, उसमें छायी उदासीनता और बौद्धिक आलस्य की सामान्य स्थिति को बताती है। फिर भी, चंद मित्रों की दबे स्वरों में उठी, ’केदार जी को फिर से पढ़ने’ के आग्रह सम्मान करते हुए ही, हमने एक बार के लिये उस टिप्पणी को फेसबुक से हटा लिया - इस निश्चय के साथ कि केदारजी की कविताओं को पढ़ कर एक पाठक के नाते अपनी अनुभूतियों को एक बार फिर टटोल कर देखूंगा कि कहीं हम रचना को समझने-ग्रहण करने के मामले में कुछ बुनियादी गल्तियां तो नहीं कर रहे हैं !
सौभाग्य से, इसीबीच मुझे केदारजी की उच्छवसित प्रशंसा करती हुई उदय प्रकाश की एक टिप्पणी पढ़ने को मिल गयी - ‘आखिर जीवन ही वाक्यार्थ है’। इसे ‘वाणीप्रकाशन समाचार’ में उनके संकलन ‘ईश्वर की आंख’ से लेकर पुनर्मुद्रित किया गया है। ‘ईश्वर की आंख’ संकलन हमारे पास है, उसमें संकलित टिप्पणियों को हमने पढ़ा भी था, लेकिन वह काफी पहले की बात थी। समय के इस लंबे अंतराल में उन सम्मोहक टिप्पणियों का प्रभाव शायद कुछ क्षीण होगया है और हमें यह याद भी नहीं था कि उसमें उदयप्रकाश की केदार जी पर भी एक टिप्पणी संकलित थी।
बहरहाल, अब ‘वाणीप्रकाशन समाचार’ में उसे ध्यान से पढ़ा और कहना न होगा, आश्चर्यजनक रूप से अपनी टिप्पणी में हमने केदारजी के बारे में जो तमाम बातें कही थी, - ‘सीमा-विहीन’ (borderless) विश्व के नागरिक, स्थानिकता की हर संकीर्णता से मुक्त सार्वदेशिक मानवीय अनुभूतियों के कवि’’ - और इसी आधार पर ‘उन्हें हर प्रकार के आत्मेतर जुड़ाव-लगाव से मुक्त, आत्म के विराट, विपुल और अनंत संसार का प्राणी, किसी भी जातीय अस्मिता की एक साक्षात काट’, उदय प्रकाश ने भी अपनी टिप्पणी में हूबहू उन्हीं बातों को अपने अंदाज में, लेकिन बिल्कुल भिन्न आशय के साथ कहा है। उनकी शब्दावली में - ‘स्थानिकता का संहारक’, ‘अनहद’ स्पेस का निवासी, उत्कट अनुभवों का द्रष्टा, अलौकिक की मूर्च्छना के मेटा-संसार का कवि।
उदयपकाश ने अपनी इस टिप्पणी में मुक्तिबोध का भी उल्लेख किया है और लिखा है कि ‘‘मुक्तिबोध की कविताएं अनुभव और विचारों के जिस उत्कट तनाव का दबाव पाठ के दौरान चेतना में पैदा करती है, उसमें हमारी इन्द्रियों का संवेदनात्मक अभिज्ञान अवसन्न-सा हो जाता हैं। उनकी कविताएं पाठक की ऐन्द्रिक संवेदना को ‘डीप फ्रीज’ की अवस्था में रखते हुए उसे मस्तिष्क और स्नायुओं की उन उत्पीडि़त गुहाओं में ले जाती हैं, जहां हम अपने संसार की विकट प्रतिछवियां देखते हैं।’’ उदयप्रकाश केदार जी के अनुभवों की तरह ही मुक्तिबोध के अनुभव को भी ‘अद्वितीय’ बताते हैं। ‘‘ केदारनाथ सिंह की कविताएं पाठ की प्रक्रिया में ऐन्द्रिक संवेदनाओं को निरंतर प्रदीप्त करती हुई, एक अति-इन्द्रिय विवेक के साथ अन्तत: उसी लोक में पहुंचा देती हैं।’’
उदय प्रकाश कहते हैं - ‘एक ही स्वर्ग या एक ही नरक’। लेकिन दोनों में समान क्योंकि दोनों ही ‘अद्वितीय’ !
कुल मिला कर, उदय प्रकाश के अनुसार अनुभूति की यह ‘अद्वितीयता’ ही वह चीज है जो दो बिल्कुल विपरीत छोरो पर खड़े दिखाई देने वाले केदारनाथ सिंह और मुक्तिबोध, दोनों को ही हमारे समय के अति-महत्वपूर्ण कवि का स्थान और गरिमा प्रदान करती है।
दरअसल, आधुनिक जीवन के संदर्भों में ऐसी ‘अद्वितीयता’, अलौकिक के सम्मोहन की चर्चा मात्र से ही हमारा ध्यान मार्क्सवादी विमर्श के उस समूचे प्रसंग की ओर चला जाता है जहां मार्क्स ने पण्य (माल) की जड़पूजा और उसके रहस्य (commodity fetishism) को लेकर चर्चा की है। ‘पूंजी’ के इससे जुड़े अंश में वे लिखते हैं - ‘‘पहली दृष्टि में तो पण्य एक बहुत ही मामूली सी आसानी से समझ में आने वाली चीज मालूम होती है, लेकिन गहराई में जाएं तो एक ऐसी अजीब से वस्तु जो अपने में न जाने कितनी आधिभौतिक सूक्ष्मताओं और धर्मशास्त्रीय बारीकियों को समेटे हुए है।’’
अपनी किताब ‘एक और ब्रह्मांड’ में मार्क्स के इसी कथन को उद्धृत करते हुए माल के बारे में इस लेखक ने जोड़ा था - ‘‘ईश्वर की तरह ही मनुष्य समाज की सृष्टि फिर भी मनुष्यों से स्वतंत्र मान लिया गया एक सर्व-व्यापी शाश्वत, अनादि सत्य।’’
गौर करें, मार्क्स द्वारा प्रयुक्त पदों - ‘आधिभौतिक सूक्ष्मताओं’ और ‘धर्मशास्त्रीय बारीकियों’ (metaphysical subtleties and theological niceties) को। मार्क्स इसी अंश में यह भी बताते हैं कि वैसे तो आदमी की जरूरतों को पूरा करने के कारण हर चीज का एक उपयोग मूल्य होता है और मानव श्रम के उत्पाद के नाते उसमें रहस्य की तरह की कोई चीज नहीं होती। लेकिन कोई भी चीज जब पण्य का रूप ले लेती है तो आश्चर्यजनक रूप से वह मानो किसी इंद्रियातीत वस्तु ( something transcendent) में बदल जाती है। मार्क्स के शब्दों में -‘‘ तब वह न सिर्फ अपने पैरों के बल खड़ी होती है, बल्कि दूसरे तमाम पण्यों के संदर्भ में सिर के बल खड़ी हो जाती है और अपने काठ के दिमाग से ऐसे-ऐसे अजीबोगरीब विचार निकालती है कि उनके सामने मृतात्माओं को बुलाने वाली प्रेत विद्या (’table-turning’ ) भी मात खा जाती है।
आइये, मार्क्स के इसी सूत्र को थाम कर हम यहां ‘स्मृतियों’ के बारे में चर्चा करते हैं। किसी भी रचनात्मक लेखन में उसकी केन्द्रीय भूमिका होती है। लेखक की तमाम जीवनानुभूतियां, अतीत में तब्दील होते हर क्षण का आभ्यांतरीकरण, स्मृतियां ही पुनर्जीवित होकर रचना में ढला करती है। स्मृतियां अर्थात आभ्यांतरित अतीत और इतिहास। कहा जा सकता है - रचना जगत का मूल पदार्थ। वाल्टर बेंजामिन के बारे में सब जानते हैं कि अपने अंतिम दिनों के लेखन में, खास तौर पर साहित्यिक आलोचना में उन्होंने ‘स्मृति तत्व’ (Eingedenken) का ही सबसे अधिक प्रयोग किया था। जैसे, उनका कहना था कि ‘‘रचना में ‘स्मृति’ के आयामों को भाष्य-टीका पद्धति से व्याख्यायित नहीं किया जा सकता, न इसे गैर-धर्मशास्त्रीय नजरिये से ही समझा जा सकता है।’’
बेंजामिन का यह कथन वैसा ही है जैसा मार्क्स पण्य के बारे में कहते हैं कि ‘‘मनुष्य के श्रम से पैदा होने वाली वस्तुएं पण्य ऐसी सामाजिक वस्तुएं बन जाती हैं जिनके गुण इंद्रियगम्य भी है और इंद्रियातीत भी।’’ इसी आधार पर, मार्क्स ने कहा था कि ‘‘यदि इसकी (पण्य की) उपमा खोजनी है, तो हमें धार्मिक दुनिया के कुहासे से ढंके क्षेत्रों में प्रवेश करना होगा। उस दुनिया में मानव-मस्तिष्क से उत्पन्न कल्पनाएं स्वतंत्र और जीवित प्राणियों जैसी प्रतीत होती है, जो आपस में और मनुष्य जाति के साथ भी संबंध स्थापित करती रहती है। पण्यों की दुनिया में मनुष्यों के हाथों से उत्पन्न होने वाली वस्तुएं भी यही करती हैं।’’ अपनी कृति ‘पवित्र परिवार’ में मार्क्स इसी सूत्र को ‘विचारों’ के क्षेत्र पर लागू करते हुए कहते हैं - जीवन में जैसे कायिक श्रम का कायांतर मशीन में होता है, वैसे ही आलोचना में विचार में होता है।
जीवन के यथार्थ का इन्द्रियातीत स्मृतियों में आभ्यांतरण और फिर रचना में उन स्मृतियों का पुनर्जीवन - अब आसानी से समझा जा सकता है, क्यों बेंजामिन इस पूरे प्रसंग को गैर-धर्मशास्त्रीय नजरिये से देखने से मना करते हैं, क्योंकि अन्यथा इसके रहस्य को, इस अनुभव के अनोखेपन को देख पाना असंभव सा होगा !
इसके अलावा, बेंजामिन और एक चीज पर जोर देते हैं - इतिहास अर्थात अतीत अर्थात स्मृतियों को किसी समग्र ढांचे में देखने के बजाय टुकड़ों-टुकड़ों में देखा जाना चाहिये। जैसे स्वप्नों की व्याख्या के संदर्भ में फ्रायड का कहना था कि इसके लिये पूरे सपने को नहीं, उसके मूल तत्व के अंशों को देखना चाहिए।
‘स्मृतियों’ को किसी ऐतिहासिक निरंतरता की समग्रता में, युग के पूरे परिप्रेक्ष्य में देखने के बजाय टुकड़ा-टुकड़ा अतीत के रूप में देखने की बात करके बेंजामिन रचनाकार के मूल तत्व को पहचानने की, रचना की व्याख्या की एक पद्धति की ओर संकेत करते हैं। कहना न होगा, स्मृतियों के बारे में बेंजामिन के इन कथन से कविता और उसके बिंबों की भाषा की बेहद उपयोगी कुंजी को पाया जा सकता है।
मगर फिर भी यह प्रश्न शेष रह जाता है कि ‘स्मृतियों’ के धर्मशास्त्रीय आयामों, रहस्यात्मक और अलौकिक आयामों को देखने का यह नजरिया ऐतिहासिक भौतिकवाद के लिये कैसे किसी काम का हो सकता है ? जैसे पण्य का रहस्यमय इन्द्रियातीत रूपांतरण और पूंजी के आत्म-विस्तार की कहानी किसी न किसी प्रकार से ब्रह्मांड के अविराम विस्तार की एक रहस्यमयी स्थिति को प्रतिबिंबित करते प्रतीत होते हैं, उसी प्रकार स्मृतियों के मामले में भी एक प्रकार का धर्मशास्त्रीय, रहस्यवादी प्रकार का दृष्टिकोण क्या रचनात्मक परिघटना के बारे में किसी समग्र वैज्ञानिक सोच और पद्धति के लिये मददगार हो सकता है ?
कहना न होगा, इस प्रश्न के जवाब का सूत्र भी हमें मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवादी चिंतन से ही मिलता है। मार्क्स ने यह कहने के बावजूद कि ‘पण्यों की दुनिया में प्रवेश के लिये हमें धार्मिक दुनिया के कुहासे से ढंके क्षेत्रों में प्रवेश करना होगा’, अंत में यह भी बताया कि पूंजी की दुनिया का यह कथित निरंतर विस्तारवान खोल अपने अन्तर्विरोधों के कारण ही अंत में फट जायेगा। अर्थात, सच के संधान में उनकी नजर इतिहास के नैरंतर्य पर नहीं, उसकी धर्मशास्त्रीय सनातनता और अनश्वरता पर नहीं, बल्कि उसमें पड़ने वाले विध्न और दरार पर थी, खोल के फटने और उसे फाड़ने के प्रयत्नों पर थी। प्रशांत, प्रवहमान सनातनता और निरंतरता की टूटती कडि़यों में ही उन्हें मानव की मुक्ति के तमाम प्रयत्नों की गाथाएं दिखाई दी थी। मार्क्स ने ‘पूंजी’ में पूंजीवादी समाज के ऐतिहासिक विकास का जो आख्यान पेश किया था, उसे देखते हुए ग्राम्शी ने रूस की नवंबर क्रांति को मार्क्स की ‘पूंजी’ के खिलाफ क्रांति कहा, और सच कहा जाएं तो यही गाम्शी का नवंबर क्रांति के बारे में मार्क्सवाद-सम्मत विश्लेषण था, ऐतिहासिक भौतिकवादी विश्लेषण।
बहरहाल, स्मृतियों के संदर्भ में, बेंजामिन ने इतिहास की निरंतरता को, इतिहासवाद को अपने में खोखला और बंद ढांचा बताया था। उनके अनुसार, ऐतिहासिक निरंतरता या इतिहासवाद विजेताओं तक सीमित, बंद, सरलरेखीय, घटनाओं का अबाध प्रवाह और उसका आख्यान है; इतिहास की सनातनता ‘प्रगति’ की एक ऐसी बंद और गुंथी हुई गाथा है जिसमें शासकों की अभी तक की कहानी कही जाती है। इतिहास के इस ढांचे में विफल और पराजित प्रयत्नों का कोई स्थान नहीं होता। इसीलिये बेंजामिन मानते थे कि टुकड़ों-टुकड़ों में आभ्यांतरित अतीत की स्मृतियां खोखले अविरल, सरलरेखीय इतिहास की तुलना में कहीं ज्यादा भरी-पूरी और ठोस होती है। इन टुकड़ा-टुकड़ा स्मृतियों में ही उत्पीडि़त जनों की आशा-आकांक्षाओं, उनकी अनुभूतियों, उनके सपनों और उनके कर्मोद्दम का ठोस यथार्थ निहित होता है। उनका कहना था कि मनुष्य नहीं, संघर्षरत मनुष्य, उत्पीडि़त इंसान समस्त मानवीय संवेदनाओं और ज्ञान का खजाना है। निरंतरता में विध्न ही ऐतिहासिक भौतिकवाद है और इन अन्तरालों के केन्द्र में उत्पीडि़त, संघर्षरत, कर्मरत इंसान है। जो सनातन प्रवहमान इतिहास आदमी के प्रयत्नों की विफलताओं को स्थान नहीं देता वह अंदर से खोखला होता है।
स्मृति, इतिहास, धर्मशास्त्र, अनुभव की अलौकिकता से जुड़े इस विमर्श के संदर्भ में अब यदि हम पुन: अपने मूल विषय, केदारनाथ सिंह पर आते हैं तो मुझे लगता है, हमने उनपर अपनी टिप्पणी में जो बातें कही और उदयप्रकाश ने उनके संदर्भ में जिसप्रकार मुक्तिबोध को याद किया, उन सब बातों का मर्म आईने की तरह साफ दिखाई देने लगेगा। केदार जी के बारे में हम दो विरोधी कोणों से एक ही बात को पुष्ट करते हुए दिखाई देने लगेंगे।
प्रभुत्वशालियों का इतिहासकार महान उपलब्धियों का सकारात्मक आख्यान कहता है। लेकिन ऐतिहासिक भौतिकवाद इस आख्यान से एक सतर्क दूरी रखता है। निश्चित तौर पर वह उत्पीडि़त, संघर्षशील और कर्मरत मनुष्य के जिस सांस्कृतिक खजाने की पड़ताल करता है, उसकी जड़ें ऐसी तमाम चीजों में होती है जिनके बारे में बिना किसी आतंक या विक्षोभ के सोचा ही नहीं जा सकता है। इसमें अनिवार्य तौर पर तनाव, दुख, डर और यातना होते हैं। बेंजामिन कहते हैं कि ‘‘सभ्यता का ऐसा कोई दस्तावेज नहीं है जो साथ ही साथ बर्बरता का भी दस्तावेज न हो।’’ और इसी मानदंड पर हम देखते हैं कि उदयप्रकाश ने बिल्कुल सही मुक्तिबोध की चर्चा करते हुए लिखा है - ‘‘मुक्तिबोध की कविताएं अनुभव और विचारों के जिस उत्कट तनाव का दबाव पाठ के दौरान चेतना में पैदा करती है, उसमें हमारी इन्द्रियों का संवेदनात्मक अभिज्ञान अवसन्न-सा हो जाता हैं। उनकी कविताएं पाठक की ऐन्द्रिक संवेदना को ‘डीप फ्रीज’ की अवस्था में रखते हुए उसे मस्तिष्क और स्नायुओं की उन उत्पीडि़त गुहाओं में ले जाती हैं, जहां हम अपने संसार की विकट प्रतिछवियां देखते हैं।’’ उदयप्रकाश के शब्दों में यह एक नरक है।
ठीक इसके विपरीत, केदार जी का लेखन अपनी ‘अद्वितीयता’ में एक ‘स्वर्ग’ है। वह स्वर्ग है आत्मलीनता का, इसीलिये सरलरेखीय इतिहास की भांति खोखला भी है, जिसमें विफल प्रयत्नों का, संघर्षशील उत्पीडि़त आदमी के ठोस अनुभवों का, उनके जीवन के हाहाकार, और कठोर परिश्रम का प्रवेश निषिद्ध है।
‘गांव आने पर’ किसान का यह बेटा गांव वालों से मिल कर सोचता है :
‘‘क्या करूँ मैं?
क्या करूँ, क्या करूँ कि लगे
कि मैं इन्हीं में से हूँ
इन्हीं का हूँ
कि यही है मेरे लोग
जिनका मैं दम भरता हूँ कविता में
और यही यही जो मुझे कभी नहीं पढ़ेंगे
छू लूँ किसी को?
लिपट जाऊँ किसी से
मिलूँ
पर किस तरह मिलूँ
कि बस मैं ही मिलूँ
और दिल्ली न आए बीच में’’
इस कविता का अंत होता है दिल्ली-बिल्ली के अनुप्रास पर टिकी निछक कौतुक भरी पंक्तियों से -
‘‘क्या है कोई उपाय
कि आदमी सही साबुत निकल जाए गली से
और बिल्ली न आए बीच में’’ (‘गांव आने पर’ कविता से)
दिल्ली का प्रोफेसर ‘ठेठ देहाती कार्यकर्ता’ के गंवारू अतिक्रमण पर नि:संकोच अपनी झुंझलाहट जाहिर करता है, उसकी उपस्थिति भर को किसी भूकंप से कम विध्वंसक नहीं मानता और उसके चले जाने पर शुक्र मनाता है :
‘‘वह साइकिल दनदनाता चला आता है/...मैं झुंझला उठता हूं/...परेशान होजाता हूं/...उसकी भूकम्प सी चुप्पी/मुझे अस्तव्यस्त कर देती है/...वह उठता है/ और दरवाजों को ठेलकर/चला जाता है बाहर/मेरी उम्मीद/उसका पीछा नहीं करती’’। (एक ठेठ देहाती कार्यकर्ता के प्रति)
देखिये ‘पानी में घिरे हुए लोग’ कविता में बाढ़-पीडि़तों की स्थिति के सुरम्य चित्र, जिनका अंत इन महीन, ठंडी पंक्तियों से होता है:
‘‘फिर उस मद्धिम रोशनी में
पानी की आंखों में
आंखे डाले हुए
वे रात भर खड़े रहते हैं
पानी के सामने
पानी की तरफ
पानी के खिलाफ
सिर्फ उनके अन्दर
अरार की तरह
हर बार कुछ टूटता है
हर बार पानी में कुछ गिरता है
छपाक्...छपाक्’’
जो भी हो, उदयप्रकाश केदारनाथ सिंह और मुक्तिबोध के इन दोनों विपरीत ध्रुवों को जिस एक धुरी पर एक साथ रखते हैं, वह है ‘अद्वितीयता’ की धुरी। अद्वितीयता - उनके अनुसार, रचना का व्याकरण। लेकिन यह व्याकरण ही तो इतिहास का वह बंद रूप है जिससे एकसूत्रता, नियम और विधि-विधान, कर्मकांडों और भक्ति की अलौकिकता को साधा जाता है। वे साफ कहते भी है कि ‘‘रचना एक अकर्म है, जैसे लिखना एक अकर्मक क्रिया।’’ व्याकरण-सम्मत लेखन की तरफदारी और अकर्मकता की झंडाबरदारी - बिल्कुल सही और उचित संगति है! मगर, संगीत के उस्तादों का क्षेत्र तो रागों के बंधे हुए घेरे के बाहर माना जाता है। पवित्रताओं की रक्षा तो सामुदायिक धार्मिक दायित्व है। और ऐसी सामुदायिक क्रियाशीलता अक्सर कर्मकांडों के निजी रोमांच में तब्दील होती है जबकि श्रेष्ठ रचना का स्थान इस वृत्त से बाहर होकर भी सामाजिक स्थितियों में उत्पन्न गतिरोधों के अधिक नजदीक होता है। व्याकरण की संपूर्णता के वृत्त में है खोखलापन और उसके बाहर है सामाजिक गतिरोध का ठोस सच। केदार जी के रूपक में ही ‘टूटा हुआ ट्रक‘ - ‘‘अगर इस समय वो वहां न होता/तो मेरे लिए कितना मुश्किल था पहचानना/ कि यह मेरा शहर है/ और ये मेरे लोग/ और वो वो/ मेरा घर’’।
उदयप्रकाश अपनी टिप्पणी के शुरू में ही केदारजी की कविताओं की अद्वितीयता को बताने के लिये उनकी अलौकिकता की उस सिद्धी का उल्लेख करते हैं जिसमें रचनाकार ‘‘ किसी उदास गिरगिट से बात कर सकता है, कौंए से पौराणिक आख्यान सुनते हुए उसे किसी महाकाव्य में बदल सकता है, गरुड़ से स्वर्ग के रहस्य पूछ सकता है’’।
केदारजी की कविताओं में ऐसे कई अनोखे कहे जा सके, वैसे प्रसंग आते हैं। जैसे उनके संकलन ‘उत्तर कबीर’ की पहली कविता ‘पोस्टकार्ड’ की पंक्तियां हैं -
‘‘इसपर लिखा जा सकता है कुछ भी
बस, एक ही शर्त है
कि जो लिखा जाय
पोस्टकार्ड की स्वरलिपि में
लिखा जाय
पोस्टकार्ड की स्वरलिपि
कबूतरों की स्वरलिपि है
असल में यह कबूतरों की किसी भूली हुई
प्रजाति का है
उससे टूट कर गिरा हुआ
एक पुरातन डैना’’
उनकी रचनाओं से ऐसे और भी अनेक असंभव, अलौकिक जगत के बिंब छितरे हुए हैं।
इस पूरे प्रसंग में अनायास ही हमें बांग्ला के सुकुमार राय और उनके एब्सर्ड कहे जाने वाले लेखन की याद आ रही है। उनकी रचनाओं के एक संकलन का शीर्षक ही है - आबोल ताबोल (अंट शंट)। सत्यजीत राय ने अपने पिता की इन रचनाओं का एक अंग्रेजी संकलन तैयार किया था, जिसका शीर्षक था - Nonsense Rhymes। कहते हैं कि रवीन्द्रनाथ ने भी सुकुमार राय से प्रेरित होकर ऐसी ही कुछ नानसेंस रचनाओं की कोशिश की थी, लेकिन उन्होंने जल्द ही हथियार डाल दिये। उन्होंने कहा - ‘‘मैं और कुछ भी लिख सकता हूं लेकिन सुकुमार राय जैसा कभी नहीं लिख सकता।’’
रवीन्द्रनाथ ने यह कह कर सुकुमार राय को अस्वीकारा नहीं था। बल्कि उल्टे, यथार्थ के विद्रुपीकरण की उनकी अद्भुत प्रतिभा को खुले मन से स्वीकृति दी थी। सुकुमार राय के प्रति रवीन्द्रनाथ की यह स्वीकृति और आग्रहशीलता का भाव लगभग वैसा ही था जैसा जीवन की अंतिम घडि़यों में उनका आग्रह मिट्टी से जुड़े आदमी के संघर्षों की कथा कहने वाले कवि की तलाश का था।
सुकुमार राय की एक क्लासिक रचना है - ‘ह ज ब र ल’ जिसका हिंदी में लाल्टू जी ने ‘ह य ब र ल’ शीर्षक से अनुवाद किया है। मैं यहां उसके कुछ अंश को उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं। इसकी शुरूआत इस प्रकार है :
‘‘बड़ी गर्मी है। पेड़ की छाया में मजे से लेटी हुई हूं, फिर भी पसीने से परेशान हो गई हूं। घास पर रुमाल रखा था, जैसे ही पसीना पोंछने के लिए उसे उठाने गई, रूमाल ने कहा, ‘‘म्याऊँ!’’
कैसी आफत है! रुमाल म्याऊँ क्यों कहता है?
आंख खुली और देखा तो पाया कि रुमाल अब रुमाल नहीं, एक मोटा सा गाढ़े लाल रंग का बिल्ला मूँछे फैलाए टुकुर टुकुर मेरी ओर देख रहा है।
मैं बोली, ‘‘अरे यार! था रुमाल, बन गया बिड़ाल।’’
बिल्ला झट से बोल पड़ा, ‘‘इसमें क्या परेशानी है? जो अंडा था, उससे क्वांक वांक बत्तख बना। ऐसा तो हमेशा होता रहता है।’’
मैंने जरा सोचकर कहा, ‘‘तो अब तुम्हें किस नाम से पुकारूँ? तुम तो असल में बिल्ले नहीं हो, तुम तो रुमाल हो।’’
बिल्ला बोला, ‘‘बिल्ला कह सकती हो, रुमाल भी कह सकती हो, चंद्रबिंदु भी कह सकती हो।’’
मैं बोली, ‘‘चंद्रबिंदु क्यों?’’
बिल्ले ने सुनकर कहा, ‘‘यह भी नहीं जाना ?’’ कहकर एक आंख मींचे खी खी कर भद्दी सी हंसी हंसने लगा। मैं बड़ा अटपटा महसूस करने लगी। लगा जैसे इस ‘‘चंद्रबिंदु’’ का मतलब मुझे समझना चाहिए था। इसीलिए घबराकर जल्दबाजी में कह दिया, ‘‘ओ हाँ हाँ, समझ गई।’’
बिल्ले ने खुश होकर कहा, ‘‘हाँ, यह तो साफ बात है - चंद्रबिंदु का च, बिल्ले का श और रुमाल का मा मिल कर बने चश्मा। क्यों, ठीक है न?’’
मुझे कुछ भी समझ न आया, पर डर था कि कहीं बिल्ला फिर से अपनी भद्दी हँसी न हँस पड़े। इसलिए उसकी हाँ में हाँ मिलाती गई।’’...
‘‘धत्, मेरी उम्र है आठ साल तीन महीने, और यह कहता है सैंतीस।’’
बुड्ढे ने थोड़ी देर बाद जाने क्या सोचकर पूछा, ‘‘तो बढ़ती की है या घटती की?’’
मैं बोली, ‘‘मतलब?’’
बुड्ढा बोला, ‘‘मैंने कहा उम्र बढ़ रही है या कम हो रही है?’’
मैं बोली,‘‘उम्र कम कैसे होगी?’’
बुड्ढा बोला, ‘‘तो क्या केवल बढ़ती ही रहेगी? तब तो मेरी छुट्टी होगई होती। ...चालीस साल पूरे होते ही हम उम्र का चक्का घुमा देते हैं। फिर इकतालीस, बयालीस नहीं - उनतालीस, अड़तीस, सैंतीस - इस तरह उम्र कम होती रहती है। मेरी उम्र कितनी बार चढ़ी और कितनी बार उतरी।’’...
‘‘उस पशु ने कहा, ‘‘क्यों हंस रहा था सुनोगी ? मान लो धरती चपटी होती और सारा पानी फैल कर जमीन पर आ जाता और जमीन की मिट्टी सब घुल कर चप चप कीचड़ हो जाती और लोग सभी उसमें धपा धप फिसल फिसल गिरते रहते तो ...हो, हो, हा, हा -’’
मनुष्य, बिल्ला, कौंवा, उल्लू, बकरा, चमगादड़ आदि आदि को लेकर लिखा गया यह एक अनोखा वृत्तांत है। इसमें उल्लू जज की कुर्सी पर बैठा है तो मगरमच्छ वकील है। और, सब कुछ उटपटांग ! अंट शंट!
मगर, मजे की बात है कि इस नानसेंस में भी एक भारी सेंस था। यहां इनके उल्लेख का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि यथार्थ का ऐसा विद्रूपीकरण अद्वितीयता की सिद्ध अलौकिकता से बहुत ज्यादा मानीखेज है। यह इतिहास के, व्याकरण के, सिद्धता के बंद ढांचे के बाहर का प्रयत्न है। आत्म से बाहर के व्यापक संसार का सच और उसका विद्रूप है। उदयप्रकाश की शब्दावली में यह भी एक ‘अतिन्द्रिय वाक् चेष्टा’ है। लेकिन शासकों के उस व्याकरण की सीमाओं का अतिक्रमण करती हुई ‘वाक् चेष्टा’ जो उदयप्रकाश की शब्दावली में सभी ‘प्रकट विपर्यासों को व्यर्थ’ करके सार्वजनीयता की जमीन तैयार करती है।
उदयप्रकाश ने केदारजी की प्रशंसा में जिस सनातनपंथी सार्वजनीयता का प्रभामंडल तैयार किया है, जो ‘’प्रकट विपर्यासों को व्यर्थ करने वाले व्याकरण’’ पर टिका है, जो स्थानिकता में जन्म लेकर उसी में मर-खप जाने वाली आलोचना की उस बेकार भाषा को दुत्कारता है जिसकी ‘‘जहां निर्मिति होती है, ठीक वहीं उसका विखंडन और विसर्जन भी होता है’’, केदार जी की रचनाओं के हमारे विश्लेषण का सार भी बिल्कुल यही है। फर्क सिर्फ इतना है कि उदयप्रकाश जिस चीज का जश्न मना रहे है, हम उसी का विरोध करते हैं, उसे तंतहीन और खोखला मानते हैं। उदयप्रकाश जिस चीज के लिये उन्हें राजसिंहासन पर बैठा रहे हैं, उसी के लिये हम उन्हें अभियुक्त के कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। मुक्तिबोध की ‘संसार की विकट प्रतिछवियों’ में हम मनुष्य के संघर्षों का भरपूर सौन्दर्य देखते हैं और केदारजी के ‘अति-इन्द्रिय विवेक’ में हमें आत्म-मुग्धता की खोखली तन्मयता दिखाई देती है।
हम समझते हैं, रचना के अलौकिक अनुभवों के संदर्भ में ऊपर की गयी इतनी लंबी इतिहास और स्मृति-चर्चा की प्रासंगिकता अब कहीं ज्यादा साफ होगयी होगी। यही सच है कि अतीत का, स्मृतियों का ढांचा जितना खुला होता है, उत्पीडि़तों की मुक्ति की आकांक्षा के लिये उतना ही स्थान बचा रहता है। व्यापक जन-समुदाय उस रचनात्मक प्रयत्न के साथ उतना ही गहरा लगाव भी महसूस करता है। वह सम्पृक्ति की भाषा होती है। इसे दूसरे शब्दों में कहें तो अतीत में भविष्य के जितने अधिक आयाम निहित होते हैं, मुक्तिकामी इंसान उतना ही अधिक उसे अपनाता है। इसीलिये ‘स्थानिकता के संहार के साथ अनहद स्पेस के अलौकिक के जादू की मूर्च्छना में तो ‘उत्पीडि़त प्राणी की आह, हृदयहीन विश्व का हृदय’ भी नहीं होते, जैसा कि मार्क्स ने धर्म के बारे में कहा था। यहां तो शुद्ध अफीम का नशा ही नशा है। धर्म को एक कोरा भ्रम मानने वाले मार्क्स कहते हैं कि ‘‘जीवन में भ्रमों का नाश उस वक्त तक नहीं किया जा सकता जब तक कि मानव जीवन की उन परिस्थितियों को नहीं बदला जाता जिन्हें भ्रमों की जरूरत होती है।’’ स्थानिकता का संहार वैसे ही आदमी के अस्तित्व का लोप है, ऊपर से अनहद की मूर्च्छना ! भ्रम के भी अधिष्ठान के लिये कोई जगह ही नहीं बचती। रह जाता है एक प्रकार का कोरा कर्मकांडी रोमांच, जिसमें जीवन की परिस्थिति में बदलाव के किसी भी प्रयत्न का स्थान कहां !
जाहिर है, ऐसी शून्यता में ही जादूगर के सम्मोहनीकरण के मंच पर आईनों के प्रतिबिंबों से तैयार किये गये अदृश्य, पारदर्शी खोखर में छिपे बैठे सनातनता के खिलाड़ी की डोर से चालित है उदयप्रकाश के केदारनाथ सिंह - ‘जायंट व्हील’ में बैठे हुए डरे हुए बच्चे पर हिन्दी कविता की धरती पर चलने वाले किसी परमात्मा के अलौकिक वरद् हस्त की तरह!
अब बताइयें, वे नहीं तो और कौन होंगे असीम-संधानी ‘साहित्याधिकारियों’ की सर्वकाल की पहली पसंद, साहित्य-पुरस्कारों का सबसे उत्तम पात्र - निष्पाप, निरापद, अहिंस्र, विनत, निष्पृह, असंपृक्त, बिल्कुल ठंडा ! इसीलिये उनकी झोली में ढेर सारे दूसरे पुरस्कारों की तरह ही ज्ञानपीठ पुरस्कार का टपकना, किसी भी प्राकृतिक घटना जैसा ही एक सार्वदेशिक, पूर्व-निर्धारित सच है !
बहरहाल, इतनी सारी चर्चा के बावजूद इस प्रसंग को हम यहीं पर, किसी बंद किताब की तरह खत्म करना नहीं चाहते। हम नहीं चाहते कि इतिहास और स्मृतियों के जिस बंद और सनातन ढांचे पर हमने ऊपर इतनी तोहमतें लगाई हैं, रचना को देखने-परखने का वैसा ही फिर कोई और एक बंद ढांचा तैयार हो, वह भले ही ऐतिहासिक भौतिकवाद के नाम पर ही क्यों न हो! इसमें कोई शक नहीं है कि इतिहास की सनातनता में डाले जाने वाले विघ्न में ही मनुष्यता की तमाम संभावनाएं निहित है। सालों पहले इसी लेखक ने उदयप्रकाश के पक्ष में राजेन्द्र यादव को लिखे अपने पत्र में काल के सरल रेखीय सीधे प्रवाह और उसके वर्तुल प्रवाह के बीच फर्क करते हुए वर्तुल प्रवाह में फिर-फिर लौटते संघर्षरत आदमी की स्थिति को पहचानने की बात कही थी। फिर भी, इस विषय में हमारे किंचित संशय की भी ठोस वजहें हैं। स्मृति, इतिहास, अतीत और रचनात्मक उपक्रम की हमारी उपरोक्त चर्चा के केंद्र का एक बड़ा पहलू है – मार्क्स का यह कथन कि ‘यह खोल फट जायेगा’। पण्य के रहस्यमय जगत में पूंजी के अविराम आत्म-विस्तार से बन रहा खोल फट जायेगा। लेकिन, अभी के विश्व इतिहास की मूल समस्या यही है कि यह खोल फट नहीं रहा है। हमने अपनी किताब ‘एक और ब्रह्मांड’ के बिल्कुल अंत में एक टिप्पणी की है - ‘‘पूंजी के द्वंद्वात्मक विवेचन की दीर्घ यात्रा के अंत में जैसे थक कर ही मार्क्स ने कहा था कि इस ब्रह्मांड का खोल फट जायेगा। लेकिन खोल को फाड़ना तो दूर, उसकी रूमानी कल्पनाओं का भी आज तो टोटा पड़ रहा है।’’
यह भी अपने में एक बहुत बड़ा और विकट सत्य है। इसीलिये केदारजी की तरह की सारहीन, कर्मकांडी सार्वजनियता और सार्वदेशिकता की, ‘इतिहास के अंत’ की तरह की उक्तियों की गूंज-अनुगूंज बार-बार सुनाई देगी। फिर भी, इस पूरे व्यापार में निहित सबसे बड़ी दर्शनशास्त्रीय समस्या यह है कि जो ऐतिहासिक भौतिकवाद अपनी सेवा में धर्मशास्त्रीय रहस्यवाद का इस्तेमाल करता है, उसके इस खेल में कौन किसके हाथ का कठपुतला बन रहा है, यह तय कर पाना मुश्किल दिखाई देने लगता है। क्या ऐतिहासिक भौतिकवाद की ओट में ही उस धर्मशास्त्रीय रहस्यवाद को अपना खेल खेलने का मौका नहीं मिल रहा है, जो अन्यथा आज के समय में अपने असली रूप में सामने आने से शर्माता है। आशा है हमारे संकेत साफ हैं।
राह-ए-दूर-ए-इश्क से, रोता है क्या
आगे आगे देखिये होता है क्या
इसीलिये सम्मोहनों के हर मायावी खेल पर पैनी निगाह जरूर रखी जानी चाहिए। अन्यथा जगत प्रतीति के मिथ्यात्व में विपर्यासों का खतरा सबसे ज्यादा है। स्वयं ऐतिहासिक भौतिकवाद के नैरंतर्य का बंद ढांचा!
अंत में और एक बात से हम अपनी इस टिप्पणी को खत्म करेंगे। हमने इस पूरे लेख में अपनी बात कहने के लिये उदयप्रकाश की टिप्पणी को आधार बनाया है। केदार जी पर उदयप्रकाश की टिप्पणी की सच्चाई को हम समझ सकते हैं। हममे से अधिकांश लेखक अक्सर मित्रों और परिचितों को लेकर इसीप्रकार उच्छवसित सा कुछ करते रहते हैं। लेकिन सच कहा जाए तो उदयप्रकाश की अपनी पहचान इसप्रकार की, अखबारी स्तंभों के लिये लिखी जाने वाली टिप्पणियों में नहीं, उनकी कहानियों और कविताओं में हैं। हमें यह कहने में जरा भी हिचक नहीं है कि उदयप्रकाश का लेखक उसी प्रकार केदारनाथ सिंह का बिल्कुल विपरीत ध्रुव है जैसे मुक्तिबोध है, जिसकी चर्चा हमने ऊपर की है। इति।
(यह लेख 'लहक ' पत्रिका के अगले अंक में प्रकाशित होगा )
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