गुरुवार, 31 जुलाई 2014

नवारुण भट्टाचार्य




बांग्ला कवि नवारुण भट्टाचार्य नहीं रहे। मात्र 66 साल की उम्र में आमाशय के कैंसर से उनकी मृत्यु होगयी। उनकी मां महाश्वेता देवी जितना न भी हो, लेकिन फिर भी हिन्दी के साहित्यिक पाठकों के लिये यह कोई अपरिचित नाम नहीं रहा है। उनकी कविताओं का हिन्दी में अनुवाद हो चुका है और प्रशंसित भी हुई है। 
बांग्ला में रवीन्द्रनाथ परवर्ती जीवनानंद दास, सुकान्त भट्टाचार्य, सुभाष मुखोपाध्याय और शंखो घोष के बाद की शक्ति चट्टोपाध्याय, सुनील गंगोपाध्याय से लेकर जय गोस्वामी आदि की पीढ़ी को लांघ कर फिर एक बार सुकांत के साथ अपनी कविता और लेखनी के तारों को जोड़ने की उत्कट कोशिश का नाम है - नवारुण भट्टाचार्य।  कविता का अपना एक अलग ही व्याकरण रचने वाले, कुछ लोगों की नजर में अपने ढंग के अराजकतावादी कवि। उनकी प्रसिद्ध कविता ‘यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश’ अनायास ही किसी को भी सुकांत की कविताओं की याद दिला देती है। 
अन्य अनेक चीजों की तरह ही नवारुण की कविताओं और गद्य को हमने कायदे से नहीं पढ़ा है। लेकिन उनके एक उपन्यास ‘कांगाल माल्साट’ पर सुमन मुखोपाध्याय की फिल्म देखी थी और उसकी एक समीक्षा भी लिखी थी। 
नवारुण भट्टाचार्य की यह असमय मृत्यु बांग्ला साहित्य के लिये एक बडी क्षति है। उनकी स्मृतियों के प्रति आंतरिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हम उनकी मां, पत्नी, बेटे और सभी परिजनों के प्रति अपनी संवेदना प्रेषित करते हैं। 
यहां हम मित्रों के लिये उनकी कविता ‘यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश’ और उनके उपन्यास पर बनी फिल्म की अपनी समीक्षा दे रहे हैं : 

नवारुण भट्टाचार्य
‘यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश’

जो पिता अपने बेटे की लाश की शिनाख़्त करने से डरे
मुझे घृणा है उससे
जो भाई अब भी निर्लज्ज और सहज है
मुझे घृणा है उससे
जो शिक्षक बुद्धिजीवी, कवि, किरानी
दिन-दहाड़े हुई इस हत्या का 
प्रतिशोध नहीं चाहता
मुझे घृणा है उससे

चेतना की बाट जोह रहे हैं आठ शव1
मैं हतप्रभ हुआ जा रहा हूँ
आठ जोड़ा खुली आँखें मुझे घूरती हैं नींद में
मैं चीख़ उठता हूँ
वे मुझे बुलाती हैं समय- असमय ,बाग में
मैं पागल हो जाऊँगा
आत्म-हत्या कर लूँगा
जो मन में आए करूँगा

यही समय है कविता लिखने का
इश्तिहार पर,दीवार पर स्टेंसिल पर
अपने ख़ून से, आँसुओं से हड्डियों से कोलाज शैली में
अभी लिखी जा सकती है कविता
तीव्रतम यंत्रणा से क्षत-विक्षत मुँह से
आतंक के रू-ब-रू वैन की झुलसाने वाली हेड लाइट पर आँखें गड़ाए
अभी फेंकी जा सकती है कविता
38 बोर पिस्तौल या और जो कुछ हो हत्यारों के पास
उन सबको दरकिनार कर
अभी पढ़ी जा सकती है कविता

लॉक-अप के पथरीले हिमकक्ष में
चीर-फाड़ के लिए जलाए हुए पेट्रोमैक्स की रोशनी को कँपाते हुए
हत्यारों द्वारा संचालित न्यायालय में
झूठ अशिक्षा के विद्यालय में
शोषण और त्रास के राजतंत्र के भीतर
सामरिक असामरिक कर्णधारों के सीने में
कविता का प्रतिवाद गूँजने दो
बांग्लादेश के कवि भी तैयार रहें लोर्का की तरह
दम घोंट कर हत्या हो लाश गुम जाये
स्टेनगन की गोलियों से बदन छिल जाये-तैयार रहें
तब भी कविता के गाँवों से 
कविता के शहर को घेरना बहुत ज़रूरी है


यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश
यह जल्लादों का उल्लास-मंच नहीं है मेरा देश
यह विस्तीर्ण शमशान नहीं है मेरा देश
यह रक्त रंजित कसाईघर नहीं है मेरा देश

मैं छीन लाऊँगा अपने देश को
सीने मेछिपा लूँगा कुहासे से भीगी कांस-संध्या और विसर्जन
शरीर के चारों ओर जुगनुओं की कतार
या पहाड़-पहाड़ झूम खीती
अनगिनत हृदय,हरियाली,रूपकथा,फूल-नारी-नदी
एक-एक तारे का नाम लूँगा
डोलती हुई हवा,धूप के नीचे चमकती मछली की आँख जैसा ताल
प्रेम जिससे मैं जन्म से छिटका हूँ कई प्रकाश-वर्ष दूर
उसे भी बुलाउँगा पास क्रांति के उत्सव के दिन।

हज़ारों वाट की चमकती रोशनी आँखों में फेंक रात-दिन जिरह
नहीं मानती
नाख़ूनों में सुई बर्फ़ की सिल पर लिटाना
नहीं मानती
नाक से ख़ून बहने तक उल्टे लटकाना
नहीं मानती
होंठॊं पर बट दहकती सलाख़ से शरीर दाग़ना
नहीं मानती
धारदार चाबुक से क्षत-विक्षत लहूलुहान पीठ पर सहसा एल्कोहल
नहीं मानती
नग्न देह पर इलेक्ट्रिक शाक कुत्सित विकृत यौन अत्याचार
नहीं मानती
पीट-पीट हत्या कनपटी से रिवाल्वर सटाकर गोली मारना 
नहीं मानती
कविता नहीं मानती किसी बाधा को
कविता सशस्त्र है कविता स्वाधीन है कविता निर्भीक है
ग़ौर से देखो: मायकोव्स्की,हिकमत,नेरुदा,अरागाँ, एलुआर
हमने तुम्हारी कविता को हारने नहीं दिया
समूचा देश मिलकर एक नया महाकाव्य लिखने की कोशिश में है
छापामार छंदों में रचे जा रहे हैं सारे अलंकार


गरज उठें दल मादल
प्रवाल द्वीपों जैसे आदिवासी गाँव
रक्त से लाल नीले खेत
शंखचूड़ के विष -फ़ेन सेआहत तितास
विषाक्त मरनासन्न प्यास से भरा कुचिला
टंकार में अंधा सूर्य उठे हुए गांडीव की प्रत्यंचा
तीक्षण तीर, हिंसक नोक
भाला,तोमर,टाँगी और कुठार
चमकते बल्लम, चरागाह दख़ल करते तीरों की बौछार
मादल की हर ताल पर लाल आँखों के ट्राइबल -टोटम
बंदूक दो खुखरी दो और ढेर सारा साहस
इतना सहस कि फिर कभी डर न लगे
कितने ही हों क्रेन, दाँतों वाले बुल्डोज़र,फौजी कन्वाय का जुलूस
डायनमो चालित टरबाइन, खराद और इंजन
ध्वस्त कोयले के मीथेन अंधकार में सख़्त हीरे की तरह चमकती आँखें
अद्भुत इस्पात की हथौड़ी
बंदरगाहों जूटमिलों की भठ्ठियों जैसे आकाश में उठे सैंकड़ों हाथ
नहीं - कोई डर नहीं
डर का फक पड़ा चेहरा कैसा अजनबी लगता है
जब जानता हूँ मृत्यु कुछ नहीं है प्यार के अलावा
हत्या होने पर मैं
बंगाल की सारी मिट्टी के दीयों में लौ बन कर फैल जाऊँगा
साल-दर-साल मिट्टी में हरा विश्वास बनकर लौटूँगा
मेरा विनाश नहीं
सुख में रहूँगा दुख में रहूँगा, जन्म पर सत्कार पर
जितने दिन बंगाल रहेगा मनुष्य भी रहेगा


जो मृत्यु रात की ठंड में जलती बुदबुदाहट हो कर उभरती है
वह दिन वह युद्ध वह मृत्यु लाओ
रोक दें सेवेंथ फ़्लीट को सात नावों वाले मधुकर
शृंग और शंख बजाकर युद्ध की घोषना हो
रक्त की गंध लेकर हवा जब उन्मत्त हो
जल उठे कविता विस्फ़ोटक बारूद की मिट्टी-
अल्पना-गाँव-नौकाएँ-नगर-मंदिर
तराई से सुंदरवन की सीमा जब
सारी रात रो लेने के बाद शुष्क ज्वलंत हो उठी हो
जब जन्म स्थल की मिट्टी और वधस्थल की कीचड़ एक हो गई हो
तब दुविधा क्यों?
     संशय कैसा?
     त्रास क्यों?

आठ जन स्पर्श कर रहे हैं
ग्रहण के अंधकार में फुसफुसा कर कहते हैं
                  कब कहाँ कैसा पहरा
उनके कंठ में हैं असंख्य तारापुंज-छायापथ-समुद्र
एक ग्रह से दूसरे ग्रह तक आने जाने का उत्तराधिकार
कविता की ज्वलंत मशाल
कविता का मोलोतोव कॉक्टेल
कविता की टॉलविन अग्नि-शिखा
आहुति दें अग्नि की इस आकांक्षा में.

1. पिछली शताब्दी के सत्तर के दशक में कोलकाता के आठ छात्रों की हत्या कर धान की क्यारियों में फेंक दिया था। उनकी पीठ पर लिखा था देशद्रोही.


अरुण माहेश्वरी
पहली नजर में ‘कांगाल माल्सट’ 
अभी-अभी, चर्चित युवा बांग्ला फिल्म निदेशक सुमन मुखोपाध्याय, बांग्ला नाटकों की दुनिया के लगभग कींवदंती बन चुके निदेशक अरुण मुखोपाध्याय के बेटे की फिल्म ‘कांगाल माल्सट’ देख कर आया हूं। सोचा क्यों न तत्काल इसपर एक नोट लिख लिया जाए। 
‘कांगाल माल्सट’ अर्थात भिखारियों का युद्ध (विद्रोह)। महाश्वेता देवी के स्वनामधन्य कवि पुत्र नवारुण भट्टाचार्य के इसी शीर्षक के उपन्यास पर आधरित फिल्म। 
नवारुण का उपन्यास मैंने नहीं पढ़ा है। जरूरत भी नहीं है क्योंकि फिल्म पर स्वतंत्र रूप में ही विचार करना उचित है। उपन्यास में संभव है किसी प्रकार का कोई बाकायदा नैरेटिव हो। संभव है, नहीं भी हो, क्योंकि नवारुण मूलत: कवि है। लेकिन,  फिल्म का जरूर अपना कोई नैरेटिव नहीं है। किसी सपने में आने वाली असंबद्ध छवियों के कोलाज की तरह है। फिर भी एक कालखंड है, उसकी कुछ तस्वीरें भी हैं, और आदमी के जीवन के सनातन दुखों के साथ ही युग-युग के विवर्तनों का एक झीना सा, कुहरिल मंतव्य भी है; लेकिन कुल मिला कर, किसी कैलाइडोस्कोप के कांचों में क्षण-क्षण बदलते धूसर रंगी रूपाकारों का एक गुच्छा। 
कथा न होने पर भी फिल्म में एक सूत्रधार है - रामभक्त काक भुसंडी की तरह; हर काल में लोगों को राम-भक्ति के लिये प्रेरित करने वाला काक भुसंडी। इस काक का नाम है - दंडबयोष - परिवर्तन का दूत। फिल्म की पृष्ठभूमि में जिस काल-खंड का कोहरा है, वह है वाम मोर्चा सरकार के चौतीस सालों का कालखंड - और अगर कहीं किसी कहानी का पुट है तो वह है आज के नव-उदार जनतंत्र के दौर में एक ‘स्तालिनवादी’ पार्टी का कैरिकेचर -- और है - कंगालियों-भिखारियों, बल्कि राजनीतिक शब्दावली में कहे तो लुंपेन प्रोलेटारियत का एक अपना चरम अभाव, अपराध और अंध-विश्वासों के अंधेरे में डूबा हुआ ठर्रा, औरत, भुतहा घरों-गलियों और गालियों का एक जुगुप्सा पैदा करने वाला बुभुक्षु संसार। बंगाली जीवन के एक हलके में सदियों से तंत्र-मंत्र, शव-साधनाओं और कपालकुंडला की जिन छवियों का राज रहा है, भूत-प्रेत और किसी पर भी मृतात्माओं को उतारने की तरह के प्लांचेंट की तरह के खेलों का जो समग्र अंधकार है, वह इसी लुंपेन समाज में सबसे गहरे और गाढ़े रंगों में जम कर बैठा हुआ है। इनमें कवि नाम का एक तत्व भी मौजूद है। 
तीस सालों के वामपंथी शासन ने सिर्फ इतना किया कि इन कंगालों को, लुंपेन तत्वों को भी दो भागों में बांट दिया जिन्हें फिल्म में ‘फतुर’ और ‘शाक्तार’ कहा गया है। फतुरों के पास उड़ जाने, अर्थात कभी भी आंखों से ओझल होकर, पर्दे के पीछे से काम करने की चतुराई है। लेकिन शाक्तारों ने शव-साधना की दूसरी सभी तंत्र-विद्याओं में महारथ हासिल कर रखा है। 
जिस समय वामपंथी सत्ता ‘कामरेड पूंजीपतियों’ से मिले विकास के मंत्रों पर लेनिन, स्तालिन, ट्राटस्की और बुखारिन के अबूझ से हवालों के साथ मगज-पच्ची में फंसी हुई थी, संकीर्णतावाद और व्यवहारिक जरूरतों के बारे में बेसिर-पैर की बातों में मुब्तिला थी, उसी समय शाक्तारों ने अपनी तंत्र-साधना से फतुरों को कब्जे में कर लिया। सूत्रधार बना काक दंडबयोस। कंगालों के दोनों दल, फतुरी और शाक्तारों ने मिल कर राज्य के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। पहले से ही बुरी तरह उलझनों में फंसा प्रशासन दिशाहारा होगया। और परिणाम - तीस सालों के वामपंथी शासन का सिराजा बिखर गया। 
फिल्म के अंत में शाक्तारों का सरदार मारसल भोदी रवीन्द्र संगीत के स्निग्ध वातावरण में मौज-मस्ती कर रहा है। शाक्तारों की दुनिया का कवि पुरंदर भट्टाचार्य भी अब समाज का एक सम्मानित प्राणी है। 
फिल्म को देख कर पहली नजर में जितना समझ पाया और इसकी गुत्थी को जितना खोल पाया, उसे फेसबुक के अपने मित्रों से बांट रहा हूं। वर्ना यह भी शायद सच है कि यह फिल्म बेहद जटिल और गुंफित बिंबों की एक ऐसी कविता है, जिसमें प्रवेश करके उससे रस लेने का अधिकार आसानी से नहीं मिल सकता। आम लोगों के लिये इसमें घुसने के रास्ते बहुत संकरे और गुप्त है। फिर भी कुछ दृश्यों की छवियां ऐसी है, जिन्हें कोई आसानी से भुला नहीं सकता। 
यह पूरी तरह से एक निदेशक की सर्जना है। सुना है कि इसे प्रकाश में लाने के लिये निदेशक को सेंसर बोर्ड की पहाड़ समान बाधा से जूझना पड़ा था। वह एक अलग कहानी है जिसके कारणों को समझना हमारे वश में नहीं है!      








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