शनिवार, 19 जुलाई 2014

मोदी-स्तुति में विकल मन के ये अविरल ‘आंसू’ !


अरुण माहेश्वरी

16वीं लोक सभा के चुनाव और मोदी सरकार को बने अभी दो महीने हुए हैं। इसी बीच इस सरकार के रेल बजट, आम बजट और सुरसा की तरह बढ़ती महंगाई, चीनी मिल मालिकों को दिये गये अरबों रुपये के लाभ, बीमा, प्रतिरक्षा की तरह के क्षेत्रों में विदेशी पूंजी के निवेश के दरवाजों को और ज्यादा खोल देने और सर्वोपरि, भूमि अधिग्रहण कानून में कॉरपोरेट के पक्ष में संशोधनों के संकेतों से आम लोग इस सरकार की पूरी गति-प्रकृति का अनुमान लगा कर बेहद शंकित हैं। कहने लगे हैं कि जो लंका के सिंहासन पर बैठता है, वही रावण बन जाता है। ‘अच्छे दिन’ आज का एक सबसे बड़ा मजाक, दुखीजनों के जख्मों पर नमक के छिड़काव का पर्याय लगने लगा है।

दरअसल लोग अपने जीवन के अनुभवों से, ठोस भौतिक परिस्थितियों से सामाजिक परिस्थितियों का आकलन करते हैं। इसमें विचार भी वही चलते हैं जिनका वास्तविक जीवन की जरूरतों से संपर्क होता है। जीवन की जरूरतों से एकमेव होकर ही तो विचार सामाजिक विकास की प्रभावशाली शक्ति का रूप लेते हैं। यह भौतिक नजरिया अपनी मूल प्रकृति में ही प्रगतिशील होता है। यह सीधे तौर पर भौतिक उत्पादन की परिस्थितियों, अर्थात प्राकृतिक विज्ञान की उपलब्धियों से जुड़ा होता है। इसीलिये तो मोदी जी ने अपने प्रचार में महंगाई दूर करने, कुशासन और भ्रष्टाचार को खत्म करने और बड़े लोगों के बजाय आम, सामाजिक जीवन को सुखी बनाने की बातों पर पूरा जोर देकर एक प्रकार से प्रगतिशील जनमत को प्रभावित किया था। एक बार के लिये आरएसएस के सभी कोरे खयाली, उन्मादी मुद्दों को ताक पर रख दिया था।

लेकिन इन सबके विपरीत, भौतिक जीवन की तुच्छताओं के बजाय हमेशा किसी असीम की खोज में शुतुरमुर्ग की तरह सिर गड़ाये बैठे हिन्दी के बुद्धिजीवियों की एक घोषित ‘प्रगतिशीलता-विरोधी’ जमात आम जन के क्रमश: बढ़ते उद्वेग से अलग मोदी शासन के आगमन की खुशी में आज भी पागल है। उसे यह अचानक ही किसी सतयुग का अवतरण, परमार्थ, पुरुषार्थ, आत्मज्ञान, परमात्म ज्ञान, अभूतपूर्व आत्म-मंथन और आत्मदान इत्यादि को जागृत करने वाले नये युग का, गीता के श्लोक ‘‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:/अभ्युत्थान धर्मस्य: तदात्मानं सृजाभ्याहम’’ की याद दिलाने वाला महान ऐतिहासिक पट-परिवर्तन जान पड़ता है। अब ‘अवसरवादियों’, ‘चाटुकारों’ और ‘नकलचियों’ की नहीं चलेगी! और जिस बात से ये महोदय सबसे ज्यादा खुश है वह यह कि अब ‘अल्पसंख्यक तुष्टीकरण’ की राजनीति के दिन लद गये हैं, धर्म चलेगा, धर्म-निरपेक्षता नहीं चलेगी।

बाइबल का बहुत चालू कथन है - ‘चित्त ही है जो जीवन है, काया का कोई मोल नहीं’। (It is the spirit that quickeneth, the flesh profitieth nothing)। और हमारे बुद्धिजीवी, इसी चित्त के लाइसेंसधारी व्यापारी, जनता की जीवन संबंधी क्षुद्र चिंताओं को दुत्कारते हुए खुशी से उन्मादित हैं, धर्म-रक्षार्थ मैदान में कूद पड़े हैं, लोगों को उनके ‘‘वास्तविक वर्तमान में मुक्त कराने के लिये।’’ लेकिन इस धर्मयृद्ध में बाइबल के कथन के विपरीत ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’, ‘धर्म का साधन शरीर है’ के चाणक्य के नारे के साथ!

‘जनसत्ता’ के 14 जुलाई और 15 जुलाई के अंकों में रमेश चन्द्र शाह का लंबा लेख देखिये, हमारी उपरोक्त तमाम बातों का ठोस संदर्भ समझने में चूक नहीं होगी। उस लेख की आखिरी पंक्ति है - ‘‘ यही वह मार्ग याकि उपाय-कौशल और शक्ति-साधना है, जिसका अवलंबन करके हम अपने वास्तविक वर्तमान में मुक्त हो सकते है...।’’

श्री शाह के पहले उन्हीं के गोत्र के उदयन वाजपेयी का ‘जनसत्ता’ में ही एक लेख प्रकाशित हुआ था - ‘शायद कुछ नया हो’। वे भी यह सोच-सोच कर खुशी में पागल थे कि अब (1) भारत का पश्चिमीकरण रुकेगा, (2) गणतांत्रिक (आंचलिक) राजनीति का विकास होगा, (3) सब समुदाय अब ‘दृश्य’ होंगे, कोई ‘अदृश्य’ नहीं होगा, (4) जातिवाद की बदनामी कम होगी, और इसमें भी सर्वोपरि, (5) राजनीतिक विमर्श पर कम्युनिस्टों का अदृश्य वर्चस्व कमजोर होगा।

उदयन जी के शब्दों में, ‘‘कोई भी भूमंडलीकरण स्वागतयोग्य नहीं है, पर आधुनिक भूमंडलीकरण सोवियत भूमंडलीकरण की तुलना में बेहतर है।’’

उस लेख पर टिप्पणी करते हुए हमने लिखा था - ‘‘क्या कहा जाए, वाजपेयी जी के इस आकलन को। जो सोवियत संघ अस्तित्व में ही नहीं है, उसका ‘भूमंडलीकरण’ इस चुनाव के परिणाम का एक बड़ा कारण है !

‘‘वंशवाद !(इसका भी उस लेख में उल्लेख आया था।) कोई पूछे कि क्या हिटलर और उसका नाजीवाद जो आधुनिक समय में पूरी मानवता के अस्तित्व मात्र के लिये खतरा बन गया था, किसी वंशवाद की उपज था ? मान लेते हैं कि मोदी और संघ परिवार के प्रति अपनी अनुरक्ति के कारण उदयन जी को हिटलर और उसके नाजीवाद से उतना परहेज न हो, लेकिन जिस सोवियत संघ को वे घोषित तौर पर मानवता का सबसे बड़ा दुश्मन मानते हैं, वह भी तो किसी वंशवाद की देन नहीं था। फिर वंशवाद और मोदीवाद में एक बुरा और  दूसरा अच्छा कैसे होगया ?

‘गणतांत्रिक’ अर्थात आंचलिक राजनीति का विकास - संघ परिवार शायद अब संत बन अपने राजनीतिक विस्तार की तमाम महत्वाकांक्षाओं को त्याग देगा !

‘‘और भूमंडलीकरण ! उनके शब्दों में, ‘वैसे तो कोई भी भूमंडलीकरण स्वागतयोग्य नहीं है।’ वे कभी सोचते हैं कि ‘भूमंडलीकरण’ का सार-तत्व है मानव मात्र की ‘प्राणी सत्ता’। क्या इससे वे इंकार कर सकते हैं ? भूमंडलीकरण का बहुलांश मानव की इस प्राणीसत्ता से जुड़ा हुआ है। ‘खुला खेल फरूखावादी’ के समर्थक जो उदयन  वाजपेयी इस बात से सबसे अधिक खुश है कि अब बहुसंख्यक भी अदृश्य नहीं रहेंगे, वे मानव की इस सबसे ‘दृश्य प्राणीसत्ता’ के विरुद्ध क्यों है ? सिर्फ इसलिये कि कम्युनिस्टों ने दुनिया के मेहनतकशों को एक करने का नारा दिया था !’’

अपनी उस टिप्पणी के अंत में हमने कहा था  - ‘‘ उदयन जी को पता नहीं है कि यदि सकारात्मक नजरिये से सोचा जाए तो मोदी युग भारत में साम्राज्यवादी वैश्वीकरण का वह युग होगा, जब पश्चिमीकरण की आंधी बहेगी, विदेशी पूंजी का बोलबाला होगा। यही है विकास का उनका गुजरात मॉडल। और, अगर यह नकारात्मक दिशा में जाता है, ‘खुला खेल फरूखावादी’ की दिशा में, उदयन जी की शब्दावली में सब समुदायों को दृश्य कर देने की दिशा में, समुदायों के बीच नग्न टकराहटों के रास्ते में तो भारत का भविष्य तालिबानियों के प्रभाव के अफगानिस्तान जैसा होगा। उदयन जी अपने लेख में कुछ इसी प्रकार की सिफारिश कर रहे जान पड़ते हैं।“

हमारी टिप्पणी की अंतिम पंक्ति थी - ‘‘पता नहीं, आधुनिकतावाद के कौन से रिसते घाव की मवाद है यह सब !’’

उदयन जी की ऐसी ही किंचित ठोस भावनाओं की बिल्कुल अमूर्त और वायवीय अभिव्यक्ति है रमेश चन्द्र शाह का यह लंबा, ‘जनसत्ता’ के दो अंकों में लगातार छपा लेख। सच कहा जाए तो इस पूरे लेख को सिर्फ दो शब्दों में ‘पागल का प्रलाप’ कह कर छोड़ दिया जाता तो बहुत गलत नहीं होता। कोरी असंलग्न, असंबद्ध, बे-सिर-पैर की बातों का वमन। फिर भी, यह देखने कि आखिर वे कौन सी दमित कामनाएं हैं जिनको सात पर्दों में छिपा कर व्यक्त करने की गरज से यह समूचा प्रलाप किया गया है, हमने बड़े कष्ट और धीरज के साथ इस अपाठ्य पाठ को ध्यान से पढ़ा।

उनके लेख के पहले अंश का ‘जनसत्ता’ वालों ने शीर्षक लगाया है - ‘शक्ति की करो तुम मौलिक कल्पना’ और दूसरे अंश का शीर्षक है - ‘अपनी सभ्यता की शर्तों पर’।

पहले अंश में शाह जी ने प्रसाद जी के ‘आंसू’ की पंक्ति उद्धृत की है - ‘छलना थी फिर भी, उसमें मेरा विश्वास घना था/उस माया की छाया में कुछ सच्चा स्वयं बना था।’’

मोदी जी के राजतिलक पर प्रसाद जी का ‘आंसू’! ‘आंसू’ का पहला छंद है -‘इस करुणा कलित हृदय में/अब विकल रागिनी बजती’...। और, इसका सबसे लोकप्रिय छंद है - ‘‘जो घनीभूत पीड़ा थी/मस्तक में स्मृति-सी छायी/दुर्दिन में आंसू बनकर/ वह आज बरसने आयी।’’ तो क्या यह लेख, किसी करुणा कलित हृदय का हाहाकार है, जो इन दुर्दिन में आंसू बन कर बरसने आया है !

इसीकी तलाश में टोह-टोह कर किसी प्रकार हमने इस दुष्कर लेख को पढ़ा। इसमें गांधी आते हैं, अरविंद भी हैं, लेकिन यह ‘करुणा कलित हृदय’ मोदी युग से आह्लादित होकर ‘पुरुषार्थ’ की तलाश में अंत में धर्म-रक्षार्थ बल प्रयोग की शक्ति-साधना के आह्वान में कैसे जादूई ढंग से पर्यवसित होता है, इसका एक विचित्र सा उदाहरण है यह लेख। दरअसल, और कुछ कहने के बजाय हम यही कहेंगे कि शाह जी ने अपने उद्देश्य-साधन के लिये इस लेख में गांधी-अरविंद आदि का सहारा लेने के बजाय गुरू गोलवलकर का सहारा लिया होता तो उनका लेख जिस गड़बड़झाले का उदाहरण प्रतीत होता है, वैसा नहीं होता। बात अधिक साफ होती। वे खुल कर अपनी बात कह पाते ।

गोलवलकर ने उनके मन की बात, मूलभूत विभेद वाली संस्कृतियों से उत्पन्न समस्याओं का जो ‘नाजी निदान’, यहूदियों के समूल सफाये में, बताया है, वह खुल कर सामने आता। धर्म-रक्षार्थ खड्ग-हस्त होने का अर्थ स्पष्ट हो जाता। अल्प-संख्यकों के तुष्टीकरण के युग की समाप्ति पर शाहजी की खुशी का सच बिल्कुल प्रकट रूप में सामने होता। लेख ज्यादा पठनीय भी होता।

इसके विपरीत शाह जी ने प्रसाद और फिर, गांधी, अरविंद के सहारे, ‘महाभारतीय सभ्यता के इतिहास चक्र’ के जरिये ‘संघवाद का डंका’ बजाने का जो बीड़ा अपने इस लेख में उठाया है, वही इस लेख को कोरे प्रलाप का रूप देने की वजह बन गया। जीवन की ठोस सचाई के विषयों से पूरी तरह कटे होने के कारण वैसे ही यह लेख किसी के कोई काम का नहीं है। जनता आलू-प्याज के भाव गिन रही है और ये महोदय आत्मज्ञान और आत्मदान का प्रवचन दे रहे हैं, हजारों सालों की गुलामी से स्वतंत्रता के भाव में उन्मत्त हैं। तथापि, प्रसाद जी के कामायनी की पंक्तियां हैं - ‘‘क्यों इतना आतंक ठहर जा ओ गर्वीले!/जीने दे सबको फिर तू भी सुख से जी ले।’’ हमारा कहना है, प्रसाद की इन पंक्तियों के मर्म को ही शाह जी अगर आत्मसात कर लेते तो भारत जो आज है, उसपर उनके रूदन और आंसुओं का ऐसा रूप नहीं होता, मोदी जी के आगमन की खुशी में अभिभूत मन के आंसुओं जैसा। खुशी के इन ‘आंसुओं’ के लिये प्रसाद, गांधी, अरविंद का मिथ्या अवलंब काव्यशास्त्र की दृष्टि से ‘संशय योग’ का विध्न पैदा करता है, उनके लेख के दीर्घ उपक्रम को हास्यास्पद कलाबाजियों में बदल देता है।    

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