मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

तत्वत: कमजोर ; कोरा प्रचारमूलक


ग्रीस में सिर्जिया की एलेक्सिस सिप्रस की सरकार ने यूरोपियन यूनियन से अपने कर्ज के भुगतान के लिये और ज्यादा मोहलत की मांग की है। यूरोपियन यूनियन की ओर से जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल इसके लिये तैयार नहीं है। मर्केल के हठपूर्ण रवैये से नाराज ग्रीस के प्रधानमंत्री ने पलट कर जर्मनी से द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हिटलर द्वारा ग्रीस को पहुंचाये गये भारी नुकसान की भरपाई का दावा ठोका दिया है। उन्होंने इस बाबत जर्मनी से इतनी बड़ी राशि की मांग की है, जो यूरोपियन यूनियन के ग्रीस पर कर्ज से कहीं अधिक है। और इसप्रकार, अभी ग्रीस और जर्मनी के बीच एक तीखा वाक् युद्ध जारी है।
कर्ज देना, उसके भुगतान के लिये मोहलत बढ़ाना और कर्ज की शर्तों में कभी-कभी थोड़ा रद्दो-बदल कर देना, और कभी-कभी इसे लेकर गहरा तनाव और झगड़ा तक हो जाना अर्थजगत की साधारण बाते हैं। इसका पूंजी के नैसर्गिक चरित्र से किसी ने कभी कोई सीधा संबंध नहीं देखा है। पूंजी की नैसर्गिकता उसके मुनाफे से जुड़ी होती है। जब तक पूंजी मुनाफा लाती है, तभी तक पूंजी है, अन्यथा अस्थि।
लेकिन आज (24 फरवरी 2015) के ‘टेलिग्राफ’ में प्रभात पटनायक ने ग्रीस और जर्मनी से जुड़े इसी घटनाक्रम के संदर्भ में पूंजी के नैसर्गिक चरित्र के बारे में जिस एक नयी खोज का दावा किया है, वह सचमुच चौकाने वाला है। उनका कहना है कि जरूरतमंदों की सहायता के लिये आगे न आने के पूंजी के हठी निष्ठुर चरित्र की ओर मार्क्स ने भी यथेष्ट ध्यान नहीं दिया था। इसीलिये, पूंजी के चरित्र की इस अब तक की अनखोजी ‘विशेषता’ की ओर ध्यान खींचने के लिये ही प्रभात ने अपनी इस टिप्पणी का शीर्षक दिया है - Das Capital।
आज की दुनिया के अर्थशास्त्रीय चिंतन में मार्क्स की पुनर्वापसी के साथ ही प्रबल रूप से एक रूझान यह भी दिखाई देता है कि अर्थशास्त्र के उन बिन्दुओं की तलाश की जाए जिनपर किन्हीं कारणों से भी क्यों न हो, मार्क्स ने पर्याप्त रूप से विवेचन नहीं किया या जो मार्क्स की नजरों से ओझल रह गये, और जिनकी वजह से ‘पूंजीवाद चल नहीं सकता’ की मार्क्स की भविष्यवाणी के बावजूद मार्क्स को झुठलाते हुए पूंजीवाद बदस्तूर कायम है। इसमें एक बड़ा योगदान किया है फ्रांसीसी अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी ने। उन्होंने अपनी बहुचर्चित किताब - ‘21वीं सदी में पूंजी’ में बताया है कि चूंकि मार्क्स के समय में व्यक्तियों की आय संबंधी सरकारी तथ्य उपलब्ध नहीं थे, इसीलिये वे सामाजिक गैर-बराबरी के ग्राफ का कोई ठोस और यथार्थ चित्र नहीं देख पाये थे। उन्हें पूंजी के चरित्र के अनुसार गैर-बराबरी में लगातार वृद्धि का ग्राफ ही दिखाई दे रहा था, जबकि तथ्य बताते हैं कि अन्य राजनीतिक-सामाजिक कारणों से वास्तविक जीवन में इसमें उतार-चढ़ाव भी आया करते हैं। और यही उतार-चढ़ाव एक बुनियादी कारण है जो पूंजीवाद को आज तक किसी न किसी रूप में टिकाये हुए है, इसका खोल फट नहीं पाया है।
आर्थिक चिंतन के एक ऐसे दौर में, अक्सर केन्स के पूंजीवाद के संकट-मोचक विचारों की पैरोकारी करने वाले हमारे प्रभात पटनायक ने भी इस छोटी सी टिप्पणी के जरिये ग्रीस के वर्तमान घटनाचक्र के संदर्भ में मार्क्स की एक कमी को खोज लेने का दावा पेश किया है। वे कहते हैं - मार्क्स ने पूंजीवाद के अराजक, और शोषणकारी चरित्र को तो देखा था लेकिन इसप्रकार के हठी चरित्र को नहीं देखा। उनके शब्दों में ‘‘इसप्रकार पूंजीवाद न सिर्फ एक अराजक या शोषणकारी व्यवस्था है; यह एक हठी निर्दयी व्यवस्था है। केन्स ने उसके चरित्र की पहली बात को पहचाना था, मार्क्स ने पहली और दूसरी को देखा। लेकिन मार्क्स ने भी तीसरी पर कोई चर्चा नहीं की।’’ (Capitalism, thus, is not just an anarchic, or exploitative system; it is also a bloodyminded one, in this sense. Keynes recognised the first of these traits, and Marx recognised the first two traits. But even Marx did not discuss this third trait)
इस टिप्पणी का अंत प्रभात ने पूंजीवाद के इस निष्ठुर हठी चरित्र के भारतीय उदाहरण, मनरेगा पर पड़ रहे सरकारी कोप से किया है।
क्या कहेंगे इस तात्विक चिंतन को ! अनुमान लगाया जा रहा है कि ग्रीस और यूरोपियन यूनियन की तनातनी का कोई न कोई समाधान जल्द ही निकल जायेगा। मनरेगा भी किसी समाजवादी व्यवस्था की उपज तो नहीं है। और, इसे जारी रखा जाए या बंद कर दिया जाए, क्या इसीसे पूंजीवाद के चरित्र के बारे में कोई निर्णायक तात्विक निर्णय संभव है?
समाजवादी व्यवस्थाओं में आई तमाम विकृतियों को दिखा कर ही क्या समाजवाद के बारे में कोई तात्विक निर्णय लिया जा सकता है?
इसीलिये प्रभात की यह खोजी टिप्पणी हमें तात्विक दृष्टि से कमजोर और कोरी प्रचारमूलक लगती है। इससे पूंजीवाद के बारे में किसी की भी समझ में रत्ती भर का भी इजाफा नहीं होता। उल्टे कुछ नयी भ्रांतियों की गुंजाइश और बन जाती है। अन्यथा सच्चाई तो यह है कि लाभ पाने के लिये पूंजी की निष्ठुरता के जो चित्र मार्क्स ने दिये है, वे अन्यत्र शायद ही कहीं मिलेंगे।
http://www.telegraphindia.com/115…/…/opinion/story_5064.jsp…

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