शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

‘आप’ की प्रत्याशित जीत पर सोचते हुए


सन्‘77 के बाद हम सब भारतीय जनतंत्र के एक और ऐतिहासिक क्षण के साक्षी बनेंगे। कांग्रेस इस जनतंत्र की सभी अच्छाइयों और साथ ही इसमें आई विकृतियों का भी गोमुख है, सिवाय सांप्रदायिकता के। भाजपा सांप्रदायिकता और कांग्रेस शासन की तमाम विकृतियों की प्रतिनिधि है। इसमें स्वस्थ कहा जाए, ऐसा कुछ नहीं दिखाई देता। वह हमारे जनतंत्र में आई सारी विकृतियों का एक चरम रूप है। इसकी तुलना में ‘आप’ भारतीय जनतंत्र के तमाम विकासशील स्वस्थ पक्षों और संभावनाओं को अपने में समेटे हुए हैं।
हम जानते हैं, शीघ्र ही ‘प्रभात पटनायक’ ‘आप’ के वर्ग चरित्र का एक आख्यान लेकर, ‘नव-उदारवाद’ के प्रति उसके रूझान के 'यक्ष प्रश्न' के साथ हाजिर होने वाले हैं - ‘नव-उदारवाद’ को पूंजीवाद से अलग एक इतिहासशून्य विविक्ति (abstraction) के रूप में पेश करते हुए। मानो मजदूर वर्ग की घोषित पार्टियां संसदीय राजनीति का इस्तेमाल सचमुच पूंजीवाद के अंत की किसी फैसलाकुन लड़ाई के लिये कर रही हो!
वास्तविक इतिहास से काट कर देखने पर न वर्गीय चरित्र का, न नव-उदारवाद का और न वर्ग-संघर्ष जैसी विविक्तियों का कोई मूल्य होता है। खुद कम्युनिस्ट पार्टी भी इतिहास में अपनी ठोस भूमिका से कोई अर्थवत्ता ग्रहण करती है, सिर्फ अपने साइनबोर्ड से नहीं।
‘77 के समय एकदलीय और एक व्यक्ति की तानाशाही का मुकाबला मजदूर वर्ग के घोषित दावेदारों के नेतृत्व में नहीं किया गया था। लाभ उन्हें जरूर मिला। उसीप्रकार, जनतंत्र में आई विकृतियों के एक चरम रूप और उसपर सांप्रदायिक उन्माद के खिलाफ लड़ाई के इस नये मोड पर भी भारतीय वामपंथ नेतृत्व देने में असमर्थ है। फिर भी वह लाभान्वित जरूर होगा, अपने प्रभाव के क्षेत्रों में। हम देखना चाहते हैं उसकी पहलकदमी को, ‘आप’ की तरह के नये स्वस्थ जनतांत्रिक उभार के साथ उसके जैविक संबंधों को।

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