अरुण माहेश्वरी
आज ही ब्रेक्सिट की कवर स्टोरी का ‘फ्रंटलाइन’ का नया अंक (22 जुलाई 2016) देखा। प्रभात पटनायक, जयति घोष, सी पी चन्द्रशेखर, शिव मुखर्जी, जॉन चेरियन , विजय प्रसाद, अतुल अनेजा के लेखों से सजा-धजा अंक।
इस विषय में ब्रिटेन में जनमतसंग्रह के पहले और बाद में भी ‘द इकोनोमिस्ट’ सहित दूसरे तमाम मंचों पर इसके बारे में चल रही बहसों को देखता रहा हूं। लंदन में इसके पक्ष में तारिक अली के बहुप्रचारित भाषण को भी यू ट्यूब के जरिये सुना था।
यूरोप एक लंबे काल से भारी आर्थिक गतिरोध में फंसा हुआ है, यह एक स्वयंसिद्ध सचाई है। इस गतिरोध का अपना एक इतिहास है। उद्योग और वाणिज्य के मामले में अमेरिका के उदय ने लगभग डेढ़ सौ साल पहले ही यूरोप से विश्व अर्थव्यवस्था के नेतृत्व के स्थान को छीन लिया था। तब से लेकर आज तक अपने उपनिवेशों और वित्तीय पूंजी के बल पर यूरोप की पारंपरिक शान तो काफी हद तक बनी हुई है, लेकिन उसके मन-मस्तिष्क पर स्फूर्ति की जगह एक अवसाद लगातार गहरा होता जा रहा है। अमेरिका आज न सिर्फ उसकी ईष्र्या का विषय है, बल्कि वह आज यूरोपीय श्रेष्ठता और शान के रक्षक की भूमिका अदा कर रहा है। अमेरिकी हथियार ही सारी दुनिया में यूरोपीय वित्तीय पूंजी के हितों की रक्षा में सन्नद्ध हैं।
जिस राष्ट्रीय राज्य और राष्ट्रवाद के उदय को पूंजीवाद की विशेषता माना जाता है, वह स्वयं में एक यूरोपीय परिघटना है। इसे ही बाद में सारी दुनिया के नवोदित राष्ट्रों ने भी अपनाया। और, प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1918) तथा द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) में यह राष्ट्रवाद यूरोप में ही अपने सबसे हिंस्र और खूनी रूप में सामने आया। इन दो युद्धों में अकेले यूरोप के लगभग सात करोड़ लोग मारे गये।
इस यूरोपीय हिंस्र राष्ट्रवाद के बावजूद एक दूसरी सचाई यह भी है कि उद्योग और वाणिज्य के क्षेत्र में अमेरिका की चुनौती के सामने यूरोपीय देशों के बीच आपस में सहयोग करके चलने की भावना भी किसी न किसी रूप में वहां हमेशा से रही है। खास तौर पर प्रथम विश्वयुद्ध के धक्के के ठीक बाद वहां 1915 में संयुक्त राज्य अमेरिका की तर्ज पर संयुक्त राज्य यूरोप के गठन की बातों ने काफी जोर पकड़ा था। इसमें रूसी राजशाही के साथ ही जर्मनी और आस्ट्रिया की राजशाहियों ने पहल की थी।
हमें याद आती है लेनिन के उस लेख की जो उन्होंने ‘संयुक्त राज्य यूरोप’ के उस नारे पर अगस्त 1915 में ‘Sotsial-Demokrat ’ अखबार में लिखा था। तब बोल्शेविक पार्टी में कुछ लोगों का कहना था कि जर्मन, आस्ट्रिया और रूसी राजशाहियों को क्रांति के जरिये उखाड़ फेंके बिना इस प्रकार का एकीकरण निरर्थक है। इसपर लेनिन ने लिखा था कि इस विषय का ऐसा राजनीतिक आकलन करना कि इससे समाजवादी क्रांति को कोई नुकसान पहुंचेगा, गलत है। ‘‘सच्चे अर्थो में जनवादी प्रकृति के राजनीतिक परिवर्तन कभी भी समाजवादी क्रांति को कमजोर नहीं कर सकते। बल्कि समाजवादी क्रांति के दौरान इस प्रकार की राजनीतिक क्रांतियां अपरिहार्य है जिसे एक अकेली कार्रवाई के बजाय तूफानी राजनीतिक उथल-पुथल...के रूप में देखना चाहिए।‘‘
इसके साथ ही लेनिन ने इस नारे के आर्थिक अंतर्य के महत्व को रेखांकित करते हुए उस लेख में कहा था कि साम्राज्यवाद के इस काल में ‘‘औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा पूंजी के निर्यात और संसार के विभाजन की पृष्ठभूमि में संयुक्त राज्य यूरोप या तो असंभव है या फिर प्रतिक्रियावादी है।’’
अपने इसी लेख में उन्होंने यह भी टिप्पणी की थी कि ‘‘इसे संभव मान कर सोचने का मतलब है अपने को उस पादरी के स्तर पर उतार लेना जो हर रविवार को अमीरों को ईसाई धर्म के उदात्त सिद्धांतों का उपदेश देता है और उन्हें गरीबों को कुछ अरब नहीं तो कम से कम कुछ सौ रूबल दान देने का परामर्श देता है।
‘‘पूंजीवाद के अन्तर्गत संयुक्त राज्य यूरोप उपनिवेशों के विभाजन के बारे में समझौते के बराबर है।...पूंजीपतियों के बीच और राज्यों के बीच अस्थायी समझौते निस्संदेह संभव हैं।...परंतु किस लिये? केवल यूरोप के समाजवाद को मिल कर कुचलने, जापान तथा संयुक्त राज्य अमेरिका से...उपनिवेशों के रूप में लूट के माल को मिल कर बचाने के लिए। संयुक्त राज्य अमेरिका की तुलना में यूरोप समग्र रूप में आर्थिक गतिहीनता का द्योतक है। ...वह जमाना जब जनतंत्र का ध्येय और समाजवाद का ध्येय केवल यूरोप से जुड़ होता था, लद चुका है और कभी वापस नहीं लौटेगा।’’
बहरहाल, प्रथम विश्वयुद्ध और उसमें लगभग एक करोड़ लोगों को गंवाने के ठीक बाद की हताशा से यूरोप में जिस ‘संयुक्त राज्य यूरोप’ के नारे का जन्म हुआ था, उसके भविष्य को हम सभी जानते हैं। उल्टे, यूरोप के कई कमजोर देशों की धुकधुकी को देख कर, हिटलर-मुसोलिनी ने एकीकरण के बजाय आपस में मिल कर यूरोप के बाकी देशों को हड़प लेने की आक्रामक योजना बनाई थी। द्वितीय विश्वयुद्ध हुआ जिसमें अकेले यूरोप में तकरीबन छ: करोड़ लोगों की जानें गई, पूरा यूरोप एक खंडहर में तब्दील होगया।
सन् 1946 में ही चर्चिल ने ज्युरिख में यूरोप की ट्रेजेडी पर बोलते हुए संयुक्त राज्य यूरोप की बात उठाई थी और 1948 में पहली यूरोपीय कांग्रेस का आयोजन किया गया। इसके बाद लगातार नाना प्रकार के सहयोग की संधियों के अंत में 1991 में 28 देशों को मिला कर यूरोपियन यूनियन का गठन हुआ और 1992 की मैस्त्रिक संधि के दस साल बाद 2002 में यूरो मुद्रा का भी चलन शुरू हुआ। लेनिन के काल में जब यूरोप के एजेंडे पर समाजवादी क्रांति थी तब भी जो चीज संभव नहीं हुई, वह कुछ हद तक उस समय संभव हुई जब समाजवादी क्रांति का कोई खतरा न होने पर भी अपने अंदुरूनी कारणों से ही पूरे यूरोप में भारी मुर्दानगी छा गई थी।
लेकिन जैसा कि लेनिन ने 1915 में ही अपने अवलोकन में कहा था कि अब फिर कभी यूरोप के पुराने दिन लौटने वाले नहीं है, और इसप्रकार के प्रस्ताव पर अगर अमल भी हुआ तो वह एक प्रतिक्रियावादी कदम ही साबित होगा। यूरोपियन यूनियन यूरोप के आर्थिक गतिरोध का कोई निदान साबित नहीं हुआ। इससे आम जनजीवन प्रभावित होने लगा। ऊपर से 2008 के विश्व-व्यापी आर्थिक संकट के बाद 2010 से यूरोप के एक-एक देश में सर उठा रहे कर्ज के संकट, मध्यपूर्व से आने वाले शरणार्थियों के संकट की तरह की परिस्थितियों ने नये प्रकार के राजनीतिक संकटों और अपनी परिस्थितियों से नाराज लोगों में ‘अन्यों’ में अपने शत्रु के तलाश के उग्र-राष्ट्रवाद की जमीन तैयार करनी शुरू कर दी। जगह-जगह हत्यारे नव-फासीवादी गिरोहों के साथ ही फ्रांस की ली पेन की तरह की उग्र ताकतें यूरोपीय राजनीति के केंद्र में आती दिखाई देने लगी।
‘द इकोनोमिस्ट’ पत्रिका ने ब्रिटेन में ब्रेक्सिट के बारे में चलाये गये पूरे अभियान को अपने ताजा अंक ( 2-8 जुलाई 2016) में ‘आक्रोश की राजनीति’ (The politics of anger) बताया है। ‘इकोनोमिस्ट’ लिखता है कि जिन तमाम लोगों ने ब्रेक्सिट के पक्ष में अभियान चलाया उन्होंने आम लोगों को उनकी जिंदमी में सुधार के अनेक प्रकार के झूठे सब्जबाग दिखाये हैं। ‘‘मतदान को देखने से पता चलता है कि आप्रवासन, वैश्वीकरण, सामाजिक उदारतावाद और यहां तक कि स्त्रीवाद के खिलाफ आक्रोश यूरोपियन यूनियन को ठुकराने के मत में बदल गया।’’
‘फ्रंटलाइन’ में प्रभात पटनायक ने इस परिणाम पर अपने लेख ‘A stone at a hornets’ nest’ में अपनी स्वभावसिद्ध सैद्धांतीकरण की भंगिमा में जनता के इसी कथित गुस्से को, जिसे मार्क्सवादी दार्शनिक स्लावोय जिजेक ने ‘मिथ्या चेतना’ कहा है, जायज बताते हुए जार्ज लुकाच की पंक्ति को उद्धृत किया है कि इस मिथ्या चेतना में भी सत्य का अंश तो है ही। दुर्भाग्य से वामपंथ ने इसे नहीं देखा। (even such “false consciousness” also has an element of “truth” in it.The Left, sadly, did not look for this “truth”)
क्या कहेंगे, प्रभात के इस ‘मिथ्या चेतना में सत्य के निवास’ वाले कथन को ! यही तो है जिसे कहते हैं इतिहास में विचार पर अमल के किसी भी क्षुद्र ठोस रूप से पैदा होने वाली विचारशून्यता की अंधेरी खाई ! इसकी भंवर में फंस चुके आदमी का निस्तार मुश्किल होता है। ‘आक्रोश’ की अभिव्यक्ति के ‘ट्रम्प रूप’ से पैदा होने वाली विचारशून्यता की खाई ! हिटलर ने भी एक ‘आक्रोश’ को ही काम में लगाया था। वार्साई संधि के द्वारा जर्मन राष्ट्र को ठगे जाने की मिथ्याचेतना से पैदा हुए आक्रोश को। लेनिन ने कहा था कि संयुक्त राज्य यूरोप का बनना औपनिवेशिक लूट-खसोट के स्वार्थों के चलते मुमकिन नहीं है। और, अब आज दावा किया जा रहा है, यह मुमकिन नहीं है आम जनता की मिथ्या चेतना के चलते, उसके अंदर के उदारवाद-विरोधी सोच और आक्रोश के चलते !
प्रभात की ‘आक्रोश की मिथ्या चेतना में सत्य के निवास’ की बात से ब्रह्म-सूत्र के शांकर भाष्य की यह बात याद आती है कि ‘‘यह विश्व ब्रह्म रूप है, अत: यही कार्यरूपेण अनेक नामरूपों में अवस्थित होता है।’’ अस्तित्व और चेतना के हर रूप में ही तो ब्रह्म-सत्य का निवास है, फिर क्या सच और क्या झूठ !
प्रभात इस पूरे घटनाक्रम को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने के बजाय इससे एक प्रकार का परपीड़क आनंद भी लेते दिखाई देते हैं, जब कहते हैं कि ब्रिटेन की जनता की यह आत्मचेतना-विहीन (un-self-conscious ) क्रांति विश्वपूंजीवाद के संकट को बढ़ायेगी और दूसरे देशों को भी इस दिशा में बढ़ने की प्रेरणा देगी। वे बड़ी आसानी से यह देखना भूल जाते हैं कि यह ली पेन, नाइजेल फेराज, बोरिस जान्सन और ट्रम्प जैसों के बर्बर पूंजीवाद के रास्ते को प्रशस्त करेगी। जैसे कोई कहे कि भारत में जम रहे ‘आक्रोश के सत्य’ का लाभ मोदी और आरएसएस को लेने दिया जाए ताकि इससे भारतीय पूंजीवाद का संकट और ज्यादा घना हो जाए !
कहना न होगा, प्रभात का नजरिया एक प्रकार का सजावटी ‘संरक्षणवादी क्रांतिकारिता’ है, जो वास्तव में अपनी चमक को खो चुकी है और इसकी तुलना में परंपरागत गतानुगतिकता कहीं ज्यादा चुनौती भरी और रोमांचकारी दिखाई देती है।
लेनिन ने 1915 में इस सत्य को नोट किया था कि पूंजी अंतरराष्ट्रीय और इजारेदाराना हो चुकी है। आज इस अन्तरराष्ट्रीय समस्या का समाधान किसी भी प्रकार के राष्ट्रीय राज्य के तर्क पर खोजना ही अपने आप में प्रतिक्रियावाद है। खास तौर पर तब तो और भी जब कोई वामपंथी-समाजवादी विकल्प क्षितिज में नहीं दिखाई दे रहा है। जिजेक ने इस ब्रिटिश राय को कि यूरोपियन यूनियन को उसकी नियति पर छोड़ दिया जाए, बिल्कुल सही वैश्विक समस्याओं के युग में एक गलत काल के तर्क को अपनाना कहा है।
प्रभात के बजाय जयति घोष ने ‘फ्रंटलाइन’ के अपने लेख में बिल्कुल सही कहा है कि ‘‘यूरोपियन यूनियन का अपने खुद के अंतर्विरोधों के भार से गिर जाना सचमुच दुखांतकारी होगा जो राष्ट्रीय नव-उदारवाद के क्षुद्र और अज्ञात-भयजनित रूपों के लिये जगह छोड़ेगा क्योंकि वे ही नव-उदारवादी आर्थिक एकीकरण के अभी सबसे ताकतवर विकल्प बने हुए हैं।
ब्रेक्सिट पर ब्रिटेन की राय में हमें तो जनतांत्रिक तत्व का जरा भी नामो-निशान नहीं दिखाई देता है। फर्क सिर्फ इतना आया है कि कैमरन की जगह अब थिरीसा मे ब्रिटेन की प्रधानमंत्री बन गई है। जिजेक के शब्दों में कहे तो इसप्रकार के दिशाहीन उन्मादित आक्रोश की अभिव्यक्ति के दूसरे दिन क्या ? - यह प्रश्न ही आज सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।
बहरहाल, इस विषय पर ‘इकोनोमिस्ट’ की उपरोक्त टिप्पणी का अंत इस घटना के बयान से किया गया है कि ‘‘थैचर जब प्रधानमंत्री थी, उसी समय सोवियत के पतन की विजय के बीच उनके एक सहयोगी ने इतिहास के बारे में फुकुयामा के निबंध को उन्हें दिया। दूसरे दिन सुबह थैचर ने कहा कि वे इस निबंध से प्रभावित नहीं हुई हैं। उन्होंने कहा कि इतिहास को ऐसे ही हल्के से नहीं लिया जाना चाहिए। कभी भी चीजों को छोड़ना नहीं चाहिए।’’ ‘इकोनोमिस्ट’ उदारवादियों से कहता है कि आज उसी नजरिये को अपनाने की जरूरत है।
(13.07.2016)
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