सोमवार, 4 जुलाई 2016

स्वामी विवेकानंद की पुण्य तिथि पर


सुबह-सुबह

आज सुबह अखबार खोलते ही लगा जैसे लाखों लोगों की चीख-पुकार के साथ सैकड़ों मासूमों के खून की बाढ़ में डूब गया हूं। तत्काल अखबार को झटक कर एक बार के लिये इस दिवा-दु:स्वप्न से निकला। पिछले मंगलवार को इस्तानबुल हवाईअड्डे पर 45 लोग मारे गये, सैकड़ों जख्मी, फिर शनिवार को ढाका की प्रसिद्ध बेकरी में 22 की मौत और उससे ज्यादा लोग घायल और कल देर रात बगदाद में 120 मरे और न जाने कितने मौत से जूझ रहे हैं। सब जगह एक ही त्रासदी है - जेहादी आतंकवाद की त्रासदी।

पवित्र रमजान का महीना, जब कहते हैं कि दुनिया के सारे धर्म-ग्रंथ इसी महीने में धरती पर उतारे गये थे, मोहम्मद साहब में इसी महीने के चौबीसवें दिन कुरान का ज्ञान प्रकट हुआ था। और अभी इसी महीने में सारी दुनिया में खून की नदिया बह रही है !

यह कौन से नये ज्ञान का प्रकटीकरण है ? इसका जवाब सिर्फ धार्मिक आतंकवादी ही दे सकते हैं, वे भले मुस्लिम हो, हिंदू हो या कोई और।

आज विवेकानंद याद आ रहे हैं । 11 सितंबर 1893 के अपने प्रसिद्ध शिकागो भाषण में उन्होंने कहा था - ‘‘सांप्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी बीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज कर चुकी है। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं, उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को विध्वस्त करती और पूरे पूरे देश को निराशा के गर्त में डालती रही है। यदि ये बीभत्स दानवी न होतीं, तो मानव-समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता।’’

इसके बाद ही 123 साल पहले उन्होंने यह कहते हुए कि ‘अब उनका समय आ गया है’ यह कामना की थी कि ‘‘आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घंटा-ध्वनि हुई है, वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होने वाले सभी उत्पीड़नों का, तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों की पारस्परिक कटुताओं का मृत्यु-निनाद सिद्ध हो।’’

स्वामी जी की कामना को लगभग सवा सौ साल बीत रहे हैं। विश्व शांति की कामना करने वाले अन्य संतों को गुजरे हजारों साल चले गये हैं। लेकिन इस बीभत्सता का कोई अंत नहीं दिखाई देता है। धर्म शायद इसकी एक आड़ भर है। समाजवाद के अंत के बाद, नई सहस्त्राब्दी में विश्व ट्रेड सेंटर के ढहने के बाद के ये 16 साल सिर्फ और सिर्फ विध्वंस के 16 साल साबित हो रहे हैं।

कुछ हैं जो इस विनाश को रचनात्मक विनाश कहते हैं। हफ्ता भर पहले मृत आल्विन टॉफलर ने अमेरिकी सेना के युद्ध अभियानों को ऐसे ही रचनात्मक अभियान बताया था। लेकिन अब तक तो हम इसके सिर्फ विनाश के ही साक्षी है, इसमें से किसी नई रचना की झलक तो नहीं देख पा रहे हैं। पूंजीवाद का आम संकट, अति-उत्पादन और मुनाफे की दर में अनियंत्रित गिरावट का आम रुझान - मार्क्स के बताये पूंजीवाद के पतन के इतने सारे प्रकट लक्षणों के बाद भी वह जो इसका अंत करके न्याय और समानता के ‘एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों’ की जयध्वनि करेगा, उसका निनाद कहीं सुनाई नहीं दे रहा है। अभी तो लगता है जैसे पूंजीवाद अपने अंत के साथ मानव जाति मात्र का अंत करके ही चूकेगा।

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