शनिवार, 9 जुलाई 2016

अवसाद की ओर बढ़ रहे वामपंथ पर क्षण भर


-अरुण माहेश्वरी

कल ज्योति बसु का जन्मदिन था। भारतीय वामपंथ के एक धीरोदत्त नायक का जन्मदिन। ‘उद्भावना’ पत्रिका ने जब अपना ज्योति बसु विशेषांक निकाला, उसके संपादकीय में सरला ने उन्हें याद करते हुए ‘स्थितप्रज्ञ’ के बारे में गीता के श्लोक को याद किया था - नहीं होता/ दुख में उद्विग्नमन जो, / और सुख में/ रहे नि:स्पृह, /राग, भय औ‘क्रोध/ जिसके नष्ट हैं- /उस पुरुष को स्थिर-बुद्धि कहा जाता।’’

वे भी क्या दिन थे ! सीपीआई(एम) के नवरत्न वाले पोलिटब्यूरो के दिन ! दमन-उत्पीड़न और प्रतिकूलताओं का कोई अंत नहीं था, लेकिन पार्टी के रास्ते में ठहराव का कहीं कोई नामो-निशान नहीं दिखाई देता था !

और आज, क्या स्थिति है ? ‘70-‘80 के उस जमाने के बिल्कुल विपरीत स्थिति। ऐसा लगता है जैसे कोई सामयिक गतिरोध नहीं, पूरे वामपंथ को कोई गहरा अवसाद घेर ले रहा है। अभी पश्चिम बंगाल में चुनाव के वक्त कांग्रेस के साथ किये गये समझौते पर सीपीआई(एम) की केंद्रीय कमेटी के बहुमत ने जिस प्रकार की प्रतिक्रिया दी , उससे तो लगता है जैसे गहरे हो रहे इस अवसाद में अब फ्रायडीय मृत्युकांक्षा (death drive) के लक्षण भी दिखाई देने लगे हैं।

आखिर क्या वजह है वामपंथ में आए इस भयंकर गतिरोध की ? क्या इस प्रकार के अवसाद या अपने में ठहर जाने के कारणों को हमेशा बाहरी परिस्थितियों में ही टटोला जाना चाहिए ? क्या किसी भी चीज के विकास या पतन के लिये सिर्फ उसके बाहर की परिस्थितियां ही जिम्मेदार होती है, या उसकी अपनी गढ़त में अन्तर्भूत कुछ ऐसी गुत्थियां होती है, जो उसके विकास की बाहरी प्रक्रिया के सामने भी अवरोध तैयार किया करती है ? हेगेल जिसे वस्तु के अंदर की ‘नकारात्मकता’ कहते हैं !

सीपीआई(एम) की अब तक की यात्रा को देखें तो पायेंगे कि उसने तो चरम प्रतिकूलताओं के बीच ही अपनी यात्रा की शुरूआत की थी, फिर भी शान के साथ भारतीय राजनीति की एक बड़ी शक्ति बनने की दिशा में एक के बाद एक डग भरती चली गई। उसने अपने को क्रांतिकारी पार्टी माना था, संसदीय जनतंत्र के स्थान पर एक नई व्यवस्था की लड़ाई की अन्तरराष्ट्रीय सेना की टुकड़ी, लेकिन हमारे देश में उसने असली सफलताएं अर्जित की संसदीय जनतंत्र की जमीन पर। यहां तक कि उसके एक सर्वप्रमुख नेता ज्योति बसु के देश का प्रधानमंत्री तक बनने की परिस्थिति आ गई।



तब फिर इधर के इन चंद सालों में उसके अंदर ऐसा क्या घटित होगया कि अब तो उसके लिये आगे की ओर एक कदम उठाना भी भारी लगने लगा है !

हम इसके कारणों की जांच के लिये 1989 और सोवियत संघ के अवसान के बाद की विश्व परिस्थितियों को ज्यादा तवज्जो देना नहीं चाहते। वह जबर्दस्ती अपने अंदर झांकने के बजाय बाहर में शत्रु की तलाश करके चुप बैठ जाने की बहानेबाजी होगी। जैसा कि हमने ऊपर कहा है, हमें तो आज सीपीआई(एम) की अपनी धातु की जांच की जरूरत महसूस हो रही है, ताकि जान सके कि आखिर कहां खोट है कि  आज वह अपने सामने आने वाली राजनीतिक चुनौतियों का सही ढंग से मुकाबला करने में लगातार असमर्थ साबित हो रही है। क्यों वह ज्योति बसु को प्रधानमंत्री के मसले पर चूक गई ? क्यों यूपीए-1 के प्रति सही दृष्टिकोण अपनाने और लोकसभा के स्पीकर पद पर बैठे अपने एक वरिष्ठ नेता सोमनाथ चटर्जी की भूमिका को समझने और उसे सम्मान देने में विफल हुई ? और, क्यों अभी पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के साथ किये गए गठजोड़ को सही संदर्भ में देखने में उसका यही बहुमत बुरी तरह से चूक रहा है ?

दरअसल सीपीआई(एम) के सामने ये तमाम चुनौतियां संसदीय जनतांत्रिक राजनीति के क्षेत्र से आई हुई चुनौतियां है। जब सीपीआई(एम) का एक क्रांतिकारी पार्टी के रूप में गठन हुआ था तब भी उसके सामने ऐसी कई चुनौतियां थी। मसलन्, एक बड़ा विषय यही था कि एक क्रांतिकारी पार्टी को संसदीय चुनाव में भाग लेते हुए राज्य सरकारों में शामिल होना चाहिए या नहीं। उस समय के नेतृत्व ने तब केरल की पहली कम्युनिस्ट सरकार के अनुभव की रोशनी में विचार करते हुए पार्टी के कार्यक्रम में धारा 112 को जोड़ा जिसमें इस प्रकार की हर संभावना का जनता की जनवादी क्रांति के हित में अधिक से अधिक लाभ उठाने की व्यवस्था की गई थी।

सीपीआई(एम) के लिये यह सवाल तब एक बड़े प्रश्न के रूप में सिर्फ इसीलिये आया था क्योंकि वह कभी भी अपने को सिर्फ संसदीय जनतंत्र के लिये बनी हुई पार्टी नहीं मानती थी। उसका मूल लक्ष्य था जनता की जनवादी क्रांति। संसदीय जनतंत्र में भागीदारी उसके अन्य राजनीतिक कामों की तरह ही एक अनुषंगी काम भर था। एक क्रांतिकारी पार्टी के रूप में उसकी अंतश्चेतना में संसदीय जनतंत्र के राजनीतिक ढांचे में काम करना उसका चयन नहीं, उसकी एक मजबूरी थी। कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की आनुवंशिक विरासत के तौर पर संसदीय जनतंत्र के प्रति नकार की एक ग्रंथी उसे जन्म से मिली थी। इसीलिये, गौर करने लायक बात है कि पूरा समय संविधान और संसदीय जनतंत्र के दायरे में काम करने के बावजूद, उसकी सांगठनिक गतिविधियों में अपनी क्रांतिकारी शुद्धता की रक्षा के लिये ‘संसदवाद’ से लड़ाई हमेशा उसका एक ऐसा पावन आदर्श रहा है, जिसकी दुहाई के बिना कोई भी संसदीय निर्णय तक नहीं लिये जाते थे। ‘संसदवाद’ एक नैतिक रोग है, यह उसके जन्मजात संस्कार का हिस्सा रहा है।

बहरहाल, जब तक सीपीआई(एम) का नवरत्न पोलिट ब्यूरो था, उसके अनुभवी और दक्काक नेताओं ने संसदीय जनतंत्र के दायरे से उसके सामने लगातार आने वाली वैसी सभी चुनौतियों का सफलता से मुकाबला किया, जो अन्यथा गैर-संसदीय कामों तक सीमित रहने के कारण शायद उसके सामने कभी भी नहीं आई होती या कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के सैद्धांतिक संस्कारों के चलते वह स्वयं में उनकी कल्पना भी नहीं कर सकता था। इस मामले में पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार के भूमि सुधार और पंचायती राज के सभी कार्यक्रमों के अलावा उद्योगों में संयुक्त क्षेत्र (Joint sector) अर्थात पूंजीपतियों के साथ सरकार के साझा उद्यम को लेकर पार्टी के एक राज्य सम्मेलन में उठी बेहद उत्तेजनापूर्ण बहस की यादें आज भी हमारे दिमाग में ताजी है। उस सम्मेलन में कामरेड रणदिवे ने पूरी बहस को समेटते हुए इस दलील के आधार पर सम्मेलन से संयुक्त क्षेत्र संबंधी प्रस्ताव को पारित करवाया था कि इसे हमारी सरकार के खिलाफ केंद्र सरकार के लगातार वर्गीय षड़यंत्रों के हमारे वर्गीय प्रत्युत्तर के तौर पर, हमारी वर्ग-संघर्ष की राजनीति के एक अभिन्न अंग के तौर पर ग्रहण किया जाना चाहिए।

लेकिन, जीवन-मृत्यु के सामान्य नियमों के अनुसार ही, काल क्रम में सीपीआई(एम) के राममूर्ति़, गोपालन,  सुन्दरैय्या, प्रमोद दाशगुप्ता, बीटीआर, बसवपुनैय्या, ईएमएस आदि की तरह के दक्काक नेता धीरे-धीरे जीवन के दृश्यपट से हट गये या असमर्थ होने लगे और 1996 में जब पार्टी के सामने केंद्र में एक गठजोड़ सरकार को नेतृत्व देने का सवाल आया, अनायास ही पार्टी के बहुत गहरे में बैठी मूलभूत ‘क्रांतिकारी’ नकारात्मक ग्रंथी जोर मारने लगी। अब तक संसदीय जनतंत्र की जिन तमाम चुनौतियों को स्वीकार करते हुए पार्टी का उपलब्ध राजनीतिक परिस्थिति में लगातार विकास हो रहा था, इसबीच ‘संसदवाद’ से लड़ाई के भ्रमों को पोषित करता हुआ पार्टी की केंद्रीय कमेटी का नया ‘क्रांतिकारी’ बहुमत अब इस नई, केंद्रीय सरकार को नेतृत्व देने की चुनौती के सामने ठिठक गया। सीपीआई(एम) के जीवन में पहली बार उसके अंतर की ‘संसदवाद-विरोधी’ नकारात्मकता ने अपना ठोस अवरोधात्मक रंग दिखाया, संसदवाद से बचने के जोम में एकबारगी जैसे संसदीय जनतंत्र की संभावनाओं को ही ठुकरा देने का रास्ता अपना लिया गया। बाद में ज्योति बसु ने बार-बार कहा, ‘ऐतिहासिक भूल हुई है और बस हाथ से निकल चुकी है’। आज बस निकल जाने की उनकी बात जैसे किसी देववाणी की तरह प्रतीत हो रही है। वह सिर्फ एक अवसर को गंवाने की बात नहीं थी। उसने पार्टी की पूरी चलती हुई गाड़ी को ही जैसे पटरी से उतार देने का काम किया। परवर्ती दिनों में उसे फिर पटरी पर लाने के सैद्धांतिक निर्णयों के बावजूद, केंद्रीय कमेटी पर उसी बहुमत की जकड़बंदी बनी रह गई जिनके लिये नये पार्टी कार्यक्रम में धारा 7.17 को जोड़ने की तरह के निर्णय महज एक कार्यनीतिक निर्णय से ज्यादा मायने नहीं रख सकते हैं !


इसके बाद का राजनीतिक घटनाक्रम हम जानते हैं। देवगौड़ा, गुजराल की सरकारों की कहानियां जानते हैं। और अंत में क्रमश : कांग्रेस के विकल्प के रूप में एनडीए के उभार का सच भी हमारे सामने हैं। संघ परिवार की तमाम बर्बर और असम्य गतिविधियों और 2002 के गुजरात के जनसंहार के बाद जनतंत्र के अस्तित्व की रक्षा की एक नई परिस्थिति पैदा हुई जिसमें सन् 2004 में वामपंथ के सहयोग से यूपीए-1 सरकार का गठन हुआ।

हमने देखा कि ‘संसदवाद-विरोध’ की ग्रंथी ने इसी बीच अंध-कांग्रेस विरोध की नई नकारात्मकता का रूप ले लिया और अकारण ही चार साल बीतते न बीतते अमेरिका से न्यूक्लियर संधि के नाम पर समर्थन वापस लेकर केंद्रीय कमेटी के इसी बहुमत ने फिर एक बार अपनी ‘क्रांतिकारिता’ की ध्वजा फहराई। इस फैसले में कितना संसदवाद-विरोध, कितना कांग्रेस-विरोध और कितना केरल और त्रिपुरा में मुख्य तौर पर कांग्रेस के साथ सत्ता की प्रतिद्वंद्विता की सचाई काम कर रही थी, यह पूरी तरह से कहना मुश्किल है। लेकिन, तत्कालीन महासचिव प्रकाश करात का पूरा तेवर उनके अंदर पैदा हो चुके एक अंध कांग्रेस-विरोध की नकारात्मकता को बताने के लिये काफी था।

कहना न होगा, तब से लेकर आज तक, भारतीय वामपंथ अपने विकास के रास्ते में अपने अंतर की इसी नकारात्मकता से टकराता हुआ जैसे एक बिल्कुल जड़ दशा में पहुंच गया है। यह नकारात्मकता कैसे अवसाद में बदल कर अब एक प्रकार की मृत्युकांक्षा के लक्षणों तक को व्यक्त करने लगी है, इसका प्रमाण मिला पिछली केंद्रीय कमेटी की बैठक में जब कमेटी की एक सदस्या ने इस बात पर पार्टी ही छोड़ दी कि बंगाल की पार्टी की उसके किये पर सिर्फ भर्त्सना करना ही काफी नहीं है, उसे उसकी इस करनी पर कड़ा से कड़ा दंड दिया जाना चाहिए था। अर्थात, प्रकारांतर से कहे तो, पार्टी को आत्महत्या कर लेनी चाहिए थी !

दरअसल, सीपीआई(एम) की आज की इस दशा पर जब हम इस तरह बिल्कुल दूसरे प्रकार से सोचने के लिये मजबूर हो रहे है, तो यह अकारण नहीं है। सचाई यह है कि सीपीआई(एम) में अभी का प्रभावी बहुमत अपने तमाम अनुभवों के बावजूद संसदीय जनतंत्र के अपने सच को नहीं पकड़ पा रहा है। वह यह नहीं देख पा रहा है कि संसदीय जनतंत्र स्वयं में किसी भी क्रांतिकारी राजनीति की रूमानियत से कम रोमांचक और चुनौती भरा राजनीतिक क्षेत्र नहीं है।

इस बात को और समझाने के लिये हम अंग्रेजी के लेखक जी. के. चेस्टरटन के उस कथन को यहां लाना चाहेंगे जो उन्होंने ‘जासूसी उपन्यासों के पक्ष में’ कहा था। वे बताते हैं कि कैसे जासूसी कहानी के पीछे यह एक बुनियादी समझ काम करती रहती है कि यह सभ्यता खुद में एक सबसे अधिक रोमांचकारी और सबसे अधिक विद्रोही रूमानियत से भरी चीज है। इसमें किसी चोर या डाकू की भूमिका नहीं, एक जासूस के रूप में पुलिस, उसकी निडरता, उसकी प्रखरता ही सबसे अधिक रोमांचकारी हुआ करती है। इसमें चोर-डाकू तो पुराने, घिसे-पिटे से दिखाई देते हैं। पुलिस का आकर्षण इस तथ्य पर आधारित होता है कि ‘साजिशों में सबसे अधिक गहरी और बहादुराना साजिश नैतिकता की साजिश होती है’। अपराधी का जीवन ऊबाऊ होता है, जबकि कानून के रक्षक की भूमिका में सच्ची दुस्साहसिकता दिखाई देती है। नित नवीनता ऊबाऊ होती है और ढर्रेवर, एक सा चला आ रहा कर्मकांडी जीवन आकर्षक होता है।

इसीलिये जब आप एक स्थापित राजनीतिक व्यवस्था के अंतर्गत काम करते हुए अपने लिये किसी सेंधमार की भूमिका को अपनाते हैं तो वास्तव में आप अपना राजनीतिक रोमांचकारी आकर्षण गंवा देते हैं और आपका सारा विद्रोही तेवर जासूसी उपन्यास के चोर-डाकू जितना ही ऊबाऊ और घिसा-पिटा दिखाई देने लगता है। इसका क्लासिक उदाहरण है हमारे माओवादी-नक्सलवादी। ऐसे हथियारबंद जन-पक्षधर समूहों की आज की सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति में ऐतिहासिक गति को जानना हो तो इसमें एरिक हाब्सवाम की किताब ‘Bandits’ से एक गहरी अन्तर्दृष्टि मिल सकती है। उनकी अभी की तमाम गतिविधियां संचार के आज के युग में जन-समाज में उनके प्रति जरा भी आकर्षण नहीं पैदा कर पाती है।

आज लगता है, सीपीआई(एम) की केंद्रीय कमेटी के बहुमत ने उसे ऐसी ही एक बुरी नकारात्मकता की स्थिति में ढकेल दिया है, जिसमें अंतत: उसके हाथ में अवसाद और मृत्युकांक्षा की तरह के लक्षणों के अलावा शायद ही कुछ और आ सकता है। आप इन्हें जितना भी 1978 के सलकिया प्लेनम और उसमें लिये गये जनक्रांतिकारी पार्टी के निर्माण के फैसले की याद दिलायेंगे, ये उतने ही जोर गले से ‘क्रांतिकारी पार्टी’ की बात करते दिखाई देंगे। आप सांप्रदायिक फासीवाद के खतरे के मुकाबले के लिये सभी जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष दलों के व्यापकतम मोर्चे की जितनी बात करेंगे, ये तत्काल वामपंथी ताकतों की एकता का नारा बुलंद करने लगेगे। अचानक ही, जैसे कब्र से निकाल कर, सीपीआई और सीपीएम के बीच के विचारधारात्मक मतभेदों में कमी की चर्चा शुरू हो जाती है। आप जब फासिस्टों के खिलाफ राजनीतिक ताकतों के व्यापक इंद्रधनुषी मोर्चे की बात करेंगे तो ये नये सिरे से अंबेडकर को उठा कर ‘लाल सलाम’ के साथ ‘जय भीम’ के नारे को जोड़ने की वैचारिक इंजीनियरिंग शुरू कर देंगे !

अगर कोई इन कसरतों को ही, अर्थात क्रांति कर नहीं सकते और संसदीय जनतंत्र के गंभीर खिलाड़ी बनना नहीं चाहते की तरह की विमूढता की़ स्थिति को ही, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद समझता है तो हमारा यह साफ मत है कि यह शुद्ध रूप में किसी प्रकार जीने के लिये तर्कों को जुटाने का यथास्थितिवादी अवसरवाद है। इस प्रकार, एक जगह आकर ठिठक कर खड़े हो जाना, जड़ता की स्थिति तक पहुंच जाना, यह किसी बाहरी कारण से नहीं, सीपीआई(एम) के अंदर पाली जा रही अपनी नकारात्मकता का परिणाम है जो सचमुच इसके भविष्य के लिये बहुत घातक है। इससे निकलने का रास्ता अपने अंदर की ऐसी तमाम नकारात्मकताओं को पूरे साहस के साथ झटक कर ही पाया जा सकता है।




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