गुरुवार, 28 जुलाई 2016

नामवर सिंह को उनके 90वें जन्मदिन पर बधाई


अरुण माहेश्वरी

आज नामवर जी के जन्मदिन पर फेसबुक ने अपनी ओर से हमें अपनी 2014 की इसी दिन की पोस्ट की याद दिलाई है। इसमें काशीनाथ सिंह की ‘घर का जोगी जोगड़ा’ को लेकर लिखी गई अपनी एक पहले की टिप्पणी के साथ हमने लिखा था - ‘‘आज नामवर जी का जन्मदिन है। हिंदी आलोचना की मुख्यधारा में संभवत: ज्ञान और विवेक का अकेला भरोसेमंद व्यक्तित्व। अकेला कर्ता और बाकी सब भर्ता। उनकी शतायु की कामना ऐसी है जैसे हम अपने लिये शतायु की कामना कर रहे हैं।’’

अब मात्र दो साल बाद, जब उनका 90वां जन्मदिन मनाया जा रहा है, परिस्थितियां इस कदर बदल सी गई है कि उनको दी जा रही तमाम शुभकामनाएं बहुत कुछ श्रद्धांजलियों सरीखी जान पड़ती हैं । कुछ मित्र अपने पुराने लेखों को फिर से रख रहे हैं, तो कुछ महज औपचारिकता निभा रहे हैं।

नामवर जी के लेखन का कथ्य और रूप के बीच पूर्ण सामंजस्य वाला युवा-सौष्ठव तो 1957 में प्रकाशित उनके ‘इतिहास और आलोचना’ के लेखों में ही पूरी तरह से प्रकट हो चुका था। ‘कहानी : नई कहानी’ के लेखों के साथ दरअसल वे आधुनिक काल की विडंबनाओं में प्रवेश करते हैं। इनमें ‘छायावाद’ और ‘इतिहास और आलोचना’ के लेखन जैसा साफ-सुथरापन भले न रहा हो, लेकिन, जैसा कि कला के प्रति रूमानी दृष्टि हर महान कला को विडंबनाओं की कला मानती है, इस संकलन के लेखों के अपने खास प्रकार के आकर्षण से कोई इंकार नहीं कर सकता है। लेकिन कहना न होगा,  ‘कहानी : नई कहानी’ के लेखों के साथ ही जैसे नामवर जी, विचार और विवेक के एक नए उन्मादपूर्ण क्षेत्र में प्रवेश करते हैं, जहां लेखक का उसके विषय से किसी भी प्रकार का तदाकार निरर्थक माना जाता है। आधुनिकतावादी विडंबना यही है कि लेखक अपने विषय से खुद को अलग करता जाता है। हेगेल का तो मानना था कि ऐसी विडंबनापूर्ण कला की रचना की कोशिश सिर्फ एक कमजोर कला ही तैयार कर सकती है। जाहिर है कि इस नये रूप में उनके लेखन का पूर्व कलात्मक सौष्ठत प्रतिहत होना ही था, और हुआ भी। नामवर जी की ‘कविता के नये प्रतिमान’ को इसके एक बड़े उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है।

नामवर जी ने अपनी अंतिम किताब ‘दूसरी परंपरा की खोज’ 1982 में लिखी थी। उसके बाद वे मूलत: भाषण या साक्षात्कार देते रहे हैं। फिर भी उनकी एक पुरानी चमक बनी हुई थी क्योंकि जिसे तथाकथित विवेक के उन्माद के दौर में साहित्य की परिपाटियों के अपने स्वतंत्र संसार की चमक कहा जा सकता है, नामवर जी ने उसे प्राप्त कर लिया था। ‘दूसरी परंपरा की खोज’ के जरिये उन्होंने खुद को साहित्य की परिपाटियों, अर्थात उसके कर्मकांडी क्रियाकलापों के बीच में फिर से स्थापित किया। और जब 2014 में हम उनके बारे में लिख रहे थे कि ‘‘हिंदी आलोचना की मुख्यधारा में संभवत: ज्ञान और विवेक का अकेला भरोसेमंद व्यक्तित्व। अकेला कर्ता और बाकी सब भर्ता। उनकी शतायु की कामना ऐसी है जैसे हम अपने लिये शतायु की कामना कर रहे हैं।’’ तब भले नामवर सिंह का लिखना बंद हुए तीन दशक से ऊपर बीत चुके हो, लेकिन इस बीच उनका कोई विकल्प भी नहीं बना था। रामविलास शर्मा अपने हिंदी नवजागरण के विषय को पीट-पीट कर इतना झीना कर चुके थे कि वह स्वत: पूरे परिदृश्य से, यहां तक कि अंत में खुद उनके सोच के दायरे से भी गायब होगया। अज्ञेयपंथियों के पास कभी भी कहने को कुछ नहीं था। और जनवादी आलोचना भी अपनी एक सामयिक चमक दिखा कर, मैदान छोड़ कर अध्यापकीय साहित्यिक कर्मकांडों में विसर्जित हो गई थी। ऐसे एक संभावनाशून्य समय में, नामवर जी के लेखक की पुरानी सुंदर प्रतिमा की गैर-लेखकीय गतिविधियां ही उनसे सामाजिक जीवन की नयी चुनौतियों के संदर्भ में एक सार्थक भूमिका के निर्वाह की अपेक्षाएं बनाए हुए थी। आदमी यथार्थ के बजाय उम्मीदों में भी कम सुंदर नहीं हुआ करता है !

बहरहाल, पिछले दो सालों में, उनकी वह प्रतिमा भी, उम्मीदों में बसी हुई प्रतिमा भी खंडित हो गई है। खास तौर पर जब अभी के शासकों की शह पर तीन विवेकवादी लेखकों डाभोलकर, पनसारे और कलबुर्गी की हत्याओं के बाद लेखकों के व्यापक समुदाय ने प्रतिवाद की आवाज बुलंद की, तब नामवर जी लेखकों के साथ नहीं, शासकों के साथ खड़े हुए पाए गए।

आज उनकी 90वी सालगिरह के मौके पर जो पूरा विवाद खड़ा हुआ है, उसके मूल में भी यही सचाई काम कर रही है। इसे बिल्कुल सही, उनसे की जा रही उम्मीदों के प्रति एक दगा के रूप में समझा जा रहा है।
फिर भी हम उन्हें जन्मदिन की शुभकामनाएं देते हैं।    

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