शनिवार, 14 अक्तूबर 2017

क्या प्रधानमंत्री पद से मोदी की विदाई 2019 के पहले ही नहीं हो जायेगी ?


-अरुण माहेश्वरी


पटना विश्वविद्यालय के शताब्दी समारोह में मोदी अपने चिर-परिचित, हाँकते जाने के अंदाज में बोल रहे थे अपना दुर्भाग्य कहूँ या पता नहीं क्या कहूँ, मैं उसे ऑनलाइनइकोनोमिक टाइम्सके वेबसाइट पर सुन रहा था चारों ओर से ढेर सारे लोग उनके भाषण पर तत्काल प्रतिक्रियाएँ दे रहे थे  

प्रधानमंत्री के भाषण पर लोगों का एक हिस्सा जहाँ उनके फेंकूपन पर स्वाभाविक तंज कस रहा था, वहीं एक हिस्सा इतनी गंदी भाषा का प्रयोग कर रहा था, जिसको कभी दोहराया नहीं जा सकता हैं उनकी बातों को हूबहू मोदी-शाह के ट्रौल उद्योग के उत्पादों का ही एक प्रतिरूप कहा जा सकता हैं  

जो काम भाजपा अब तक संगठित रूप से करती रही है, उसे ही आम लोगों ने अपने गहरे असंतोष को जाहिर करने की भाषा के तौर पर जिस प्रकार अपनाया हैं, यह उस पुरानी कहावत को ही चरितार्थ करता है कि सद्गुण बड़ी मुश्किल से अपनाये जाते हैं, लेकिन दुर्गुणों को अपनाने में लोगों को जरा भी देर नहीं लगती

बहरहाल, एक बात क्रमश: साफ हो रही है कि नरेन्द्र मोदी आज भारत में शासकीय राजनीति से जुड़ी तमाम बुराइयों के एक प्रतीक बनते जा रहे हैं लोगों से झूठे वादे करना, अपनी पसंद के चंद बड़े लोगों को लाभ पहुँचाना और आम लोगों से नफरत करना, उन्हें दरिद्र से दरिद्रतर बनाने में जरा सा भी हिचकिचाना, अपने रुतबे को कायम रखने के लिये आम लोगों को स्थायी डर और आतंक के माहौल में रखना, जनता की एकता को तोड़ना और भाई-भतीजा वाद - नरेन्द्र मोदी में ये सब बुराइयाँ पूरी तरह से मूर्त दिखाई देती है  

चूँकि आज भाजपा मोदी पार्टी है, इसलिये वह जीए या मरे, मोदी के अलावा उसके पास कोई विकल्प नहीं है अन्यथा सच यह है कि आज किसी भी कार्यक्रम में मोदी की उपस्थिति ही आम लोगों में एक प्रकार की वितृष्णा के भाव को पैदा करती है लोगों को उनके भाषण, हाथ लहराने तथा आँखें मटकाने वाली मुद्राएँ जहर की तरह लगने लगी है  


अभी 2019 में देरी है पता नहीं, इतनी सख़्त नफरत के साथ 2019 तक लोग कैसे प्रतीक्षा करेंगे गुजरात में भाजपा की बुरी हार के बाद ही भारतीय राजनीति का पूरा दृश्यपट उलट-पुलट जायेगा मोदी-शाह की विदाई के लिये संभव है 2019 तक की प्रतीक्षा करनी पड़े  

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