शुक्रवार, 20 अक्तूबर 2017

'शूद्र' और 'कलर आफ डार्कनेस'


—अरुण माहेश्वरी


दिवाली के सिर्फ एक दिन पहले, 17 अक्तूबर को एनडीटीवी के प्राइम टाइम पर रवीश कुमार की गिरीश मकवाना से वार्ता और उनकी फिल्म 'कलर आफ डार्कनेस' के बारे में चर्चा को सुन रहा था । आस्ट्रेलियाई समाज में कुछ साल पहले ही हुए रंगभेद के एक विस्फोट की पृष्ठभूमि में बनाई गई फिल्म । अपनी बातचीत के बीच में गिरीश अपने पिता का बार-बार उल्लेख करते हैं और आस्ट्रेलिया में जो हुआ उसके बारे में पिता के एक कथन को उद्धृत करते हैं कि किसी भी भारतवासी को तो इस प्रकार की जातीय हिंसा के बारे में कुछ कहने का कोई नैतिक हक ही नहीं है । हमारे देश में दलित समाज पर हिंसा और दलन को जिस प्रकार का सांस्थानिक रूप दे दिया गया है, वैसा दुनिया में शायद ही कहीं देखने को मिलेगा !

यद्यपि गिरीश आस्ट्रेलिया में सामने आए रंगभेद के अंधेरे के इस रंग को एक सार्वलौकिक सच बताते हुए कह रहे थे कि दुनिया के सभी समाजों में इस अंधेरे की छाया को किसी न किसी रूप में देखा जा सकता है । लेकिन इसके साथ ही वे जर्मनी, आस्ट्रेलिया, अमेरिका के उदाहरणों को देते हुए यह भी कह रहे थे इन सभी सभ्य देशों में नफरत के ऐसे तमाम अनुभवों के प्रति एक गहरे क्षोभ और प्रायश्चित का भाव भी दिखाई देता है । ऐसे तमाम उदाहरण मौजूद है जब इन देशों के जननेता न सिर्फ अपने काल की, बल्कि सुदूर अतीत की भी ऐसी घटनाओं पर क्षमा मांगते दिखाई देते हैं । लेकिन भारत एक ऐसा समाज है जिसमें सहस्त्र वर्षों से चले आ रहे जुल्मों के इतने लंबे इतिहास के बाद भी समाज में या उसके प्रतिनिधियों में अनुताप जैसी किसी चीज के लिये कोई जगह नहीं दिखाई देती है ।

बहरहाल, जिस समय रवीश का यह कार्यक्रम चल रहा था, वे फिल्म के कुछ गानों का चित्रांकन भी दिखा रहे थे, उसी समय समानांतर रूप से हमारे मन-मस्तिष्क में एक और कथा चलने लगी थी, जयपुर के पत्रकार बंधु त्रिभुवन जी की लंबी कविता 'शूद्र' की कथा । कार्यक्रम के अंत तक मैं अजीबोगरीब तरीके से सामने टीवी पर गिरीश मकवाना और मन में त्रिभुवन जी के 'शूद्र' की इन दो आपस में घुल-मिल जाती कथाओं के रंगों में डूबा रह गया ।

त्रिभुवन जी की कविता की कहानी का प्रारंभ होता है सन् 1459 के मेहरानगढ़ किले से जिसे अपने रावण हत्थे पर “भोपा गाता जा रहा था/ सभी को रुलाता जा रहा था ।“

“पंडित बोलाः जोधा राव से / ऐंठ कर पांडित्य के भाव से / किले की नींव में / शौर्य की सींव में / एक नर जीवित गड़ेगा / नहीं तो राजन / शत्रु आप पर भारी पड़ेगा ।

“वहीं एक गर्वीला ग्वाल था / नाम उसका / राजाराम मेघवाल था /...ब्राह्मणों की वह / आँखों की किरकिरी था / क्षत्रिय पुत्र / उस सिंह के समक्ष चिरी था / वैश्य से न वह / मांगता था ऋण कभी / टूटता न था उस विपन्न का प्रण कभी “

“वह आधारशिला बन गया / और उस पर दुर्ग चिन गया ।“

भोपा गाये जा रहा था और बच्चों के मन में सवाल पर सवाल छोड़े जा रहा था —

“ मां, क्या सब किले हत्यारों ने बनाए ?/ क्या सब किलों में शूद्र दबाए ?/ क्या सब शासकों ने नरसंहार रचाए ?“
“शुद्र न होता किला न होता /...अकबर बादशाह को सलाम न होता /...यह कहानी पुण्य / या पाप की नहीं /...यह कथा एक विश्व विकल की ।“

कहना न होगा, अंधेरे के रंग की, 'कलर आफ डार्कनेस' की ।

हां, हम शूद्र है । पर सवाल उठता है कि “किसने धरती का उद्धार किया ? / किसने पृथ्वी की भूख मिटाई ? /...अंधेरे में रह कर / कौन औरों के घर दीप जलाता ? /...किसने सबका कल्मष ढोया ?“

“हम न गजनी से आए / न खुरासान से /...न ब्रिटेन फ्रांस से / ...हम शूद्र थे, लेकिन हम न आर्य थे / न नवयुगीन आक्रांता /...हमने गंगा ढाली / यमुना, सिंधु और / सरस्वती निकाली / हमने मथुरा रची /...हम ही थे इस धरती के ललित ललाम /... हम थे तो राम थे, हम थे तो कृष्ण थे /...हम न होते तो होती द्रोण की कीर्ति कैसे ? /...कोणार्क न होता, / अजंता एलोरा का गुफाएं न होती /...हम न होते तो / मुमताज के लिये कैसे चिनवाते ताजमहल शाहजहाँ ? /...हम न होते / शिवाजी न होते / प्रताप न होते /...हम चले सूर्य चला /...हम न होते तो कबीरियत न होती /...बाबा साहब न होते तो यह गणतंत्र न होता /...हम नया स्वर्ण विहान /...हम नई जमीन/ हम नया आसमान / फिर शूद्र हीनात्मा क्यों /...कितने डरों के बीच / डरे हुए हैं जैसे साइकिलें ।“

और, यहीं से दृश्यपट एक नया मोड़ लेता है, जैसे अचानक सामने आ जाए गिरीश मकवाना ।

“हमारे भीतर दहकता है एक अग्निकुंड / पृथ्वी और आकाश गतिमान हमसे / हमीं से शिव तांडव काम का / हमारे जीवन में जगमगाते अंधियारो / कब यह धरती बदलेगी, कब आसमान डोलेगा / कब सिंहासन आँखे खोलेगा / ...हम गर्वीले वैभव इस धरती के / ...मथ चुके हम सागर कितना / हम नई सभ्यता वरेंगे, नई सुबह रचेंगे /...गन हमारी, गगन हमारा ।“

“हम शूद्र, हम शूद्र / शूद्र हम / इस अंधेरी रात का / जादू टूटेगा / सुनहरा सौंदर्य फूटेगा ।“

इसी बिंदु पर त्रिभुवन जी की पूरे 85 पृष्ठों की लंबी कविता का पटाक्षेप हुआ । हमारी आँखों के सामने गिरीश मकवाना का गर्वीला, अतीत के सारे संतापों से मुक्त सृजन की तृप्ति के भाव से भरा चेहरा कौंधता रहता है ।
सचमुच, अभी जो चल रहा है, जो चलता रहा है, वह हमेशा नहीं चलेगा, चल नहीं सकता । त्रिभुवन जी की भेजी यह किताब कई दिनों से मेज के कोने में पड़ी थी । रवीश के 'कलर आफ डार्कनेस' ने इसके अपने जगमगाते रंग को और भी तीव्र प्रकाश से भर दिया । त्रिभुवन जी को इस मूल्यवान रचना के लिये अशेष बधाई ।

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