शनिवार, 7 अक्तूबर 2017

समय जैसा है, उसे ही लिखा जाए (प्रेमचंद की तत्वमीमांसा और लेखक के पुनर्संदर्भीकरण की ज्ञान मीमांसा )

-अरुण माहेश्वरी



उपन्यास सम्राट प्रेमचंद : 1880 में जन्म ; 20वीं सदी के प्रारंभ के साथ लेखन का प्रारंभ ; और 1936 में मृत्यु की लगभग आखिरी घड़ी तक लेखन का एक अविराम सिलसिला। हिंदी के उपन्यास सम्राट।

उपन्यास विधा : अनुभव और यथार्थ का एक दीर्घ और रोचक आख्यान।

प्रेमचंद लिखते हैं : “उपन्यास लेखक को यथासाध्य नये-नये दृश्यों को देखने और नये-नये अनुभवों को प्राप्त करने का कोई भी अवसर हाथ से न जाने देना चाहिए।“ और साथ ही यह भी कि “ जब साहित्य की रचना किसी सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक मत के प्रचार के लिये की जाती है, तो वह ऊंचे पद से गिर जाती है, इसमें संदेह नहीं।“

अर्थात उपन्यास के लिये जो जरूरी है - वह है दृश्य, चित्र। ‘जीवन जैसा है’ के नाना रूपों और मानव चरित्रों के चित्र।

फिर भी, प्रेमचंद आदर्शवाद की बात भी करते हैं। उन्हें लगता है कि चूंकि संसार में बुराई का ही आधिक्य है, इसलिये कोरा यथार्थ-चित्रण आदमी को कमजोर बनायेगा, उसे निराशा से भरेगा। आदमी को कमजोर करना उनका अभीष्ट नहीं हो सकता, इसीलिये वे यथार्थवाद के साथ ही आदर्शवाद को भी जरूरी मानते हैं।

मत का प्रचार न हो, फिर भी आदर्श जरूर हो !

प्रेमचंद की शब्दावली में, यथार्थवाद अंधेरी कोठरी है और अंधेरी कोठरी में काम करते-करते थक चुके आदमी को आदर्शवाद ही स्वच्छ वायु का आनंद देता है। जबकि मतवाद - सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक मत का प्रचार - साहित्य के दर्जे को गिरा देता है।

यह उस समय की बात है जब आदर्शवाद और मतवाद में ज्यादा भेद नहीं किया जाता था। स्वतंत्रता और राष्ट्रीयता, समाजवाद और क्रांति, धर्म-निरपेक्षता और भाईचारा - इनमें कौन आदर्शवाद है और कौन कोरा मतवाद - कहना मुश्किल था। फिर भी प्रेमचंद में कोई दुविधा तो थी ही, जिसके चलते उन्होंने आदर्श को जरूरी माना, लेकिन मत के प्रचार को नहीं।

प्रेमचंद के लिखे पाठ को तो कोई बदल नहीं सकता। लेकिन समय बदल जाता है तो पाठक बदल जाता है। बीत रहा हर पल इतिहास में तब्दील होकर नये इतिहास-बोध, पाठ के नये अर्थ को तैयार करता है।
‘मत’ और ‘आदर्श’ को लेकर प्रेमचंद में दुविधा थी, लेकिन आज के पाठक के मन में शायद वैसी दुविधा नहीं है। मतवाद और आदर्शवाद पर्याय दिखाई देते हैं। आदर्शवाद की ओट में चला आरहा मतवादी दुराग्रह अब  और भी साफ है।

ऐसे में,  पुन: उपन्यास के मूल धर्म - ‘समाज जैसा है’ - उसे बिना किसी मुलम्मे के चित्रित करने की बात की जानी चाहिए। पूंजीवादी आदर्श और ‘पूंजीवाद जैसा है’, समाजवादी आदर्श और ‘समाजवादी समाज जैसा रहा है’, क्रांतिकारी आदर्श और ‘क्रांतिकारी पार्टियां जैसी है’, जनतंत्र और ‘जनतांत्रिक व्यवस्था जैसी है’ - इनके बीच चयन में ‘जैसा है’ को चुनने में अब किसी दुविधा का स्थान नहीं हो सकता। इस ‘जैसा है’ के चित्रण के कारण ही तो सारी दुनिया में हर प्रकार की तानाशाही, आततायी सरकारें लेखकों-कलाकारों को जुल्मों का शिकार बनाती है। यही सच इस बात का भी प्रमाण है कि लेखक का इससे बड़ा शायद दूसरा कोई आदर्श नहीं हो सकता।

सचमुच, यह समय ‘मत’ और ‘आदर्श’ के बारे में प्रेमचंद की दुविधा से मुक्ति का समय है।

इस पूरे विषय को ज्ञान और सत्य के बीच के एक सनातन तनाव के विषय के तौर पर भी देखा जा सकता है. एक आदमी सत्य की ओट में झूठ बोल सकता है. यह उसका दुराग्रह होता है जब वह तथ्यात्मक रूप से कही गई एक सही बात में अपनी कामनाओं या वासनाओं को छिपा रहा होता है. इसके विपरीत, दूसरा आदमी किसी उन्माद में, या भूलवश, अपनी इच्छा के विरुद्ध ही, झूठ कहता हुआ भी सच बोल जाता है. यह असल में तथ्यात्मक वस्तुनिष्ठता और आत्मनिष्ठ सत्य का द्वंद्व है. वास्तविकता यह है कि हर कथन में, हर बयान में कुछ खामोश संकेत छिपे होते हैं, जिन्हें आम तौर पर पंक्तियों के बीच के अंतराल और मौन कहा जाता है.

जब तक इन मौन संकेतों की रिक्तताओं को पकड़ा नहीं जाता है, पाठ के झूठ और सच का पूरी तरह से पता नहीं लग सकता है. और, इन्हें पकड़ने का एकमात्र तरीका है कि पाठ को ठोस, वास्तविक जीवन के संदर्भ में स्थापित किया जाए. पाठ में लेखक का सोच ही सब कुछ नहीं होता, जरूरी होता है उस सोच को ऐसे सकारात्मक और नकारात्मक संकेतों की श्रृंखला में उतारना जो इन मौन संकेतों के वास्तविक संदेश का वहन कर सके, पाठकों तक उन्हें सही ढंग से प्रेषित कर सके.

इसीलिये, जब भी आप ‘जैसा है वैसा’ बयान करेंगे, वह कोरा प्रकृतिवाद नहीं होगा. वह सच स्वत: नहीं, आपके जरिये व्यक्त हो रहा है. उससे आप वास्तव में एक ऐसा पूरा परिप्रेक्ष्य पेश कर रहे होते हैं, ताकि आपकी अपनी बातों के मौन संकेतों को भी पढ़ा जा सके. इसके अलावा, जो सच आपके सामने है, वह आपके मार्फत कैसे अभिव्यक्त होता है, उसी से यह भी जाहिर हो जाता है कि खुद आपने उस सच को कैसे ग्रहण किया है. पिछले दिनों अशोक वाजपेयी के बारे में अपने एक लेख में, आश्विच के वद्यस्थल पर खड़े कवि के भावों की अभिव्यक्ति से हमने जितना आश्विच को नहीं देखा, उससे बहुत ज्यादा खुद लेखक के सत्य को देखा था.

ऐसी ढेरों बातें होती हैं, जिन्हें हम अपनी कल्पना में महसूस करके ही उसे सच मानने लगते हैं. इनमें वास्तव में जीवन का वस्तु-सत्य नहीं, हमारी अपनी इच्छा-अनिच्छा बोल रहे होते हैं. इससे उचित-अनुचित का हमारा बोध भी व्याहत होता है. यह बात, सिर्फ लेखक पर नहीं, पाठक पर भी, हर व्यक्ति पर लागू होती है. ऐसे में, आम बाजारू लेखक, जब वह पाठ के जरिये अपने पाठक के रूबरू होता है, अक्सर वह किंचित निरपेक्ष होकर अपने लिये एक न्यायाधीश की भूमिका अपना लेता है. वह पाठक का मन टटोल कर उसके हित-अहित के बारे में न्याय सुनाने लगता है. यह पाठक के मनोविज्ञान में बैठ कर न्याय-निर्णय देने वाला एक प्रकार का खोजी नजरिया है जो आम तौर पर बाजार में काफी सफल साबित होता है.

तमाम बाजारू लेखन का यह एक मूल सूत्र है. लेकिन सवाल है कि क्या यह नजरिया पाठक का उसके जीवन के सच से साक्षात्कार कराने वाला नजरिया है ? भले यह पाठक का सामयिक तौर पर हित साधे, उसे लुभाये, उसका मनोरंजन भी करें, लेकिन यह उसे उसके सच से परिचित नहीं कराता. यह अन्तत: एक झूठ ही है, किसी झूठे आश्वासन की तरह का झूठ. इसमें पाठक के अपने विचार के अधिकार तक को छीन लिया जाता है. लेखक उसके लिये उसकी पसंद का एक भला-भला सा संसार रच देता है.

इसके विपरीत, पाठ में वस्तुनिष्ठता का दूसरा रास्ता है स्पष्टवादिता का, साहस के साथ सच को कहने का. बात को जीवन के ठोस संदर्भ के साथ स्थापित करने का. जब पाठक सच को जानने पर भी उसे स्वीकारने से इंकार कर रहा होता है, तब पूरी ताकत के साथ सच को रखने की जरूरत होती है. जब कोई जीवन का मजा भी लेगा, लेकिन भान ऐसा करेगा मानो वह यह मजा अपनी मर्जी से नहीं ले रहा, तो ऐसे में जीवन की ठोस सचाई के बयान से उसके छद्म नैतिक-मूल्यों के जंजाल को खत्म करने की जरूरत रहती है.

तथापि, लेखक के लिये, यह स्पष्टवादिता वाला रवैया ही अंतिम नहीं हो सकता है. पाठ का विश्लेषणात्मक विमर्श यदि कभी किसी छल-छद्म पर निर्भर नहीं करता, तो वह किसी भी प्रकार के बल पर भी आश्रित नहीं हो सकता है, भले वह तर्क का बल हो या न्याय-नैतिकता का बल. सबसे बड़ी सचाई यह है कि भाषा के अपने सारे मौन-मुखर संकेत अंतत: खुद में जीवित तर्क होते हैं. भाषा का प्रयोग ही तो किसी बात को रखने के लिये, किसी बात से इंकार करने या किसी बात को मनवाने के लिये किया जाता है. हर बात के अपने दो पहलू होते हैं. एक पक्ष होता है, दूसरा विपक्ष. हर बात को दूसरी बात से काटा जा सकता है. इसप्रकार, कहा जा सकता है कि अनिर्णय एक सर्व-व्यापी सच है.

प्रश्न यही है कि क्या ऐसे में, किसी भी एक धागे में, कथित तौर पर किसी विचारधारा के धागे में पिरो कर सारे विचारों को किसी प्रकार की स्थिरता प्रदान करने की क्या कोई जरूरत है ? जब विचार पहले से ही स्थिर है, एक निश्चित अर्थ का वहन करते हैं, वे खोखर नहीं होते कि उनमें कुछ भी डाला जा सके. तब फिर उन्हें और ज्यादा बांधने की, एक सूत्र में पिरोने की, एक चादर के तले लाने की क्या जरूरत है ? यहीं से शब्द और विचार की शक्ति के बारे में हम एक नये अभिज्ञान को अर्जित कर सकते हैं.

मूल बात यह है कि जो साफ तौर पर गलत है उसके भूल-भुलैय्ये में और ज्यादा भटकने की जरूरत नहीं है. वह हमारे जीवन में अप्रासंगिक है. कोई इसे किसी भी बहाने से, नैतिक या दूसरे कारणों से स्वीकारे या न स्वीकारे. बाबा रामदेव कैंसर का इलाज कर सकता है या योग में सारे ब्रह्मांड का ज्ञान समाया हुआ है, यह झूठ है. ऐसे झूठ को कोई किसी भी बहाने से कितनी बार भी क्यों न कहा जाए, उनकी जांच के भी चक्कर में पड़ने की जरूरत नहीं है. सच कहने के अलावा लेखक के पास दूसरा कोई रास्ता नहीं है, वह किसी को अच्छा लगे, या बुरा लगे; किसी को दुखी करे या सुखी करे. आदमी पाप के बोझ को लाद कर चले ताकि धर्म से उनका उद्धार किया जा सके, यह धर्माधिकारियों के हित का हो सकता है. लेखक का काम इसके ठीक विपरीत है. भले ऐसा करते हुए वह नितांत अलग-थलग और असामाजिक किस्म का किसी भूत जैसा ही क्यों न दिखाई देने लगे. रिल्के ने कहा था कि ‘सुंदरता तो पैशाचिकता का अंतिम आवरण है’. हर नई चीज डरावनी प्रतीत होती है.

इस समझ के साथ आगे बढ़ने पर ही, कहना न होगा, लेखक की अपनी भूमिका, पाठक के साथ उसके संबंध के सारे सवाल एक नई अर्थवत्ता ग्रहण करने लगेंगे. तभी हम, यह संसार जैसा है, वैसा ही उसे पेश करने के रास्ते की श्रेष्ठता को और भी अच्छी तरह से समझ सकेंगे. प्रेमचंद का लेखन इसी प्रकार पूरी उत्कटता से सच को कहने वाला लेखन है ।

'ज़िद्दी धुन' वेबसाइट पर इस प्रेमचंद जयंती (31 जुलाई 2017) पर मनमोहन के एक पुराने लेख को प्रसारित किया गया था । इस लेख में प्रेमचंद की यथार्थ दृष्टि के जरिये नवजागरण की एक समग्र प्रक्रिया में कथित हिंदी नवजागरण की अपनी खास असंगतियों पर सही ढंग से उँगली रखी गई थी । यह मूलत: एक विकासमान यथार्थवादी रचना दृष्टि की सफलता थी । काशी की पारंपरिक शास्त्रीयता से मुक्त दृष्टि की सफलता । लेकिन विचार का एक बड़ा सवाल अब भी असमाधित रह जाता है कि ऐसा क्या था कि अन्यों में यह उत्तरण संभव नहीं हुआ ? कथित सनातनी परंपरा की बेड़ियों को वे काट नहीं पायें जैसा प्रेमचंद में दिखाई पड़ता है ।

यह सवाल इसलिये बनता है क्योंकि हमारे सामने पूरी तरह से औपनिषदिक सोच की ज़मीन से पैदा हुए रवीन्द्रनाथ की भी एक समग्र तस्वीर है ।

सर विलियम जोन्स, एशियाटिक सोसाइटी और भारतीय पौर्वात्यवाद की पूरी मुहिम भी इसी बंगाल से शुरू हुई थी जिसने 11वीं सदी के बाद से 18 वीं सदी तक के काल को भारत का अंधकारपूर्ण मध्ययुग बताया था । विलियम जोन्स ने अपनी इस स्थापना से ब्रिटिश शासन की प्रगतिशीलता की जहाँ एक पृष्ठभूमि तैयार की, वहीं उसने इन सात सौ सालों में संस्कृत के बरक्स विकसित हुई सभी भारतीय भाषाओं को भी नकारने का काम किया । कबीर, रैदास से लेकर दादू, नानक - सिद्धों-नाथों के कामों को भी औघड़ों का काम घोषित कर दिया । यहाँ तक कि अभिनवगुप्त के स्तर की दार्शनिक, भाषाशास्त्री, धर्मशास्त्री, कवि और धर्मगुरु तक को विस्मृत करके शैवागमों की पूरी स्वतंत्र परंपरा को वेदान्ती परंपरा से खारिज कर दिया गया । एस एन दासगुप्त और देवी प्रसाद चटर्जी के स्तर के भारतीय दर्शन के इतिहासकारों में भी यह कमी दिखाई देती है ।

मनमोहन के इस लेख में बिल्कुल सही भक्ति आंदोलन को अन्य कईयों से एक अलग स्थान पर रखा गया है । दरअसल, कबीर यदि भक्ति साहित्य में अलग दिखाई देते हैं तो उसके मूल में अपभ्रंश की मध्यस्थता से तैयार हो रही उनकी खड़ी बोली की भाषा की भी एक भूमिका है ।

रवीन्द्रनाथ भारत के बारे में अंग्रेज़ों के सांस्कृतिक इतिहास के विश्लेषण से काफी पहले ही मुक्त हो गये थे । इसीलिये शास्त्र-ज्ञान उनकी बेड़ी नहीं बना, बल्कि और ऊँची उड़ान का हेतु बन कर सामने आया । हिंदी के काशी के पंडित उसमें फँस कर रह गये । और प्रेमचंद का सौभाग्य था कि वे उस ज़मीन से उठे ही नहीं थे ।

भारतीय नवजागरण और हिंदी नवजागरण के तमाम सांस्कृतिक संदर्भों में प्रेमचंद की यथार्थवादी रचना दृष्टि के अपने तात्विक विकास के इस आख्यान में हिंदी साहित्य के अपने इतिहास से जुड़ा एक और, ज्यादा समसामयिक प्रश्न भी अविवेचित रह गया है कि आख़िर क्यों प्रेमचंद को खास तौर पर आजादी के बाद हिंदी में पुराना पड़ गया माना जाने लगा था और फिर वे कैसे यकबयक सबको बिल्कुल नवीन और ताज़ातरीन दिखाई देने लगे ?

इस सवाल का जवाब हमें प्रेमचंद के अंदर से जितना नहीं मिलेगा, उससे बहुत ज्यादा उनके बाहर से, जीवन के नये संदर्भों से मिलेगा । आजादी और बँटवारे ने गांधी जी के अनुयायी, स्वतंत्रता सेनानी प्रेमचंद के युग का अंत कर दिया था । न सिर्फ अंग्रेज़ चले गये, बल्कि बँटवारे से उनके काल की विकराल हिंदू-मुस्लिम समस्या का एक समाधान हो गया था । यही टिपिकल उत्तर-औपनिवेशिक काल था । ज़मींदारी उन्मूलन और पंचवर्षीय योजनाओं ने प्रेमचंद के समय के कृषि क्षेत्र के भी पुराने अंतर्विरोधों को पीछे धकेल दिया था ।

यह तो इतिहास का एक नया चक्र था जिसमें आजादी के लगभग दो दशक बाद, सन् '67 में राजनीतिक मोहभंग की पहली अभिव्यक्ति हुई, भूमि सुधार के नये संघर्ष, सन् '75 के आंतरिक आपातकाल, जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी के उभार से सांप्रदायिकता की नई चुनौती और सन् '80 के पहले से ही शुरू हो चुके ढाँचागत समायोजन के दौर ने सन् '80 में प्रेमचंद की जन्मशताब्दी के मौक़े पर उन्हें नये संदर्भों में पुनर्जीवित कर दिया ।

यह एक नये राजनीतिक-सामाजिक इतिहास के अंदर से  प्रेमचंद का पुनरोदय था । जिन्होंने उन्हें पुराना मान कर कबाड़खाने में डाल देना चाहा था, वे भी उनके इस नये जन्म से लगभग सकते में थे । साहित्य के नये जनवादी उभार के लिये तो प्रेमचंद उसके संघर्षों की मशाल बन गये, लेकिन प्रयोगवादियों, आधुनिकतावादियों के लिये भी वे कबाड़ख़ाने की चीज नहीं, बल्कि साहित्य के अति मूल्यवान सहेज कर रखने लायक एंटीक बन गये । देखते-देखते प्रेमचंद के सारे पात्रों की फ़ौज भी समाज में चारों ओर दिखाई देने लगी । जिन्हें व्यतीत मान कर आगे की सुध लेने की कल्पनाएँ की जा रही थी, वे साक्षात अपनी मुक्ति की माँग के साथ सामने दिखाई देने लगे और आपको पीछे घसीटने लगे । सन् '36 में ही धरती से रुखसत कर चुके प्रेमचंद इतिहास के इस नये फेरे में नये भारत की लड़ाई के लेखक प्रेमचंद बन गये ।

लेखकों के मूल्याँकन में उनके इस प्रकार के पुनर्संदर्भीकरण की कितनी बड़ी भूमिका होती है, इसे बंगाल में रवीन्द्रनाथ के शताब्दी वर्ष में देखा गया था । कम्युनिस्टों द्वारा कभी बुर्जुआ कवि के रूप में तिरस्कृत रवीन्द्रनाथ का तब प्रगतिशील साहित्य और विचार के सर्वकालिक श्रेष्ठतम प्रतीक के रूप में  पुनर्जन्म हुआ था ।

इसीलिये, इधर मुक्तिबोध शताब्दी के मौक़े पर, जब उनकी जीवन दृष्टि और रचना-विधान को लेकर कई पुराने सवालों को नये सिरे से उठाया जा रहा है, तब सिर्फ उनका झंडा लहराने से शायद ही कुछ हासिल होगा । इतिहास के वर्तमान चरण में उनका पुनर्संदर्भीकरण करने की ज़रूरत है । 'लहक' पत्रिका में अपने लंबे लेख में हमने इसी ओर ध्यान खींचने की कोशिश की है । लेखक की तात्विकता नये जीवन संदर्भों में, वह ज्ञान मीमांसा का नया संदर्भ भी हो सकता है, कई नये अर्थ देने लगती है और समय के साथ उसे समान रूप से जीवित बनाये रखती है , बशर्ते हम इन नये संदर्भों के फ्रेम में उसे उतार सके। इसमें इतिहासबोध और इतिहासीकृत अध्ययन की बड़ी भूमिका होती है ।

मेरे अनुसार मुक्तिबोध का पुनर्संदर्भीकरण (recontextualisation) वैसे तो सन् '90 के काफी पहले की ही, लेकिन खास तौर पर '90 के बाद की समाजवादोत्तर मार्क्सवादी ज्ञान मीमांसा के नये संदर्भों में ही किया जा सकता है । मुक्तिबोध साहित्य और उसकी समीक्षा के मानदंडों की जिन समस्याओं से जूझते रहे थे, वे इसी संदर्भ में आज बेहद समीचीन और जीवंत दिखाई पड़ते हैं । अन्यथा, तमाम सदीच्छाओं के बावजूद, हम ही उन्हें विस्मृतियों के ढेर में दफ़ना देने के दोषी बनेंगे । राम नाम का जाप करते हुए उनकी शवयात्रा में शामिल हो जायेंगे ।

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