मंगलवार, 10 अप्रैल 2018

2019 के बाद के भारत की एक सकारात्मक परिकल्पना

—अरुण माहेश्वरी


लगता है अब पिछले साढ़े तीन दशक से भी ज्यादा समय से चल रहे भारत के संसदीय जनतंत्र के क्लासिक के एक दीर्घ अंक का पटाक्षेप होने वाला है । सन् '91 से शुरू हुए उदारतावाद के चक्र की त्रासदियां मोदी शासन में अपनी चरम परिहासमूलक गति को पाकर इस वृत्त को पूरा करने जा रही हैं । आज राजनीति का पर्याय बनी हुई मोदी की नित नई पोशाकों, बनने-ठनने, हांकने, विदेशी नेताओं से खिलखिला कर गले मिलने, बड़े लोगों की सोहबत में चमकने और आम लोगों तथा संवैधानिक संस्थाओं के प्रति हिकारत में बौखलाए रहने ने अब उन्हें और उनके साथ ही विकास के पूरे उदारवादी मॉडल को जन समाज में उपहास और तिरस्कार का पात्र बना दिया है । अब आगे यह और घिसटने लायक भी नहीं रह गया है ।

आजाद भारत की राजनीति पहला चक्र था सन् '47 से '77 तक का । वाजिब कारणों से ही वह भी इस क्लासिक का एक दीर्ध अंक ही था । देश की सार्वभौमिकता, जनतांत्रिक और नागरिक स्वतंत्रताओं, राज्य के संघीय ढांचे, सामाजिक न्याय, जमींदारी उन्मूलन को इस दौरान सांस्थानिक स्वरूप दिया गया । एक वैविध्यपूर्ण समाज के अनुरूप राजनीतिक व्यवस्थाएं बनीं । मिश्र अर्थ-व्यवस्था का दौर था । सार्वजनिक क्षेत्र की प्रमुखता के साथ ही निजी क्षेत्र को भी बढ़ाने का दौर ; पंचवर्षीय योजना और खुला बाजार साथ-साथ का दौर ; लाइसेंस राज और फिर बैंकों का राष्ट्रीयकरण भी साथ-साथ ; हरित क्रांति और सामंतवाद साथ-साथ ; समाजवाद और पूंजीवाद-सामंतवाद साथ-साथ । और अंत में सन् '75 और फिर सन् '77 में देखा गया — तानाशाही और जनतंत्र भी साथ-साथ । कुल मिला कर जनतंत्र की रक्षा और विस्तार की प्रतिश्रुतियों के साथ राजनीति के उस वृत्त के अंत के साथ ही एक नये वृत्त का उदय हुआ ।

यह नया चक्र संसदीय क्लासिक का अपेक्षाकृत एक संक्षिप्त अंक था। सन् '80 से '91 तक के महज एक युग का अंक । सत्ता का विकेंद्रीकरण, पंचायती राज, भूमि-सुधार, और सामाजिक न्याय के साथ ही कम्प्यूटरीकरण, विश्व बैंक-आईएमएफ के जरिये नये प्रकार के विदेशी वाणिज्यिक बैंकों के निवेश से विश्व-अर्थ-व्यवस्था से संपर्कों का दौर । इसने एक अभूतपूर्व आर्थिक गतिरोध के साथ ही जातिवाद की प्रतिद्वंद्वी सांप्रदायिक राजनीति को भी फर्स से अर्स की ओर जाने का एक नया वेग दिया ।

उधर सन् '89 में सोवियत संघ में समाजवाद का पतन क्या हुआ, समाजवाद शब्द सिर्फ हमारे संविधान की पोथी में ही रह गया और भारत एकध्रुवीय विश्व के अमेरिकी जहाज पर चढ़ने के लिये मचल उठा । चीन को अमेरिकी पूंजी पर फलता-फूलता देख सन् '91 के वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने आर्थिक विकास का जो नव-उदारवादी रास्ता तय कर दिया, वह, कहना न होगा, साढ़े तीन दशकों का अब तक का दीर्घतम अंक साबित होने जा रहा है । इसमें एक नये मध्य वर्ग का उदय हुआ, बाजार चमकने लगे, आर्थिक अखंडता में भी अभूतपूर्व शक्ति आई । देखते-देखते क्षेत्रीय जातीयतावाद कमजोर पड़ता दिखाई दिया तो शासन के खेल के लिये हिंदी प्रदेशों में कुछ और नये राज्य भी बन गये । लेकिन वैश्वीकरण के लाभ लेंगे तो वैश्विक बीमारियों को भी उनके साथ ही लेना होगा । सारी दुनिया की रोजगार-विहीन(jobless), निष्ठुर (ruthless), जड़-विहीन (rootless), वाणीहीन (voiceless) विकास की लाइलाज बीमारी ने भी इसी दौर में भारत को भी धीरे-धीरे अपने पाश में जकड़ लिया । और आज स्थिति यह है कि आखिर के इन चार सालों में दुनिया की इस कथित 'सबसे तेजी से बढ़ती हुई' अर्थ-व्यवस्था में दुनिया दुरबीन ले कर अपने बाजार के लिये भारत में मध्य-वर्ग की खोज कर रही है । कल तक जो अपने धनी होने पर इतरा रहे थे, आज सड़कों पर कटोरा लेकर प्रदर्शन करते देखे जा रहे हैं । चार साल से लगातार हैपिनेस इंडेक्स में भारत नीचे, नीचे, और नीचे जाता जा रहा है । बाजार में मुर्दानगी छाई हुई है । चारों ओर से भूख का क्रंदन सुनाई देने लगा है । तमाम संस्थाएं मुरझाती सी लग रही है । योजना आयोग का तो अंतिम संस्कार ही कर दिया गया । नौजवान आबादी वाला देश तेजी से बेरोजगार नौजवानों की एक सबसे बड़ी और खतरनाक कट्टरवादी फौज वाला देश बन रहा है । 'इकोनोमिस्ट' पत्रिका के अनुसार, भारत की आधी से अधिक आबादी दुनिया के सबसे गरीब सब-सहारन अफ्रीकी देशों के सबसे गरीब लोगों के स्तर का जीवन-यापन कर रही है । 40 प्रतिशत से ज्यादा आबादी बांग्लादेश, नेपाल, और पाकिस्तान के गरीबों का जीवन जीती है । और भारत का वाचाल प्रधानमंत्री अपने नोटबंदी और जीएसटी के पागलपन के साथ तुगलक के एक नये अवतार की तरह दिखाई देने लगा है ।


यह नव-उदारवाद का पूरा दौर, भारत के ग्रामीण क्षेत्र के साथ अजीब प्रकार के औपनिवेशिक व्यवहार का दौर रहा है । ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी निवेश कम होता गया और सरकारी बैंकों का संजाल गांवों से बड़े पैमाने पर धन की निकासी के साधन की तरह काम करने लगा । सरकारी बैंकों का देहाती क्षेत्रों में जमा और कर्ज की राशि का अनुपात इस पूरे काल में बैंकों के इस औसत अनुपात से काफी कम रहा । भारतीय समाज में शासन के इस नये चक्र को किसान जनता की लूट और उसके साथ खुली धोखाधड़ी के चक्र की संज्ञा देना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । सुनियोजित तरीके से कृषि उत्पादों की कीमतों को अलाभकारी बना कर हरित क्रांति के सारे लाभों पर पानी फेर दिया गया । एक वाक्य में — 'यह किसानों की आत्म-हत्या का दौर है' ।

कहना न होगा, मोदी शासन में सन् '91 के बाद के चक्र का अंत जनता के जीवन-स्तर के लिहाज से स्वयं में एक सबसे कारुणिक अंत होगा । इसके बाद, जो अब तक चल रहा है, उसे सुचिंतित ढंग से मूलभूत रूप में अगर नहीं बदला गया और उसे ही चलाने की कोशिश जारी रही, तो यह तय है कि बहुत जल्द ही भारत से संसदीय जनतंत्र के इस क्लासिक का अंतिम रूप में पटाक्षेप हो जायेगा । यह दौर अपने अंत के साथ संसदीय जनतंत्र की अंतिम विदाई का दौर साबित होगा । भारतीय वामपंथ की प्रकट राजनीतिक विफलताओं को देखते हुए भारत को साम्राज्यवादियों की मध्यपूर्व वाली साजिशों का एक नया क्षेत्र बनते देर नहीं लगेगी । फासिवादी और विभाजनकारी ताकतें खुल कर खेलेंगी । राष्ट्रीय एकता और अखंडता के धुर्रे उड़ने लगेंगे ।

यह सच है कि आज जनता का हर हिस्सा असंतोष और आक्रोश से भरा हुआ सड़कों पर उतरा हुआ है । गांव और शहर के बीच का तनाव यदि अपने चरम पर है तो संप्रदायों और जातियों के बीच की तनातनी का कोई अंत नहीं दिखाई देता है । जिस दौर में राष्ट्र की आर्थिक अखंडता में हमने एक अभूतपूर्व वृद्धि देखी, उसी दौर के अंत तक आते-आते, 15वें वित्त आयोग के स्वेच्छाचार और मोदी सरकार के मनमानेपन के चलते दक्षिण और उत्तर भारत में ही नहीं, राज्यों-राज्यों के बीच जीएसटी से बटोरे गये धन के बटवारे के नाम पर आपसी विवाद के बीजों को बोया जा चुका है । संघीय ढांचे की जड़ों में मट्ठा डाला जा चुका है ।

भारत में संसदीय जनतंत्र की संभावनाओं का कोई ऐसा बिखरावकारी दुखांत न हो, सन् 2019 के चुनाव से इसके आगे विकास का एक नया संभावनापूर्ण चक्र शुरू हो सके, इसके लिये ही सबसे बड़ी जरूरत है कि अभी से शासन की नीतियों के बारे में नये सिरे से बिल्कुल मूलभूत ढंग से विचार और क्रियाशीलता की शुरूआत होनी चाहिए ।

जनतांत्रिक व्यवस्था की सबसे बड़ी विडंबना है कि इसमें आम तौर पर राज्य की जिम्मेदारी उस जनता के हितों में काम करने की होती है जो अक्सर अपने हितों के प्रति सचेत नहीं होती है । सभ्यता की ओर  समाज की अग्रगति में राज्य का अर्थ है कि वह जनता की आकांक्षाओं, उसके विश्वास, समाज में समानता और जनता के डर से चले, क्योंकि उसके जरिये जनता का सामूहिक प्रतिनिधित्व व्यक्त होता है । राज्य की प्रत्येक नीति पर विचार के वक्त इस मानदंड का जरूर प्रयोग किया जाना चाहिए । राज्य का अर्थ सिर्फ नौकरशाही, सेना, पुलिस, न्यायपालिका और कोरी तकनीक नहीं है । जनता को छोड़ कर राज्य को चलाने का मतलब है राज्य को सिर्फ दमन के यंत्र के रूप में एक पैर पर चलाना । जनता की आकांक्षाओं, उसके विश्वास, सामाजिक समानता और जनता के डर से संचालित राज्य ही वास्तव में दो पैरों पर खड़ा राज्य कहला सकता है । गांधी जी के इस कथन का कि राज्य की किसी भी नीति को तय करते वक्त समाज के सबसे नीचे के पायदान पर खड़े आदमी को विचार के केंद्र में रखा जाए का भी तात्विक अर्थ यही है ।

जहां तक सांप्रदायिकता और जातिवाद के आधार पर किये जा रहे भेद-भाव का सवाल है, निर्द्वंद्व भाव से यह मान कर चला जाना चाहिए कि यह सब समाज के सबसे गरीब लोगों के खिलाफ की जाने वाली साजिशों के अलावा कुछ नहीं है और राज्य को इनका पूरी ताकत के साथ बेझिझक दमन करना चाहिए । सांप्रदायिकता के एजेंडे को हमेशा के लिये भारतीय राजनीति से विदा करने का समय आ गया है । सांप्रदायिकता से जुड़ी राष्ट्रवाद की तमाम बातें कोरी प्रवंचना के सिवाय और कुछ नहीं है ।

2019 के बाद का भारत सांप्रदायिकता-मुक्त, जातिवादी उत्पीड़न से मुक्त एक समतापूर्ण भारत होगा, इस प्रण के साथ यदि राजनीतिक शक्तियों का नया गठजोड़ कायम किया जाता है, तभी वहां से संसदीय जनतंत्र के एक नये और विकासमान चक्र का उदय हो सकता है । खास तौर पर कृषि क्षेत्र के बारे में स्पष्ट तौर पर यह ऐलान करना होगा कि यह भारत के शासन की सबसे पहली और बड़ी प्राथमिकता का क्षेत्र होगा । इस क्षेत्र से धन की निकासी करके शहरी और औद्योगिक विकास के कामों में फूटी कौड़ी भी नहीं लगाई जायेगी ।

आज भी भारत की आबादी का लगभग सत्तर फीसदी हिस्सा गांवों में रहता है और वही हमारी जनता का सबसे गरीब तबका भी है । हम जनता से तो उम्मीद करते हैं कि वह राष्ट्र के निर्माण में अपनी उत्पादक ऊर्जा का योगदान करें और इसके साथ ही उन्हें भूखों रहने के लिये मजबूर भी करते हैं ! यह कैसे चल सकता है ?

2019 के बाद के भारत की सारी नीतियां कृषि क्षेत्र को समृद्ध करने के उपायों पर केंद्रित होनी चाहिए । सरकार शहरी और औद्योगिक क्षेत्र के लिये बैंकों के जरिये देहातों से धन जुटा कर देने की नीति से अपने को पूरी तरह से अलग करके सन् '91 के बाद से इसमें जो असंतुलन पैदा हो गया है, उसे दूर करेगी । औद्योगीकरण और कृषि क्षेत्र के विकास को कभी भी अलग-अलग करके नहीं देखा जाएगा । यह पूरे राष्ट्र के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक एकीकरण की एक मूलभूत शर्त है । यह साफ ऐलान करना चाहिए कि 2019 के बाद का भारत ऐसी किसी भी नीति को नहीं अपनायेगा जिसकी कीमत किसान जनता को चुकानी पड़े । इसके अलावा ऐसी हर योजना को स्थगित कर देना होगा जो पहले से मौजूद सामाजिक और क्षेत्रीय विषमताओं को बढ़ाती है । 2019 के बाद के भारत को जातियों, संप्रदायों, क्षेत्रों और केंद्र तथा राज्यों के बीच सभी राजनीतिक और सामाजिक असंतुलनों को खत्म करने पर ध्यान देना होगा ।

भारत के संसदीय जनतंत्र को यदि फिर से पटरी पर लाना है तो 2019 के बाद की प्रतिश्रुतियों में यह साफ तौर पर कहना होगा कि भारत के मजदूरों, किसानों, उत्पीड़ित जनों, अल्पसंख्यकों, नौजवानों, छोटे-छोटे उद्योगों और छोटे कारोबारों के हितों को प्राथमिकता दे कर ही सरकार की सारी नीतियां तय होगी । सरकारी खजाने से पूंजीपतियों को किसी भी प्रकार की कोई रियायत नहीं दी जायेगी । लघु और मंझोले उद्योग ही शहरों और गांवों के बीच के असंतुलन को खत्म करने के सबसे कारगर औजार होते हैं । सरकार हर प्रकार की इजारेदारी को सक्रिय रूप में हतोत्साहित करेगी । तकनीक का विकास और इजारेदारी को परस्पर पूरक मानने की भ्रांत धारणा से नई सरकार को मुक्त रहना होगा ।

मोटे तौर पर इन वैकल्पिक नीतियों के आधार पर सभी धर्म-निरपेक्ष ताकतों का संयुक्त मोर्चा बना कर मोदी शासन के अंत से ही भारतीय जनतंत्र के एक नये सकारात्मक चक्र के प्रारंभ की ओर बढ़ा जा सकता है ।   

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