मंगलवार, 24 अप्रैल 2018

न्यायपालिका और उसकी स्वतंत्रता का सत्य

—अरुण माहेश्वरी


राजनीति में जिस प्रकार लोगों के नित नये रंग दिखाई देते हैं उनसे शायद गिरगिट को भी रंग बदलने की अपनी क्षमता की श्रेष्ठता पर संदेह होने लगेगा । एक दिन पहले तक जो लोग न्यायपालिका को पंगु कर देने में पूरी ताकत से लगे हुए थे, आज अचानक ही न्यायपालिका की स्वतंत्रता और पवित्रता के झंडा-बरदार बन के पूरे विपक्ष पर संविधान से विश्वासघात का शोर मचा रहे हैं । जजों की नियुक्तियों के बारे में सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम की सिफारिशों पर कुंडली मार कर पूरी न्याय-प्रणाली से उसकी प्राणशक्ति को सोख लेने वाले लोगों में अचानक न्यायपालिका के प्रति भारी प्रेम उमड़ने लगा है ! सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की बेंच ने उनके अध्यक्ष अमित शाह को जज लोया के मामले से चिंता-मुक्त क्या किया, न्यायपालिका के प्रति उनकी नफरत को भारी प्रीति में बदलने में एक क्षण भी नहीं लगा !

बहरहाल, हमारे लोकतंत्र के स्तंभ माने जाने वाले विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका अथवा प्रेस का ही अपना  खुद का सत्य क्या होता है ? क्या हमारे लोकतंत्र की दुनिया की सचाई के बाहर भी इनके जगत का अपना-अपना कोई स्वतंत्र, स्वाधीन सत्य भी होता है ?

जब भी हम किसी चीज की विशिष्टता की चर्चा करते हैं, वह विशिष्टता आखिरकार इस दुनिया के बाहर की कोई चीज नहीं होती । वह इस दुनिया के तत्वों से ही निर्मित होती है । वह अन्य चीजों से कितनी ही अलग या पृथक क्यों न हो, उनमें एक प्रकार की सार्वलौकिकता का तत्व हमेशा मौजूद रहता है । उनकी विशिष्टता या पृथकता कभी भी सिर्फ अपने बल पर कायम नहीं रह सकती है । इसीलिये कोई भी अपवाद-स्वरूप विशिष्टता उतनी भी स्वयंभू नहीं है कि उसे बाकी दुनिया से अलग करके देखा-समझा जा सके ।

यही वजह है कि जब कोई समग्र रूप से हमारे लोकतंत्र के सार्वलौकिक सत्य से काट कर उसके किसी भी अंग के अपने जगत के सत्य की पवित्रता पर ज्यादा बल देता है तो वह कोरी प्रवंचना के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता है । इनकी अपवाद-स्वरूपता में भी हमेशा लोकतंत्र के सत्य की सार्वलौकिकता ही किसी न किसी रूप में व्यक्त होती है । इसीलिये जब एक ओर तो लोकतंत्र मात्र का ही दम घोट देने की राजनीति चल रही हो और दूसरी ओर उसके संघटक तत्वों के अपने जगत की स्वतंत्रता और पवित्रता का जाप किया जाता हो — यह मिथ्याचार नहीं तो और क्या है !

न्यायपालिका हो या इस दुनिया के और क्षेत्रों के अपने जगत का सत्य, वह उसी हद तक सनातन सत्य होता है जिस हद तक वह उसके बाहर के अन्य क्षेत्रों में भी प्रगट होता है । अर्थात जो तथ्य एक जगत को विशिष्ट या अपवाद-स्वरूप बनाता है, उसे बाकी दुनिया के तथ्यों की श्रृंखला में ही पहचाना और समझा जा सकता है। इनमें अदृश्य, परम-ब्रह्मनुमा कुछ भी नहीं होता, सब इस व्यापक जगत के के तत्वों को लिये होता है ।

यह बात दीगर है कि हर क्षेत्र के अपने-अपने जगत के सत्य अपनी अलग-अलग भाषा में सामने आते हैं । साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र के अपने भाषाई रूप होते हैं तो कानून के क्षेत्र के अपने, राजनीति के क्षेत्र के अपने । अर्थात, अपने को अन्यों से अलगाने के लिये वे अपनी खास भाषा पर निर्भर करते हैं, जिसका उन जगत में प्रयोग किया जाता है और निरंतर विकास और संवर्द्धन भी किया जाता है । लेकिन जिसे जीवन का सत्य कहते हैं — यथार्थ — वह तो सर्व-भाषिक होता है । वह एक प्रकार का जरिया है जिससे आप प्रत्येक विशिष्ट माने जाने वाले क्षेत्र में प्रवेश करते हैं । वही सबको आपस में जोड़ता है । अन्यथा सच यह है कि किसी भी क्षेत्र की अपनी खुद की खास भौतिक लाक्षणिकताएँ बाकी दुनिया के लिये किसी काम की नहीं होती है । उनसे उस क्षेत्र की अपनी तार्किकता, उनके होने की संगति भी प्रमाणित नहीं होती । इन लाक्षणिकताओं से सिर्फ यह जाना जा सकता है कि बाहर की दुनिया के सत्य ने उस जगत विशेष को किस हद तक प्रभावित किया है । इनसे उस जगत की अपनी क्रियाशीलता या कार्य-पद्धति का अनुमान भर मिल सकता है । इस दुनिया में जिस काम को पूरा करने के लिये उन्हें नियोजित किया गया है, उसे हम इन लक्षणों से देख सकते हैं । लेकिन इनका कुछ भी अपना नैसर्गिक या प्रदत्त नहीं होता । इनका सत्य अपने संघटक तत्वों को एक क्रम में, अपनी क्रियाशीलता की एक श्रृंखला में जाहिर करता है । न्यायपालिका के आचरणों की श्रृंखला दुनिया में उसकी भूमिका को जाहिर करती है । इस प्रकार एक लोकतांत्रिक दुनिया के अखिल सत्य के एक अखंड राग में ये सारी संस्थाएं महज बीच-बीच के खास पड़ावों की तरह है, अपनी एक खास रंगत के बावजूद उसी राग का अखंड हिस्सा । इन्हीं तमाम कारणों से हमने साहित्य के अपने स्वायत्त नगर का झंडा उठा कर उसकी स्वयं-संपूर्णता के तत्व का विरोध किया है ।

इकबाल का शेर है — 'मौज है दरिया में / वरु ने दरिया कुछ भी नहीं ।'

सत्य को असीम और खास प्रजातिगत, दोनों माना जाता है । उसकी खास क्षेत्र की विशिष्टता उसके अपवाद-स्वरूप पहलू को औचित्य प्रदान करती है, और बहुधा उस क्षेत्र के कारोबारियों के विपरीत एक नई समकालीन आस्था और विश्वास की जमीन तैयार करने का काम भी करती है । लेकिन हर हाल में वह इस व्यापक दुनिया के सच को ही प्रतिबिंबित करती है ।

यही वजह है कि मार्क्स अपने दर्शनशास्त्रीय विश्लेषण में समाज में संस्कृति, न्याय, कानून और विचार के तत्वों के ऊपरी ढांचे को उसके आर्थिक आधार से द्वंद्वात्मक रूप में जुड़ा हुआ देखने पर भी अंतिम तौर पर आर्थिक आधार को ही समाज-व्यवस्था का निर्णायक तत्व कहने में जरा सा भी संकोच नहीं करते । इसे दुनिया के इतिहास ने बार-बार प्रमाणित किया है ।


हमारे यहां न्यायपालिका के सच को हमारी राजनीति के सच से काट कर दिखाने की कोशिश को इसीलिये हम मूलतः अपने लोकतंत्र के सत्य को झुठलाने की कोशिश ही कहेंगे । आरएसएस की तरह की एक जन्मजात वर्तमान संविधान-विरोधी शक्ति के शासन में सरकार के द्वारा संविधान की रक्षा की बातें मिथ्याचार के सिवाय और कुछ नहीं हो सकती हैं !   

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