शनिवार, 21 अप्रैल 2018

गुटबाजी और 'क्रांतिकारिता'

लेनिन को याद करते हुए :
—अरुण माहेश्वरी

आज लेनिन का जन्मदिन है ।

1917 की नवंबर क्रांति के बाद पार्टी के अंदर की जिन प्रवृत्तियों से लेनिन को लगातार लड़ना पड़ा था उसमें प्रमुख थी वामपंथी उग्रतावाद की अराजक प्रवृत्ति । 1920 में इसके नाना आयामों पर उनकी पूरी किताब आई — 'वामपंथी' कम्युनिज्म - एक बचकाना मर्ज ।

लेनिन ने बोल्शेविक पार्टी को बार-बार यह याद दिलाया था कि वर्षों तक इस “निम्न-पूंजीवादी क्रांतिवाद के खिलाफ लड़ कर ही बोल्शेविज्म बढ़ा, पनपा और मजबूत हुआ है ।”

उन्होंने इस प्रकार के निम्न-पूंजीवादी क्रांतिकारीपन के बारे में साफ कहा था कि “यह कितना क्षणिक, कितना बंजर होता है और कितनी जल्दी वह आत्म-समर्पण, उदासीनता, मृग-मरीचिका और यहां तक कि किसी न किसी “फैशनी” पूंजीवादी प्रवृत्ति के प्रति “घोर” आकर्षण में भी बदल सकता है इसे सभी जानते हैं ।”

रूसी कम्युनिस्ट पार्टी की दसवीं कांग्रेस में इसी 'क्रांतिकारिता' को उन्होंने पार्टी में हर प्रकार की गुटबाजी का कारण बताया और कहा कि “गुटबाजी सबसे आसानी से वामपंथी कम्युनिस्टों के भेस में की जाती है ।”
गुटबाजी की लाक्षणिकताओं की व्याख्या करते हुए उन्होंने इसे 'एक दूसरे से अलग रहने और खुद के दल के अनुशासन को स्थापित करने की प्रवृत्ति' बताते हुए कहा था कि 'यह मिल-जुल कर काम करने में विघ्न डालती है ।'

अभी भारत की प्रमुख वामपंथी पार्टी सीपीआई(एम) की पार्टी कांग्रेस चल रही है । पिछले लंबे काल से इसी निम्न-पूंजीवादी क्रांतिकारिता के कारण इसमें गुटबाजी का असाध्य रोग लगा हुआ है । चार साल से तो पार्टी के महासचिव को ही पंगु बना कर रख दिया गया है । पार्टी की लगातार अवनति को उसकी क्रांतिकारी शुद्धता का प्रमाण बताया जाता रहा है । संसदीय जनतंत्र में काम करना है, फिर भी संसद में पार्टी की आवाज का लगभग खत्म हो जाना मंजूर था, लेकिन संसद के मंच पर सबसे प्रभावशाली समझे जाने वाले अपने नेता को कांग्रेस दल के बिना- शर्त समर्थन से संसद में भेजना मंजूर नहीं था । बहाना यह कि इससे किसी को भी दो अवधि से ज्यादा बार राज्य सभा में न भेजने का पार्टी का क्रांतिकारी शील भंग हो जाता और सर्वोपरि, कांग्रेस की तरह की पूंजीवादी पार्टी के संपर्क से पार्टी को 'नव-उदारवादी' छूत की बीमारी लग जाती !

बहरहाल, लेनिन के जन्म दिन के अवसर पर उनके लेखन के अध्ययन से हर किसी को राजनीति में यथार्थ-बोध की प्राथमिक शिक्षा जरूर ग्रहण करनी चाहिए । इस अवसर पर हम उन्हें गहरी श्रद्धा के साथ याद करते हैं ।



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